Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Wednesday, November 23, 2011

व्यंग्य : मेरे अंगने में ....

अमरनाथ उर्फ आशा देवी की अमर बनने की आशाओं पर उस वक़्त तुषारापात हो गया जब अदालत ने उन्हें मर्द घोषित कर दिया और उनसे महापौर का पद छीन लिया जो उन्होनें हिजड़ा बन कर हासिल किया था. पॉलिटिक्स में पुरुषत्व का महत्व है और पुरुषों का अधिपत्य है. यह नामर्दों का काम नहीं. खासकर उन मर्दों का तो बिल्कुल ही नहीं जो पॉलिटिक्स के लिये नामर्द तक कहलाने को तैयार हों, ये माना लोग देश सेवा के लिये बडे‌ से बड़ा त्याग करने को तत्पर रहते हैं. मगर 1857 से लेकर आज तक ऐसा कोई उदाहरण देखने में नहीं आया जबकि किसी ने अपनी मर्दानगी ही त्याग दी हो.
वैसे देखने में यह आया है कि अक्सर अच्छे खासे मर्द पॉलिटिक्स में जाने के बाद नामर्द बन जाते हैं. मगर वो अलग किस्सा है. कभी टिकट के लिये रोना, कभी पार्टी फंड के लिये रोन, कभी पार्टी प्रेसिडेंट के आगे घुटने टेकन, कभी सी.बी.आई. के आगे रोना, गिड़गिडाना. अच्छे भले घर से मर्द निकले थे बेचारे नपुंसक बन के रह जाते हैं.
यह अदालत का ऐथासिक फैसला है. कारण कि हिज़डे‌ खुश थे चलो अब उनकी भी भारत की राजनीति और सत्ता के गलियारों में सुनवाई हुई. अब ‘जैनुइन’ नपुंसक भी चुने जायेंगे. मगर देखते हैं कि इस क्षेत्र में भी घुसपैठ हो गई और मिलावट आ गई. समाज का कोई हलका बचा नहीं है जिसमें मिलावट न हो गई हो. अब आप ही बताइये ऐसे में हिजड़े कहां जायें. बच्चों के पैदा होने पर आपने पह्ले ही बंदिशें लगा दी हैं. हिजड़े बेचारे कभी राज़ा महाराज़ाओं के हरम के पहरेदार थे अब ट्रैफिक सिगनलों पर भीख मांगते फिरते हैं. मगर उसमें भी सुनते हैं बेरोज़गार लड़के हिजड़े बन उनके बीच आ घुसते हैं.
लव के लिये कुछ भी करेगा. वैसे ही पॉवर के लिये कुछ भी करेगा. आप बोलेगा हिजड़ा ? हम बोलेगा “ जी हज़ूर” आप पूछेंगे नपुंसक ? हमारा उत्तर “ बिलकुल ज़नाब ! हम तो खानदानी नपुंसक हैं, हमारा बाप भी नपुंसक था”
जब मध्य प्रदेश में पहला हिजड़ा एम.एल.ए बना था तो एक सुरसुरी सी छा गई थी देश के राजनैतिक क्षितिज़ पर. कमला सभी विरोधियों की मर्दानगी को रौंदती हुई जीती थी. पार्टी बॉसस के मुंह खुले के खुले रह गये. ये क्या हुआ ? अब हम क्या करेंगे ? मर्द लोग नामर्दों से हार गये. जनता ने अपना फैसला सुना दिया था. एक किन्नर ने बाकी सबको किनारे लगा दिया था.


अब न्यायालय ने आशा देवी को मर्द बता कर उसकी नामर्दी पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. नामर्द बनना कोई हंसी ठठ्ठा नही है. ये हर एक के बस की बात नहीं. ये इश्क़ नहीं आसां. आशा देवी अब अपील में जायेंगे या जायेंगी और अपने आप को ‘नामर्द’ घोषित कराने के भरसक प्रयास करेंगी या करेंगे. ठाकुर यह नामर्दी मुझे दे दे ...दे दे .. आखिर महापौरी का सवाल है. नही तो फिर और क्या रह जायेगा. वही ताली पीट पीट कर जचगी में नाचना गाना.

एक बार फिर नेताओं ने साबित कर दिया कि नामर्दों की उनकी दुनियां में मर्दों का कोई काम नहीं. वे नकली नामर्दों को ढूंढ ही निकालेंगे और फिर उनसे पूछेंगे “ मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है..?”






Tuesday, November 22, 2011

व्यंग्य: गोरों का बोझ

अमेरिका के जनाब रम्सफील्ड ने कहा है कि हम ईराक में जितना जरूरी है उससे एक दिन भी ज्यादा नहीं ठहरेंगे. वाह ! वाह ! क्या स्टेट्मेंट है. क्या ईमानदारी है. साफगोई तो कोई इनसे सीखे. तभी तो इन्होने इतने सारे खुशबू वाले साबुन चला दिये हैं ताकि आप सब भी साफ सफाई रखें. वे इतने सफाई पसंद हैं कि जिस बाज़ार में आप घुसे उसकी सफाई ही कर दी. कपड़ों के बाज़ार में घुसे तो तन से कपड़े साफ. नवयौवनायें अपने अंग प्रत्यंग साफ साफ दिखाने लगीं. उन्होने कह दिया है कि अगर कपड़े पहनने ज़रूरी ही हों तो हमारे अम्रीकी ब्रांड के पहनो. क्या पैंट-कमीज़ क्या कच्छे-बनियान. तुम्हारा दर्ज़ी और उसके बाल-बच्चे गये तेल लेने. कौन झिकझिक करे. नाप देने जाओ फिटिंग दो, ट्रायल दो, डिलीवरी के लिये चक्कर लगाते फिरो. हमारे शो रूम में घुसो और काऊ बॉय बनके बाहर निकलो. आप अपने आप को कितने ही फन्ने खां समझते रहो उनकी नज़र में आप बस तीन साइज़ों में मिलते हो—रेगुलर, लार्ज, एक्स्ट्रा लार्ज. चौथी कोई कैटेगरी ही नहीं. नॉट बैड.
श्री रम्सफील्ड जी वो ही रट लगाये हैं जो सौ बरस पहले तक अंग्रेज भारतीयों के लिये कहते आये थे. इन नालायक भारतीयों को इंसान बनाना हमारी ड्यूटी है. ये वाइट्मैंस बर्डन हैं. जैसे ही ये सभ्य और ठीक हो जायेंगे हम हिंदुस्तान छोड देंगे. देख लो छोड दिया. जैसे ही उन्हें लगा कि अब आम हिंदुस्तानी अंग्रेजी जानना- बोलना चाहता है व अंग्रेजी पढने के लिये भारी रकम और डोनेशन देने को तैयार है. यहां तक कि अपनी भाषा, संस्कार व साहित्य को हेय नज़र से देखने लगा है तो उनकी ड्यूटी पूरी हो गयी. बाद में सर ना उठा सकें इसलिये वो जाते जाते देश का बंटवारा भी कर गये कि बेटा अब उलझते रहो इसी में.
हिज एक्सीलेंसी रम्स्फील्ड ने वही कहा है जो उनके दादा परदादा विश्व में अपनी दादागिरी चलाने को कहते आये हैं. बेचारा अमरीका ..उस पर कितना बोझा है. कभी वियतनाम, कभी ईराक़. आराम नही है. पूरी दुनियां की जिम्मेदारी उसके ऊपर है. सब के ठीक करना है. सब को सभ्य बनाना है ताकि सभी पिज़ा, हाट डॉग और पेप्सी का सेवन करते रहें. निसंदेह अमरीकी अपने वायदे के मुताबिक ईराक़ छोड़ देंगे.बस जरा ये तेल के कुंओं और ठेकों की बंदरबांट हो जाये. आखिर ईराक़ का पुनर्निर्माण उन्ही का तो सिर दर्द है. तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना. मैं चला जाऊंगा ...दो अश्क़ बहा लूं तो चलूं ...सड़कें चिकनी हो जायें जिन पर आयतित कारें दौड़ सकें. शॉपिंग मॉल. कम्प्लेक्स, ओल्ड एज होम, अनाथालय, स्टेट ऑफ आर्ट तकनीक के अस्पताल बन जायें. केंटकी चिकन और पिज़ा होम बन जायें. डिस्को और मायकल जैक्सन चल जायें. जिस दिन आम ईराक़ी अपनी भाषा, साहित्य और संस्कारों और कुछ भी ईराक़ी से हेट करने लग जायेगा वो चले जायेंगे. वे इंतज़ार में हैं कि कब आदाबअर्ज़ की जगह आम अमरीकी हाय कहने लग जाये. खुदा हाफिज़ की जगह ‘कैच यू लेटर’ कहने लगे. बस ! लो कट टॉप और जींस जरा चल निकलें. रीबॉक और नाइक (या कि नाइकी) लोग बाग अपना लें.अरबी, फारसी बोलने वालों को ज़ाहिल तथा अंग्रेजी बोलने वालों को ज़हीन समझा जानेलगे.फिर उनकी ज़रूरत ही नहीं रहेगी. वो कह ही रहे हैं कि जितना ज़रूरी होगा उससे एक दिन भी बेसी वो ईराक़ में नहीं रहेंगे. वो वायदे के पक्के हैं. देखिये डेढ- सौ साल बाद जैसे ही काले अंग्रेज फील्ड में आये गोरे अंग्रेजों ने जहाज पकड लिया था कि नहीं. तब ? जैसे ही ईराक़ वाले अब्बा को डैड और अम्मी को मॉम कहने लगेंगे, अंकल सैम किसी और देश को आज़ाद और सभ्य बनाने को निकल पड़ेंगे. यू नो, बेचारे गोरों पर सचमुच ही बहुत बोझ है. डोंट यू थिंक सो ?






