Wednesday, January 13, 2010

सुनहरी धूप ....

ये नाआशनाई आखिर कब तक,तेरी ज़ुल्फ़ से कमतर नहीं  
मेरे महबूब कभी,मेरी भी ज़िन्दगी भी सँवारो. 

कुछ देके  कुछ पाना,नहीं  ये हमें  मंजूर नहीं 
मुहब्बत जब है,ना में जीतूँ ना तुम हारो.
उनके ना आने का गिला, में   उनसे ना करूँगा 
अभी और बनो   संवरो, तुम्ही  में  कुछ कमी  है ऐ  बहारो. 

कच्ची नींद  है अभी , और बहुत नाज़ुक  है ख्वाब मेरा 

वो हों  ना परेशाँ सफ़र  में ,डोली एहतियात  से उठाना ऐ कहारो .
बचा के ला पटका  है मुझे ,तूफां ने तुम्हारे पास 
कहीं  फिर  से ना, डुबा देना ऐ कहारो .

.....
साक़ी नया  है या फिर मय नयी  है 
क्या बात  है आज शेख अभी तक 
मयखाने  से नहीं निकला . 

नाहक ही डर गये लोग 

चोर जिसे समझे थे  तुम
वो फ़क़त एक आइना निकला .

उम्र भर देखा किये ख्वाब 

खुली जो आँख सर के ऊपर.
वही पुराना आसमां निकला 

उम्र भर निभाने का दावा हम कर ना सके 

और वो करते रहे बारहा शुबहा हम पर

अब क्या करेंगे वो

वफ़ा नाम था जिसका

वो  भी बेवफा निकला .
वो मेरे रकीब पर थे क्यूँ इतने फ़िदा 
आखिर को तो वो  भी 
मेरी तरह महज़ इन्सां निकला .

वो जो खाते रहे कसमें 

मुझसे उम्र भर ना मिलने की 

अब मुझ से मिलना ही  
उनकी   ज़िन्दगी का सबब  निकला. 


 

 

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