Saturday, January 16, 2010

पंखुरियां

आज इस क़दर देखा उन्होंने
ज़िन्दगी बदली-बदली नज़र आती है.
क्या यही इश्क की दीवानगी है
बस तू ही तू नज़र आती है.
मैं आज आया हूँ, कल भी आया था 
और यकीन जानो कल भी आऊँगा 
मगर ना जाने क्यूँ मुझे अब भी 
तू नाआशना नज़र आती है. 
ऐ खुदा क्योंकर उन्हें यकीन नहीं आता 
मेरी पाक मुहब्बत का 
तेरी क़ायनात में सच कहता हूँ 
मुझे कोई कमी नज़र आती है.
तुम फूल हो फूल बनके ही
मह्कोगी गुलशन की
तुमने समझा भँवरा  मुझे
बस यहीं  तुम्हारी नज़र में
गलती नज़र आती है .
हसरत थी शबनम बनके 
संवारता तुम्हारे रूप को मैं
ये चिंगारी है तुम्हारी बेरुखी की 
ज़िन्दगी जलती नज़र आती है .
आज इस क़दर . . . 
............
हज़ारों खंज़र दिल में 
उतरते चले गये
वो मुझसे बिना मिले
मेरी रहगुजर से चले गये . 
ऐ खुदा अब ये भी 
एक ख़ास रहगुजर होगी 
कल वो मेरी गली को 
आम रास्ता समझ चले गये .
किसका रोना कैसी बेताबी 
परश्तिश के लायक थे जो बुत 
वो दुनिया-ऐ-फानी से चले गये .
उनकी नाज़-ओ-अदा ने 
कर दिया मुझे बे काबू 
एक ये ज़माने वाले हैं 
इलज़ाम मुझे देते चले गये .
मेरे लाख रोकने का
ना हुआ असर इन पर
चाँद,गुल,और शाम सब पर
हुस्न की शोखी लुटाते चले गये .
अब इनका होना ना होना बराबर है
चश्म-ऐ-तर से होता था
जिनका दीदार वो हसीन
मेरे शहर से चले गये.
.........
हर सुबह की खामख्वाह ही
शाम हुई जाती है
उम्र बेवजह ही
तमाम हुई जाती है
ऊंघते हुए ज़मीर ने
आवाज दी
ओ मुसाफिर तेरी ज़िन्दगी की तो
शाम हुई जाती है
मैं कम सुनता हूँ या ये जहाँ ?
क्यों इतने शोर में भी
इंसानियत सोई जाती है
संभल के ऐ दोस्त
जरा ध्यान से चलना
मेरे शहर में
ज़िंदा लाश ढोई जाती है.

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