Monday, November 21, 2011

व्यंग्य: भैंस तेरी यही कहानी

रंग भेद की नीति पहले अफ्रीका में जोर शोर से थी. आज यह नीति अफ्रीका में मृत प्राय: है. हमारे देश में भी सदियों से रंगभेद जारी है. हम मानते नहीं हैं मगर प्रैक्टिस करते हैं क्यों कि हम विश्व में हिपोक्रेट नम्बर वन हैं. अन्यथा आप ही बताईये जहाँ चूहों का मंदिर हो, सांप की पूजा होती हो, बिल्ली मौसी हो, बंदर मामा हो, गाय माता हो और मोर से छेड़छाड़ राष्ट्रीय अपराध हो वहां भैंस को ना कोई पदवी-उपाधि ना कोई मंदिर चौबारा. क्या सिर्फ इसलिये कि वह काली है. वह कब से आपकी इस रंगभेद नीति का शिकार है मगर फिर भी चुपचाप आपको दूध दिये चली आ रही है. आप उसे इंजेक्शन लगा लगा कर उसके दूध की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेते हैं. उसे गंदगी में रखते हैं. रूखा-सूखा खाने को देते हैं और नहीं तो वह पॉलीथिन बैग ही खाती फिरती है.
किसी समाज की भाषा व साहित्य उस समाज का दर्पण होता है. हिंदी भाषा तथा लोक साहित्य में जो मुहावरे व लोकोक्तियां हैं वह भी भैंस के साथ पक्षपात करती हैं. न्याय नहीं करतीं.

जिसकी लाठी उसकी भैंस : अरे भई अब लठियों का ज़माना नही रहा. किस सदी में जी रहे हैं आप. अब तो टाइम है मानव बम का, ए.के. 47 का. लाठी तो अब केवल कुत्ते-बिल्ली को डराने-धमकाने के काम आती है. यह कहावत भैंस के साथ अन्याय है और उसे ‘पूअर लाइट’ में रखता है. नवीन मुहावरा होना चाहिये ‘जिसकी ए.के.47 उसका इंडिया 1947’ आप अपने दिल पे हाथ रख कर बताइये क्या यह अधिक प्रासंगिक नहीं .

भैंस के आगे बीन बजाना : दूसरा मुहावरा है, यह भैंस का सरासर अपमान है. षड्यंत्र यह है कि कैसे भैंस को अन्य तथाकथित अभिजात्य पशु-पक्षियों से नीचे दिखाया जाये. आप साबित क्या करना चाहते हैं कि भैंस संगीत प्रेमी नही है. ललित कलाओं का उसे कोई ज्ञान नहीं है. वह फूहड़ है. बच्चू याद कीजिये उसी का दूध पी-पी कर आप इतने बढे हुए हैं.

यह रीति पुरानी है जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो. आज भी नव माताएं भैंस का ही सहारा लेती हैं ताकि उनकी ‘फिगर’ बनी रहे. भैंस का क्या ? वह तो ‘डिस फिगर है ही और यदि भैंस के आगे बीन बजा बजा कर आपको वाह-वाही नहीं मिली तो जाईये किसी और के आगे बजाईये और लिख दीजिये उसका नाम आखिर भैंस ने आपसे कहा नही कि “ हे बीनवादक ! अपनी बीन सुनाओ” वैसे भी आज आपकी बीन सुनता ही कौन है. रेडियो, टी.वी वाले भी रात को साढे‌ ग्यारह बजे से पहले का टाइम नहीं देते ताकि तब तक सब सो जायें.

काला अक्षर भैंस बराबर : भई ये तो हद ही हो गयी यानी कि भैंस अनपढ‌ है. पहले तो आप उसे पढ़ने लिखने ना भेजें , उसे बाहर किसी से मेल-जोड‌ बढाने ना दें जो कि उसका ज्ञान-ध्यान बढे. फिर आप उसे जाहिल गंवार कहें. वैसे भी आप बताईये और किस जानवर ने कितने डिग्री डिप्लोमा पास कर लिये जो बेचारी भैंस के पीछे पड़े हैं. आप भूल रहे हैं कि भैंस तो भैंस भारत में मनुष्यों का कितना प्रतिशत साक्षर है. फिर भैंस के साथ ही यह बे-इंसाफी क्यों ? है कोई जवाब आपके पास. एक तो आपको दूध दे, ऊपर से आपके टौंट भी सुने. भैंस दूध देना बंद कर दे तो बच्चू सब सिट्टीपिट्टी गुम हो जायेगी. बताईये फिर आप किस बी.ए. पास जानवर का दूध पीना चाहेंगे ? शेरनी का ? जो आपको बाल्टी समेत खा जायेगी.

हो ना हो ये कोई ‘हाई लेवल’ का ‘प्लाट’ है अन्यथा आप ही सोचिये कि भैंसा जो कि यमराज की सवारी है वह चाहता तो किस की मजाल है जो भैंस को टेढी आंख से भी देखे. किसी दिन जब यमराज मूड में होते धीरे से कह देता कि “सर वाइफ को थोडा प्राब्लम है” मगर नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ. पता नहीं यह क्या चक्कर है. जिसका हसबैंड इतनी ‘एप्रोच’ वाला हो उसकी मिसेज को ये दिन देखने पडें. कभी मुझे लगता है यह कहीं डाइवोर्स या सैपरेशन का मामला ना हो. भैंस भी स्वाभिमानी है उसने ‘मेंटीनेंस’ लेने से इंकार कर दिया हो “ जा हरज़ाई मैंने तुझे हमेशा हमेशा के लिये भुला दिया”

भैंस को इतना ‘नेगलेक्ट’ कर रखा है कि कोई चुनाव चिन्ह के तौर पर भी भैंस चुनाव चिन्ह नहीं रखता. क्यों ? गाय, बैल, बछडा, हाथी, घोडा यहां तक कि गधा भी चुनाव चिन्ह है. तो महाराज आप ‘कनविंस’ हुए कि नहीं कि भैंस के साथ सदियों से दुर्व्यवहार हो रहा है. समाज में उसे उचित स्थान दिलाने के लिये उठ खड़े होइये.



"हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में


इन्साफ हमारा नारा है"



अब वक़्त आ गया है कि भैंस को उसका ड्यू दिलाया जाये. सर्वप्रथम तो उसे भाभी, चाची, ताई, दीदी या जो भी अन्य आदर सूचक रिश्ता उससे नवाजा जाये. मेरी गुहार है ‘एनीमल सोसायटी’ वालों से कि इस ज्वलंत विषय पर तुरंत ध्यान दिया जाये. यह काम इलैक्शन से पहले ही निपटा लिया जाये नहीं तो इलैक्शन कोड के चलते आप बंध जायेंगे. मैं नहीं चाहता कि इस सेंसिटिव विषय को और विवादास्पद बनाया जाये. पहले ही क्या विवादों की कमी है. क्यों कि बात नहीं बनी तो फिर आप लोग ही कहेंगे कि गई भैंस पानी में.














Sunday, November 20, 2011

व्यंग्य: कस्बे के नेता की बरसी

हमारे कस्बे के नेता पिछले बरस किसी रहस्यमय बीमारी से चल बसे थे. कुछ लोग बताते हैं कि वे मुम्बई गये थे वहां बलबीर पाशा के विज्ञापन से वे बहुत प्रभावित हुए. खोजी तबियत के थे अत: विज्ञापन की तह में चले गये और पूरी जानकारी फर्स्ट हेंड ले कर ही लौटे थे. आते ही खाट पकड़ ली. खाट ऐसी पकडी‌ कि छोडी तो दुनियां ही छोड़ दी. कस्बे का और नेता का नाम बदनाम ना हो अत: बात दबा गयी. आज इन्हीं का जलसा है. पहले इनके प्रतिद्वंदी रहे एक नेता बोलने उठे. वे सूखाग्रस्त क्षेत्र की गाय से मरियल थे मगर वाणी में ओज़ था. वो चीखे “ बहुत ही काबिल इंसान थे राम खिलावन मेरे तो उनसे सन सैंतालीस से मधुर सम्बंध थे” किसी ने पीछे से कहा आप तो यूथ कांग्रेस के जलसे में पिछले माह अपनी आयु उनतीस बरस बता रहे थे, फिर सन सैंतालीस से मधुर सम्बंध कैसे हो गये. उन्होने तुरंत बात सम्भाली ये दिल की बातें हैं हमें वो बहुत मानते थे. आप सन सैंतालीस की बात कर रहे हैं ... भैया राम खिलावन तो हमसे अक्सर कहते थे “ किसन सरूप हमारा-तुम्हारा पिछले जनम का रिश्ता है. हम तो दो प्रान एक तन.. नहीं नहीं दो तन एक प्रान थे.” पिछले चुनाव में जब उनकी जमानत जब्त हुई रही तो रोते हुए बोले थे किसना मैं हार गया इस सामंती व्यवस्था से. इस भूमंडलीकरण से. जमानत के पैसे तुमसे ही लिये थे बोलो कब दें. हम कहे “ दद्दा ! हमारे और आपके पैसे में कोनी फरक है क्या. आज कही सो कही. अब कभी हम दोनो के बीच पैसे की बात नहीं आनी चाहिये. वो बात के धनी निकले. मरते दम तक ना उन्होने जमानत के पैसे दिये ना दुबारा बात ही छेड़ी.
पिछले साल मेले में नासिक गये रहे. हमें देवलाली छोड़ वे मुम्बई घूमने गये. सुने रहे कि मुम्बई में किसी लाली-डाली के पास पार्टी और अपने हाथ मजबूत करने वास्ते डिस्कस को गयले रहे. लौटे तो खून की कै करते. मैं तो कहता हूं ये लाली-डाली कोई विपक्ष की एजेंट रही होगी. हम चाहते हैं कि रामखिलावन जी की असामयिक मौत की सी.बी.आई. से जांच कराई जाये. सरकार हमारी सुन ही नहीं रही है. बैंक घोटाले, शेयर घोटाले के चलते टाले जा रही है . यदि आप चाहते हो कि बाबू राम खिलावन की मौत की निष्पक्ष जांच हो उर दोसियों को सज़ा मिले तो भाईयो और बहनों अगले चुनाव में हमें दिल्ली भेजिये.हम दिल्ली की ईंट से ईंट बजा देंगे. सरकार सीतापुर की जनता के अबला ना समझे. सीता मैया ज़मीन में समा गयी होंगी. हम तो सरकार हो या विपक्ष ससुर की टांग पर टांग रख कर चीर देंगे. ( अभी टिकट तय नहीं है कि कौन सी पार्टी देगी ) ये जो आतंकवादी ससुरे संसद में घुसे रहे हम वहां रहे होते तो कोनी घुस पाते ? बताईये ? आप ही बताईये ? सभी बोले “ नहीं ...कतई नहीं “ ऐसे नहीं आप सब लोग अपने अपने हाथ उठा कर कहिये राम खिलावन जी की मौत की सच्चाई उजागर करने हमें.... आपके अपने किसन सरूप को मिट्टी पकड़ को जरूर ही जितायेंगे. आप जान लीजिये कि आज देस पर कितना बडा संकट मंडरा रहा है. आप क्या सोचते हो ? ये लोग हमारे हिरन-चीतल मार रहे हैं. हम चुप रहे . पेड़ काटे रहे, हम खामोश रहे. नदियों का पानी बोतलों मे बेचे रहे हम कुछ नहीं बोले पर अब पानी सर के ऊपर हो गया है. आप समझते हो कि अमरीका ईराक के बाद चुप बैठेगा. नहीं. इतिहास गवाह है देस पर सभी हमलावर क्या मुहम्मद गौरी, क्या सिकन्दर, क्या ये आतंकवादी सभी एक ही रास्ते से अंदर आये रहे. हमें ये रास्ता बंद करना है. अगर आप चाहते हो हमार धरती मैय्या पर ये अमरीका वाले नहीं आयें तो हमें वोट दें. आप भूल गये क्या ? अभी 40 बरस पहले अमरीका सातवां बेडा भेजा रहा तो हम ही ना सिस्ट्मंडल ले के दिल्ली गये थे. बाद में ये मंडल बहुत लोकप्रिय हुए रहे और देस के यूथ को नयी दिसा दिये रहे

