Friday, January 22, 2010

ओस...



तेरे गुलशन से रुसवा हो जहाँ रुकी ज़िंदगी
मेरे दोस्त वो दरख़्त तो था नागफनी का
रूह से पेश्तर कुछ भी नहीं मेरा
मुझे भला क्या खौफ होगा राहजनी का
चलो चलके जुगनुओं से दोस्ती बढ़ाएं
सुना है अब हवाओं के हाथ है फ़ैसला रोशनी का
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इस आदमी में भी चिंगारी बाकी होगी
तुम राख़ को कुरेदो तो सही.
नींद है तो ख्वाब भी आयेंगे ही
ख्वाब सच हो सकते हैं
तुम सपनों को सहेजो तो सही.
हमारी और दर्द की आत्मकथा इतनी मिलती क्यों है
इन दोनों की कब से मुलाक़ात है खोजो तो सही.
तेरी ज़ुल्फ़ सी ही टेढ़ी क्यों है मेरी ज़िंदगी
तुम इस पहेली को बूझो तो सही.
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दिल के हाथों कितना बेबस रहा होगा वो शख्स
रिहा होकर भी जेल के दरवाजे से लगा बैठा है.
किसे उठाने की कोशिश कर रहे हो
जिसे सोया समझे हो तुम वो अजल से जगा बैठा है.
दहशत की  सफेदी छाई है कल बहार थी जहाँ केसर-जाफरान की
किसे कुसूरवार कहेगा जब वो बबूल उगा बैठा है.
किसे रहबरी का काम सौंपा है यार तुमने
वो तो खुद ही ज़माने के हाथों ठगा बैठा है.

1 comment:

  1. Beautiful lines. Touching the soul. Wonderful.

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