तो भाईयो ! अगर आप चाहते हो कि आपके भाई-भतीजा, साला-साली, छोरा-छोरी पढे-लिखें, सरकारी नौकरी पायें...बड़ा बड़ा कुर्सी पर बैठें... ऊंच-ऊंचा ओहदा पायें तो हमें आपके अपने मिट्टी पकड़ को अपना कीमती वोट दें. हमें राम खिलावन जी की मौत का बदला लेना है.

जब तक सूरज चांद रहेगा....राम खिलावन तेरा नाम रहेगा......राम खिलावन अमर रहें...देस के नेता किसन सुरुप.... किसन सुरुप तुम संघर्ष करो... हम तुम्हारे साथ हैं...किसन सुरुप ज़िंदाबाद.










Saturday, November 19, 2011

व्यंग्य: खुला पत्र वीरप्पन के नाम



( यह पत्र  तब लिखा था जब वीरू भैया ने सबकी खाट खड़ी कर रखी थी )







आदरणीय वीरु भैया

सादर प्रणाम

जब से आपके चर्चे हर अखबार और हर न्यूज चैनल पर आने लगे हैं, हमें सच मानिये, बहुत ‘खुशी’ हो गयी है, हमारा दिल गार्डन—गार्डन ... नहीं ..जंगल ..जंगल हो गया है और चंदन की तरह महक रहा है. हमारे वीरु भैया ने आखिर ‘सम्भव’को ‘असम्भव’ कर दिखाया है. ‘ कर्नाटक’ वाले नाटक कर रहे हैं आपको पकड़ने का. मगर आप उनके हत्थे नहीं चढ़ रहे हैं बिल्कुल राबिन हूड की तरह. आपकी लीला नगरी कुंज वन है. कन्हैया की लीला नगरी भी कुंज वन ही थी. ना कन्हैया की लीला जनसाधारण की समझ में घुसी ना आपकी घुस पा रही है. बडे‌ लोगों की बातें, बडे लोग ही जानें. आज तक कृष्ण कथा सुना सुना कर लोगों को समझाने का प्रयास जारी है. वैसे ही आने वाली पीढि‌यां आपका गुण बखान करेंगी. बस एक ही अंतर है कन्हैया ने कुंज वनों में बंसी बजाई थी आप बांस ( चंदन ) काट रहे हैं और कर्नाटक की खाट खडी- किये हैं.

इधर तमिलनाडु में भी आपको पकडने के प्रयासों का जोर शोर से प्रचार किया जा रहा है. आप तनिक भी विचलित ना होना. ये आप तक हरगिज़ नहीं पहुंच पायेंगे. आपकी मूंछ का एक बाल भी बांका ना होगा. ऐसी मूंछें मुझे तो याद नहीं पड़ता. भारत क्या विश्व इतिहास में किसी दूसरे महापुरुष की रही हों. आप तो मूंछों के बल पर ही गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में आ जायेंगे. जितना पुलिस, अमला और गोला बारूद इन्होने आपको पकड़ने में वेस्ट किया है उतने से तो कर्नाटक के गांव-गांव, वन-वन में बिजली पहुंचाई जा सकती थी.

मुझे लगता है कि आपने बिल्ली-चूहे की रोटी वाली कहानी जो बचपन में हम सब सुनते हैं और मर्म जाने बिना भूल जाते हैं को अच्छी तरह आत्मसात कर लिया है. तभी तो तमिलनाडु और कर्नाटक की आपस की लडाई में आप खूब रोटियां तोड़ रहे हैं. कई बार मुझे लगता है कि आजकल के भूमंडलीकरण के टाइम पर आपको अपना एक वीरप्पन ब्रांड पेटेंट करा लेना चाहिये जैसे वीरप्पन ब्रांड दूरबीन, वीरप्पन ब्रांड मूंछें, वीरू राइफल, वीरु केसेट, वीरु घड़ी, वीरू टेप रिकार्डर, वीरू विस्की,मुझे पता नहीं आप शौक करते हैं या नहीं मगर इस से क्या ? हमारे स्टार लोग कितने ऐसे तेल, साबुन की माडलिंग करते फिरते हैं.


अब वक़्त आ गया है कि आप खुलकर सामने आ जायें. पहले तो एक खादी का धोती-कुरता बनवा लें. धोती-कुरता ना सही तो कुरता पाजामा तो कम्पल्सरी है. ये नंगे बदन माडलिंग तो चल सकती है, नेतागिरी नहीं चलेगी. वैसे भी अब ये गांधी का भारत तो रहा नहीं. इससे याद आया आप कोई मच्छर भगाने वाली क्रीम का एड भी कर सकते हैं. इन अभागों ने आपका कोई ‘फुल लेंथ’ फोटो नहीं लिया है. जिससे पता चलता कि आप किस कम्पनी के ब्रीफ, पतलून, मोजे, जूते पहनते हैं. आपका मनपसंद मोबाइल कौन सा है. किस ‘मेक’ की बाइक आप इस्तेमाल करते हैं. आप कौन सा मिनरल वाटर पीते हैं. आपकी पसंद कौन फूड है—इटैलियन, थाई, या चाइनीज और कौन सा रेस्टोरेंट आपका ‘फेवरिट’ है. आप झटपट अपना एक पोर्टफोलियो बनवा लें और एक अच्छा सा मैंनेजर-कम-सेक्रेटरी-कम- मार्किटिंग एक्ज्युकिटिव नियुक्त कर लें. जो आपकी नेट वर्थ बतायेगा. और आपको इंटरनेशनल बनवा देगा.


आपने फिर क्या सोचा है. राजनीति में कदम रखेंगे या फिल्मों में ? दोनो जगहों की ज़रूरतें एक सी हैं. दोनों में अंतर बहुत कम है. देखो जी जब तो फिल्मों में आना हो वीरू नाम बहुत माकूल है . एक्टर, डाइरेक्टर, प्रोडुसर, राइटर, विलैन.... आल इन वन ...वीरू पेश करते हैं वीरप्पन इंटरनेशनल का ‘ चंदन का तस्कर’, ‘जंगल में चंदन’ ‘चंदन मेरी बाहों में’ ‘ हाथी का हत्यारा कौन ?’ ‘ दो आंखें बारह दांत’ मुझे यक़ीन है कि ये फिल्में बाक्स ऑफिस पर बाकी सब फिल्मों को पीछे छोड- देंगी.

और जब पॉलिटिक्स में आना हो तो आप आकर तो देखो... छा जाओगे..छा. आप देखोगे यहाँ तो पेड़ काटने की ज़रूरत ही नहीं बल्कि पेड़ लगाने के प्रोजेक्टों में ही आप चांदी काटने लगोगे.

मैं तो कल्पना कर रहा हूँ माननीय वीरप्पन जी वन मंत्री . फिर देखना जो वनों की ओर कोई टेढी- आंख से भी देख सके. जो वनों की देखभाल ठीक से ना करे या उन्हें नुकसान पहुंचाये उसी आदमी के दांत निकलवा लिये जायें. आपको तो तज़ुर्बा भी है. फिर देखना वन-वन आपका ही नाम गूंजेगा. ऐसा वन मंत्री... ना भूतो... ना भविष्यति. आपके आगे कोई जंगल में छिपने की हिमाकत नहीं कर सकता. आप फौरन उसे ऐसे पकड‌ लेंगे जैसे बच्चे आपस में आइस-पाइस के खेल में एक-दूसरे को पकड़ लेते हैं. बढा मज़ा आयेगा. आपका कैबिनेट रेंक तो पक्का है. वन मंत्री ...अतिरिक्त भार पशु कल्याण. थोडे‌ लिखे को बहुत समझना और इस सेवक को डेपुटेशन पर लेना ना भूलना.



आपका शुभचिंतक



पुनश्च: रिवाज़ के मुताबिक मैं इस पत्र की एक प्रति प्रेस को भी लीक कर रहा हूँ. प्लीज माइंड मत करना.









Friday, November 11, 2011

Adieu Blackie





My parents in Delhi found a puppy wagging her tail at our doorstep early in the morning. My mother gave shelter and food to her and Blackie (so named, after her jet black shining beautiful coat) rest as they say is a history. Blackie was to become our family member..(That was about 15 years back). Few years back, she developed severe arthritis, my mother got worried, as worried as a mother could get, we all brothers were frantically looking for cure. I was surfing net and zeroed on to a vet in Delhi itself specializing in her ailment. My mother refused to go out of Delhi as her love for Blackie was turning in obsession, no sooner she would board a train she would start worrying about her. Her visits to us in Mumbai were always cut short, courtesy Blackie. Her condition deteriorated. Vet would discourage and break my mother’s heart “Aunty she is now hundred years old”…. During her serious illness days my mother, herself in her seventies, would lift Blackie in her lap and take her to nearby Park so that she could relieve herself. By and by, Blackie gave up food and would lie still for days together. Vet’s visits were proving futile. She would stare blankly at my mother and visitors. During her last days night long she will cry in pain. Fearing her plight during Delhi’s Diwali, senseless crackers / bomb spree, also responding to neighbors growing complaints and lastly on our persuasion, she reluctantly agreed to take Blackie to her final journey (euthanasia). Later, my mother sobbing inconsolably, gave heart rending account… when Vet made Blackie lie on the table for giving that lethal injection…Blackie turned her neck for the last time, and gave my mother such looks that my mother could not bear to look into her eyes and rushed out of clinic…crying all the way back home…..She did not eat for several days and this year (2011) no Diwali for her.

Thursday, October 27, 2011

व्यंग्य : सार्स मुक्त देश

ऐ जी... ओ जी...लो जी..सुनो जी ! हमारा देश सार्स मुक्त हो गया जी. अखबार में बड़ी बड़ी हेड लाईन्स छपी हैं. देश में सार्स का एक भी मरीज नहीं. पढ़ कर तबियत खुश हो गयी. दिल बल्लियों उछलने लगा. ये चीन, हॉंगकॉंग सिंगापुर वाले बडा अपने आप को समझते थे. हम फ्री पोर्ट हैं, हम अमीर हैं, प्रति व्यक्ति आय जबरदस्त है. नाइट लाइफ है. पर्यटन का केद्र है. देख लिया नतीजा. एक सार्स ने सबको चारों खाने चित्त कर दिया. मुझे तो ऐसा लग रहा है मैं नाचूं गाऊं पार्टी दूं. हमारा देश सार्स मुक्त हो गया. तुमने क्या समझा था हिंदुस्तान को. ठीक है हम गरीब हैं, हमारी हर राज्य-सरकार उधार ले कर घी पी रही है. हम कामचोर हैं.हम भ्रष्ट हैं. रिश्वत लेते हैं. मगर इस से क्या ? सार्स से तो मुक्त हैं.







हम में हज़ारों ऐब सही, तुम से तो बेहतर हैं. तुम्हारे देश में लोग सार्स से लदर-पदर मर रहे हैं. मेरे देश में कोई मरा ? जो भी मरा वो या तो भुखमरी से मरा या पेड़ से लटका कर मुहब्बत करने की सज़ा बतौर समाज के ठेकेदारों ने मारा या फिर आतंकवादियों की गोली का शिकार हुआ.






माना कि मेरे भारत महान में लोग  भूख से मरते हैं. भूख से भी कहाँ वे तो कुपोषण के चलते मरते हैं. अब बेलेंस डाइट लेते नहीं हैं अतः कुपोषण का शिकार हो जाते हैं और इन मीडिया वालों को तो बस मौका मिलना चाहिये. दरअसल ये सब मीडिया की चाल है. पिछ्ले दिनों माननीया मुख्यमंत्री जी ने कहा ही था “ ये अखबार वाले ना जाने क्या क्या मनगढ़ंत छपते रह्ते हैं. इतना भव्य सचिवालय है, राजधानी में हर चौराहे पर म्युजिक बजाते रंगीन फुव्वारे हैं. कारें, सड़्कें, बार-डिस्को हैं, पर इन्हें कुछ नहीं दिखता सिवाय भुखमरी के. कितना गलत और ‘बायस्ड’ आकलन करते हैं.






देश सार्स मुक्त हो गया है. मैं चाहता हूँ इसी खुशी में सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया जाये. सार्स मुक्ति दिवस. जब देश में तरह तरह के दिवस मनते हैं तो एक ये भी सही. आप क्या सोचते हो. इस से हमारी उत्पादकता कम हो जायेगी. आप हमारी अन्य किसी भी क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं मगर उत्पादकता पर नहीं. हमारा लेटेस्ट स्कोर ये लेख लिखे जाने तक एक सौ दो करोड़ सत्तर लाख पंद्रह हज़ार दो सौ सेनतालीस नॉट आउट है. मेरा दिल कर रहा है कि मैं अमिताभ की तरह सबको कहूं “ चलो हो जाओ बे शुरु “ और “..शाबा.. शाबा “ कह के नाचने लगूं.






सरकार को चाहिये कि ऐसे मैं मध्यविधि चुनाव घोषित कर दे. सार्स के चलते बहुमत से जीतेगी. मेरा दावा है. “ गरीबी हटाओ” ने एक चुनाव जिताया ही था. आपको याद होगा वह भी मध्यविधि चुनाव ही था. एक चुनाव सार्स मुक्ति के नाम से भी सही. हमने सारे तथाकथित विकसित देशों को ठेंगा दिखा दिया है. बच्चू रोते रहो रोना. हम तो सार्स मुक्त हो गये. दहेज प्रथा, जातिवाद, बे-रोज़गारी, बाल-मज़दूरी इन सब से तो बाद में भी निपट लेंगे. फर्स्ट थिंग फर्स्ट. सार्स को ऐसी पटखनी दी कि सार्स सीमा छोड़ के ये जा वो जा.






मंत्री जी का काफिला कितना मनमोहक लग रहा था. सब नक़ाबपोश वेताल की तरह लग रहे थे.जिस तरह जब वेताल गोली छोड़ता है तो आंखें देख नहीं पातीं (पुरानी जंगली कहावत) सार्स भी वेताल की गोली कि तरह पलक झपकते ही देश छोड गया. कुछ लोग जो हवाई अड्डों और अस्पताल में पडे थे सार्स मुक्त होने से बड़े मायूस हुए. इतने दिनों से टी.वी पर दिख रहे थे. वी. आई.पी. बने हुए थे. अब कोई कौडियों के मोल भी नहीं पूछ रहा है. यही बाज़ारवाद है. अब वे खबर नहीं. खबर ये है कि देश सार्स मुक्त हो गया.










मुझे इंतजार है उस दिन का जब अखबार की हेड लाईंस कहेंगी देश आतंकवाद से मुक्त हो गया, देश साम्प्र्दायिकतावाद से मुक्त हो गया. राम जन्म भूमि विवाद से मुक्त हो गया. भुखमरी-बेरोज़गारी से मुक्त हो गया. बाल मज़दूरी से मुक्त हो गया.






जब अखबार वाला इन हेड लाईंस का अखबार मेरे घर डाल के जायेगा वो सुबह कब आयेगी ?

Monday, October 24, 2011

कांटा लगा ....



कांटा लगा.. कांटा लगा... करके एक गाना बहुत देख-सुना जाता रहा है. देखा ज्यादा गया सुना कम. इस में एक भारतीय नाबालिग सी बाला बार बार कांटा लगा..कांटा लगा चिल्ला रही है. मटक रही है और सिसकारियां भर रही है. इस से दो बातें निकल के आती हैं. एक, मैंने कभी किसी कांटे लगे इंसान को ऐसे नाचते-गाते, मटकते और सिसकारियां भरते नहीं देखा है. या तो अगला रो रहा होता है या फिर डॉक्टर के पास ले जाया जा रहा होता है. दूसरे, लड़की गा रही है कांटा लगा. कांटे अक्सर पांव में लगते हैं. मजे की बात यह है कि पूरे गाने में सिवाय पांव के उस्ने अप्ने लगभग सभी अंग दिखा दिये हैं. हैं भई ! ये ससुरा कांटा लगा आखिर लगा कहाँ है ? और अगर पैर में नहीं लगा है तो जहाँ लगा है वहां ये पहुंचा कैसे ? शोध का मुद्दा है. या फिर कहें कि अगले री-मिक्स का मसाला है. ये री-मिक्स का ज़माना है. पिछ्ले दिनों पदमश्री नीरज की एक कैसट मार्किट में पूछी तो सेल्समैन ने पलट कर पूछा “ नया री-मिक्स है क्या ?” अब वो दिन दूर नहीं कि पुराने वे सभी जिन पर कभी जनाब नौशाद और साहिर को नाज़ रहा हो, उनके री-मिक्स मार्किट में उतरेंगे. गीतों की ऐसी भद्द पिटेगी कि नौशाद और साहिर क़ब्र में करवटें बदलेंगे. लता दीदी त्रस्त हैं कि उनके सीधे-सादे गाने की क्या गत बना दी है. “ओम जय जगदीस हरे” से लेकर “अल्ला तेरो नाम..ईश्वर तेरो नाम..” सभी गानों,भजनों कव्वालियों के रीमिक्स हमारा बॉलीवुड दे सकता है. कौन कहता है कि बॉलीवुड में मौलिक प्रतिभा और रचनात्मकता की कमी है. हां तो बात कांटे की हो रही थी. नायिका के पांव में आखिर कांटा लगता ही क्यों है. क्या बात है वो चप्पल नहीं पहनती या फिर चप्पल इतनी नाज़ुक है कि कांटा चप्पल चीर के पांव में आन घुसता है और उसे नाचने गाने पर विवश कर देता है. 








ये नायिका को क्या पडी है जो नंगे पांव ही दौडे‌ जाती है. अगलों ने भी ना जाने कितने गाने पांव पर ही लिख मारे हैं. “पांव छू लेने दो ..” से लेकर ‘सैय्यां पडू‌ पैय्यां...” तक गाडी आन पहुंची है. आगे आप समझदार हैं. कल्पना कर सकते हैं. यूं आगे आगे आपकी कल्पना के लिये अगलों ने कुछ छोड‌ना नहीं है. सब कुछ उघाड़ देना है.






सुश्री एश्वर्य राय के पांव में जब हेयर लाइन फ्रेक्चर हुआ था तो लाखों चाहने वाले अपने अपने हेयर नोंच रहे थे और एश्वर्य राय को अपनी अपनी राय देना चाहते थे. चूंकि मिस राय उनकी ताल से ताल नहीं मिला रही थीं चुनांचे वे एश्वर्य के लिये ईश्वर से दुआ कर रहे थे कि वो जल्दी से जल्दी ठीक हो कर डोला रे डोला पर नाचने लगें. जल्द ही जेम्स बॉन्ड भी बच्चू अपनी सारी जासूसी भूल कर ऐश्वर्य के इर्द गिर्द पेडो के आगे पीछे अगली फिल्म में दौड़्ता नज़र आयेगा. 







पांव का हमारे देश में महत्वपूर्ण स्थान है. नायिका के नख-शिख वर्णन से लेकर पांव गलत पडे‌ नहीं कि भारी हुए नहीं. सर पर पांव रख कर भागना. अब आप ही बताइये जब पांव सर पर ही रख लेंगे तो भागेंगे काय से ? जाके पांव ना फटी बिवाई ... पूत के पांव आदि ना जाने क्या क्या.क्या.पांव पूजे जाते हैं. पांव बिछुए, मेहंदी महावर से रचाये-सजाये जाते हैं. पांव के महत्व को स्वीकारते हुए ही बाटा ने ये जिम्मेवारी अपने सर पर ली थी कि पूरे विश्व को चप्पल- जूते हम ही पहनायेंगे. बाटा को टाटा कह्ने की पूरी तैयारी के साथ अब बहुत सी कम्पनियां भी इस मैदान में आ कूदी हैं. करोडो‌ अरबो‌ का व्यवसाय है ये. पर कांटा है कि फिर भी लग जाता है और नायिका को नाचने पर विवश कर देता है.ये कांटा है...पैसा है...या फिर मश्हूर होने की अनबुझ प्यास है.पह्ले कहते थे कि ये कुछ नहीं जनरेशन गैप है या पिछ्ली पीढी का रोना है. मुझे तो लगता है कि हम लोग एलबम टू एलबम बूढे होते जा रहे हैं और बच्चे एलबम टू एलबम एडल्ट.

Saturday, October 22, 2011

मेरा भारत महान ओ याह

सुनने में आया था कि एक पेरेंट टीचर्स एसोसियेशन की बैठक में पेरेंट टीचर्स की तू तू मैं मैं इस कदर बढ गयी कि टीचर्स ने स्कूल की छत पर चढ पेरेंट्स पर पत्थर बरसाने शुरु कर दिये. मॉ बाप जैसे तैसे जान बचाकर भागे. कई पेरेंटो के सिर फट गये. टीचर्स ने कहा पह्ले हमने तुम्हारी जेबे फाडी, अब खोपडी फाडी. सरदार मैंने आपका नमक खाया है. ले अब गोली खा. मैं कहुंगा टीचर्स ने बहुत अच्छा किया. ये पेरेंट हैं ही इस लायक. बच्चो को अंग्रेजी स्कूल में भी पढाना चाहते हैं मगर इंटरव्यू और फीस देने में आनाकानी.प्यार करते हो शेरी से और दूध लाते हो डेरी से.







जिस तरह झोंपडी वालो का एक ख्वाब होता है कि एक अदद पक्का मकान बन जाये. उसी तरह ‘हम लोग’ जो सर्कारी स्कूल में टाट-पट्टी पर टेंटो के नीचे बैठ कर पढे और पले बडे हैं हमारे मन में एक कसक रह जाती है कि अपना पेट काट कर भी बच्चो को अंग्रेजी स्कूल में पढाना है. व्यवस्था बदलने से कही‌ आसान काम है व्यवस्था से बद्ला लिया जाये. कोई गुड से मरता हो तो उसे जहर क्यो दिया जाये. आप भी कुछ लेते क्यो नही.






आज की तारीख में अंग्रेजी स्कूलो के लिये ऐसे भगदड मची हुई है जैसे पिछ्ले दिनो शहर के एक अस्पताल में देखने को मिली थी. हुआ यूं कि शाम को जब मरीजो से मिलने का समय था और मरीज लोग आं..आं..हाय मरा...हाय...कराह रहे थे और उन से मिलने वाले उन्हें मौसमी, सेब और सांत्वना दे रहे थे तभी अचानक किसी ने खबर उड़आ दी कि अस्पताल में बम है. बस फिर क्या था आनन-फानन में सब दौड़ पड़े. मरीज पलस्तर लगाये ही भाग छूटे. कई ग्लुकोज की शीशी समेत दौड़े जा रहे थे. कई मरीजों के तो मिलने वाले भी पीछे छूट गये और मरीज लोग ये जा वो जा.घर जा कर ही दम लिया. जान सलामत रहे अस्पतालों की क्या कमी है. जान है तो जहान है.बस इसी तरह हम लोग अंग्रेजी स्कूलों पर टूट पड़े हैं.अंग्रेजों से दो सौ साल की गुलामी और अत्याचारों का बदला ले रहे हैं. तुम अंग्रेज अंग्रेजी और गोरी चमड़ी के बल पर हमारे माई बाप बने रहे. अब हम ब्राउन माई बाप अपनी पीडियों को अंग्रेजी पढाते है ताकि दे केन टाक इंग्लिश..वाक इंग्लिश..एंड लाफ इंग्लिश.






अभी पीछे मैंने किसी किताब में पढा था कि सिकन्दर अपनी सेना ले कर भारत से क्यों चला गया. कह्ते हैं कि यहां की महंगाई देख कर उस के सिपाहियों के होश उड़ गये. वे भागे भागे सिकंदर के पास गये कि हम इन्हें लूटने आये थे ये तो हमें ही लूटे ले रहे हैं और कुछ दिन रहे तो यहाँ के दुकानदार हमें कंगाल ही कर देंगे. सिकंदर भी समझ गया कि इस से पह्ले कि सैनिक बगावत कर दें यहाँ से भाग जाने में ही समझदारी है. है.इस तरह समय रह्ते अप्ने सैनिकों की जान-माल कओ बचा ले जाने के कारण ही उस्का नाम सिकंदर महान पड़ गया. बाद में इतिहासकारों ने इस में पोरस के डायलॉग जोड़ के लीपापोती कर दी. सच तो ये है कि सिकंदर को योद्धाओं ने नहीं बल्कि दुकानदारों ने हरा दिया.






आप को तो पता ही है कि आजकल लोग नॉन रेजिडेंट इंडियन बनने की चाह में भाग भाग कर दूसरे देशों में सेटल हो रहे हैं. क्यों कि उनका कह्ना है कि ये स्कूल वाले ब्राउन साब हमें लूटें इस से तो अच्छा है कि गोरों के हाथों लुटें. इस में भी एक स्टेटस सिम्बल होता है. जो आधुनिकता से करते प्यार वो अंग्रेजी से कैसे करें इंकार. गोरे रंग का ज़माना कभि होगा ना पुराना. वैसे भी हम लोग इंडियन तो कभी रहे ही नहीं. हम हिंदु हैं, मुसलमान हैं, राजस्थानी हैं, बंगाली हैं, ब्राह्म्ण हैं, क्षत्रिय हैं, थोडे‌ और पढ लिख गये तो साऊथ इंडियन – नॉर्थ इंडियन हो गये. जब कुछ ना बचा और हाथ में पैसा आ गया तो नॉन रेजीडेंट इंडियन हो गये. अब सामान्य इंडियंस को कौन पूछ्ता है. टके में सौ मिलते हैं. किसी भी गली, चौराहे, झौपड़ पट्टी और एम्प्लोय्मेंट एक्स्चेंज में उपलब्ध हैं.






हम लोग हवा महल और बिनाका गीत माला सुन कर बडे‌ हुए हैं आज की पीढी मोबायल फोन और इंटर नेट के माध्यम से डिस्को और पब में पल-बढ रही हैं. इनके चलते मार्किट में इतने ड्रेस डिजायनर हैं किंतु कपडे‌ हैं कि छोटे से छोटे होते जा रहे हैं. डिजायनर लोग ड्रेस डिजाइन नहीं करते बल्कि नई डिजाइन से शरीर को दिखाने का इंतजाम कर रहे हैं. जितने ज्यादा ड्रेस डिजाइनर उतने छोटे कपड़े. मुझे डर है कि कहीं ये कच्छा‌‌ बनियान गिरोह वाले पेंट कमीज को आउट ऑफ फैशन ही ना करा दे‌. फिर सोचिये हम सब लोग कच्छे बनियान में ऑफिस में बैठे कैसे लगेंगे इस्मेन एक फायदा है जब लोगो‌ की जेबे‌ ही नही‌ होंगी तो बस में रेल में जेबे‌ कटेंगी भी नही‌ . गांधी जी का सपना साकार हो जायेगा कि जब तक प्रत्येक भारतीय को तन ढॉपने को पर्याप्त वस्त्र ना हो वे लंगोटी ही पह्नेंगे. उन्हे‌ अच्छा लगेगा कि सारा देश अब जल्द ही डिजाइनर्स लंगोटी पह्नेगा. आप सोचेंगे इस्मेन क्या अंतर है. अंतर यह है कि पह्ले आदमी ईमांनदार हुआ करते थे अब कमीजे‌ ईमानदार होती हैं. सोचिये बे‌ईमान बनियान, गुंडा पजामा कैसा लगेगा.










एक ही युनीफॉर्म पूरे देश के स्कूलो‌ में लागू करेंगे तो क्या विश्व बैंक प्रतिबंध लगा देगा. हम जैसे ट्रांसफर वाले लोगों की बहुत बचत होगी नहीं तो पूरा वेतन युनिफॉर्म, टाई जूते मोजे बैल्ट आदि खरीदने में ही निकल जाता है उसी तरह फीस सिलेबस और किताबों में एकरूपता लाई जा सकती है. कस्बे के एक स्कूल में बच्चों से अचानक कम्प्यूटर फीस ली जाने लगी. जानकारी मिली कि एक साफ सुथरे कमरे में सफेद चादर से ढके हुए कम्प्यूटर जी विराजमान हैं. उस कमरे में बच्चों को जाने की सख्त मनाही थी. वे कम्यूटर को कांच की खिड़्की से ही स्ट्डी कर सकते थे. उन्हें समझा दिया गया था कि अगली सदी कम्प्यूटर की सदी होगी तब वे छू सकेंगे. हां तब तक वे मोबाईल और एम टी.वी. से काम चलायें यह भी भव सागर को पार कराने में सहायक हैं


Thursday, September 29, 2011

मेरा भारत महान




अमेरिकन एयरलाईन्स में प्रति विमान 128 कर्मचारी हैं और मेरे भारत महान की महान एयरलाईन्स में प्रति विमान कुल 588 कर्मचारी. एक से बढ़ कर एक महान भारतीय कर्मचारी. मंत्री महोदय ने यह खुलासा किया है. इस खुलासे को अखबारों ने चटखारे ले लेकर मुख पृष्ठ पर छापा. इसमें ताज़्ज़ुब कैसा. अमरीका में तो बंदे हैं ही नहीं और मेरा भारत महान इस मामले में हीरो नम्बर वन है. भला अमरीका क्या खा के हम सवा सौ करोड़ का मुक़ाबला करेगा. अमरीका में सब काम ऑटोमेटिक है. हमारे देश में ऑटोमेटिक चीजें चलाने, बंद करने, और उनकी रख-रखाव, निगरानी को भी ढेर सारे लोग रखने पड़ते हैं. 

सरकारी मकान में बल्ब बदलने को भी तीन आदमी जाते हैं. एक रौब-दाब वाला सुपरवाइजर. एक बल्ब का झोला पकड़े और तीसरा सीढ़ी उठाये उठाये चलता है. तो ये ठाठ हैं. अब क्या अमरीका वाले ऐसे ठाठ कर सकते हैं. वो तो ये एफोर्ड ही नहीं कर सकते. कहते हैं वहाँ के डिपार्टमेंटल स्टोर्स में भी सैल्फ सर्विस है. हमारे यहाँ सरकारी सुपर बज़ार में भी सैल्फ सर्विस रखी थी. मगर हिंदुस्तानियों ने उसका ग़लत मतलब निकाल लिया. उसके चलते इतने सैल्फ सर्विस की कि तमाम सुपर बाज़ार को अपने घर ही ले गये. सुपर बाज़ार वाले नारा ही ऐसा देते थे सुपर बाज़ार—अपना बाज़ार सुपर बाज़ार नुकसान में जाते जाते तबाह हो गये. अब सरकार उनका निजीकरण करेगी. सुपर बाज़ार वाले जो न जाने कब से उसका निजीकरण करे बैठे थे इसका विरोध कर रहे हैं. विरोध तो पर्यटन विकास निगम वाले भी कर रहे हैं कि निजीकरण करना ठीक नहीं.फिर उनके विकासका क्या होगा. उनके एक होटल में सरकारी अमला है पाँच सौ का और गैस्ट हैं पाँच. यानि कि पर गैस्ट सौ कर्मचारी अतिथि की सेवा में रहते हैं. हो भी क्योंन. भारतमें अतिथि सेवा की एक दीर्घ परम्परा जो है. अतिथि देवो भव. ये बात अमरीकावाले सौ जन्म में भी नहीं कर सकते. वो तो बस पीठ पर अपना सामान ढोये ढोये भिखारियों की तरह दुनियां घूमते-फिरते हैं.

136 तरह के तेल शैम्पू और 256 तरह के साबुन बापरने के बाद जो मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड निखर कर आ रही हैं उनसे जो मार्किट चलनी थी सो चल ली. अब किसी दिन लेटेस्ट एड आयेगा कि मैं पेप्सी से नहाती हूं या फिर कोकाकोला से सिर धोती हूं. इससे न केवल बाल रेशमी, घने मुलायम रहते हैं बल्कि ताज़गी भी पहुँचती है. ठन्डा यानि कोकाकोला.

बहुराष्ट्रीय कम्पन्यां जल्द ही हवा और पानी पर अपना क़ब्ज़ा कर लेंगी. पानी पर तो एक तरह से कर ही लिया है. छोटी बोतल, मीडियम बोतल, बड़ा जार अब छोटी छोटी दो घूंट पानी वाले सेशै भी मार्किट में उतरेंगे ताकि झोंपड़-पट्टी वाले भी आठ आने में ये मिनरल वाटर पी सकें. साफ पानी पर उनका भी तो कुछ हक़ है. जिस तरह पानी के बड़े बड़े जार की सप्लाई दफ्तरों में होती है उसी तरह ऑक्सीजन के सिलेन्डर घर-घर जाया करेंगे. कुकिंग गैस के  सिलेंडर के साथ हरे रंग के बायो-फ्रेंडली क्यूट से ब्रीदिंग सिलेंडर. घर भर के लिये महीने भर का ऑक्सीजन का कोटा. पड़ोसनें एक दूसरे से कहेंगी “ बहन ! एक सिलेंडर स्पेयर में पड़ा है क्या?” बच्चों के लिये छोटे छोटे स्वीट से मिनी सिलेंडर चलेंगे जिसे वो वॉकमैन की तरह लटकाये लटकाये फिरेंगे.

इन दिनों स्वदेशी नारे का क्या हुआ ? अब सुनाई नहीं पड़ता. दरअसल स्वदेशी की आड़ में इतनी विदेशी कम्पनियां आगईं हैं कि बस कुछ मत पूछो. कौनसा क्षेत्र है जिसमें वो नहीं घुसी हुईं. पैन-पेंसिल, कच्छा-बनियान, जूते-चप्पल, साबुन-तेल. जल्द ही अब वो कुल्हड़,पत्तल, छप्पर, भूसा, गन्ने का रस, गुड़ सब का उत्पादन करने लगेंगी. लोग शान से बताया करेंगे कि फलाँ की शादी में स्वीडन के कुल्हड़ में चाय मिली थी. हमनें अपनी बिटिया की शादी में जापान से पत्तलें मँगवाई थीं. हमारी गाय, भूसा सिर्फ मेड इन जर्मनी ही खाती है. ऐसा दूध देती है कि एक लोटा पीते ही हम लोग फर्राटेदार जर्मन बोलने लगते हैं. दुनियां इसी का नाम है. पहले देश का मंडलीकरण हो रहा था. फिर कमंडलीकरण और अब भूमंडलीकरण हो रहा है. आप पानी गंगा का नहीं वोल्गा का पियें. वो भी 120/- फी गिलास. गुड़ आप यू.पी. का नहीं यू.के. का खायें और इतरायें “हाऊ स्वीट” 

अब तो भिखारी भी ट्रेफिक सिग्नल पर एक-दूसरे से मोबाइल पर बात करते हैं.
” ये जो नीले रंग की गाड़ी आयेली है उसे जाने दे भिडू उससे माँगने का नहीं, अपुन लियेला है ” पहले फिल्मों में एक-आध रील भी विदेश की होती थी तो जोर-शोर से प्रचार किया जाता था  एराउंड दि वर्ल्ड का विज्ञापन मुझे याद है “ राजकपूर ने 8 डॉलर में दुनियां देखी आप सवा रुपये में देखिये”. अब विज्ञापन और सीरियलों की शूटिंग भी विदेश में होती है. अब सीरियलों की भली चलाई. सभी सीरियल्स के नाम कहानी, पात्र, घर सब एक से. और वही एक से लिपे-पुते चेहरे, रोना-धोना. आने वाले कुछ सीरियल्स के नाम ये भी हो सकते हैं.

ननद भी कभी भाभी बनेगी

भांजी भी किसी की मामी है

मैंने प्यार किया मिस यूनिवर्स से

हम आपकी सोसायटी में रहते हैं

देश में गई होगी बिजली सप्लाई

हाय दैया, हाय राम

राम से याद पड़ते हैं गाँधी, गाँधीवाद और राम जन्म भूमि विवाद. पर वो किस्सा फिर कभी.

Saturday, July 30, 2011

व्यंग्य : हिना या खार



पाक और हिन्दुस्तान के बीच एक बात में तो समानता है दोनों देशों में नेता लोग बहुत शौकीन और महंगी-महंगी चीजें ‘वापरने’ वाले हैं. आखिर देश की छवि बोले तो ‘इमेज’ का सवाल है. हम विदेशों से उधार माँगने भी चार्टर्ड जेट में शिष्ट मंडल अर्थात 180 लोग जाते हैं. जब पाक नेता हिंदुस्तान उतरी तो पता नहीं क्यूँ ये इंप्रेशन फैला दिया गया कि अख़बार वालों, टी.वी. वालों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. अरे भैया इतनी गंभीरता से तो ये पत्रकार भारत के नेताओं को भी नहीं लेते. वो बात दीगर है कि वे गंभीरता से लेने लायक हैं भी नहीं. आपने उनके फिजूल के सवाल नहीं सुने मसलन बाढ़ में डूबनेवाले से या रेल दुर्घटना में मृत प्राय से “आपको कैसा लग रहा है ? आप क्या महसूस कर रहे हैं ?”




देखिये सभी पत्रकारों ने इतनी बारीकी से और गंभीरता से हिना खार को लिया है कि उन्होने साउथ सी पर्ल की सुचचे मोतियों की माला पहनी हुई थी ( किसी अख़बार या टी.वी चेनल पर यह नहीं सुना कि मोती कितने थे 31..51... या 108) रोबर्ट कारवेली का चश्मा इतने लाख का पहने थी, बर्किन पर्स इतने लाख का था अब देखी है आपने इतनी खोजी पत्रकारिता, इतनी पैनी,इतनी जबर्दस्त पत्रकारिता. बस एक बात रह गयी कि उनका बीयूटिशन कौन है ? साथ आया / आई है ? या नहीं और बीयूटिशन के दल में कितने सदस्य हैं और उनके चश्मे, पर्स कितने लाख/कितने हज़ार के हैं. अब जहाँ इतना सूक्ष्म’ विश्लेषण चल रेला हो वहाँ ‘स्थूल’ बातें जैसे आतंकवाद,बम फोड़ना, समझौता एक्सप्रेस, बस सेवा, हथियार, केंप, लश्कर की बातें थोड़ी हट के हैं और इस मेनू में फिट नहीं बैठती, बिल्कुल वैसे ही जैसे मुगलाई खाने में उड़द की दाल या लौकी की सब्जी.




मुद्दा नंबर 1. भारतीय क़ैदी, मछुआरे जो पाक जेलों में सड़ रहे हैं उसका सवाल किसी ने उठाया या नहीं या फिर सब ज़ुल्फ़ के पेचो-खम में और लट में ही उलझ के रह गए. हाय!




‘हम हुए, तुम हुए, मीर हुए

सब उनकी जुल्फों के असीर(क़ैदी) हुए’




मुद्दा नंबर 2. हथियार ?


अजी छोड़िये आप यह लेटेस्ट हथियार देखिये. ये देखिये ये पर्स 18 लाख का, ये देखिये ये चश्मा 16 लाख का, चाहो तो आँखों पर लगाओ, चाहे माथे पर, चाहो तो हाथों में अदा से घुमाओ.




मुद्दा नंबर 3. समझौता एक्सप्रेस/बम फोडू दस्ते/लश्कर ?


ये जेट युग है आप अभी तक सड़क-रेल की बातें करते हैं हाउ ओल्ड फैशन. निकलिए अपनी इस दकियानूसी सोच से बाहर आइये. आप उस लश्कर को छोड़िए हमारा लश्कर देखिये.


मुद्दा नंबर 4 26/11


26/11 ? ये क्या है, ये कैसी फिगर है ? किसकी फिगर है ये. फोरगेट इट. आप जो आपके सामने है वो फिगर देखिये. फिगर के मामले में भी आप अभी बहुत पीछे हैं आई एम थर्टी फोर यू आर एटी फोर हा..हा..


मुद्दा नंबर 5 आप किस कंपनी की लिपस्टिक, लिप ग्लॉस और मेकपात का अन्य सामान खरीदती हैं. इंडिया में उसकी फ्रेंचाइजी है या नहीं. ये बर्किन और रॉबर्टो वालों ने अपने सेल्ज़ काउंटर इंडिया में खोले या नहीं.. नहीं खोले तो कब खोलेंगे मुए ?


टूर बहुत सक्सेस गया.. कम अगेन 


Friday, July 15, 2011

व्यंग्य : खून दो ... बेटा लो


एक जमाना था जब आज़ाद हिन्द फौज के महानायक, वीर सेनानी नेताजी सुभाष चन्द बोस ने हुंकार भरी थी तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा. अभी आधी सदी भी न गुजरी थी कि हमारे नेता कह रहे हैं मैं तो खून का एक कतरा भी नहीं दूंगा. क्या कर लोगे. मामला अदालत तक जा पहुँचा. अदालत ने फटकार अलग लगायी. जनता का इतना खून पीया है एक आध बूँद दे दोगे तो क्या हो जायेगा. सो भैया जी ! डी.एन.ए. तो होगा ही. एक बात और है डी.एन.ए तो जब होगा, तब होगा उसकी रिपोर्ट जब आएगी, तब आएगी पर पूरे देश को तो रिपोर्ट पहले से ही पता है. ये आपकी ही कारस्तानी है. ये बरखुरदार आपके ही नूरे नज़र, लख्ते जिगर हैं. एक बात बताइये जब ये बात उठी थी तब ही आपने क्यों नहीं भलमनसाहत से इसे मान लिया. आपके पास विकल्प थे. या तो आप मान लेते या पार्टी को कुछ ले दे के मौन करा देते.

देखिये आपने बेचारे को गोद लेने से भी इंकार कर दिया. अब आपको भी कहाँ गुमान था कि आपके जीते जी साइंस इतनी तरक्की कर लेगी कि ये डी.एन.ए. टेस्ट ढूँढ निकालेंगे. वैसे तो आपने सी.डी. केस में कह ही दिया है कि ये साज़िश है और ये मैं हूँ ही नहीं. अब आप कुछ भी भी कहते रहिए पूरा देश आपकी रिपोर्ट को पहले ही पॉज़िटिव मान चुका है. देश को ताज्जुब तब भी नहीं होगा अगर ये डी.एन.ए. आपका नहीं निकलेगा, देश आपको बरी नहीं कर देगा. बल्कि इसे आपकी जुगाड़ बताएगा.

दरअसल आप जितनी कोर्ट-कचहरी करते रहेंगे और खून देने में आना-कानी  करते रहेंगे उतना ही देश का यकीन पुख्ता होता चला जायेगा कि हो न हो आप ही उसके नाजायज़ पिता हैं (अमिताभ बच्चन की फिल्म त्रिशूल याद करें) मुहब्बत की है तो निभानी चाहिए थी जी. आप मुहब्बत को चुनावी वादे की तरह भूल नहीं सकते. वो दिन याद करो.. वो तारों की छैया...वो मौसम सुहाना.... तो सर जी अपने पुरुषार्थ को जगाइए और उठ खड़े होईये, अपना लीजिये, आखिर आपका ही बच्चा है. दुनियाँ को दिखा दीजिये कि आप नारायण ही नहीं, नर भी हैं.


Wednesday, July 13, 2011

व्यंग्य मुझे पानी औरों को जाम

वो दिन गए जब लोग पानी पिलाने को पुण्य का कार्य समझते थे. जगह-जगह लोग-बाग अपनी सामर्थ्य अनुसार कुएं खुदवाते थे, प्याऊ लगवाते थे. तब पानी बेचा नहीं जाता था. प्यासों को पानी पिलाना धर्म का कार्य माना जाता था. आजकल के पेज थ्री वाले सोशल वर्कर नहीं बल्कि लोग वाकई धर्म सेवा, समाज सेवा करते थे, वो भी फोटो छपवाना तो दूर अपना नाम सामने आए बिना. बहुत हुआ तो अपने दिवंगत माता-पिता अथवा दादा-दादी के नाम की प्याऊ होती थी.
समय बदला और तेजी से बदला. यहाँ तक कि पानी के मटके-सुराही की जगह मशीनें आ गयीं. दिल्ली में दो पैसे का ग्लास पानी बिकता था. आज वह बढ़ते –बढ़ते एक रुपये प्रति ग्लास से अधिक हो गया है. बोतल बंद पानी तो 12 रुपये से 120 रुपये प्रति बोतल धड़ल्ले से बिक रहा है. पानी का धंधा ज़ोर-शोर से फलने-फूलने लगा है. सब अपने पानी को सीधा हिमालय से निकला ही बता रहे हैं. पानी के बिकने के साथ ही देशी-विदेशी कंपनियां अपना अपना पानी उतार के बाज़ार में उतार आए हैं. पहले घड़ा-सुराही दो ही आइटम थे, आज सैकड़ों चीज़ें इससे जुड़ गयीं हैं. प्लांट, फ़िल्टर, कैन्डल, कार्बन, टैंकर, एक्टर, ट्रक, प्लास्टिक बोतल, जार, नकली पानी, नकली सील (ढक्कन), खतरनाक

केमीकल्स, हानिकारक प्लास्टिक, गैस्ट्रो, लेप्टो, कैंसर और न जाने क्या क्या. पानी का खाकर पेयजल का बिजनस बहुत ही फलता-फूलता बिजनस है. इसमें असीम संभावनाएं हैं. धर्म का धर्म, लाभ का लाभ, इसे कहते हैं शुभ-लाभ. लेकिन इन सबसे नेताजी कतई प्रभावित नहीं हुए बल्कि ‘पेयजल’ सुन कर वह शहर ही छोड़ कर मुंबई रवाना हो गए. पहले भी लोग घर छोड़ कर भागते थे तो मुंबई आकर ही दम लेते थे. आज भी वही परंपरा कायम है.कहाँ गए वो लोग जो गंगा मैया की शपथ लेते थे. वह सबसे बड़ी महान और पवित्रतम शपथ मानी जाती थी. आज हालत यह है कि नेताजी को पता चला कि उन्हें पेयजल मंत्रालय मिल रहा है तो उन्होने शपथ लेने से ही इंकार कर दिया और सबको प्यासा ही छोड़ गए

तो साहब ये फर्क है कल और आज में. कल तक पेयजल उपलब्ध कराना धर्म-कर्म था आज पेयजल मंत्रालय ‘फालतू’ मान नेताजी रूठ गए और पार्टी सेवा का निर्जला व्रत ले बैठे हैं. उन्हें याद ही नहीं जो रहीम ने कहा था :

रहिमन पानी राखिये...पानी बिन सब सून...

पार्टी ने नेताजी को ‘उबारा’नहीं बल्कि नेताजी का पानी उतारने में पार्टी ने जरा भी देर नहीं लगायी. और ताबड़तोड़ त्यागपत्र स्वीकार कर नेता जी का रहा-सहा पानी भी उतार दिया.नेताजी अरब सागर के किनारे मुंबई में अपने कोप भवन में आँसू बहाते रहे
वाटर... .वाटर एवरीवेयर...नौट ए ड्रॉप टू ड्रिंक
ऐसा सुनते हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा लेकिन हमारे नेता तो अभी से पानी को ले के लड़ने लग पड़े हैं. प्रैक्टिस मेक्स ए मेन परफेक्ट. मेरी चिंता दूसरी है. अब पेयजल मंत्रालय का क्या होगा ? अब पेयजल का क्या होगा ? इस सब से ऊपर अब नेताजी का क्या होगा ?

“प्यासे आए, प्यासे तेरे दर से यार चले
तेre शहर में हमारी गुजर मुमकिन नहीं
जाने कब तक सितमगरतेरा ये बाज़ार चले.........”

Monday, July 11, 2011

रिटायरमेंट का पिपरमेंट

जिस प्रकार मौत की घड़ी तय है उसी तरह रिटायरमेंट का दिन तय है. मौत कब होगी यह जानने के लिए आपको बाबा बंगाली,ज्योतिष और नजूमी की ज़रूरत पड़ सकती है मगर रिटायरमेंट जानने के लिए बस जन्म तिथि पता होना ही काफी है. सरकारी नौकरी में रिटायरमेंट ध्रुव सत्य है यद्यपि बहुत से लोग समितियों, स्टडी ग्रुप में कंसल्टेंट और एड्वाइजर बनने  के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देते हैं. उनका कहना है कि रिटायरमेंट के बाद वे वाइजर बन गए हैं अतः अब आप सब लोग उनको एड्वाइजर बना दें और उनकी एड्वाइज़ लें. रिटायरमेंट के बाद उन्हें कोई काम छोटा नहीं लगता वो सेवा करना चाहते हैं अब वो देश सेवा हो या मोहल्ला सुधार समिति की सेवा हो या फिर मानव अधिकार के लिए धरना-प्रदर्शन.

एक उच्च अधिकारी तो रिटायरमेंट के बाद इतने मिलनसार हो गए थे कि ऑफिस के चपरासियों को मेरा बच्चा कहते नहीं थकते थे. उन्हें देख कर लोग रास्ता बदल लेते थे. ऑफिस के पेन, स्टैपलर एकत्रित करना उनके हॉबी थी. ऑफिस में किसी के भी खाली केबिन में वो घुस जाते और सोफे पर अपना दफ़्तर खोल लेते थे. बैंक के चेक, बिजली पानी फोन के बिल, सब काम सोफे पर अपने ब्रांच ऑफिस से ही वे सम्पन्न करते.

आपने देखा होगा बड़े-बड़े अफसर जब तक अफसर बने रहते हैं उनकी नज़र और याददाश्त दोनों कमजोर रहती हैं. आपको देख के अनदेखा करना, आपके साथ बिताये हुए सभी दिन (जब वे इतने बड़े अफसर नहीं बने थे) वे भूल चुके होते हैं. एक तरह से वो टेम्पररी स्मृति लोप का शिकार होते हैं. अफ़सरी जाते ही उनकी याददाश्त वापस आ जाती है. अफ़सरी आउट - मेमोरी इन’.  एक बड़े अफसर तो रिटायरमेंट के बाद इतनी गर्मजोशी से मिले कि मुझे दिल ही दिल में उनसे डर लगा. मेरे पूरे खानदान  का हालचाल तो पूछा ही साथ ही कविता और साहित्य डिस्कस करने की माई एमबीशन इन लाइफ  भी जताने लगे.

एक बड़े अफसर तो अपने विदाई समारोह में लगभग रूठ ही गए कारण कि उन्हें दूसरे की अपेक्षा छोटा सूटकेस क्यों भेंट किया जा रहा है और वो इतने इमोशनल हो गए कि अपने भाषण में उन्होने कह ही तो दिया इतने हार और बूके आपने दिये हैं इसके बदले पैसे दे देते या फिर बड़ा सूटकेस

वर्जित फल अधिक मीठे होते हैं. अधिकारी आपके अधिकारों की रक्षा करता है या रक्षा करने का ढोंग भर करता है. दरअसल वह अपने अधिकारों की रक्षा ही अपना प्रथम और अंतिम कर्तव्य समझता है. वह ढूँढता रहता है कि आपके अधिकारों  पर कैसे कुठाराघात करे. जो सबसे ज्यादा पावर डेलीगेट और सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात करे समझिए वह और सत्ता चाहता है. इधर एक रिवाज सा चल पड़ा है कि बड़े-बड़े अधिकारी रिटायरमेंट से पहले अपना एक अदद एन.जी.ओ. जो कि उनकी आलटर ईगो का प्रतिरूप होता है या यूँ कह लीजिये कि उनके हेतु साधने का यह उनका पाकेट बुक एडिशन होता है, खोल लेता है. इस एन.जी.ओ. के सौजन्य से सरकार से धन-धान्य, विदेश यात्रा और अपना ही बंगला एन.जी.ओ. को किराए पर देने का सुभीता रहता है. अतः जिन अधिकारियों ने सर्विस में रहते आदमी को आदमी नहीं समझा या कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं माना और उन पर खूब अन्याय किया अब वो न्याय की बात करते हैं. निर्बल को न्याय दिलाने और मानव अधिकारों की बात करते हैं.  सुनते हैं गौतम बुद्ध को बोधिसत्व की प्राप्ति महल से निकल कर बोधि वृक्ष के नीचे हुई थी. इन नौकरशाहों को ज्ञान की  प्राप्ति ऑफिस से निकल जाने के बाद पेंशन-ग्रेच्युटी रूपी घने सायेदार वृक्ष के नीचे होती है. उनके अंदर का देशभक्त जो अब तक फ़ाईलों के नीचे कहीं दबा था अंगड़ाईयाँ लेने लगता है और कल तक के यथास्थिति के पोषक या टी-कप में तूफ़ान लाने वाले अफसर सरकार के (फिर चाहे वो किसी की हो) ख़िलाफ़ धरना-अनशन करने लगते हैं. विदेश में सेमिनार और कॉकटेल अटेण्ड करते हैं.

यूँ तो कहने को कोर्स पर कोर्स चला दिये गए हैं कि रिटायरमेंट के बाद जीवन कैसे व्यतीत करें. प्रभु से कैसे लौ लगाएं या फिर अपनी पेंशन कैसे खर्च करें और उसको कहाँ लगाएं आदि आदि मगर ये दिल नमाज़ी हो न सका की तर्ज़ पर जब दिल टी.ए., डी.ए. टूर और यस-सर, यस-सर में अटका हो तो प्रभु से लौ कहाँ लगती है. लौ तो कहीं और लगी है. सो भैया जी भजन-सत्संग, गार्डनिंग या मॉर्निंग- ईवनिंग वाक किसी में भी दिल नहीं लगता. आप इश्क़-ए-हकीकी की बात करते हैं हमें अभी इश्क़-ए-मजाज़ी से ही फुर्सत नहीं है.

एक साहब ने तो रिटायरमेंट के बाद अपनी जवानी  को बरास्ता शर्ट-पेंट वापस लाने का ऐसा प्रयास किया कि वे हास्यास्पद, करुणा के पात्र लगने लगे. नयी - नयी स्किन टाइट, टी शर्ट पहनते छींटदार कमीजें और जीन्स डाल कर वो भले अपने आपको देव आनंद समझने लग पड़े हों, लोग तो उन्हें देख कर हँसते हँसते लोटपोट हो जाते. लेकिन ऐसी छोटी छोटी बातों को वो दिल पर नहीं लेते थे. एक सज्जन ने तो अपने नॉर्मल रिटायरमेंट के महज 6 माह पहले इसलिये वी. आर.एस. ली ताकि वे सबको यह बता सकें कि वो कभी रिटायर हुए ही नहीं. बिल्कुल उसी तरह जैसे एक बूढ़ा आदमी बार बार सिर्फ यह सुनने के लिए शादी करता था ताकि शादी के मंडप में लोग कहें   लड़का कहाँ है...? लड़के को बुलाओ... ! लड़का आ गया ?” मैं एक रिटायर्ड सज्जन को जानता हूँ जो ऐसे टूट कर टूरिज़म पर पिल पड़े हैं जैसे भारत कहीं भागा जा रहा है. वे अपने किसी भी दूर के रिश्तेदार और तो और दोस्तों के दूर के रिश्तेदार के यहाँ कान छेदन में भी तैयार हो कर चल पड़ते हैं. कान-छेदन वाले खुद फंक्शन की इतनी तैयारी नहीं करते जितनी ये साहब फंक्शन में जाने की करते. हफ्तों पहले से यात्रा की चर्चा..तैयारी..तैयारी की चर्चा होने लगती और तब तक होती रहती जब तक अगली यात्रा का कार्यक्रम नहीं बन जाता. 'फिर छिड़ी बात फूलों की..' तर्ज़ पर फिर नयी यात्रा की बातें होने लगती.

सो भैया जी ! ये रिटायरमेंट वालों से जरा बच के, न इनकी दोस्ती अच्छी न इनकी.. एक तो ये अपने ज़माने की बाते सुना सुना के आपको पका देते हैं ये हमेशा पास्ट टेन्स में जीते हैं. एक से एक ऐसी स्टोरी सुनाएंगे कि आपको बरबस यकीन ही न हो. हर स्टोरी में ये ही सुपरमेन और स्पाइडरमेन अर्थात विजेता बन के बाहर निकलते होते हैं.

सुखी और खुश रहने का राज़ भी यही है. सयाने कह गए हैं कि
अच्छा स्वास्थ्य + खराब याददाश्त = खुशी,
आप भी खुश रहिए, हुज़ूर टेंशन को रिटायर कर, भेज दीजिये पेंशन लेने.