Wednesday, June 21, 2023

व्यंग्य: स्टेडियम प्राइवेट को

           



         


             

                कुछ बरस पहले यह खबर अखबार में छपी कि सरकारी स्टेडियम प्राइवेट पार्टीज़ को सौंपे जाएँगे ताकि उनका उचित रखरखाव हो सके, वे आय का साधन बन सक। इससे इसमें लगे लोगों को रोज़गार मिलेगा।   स्पोर्ट्स को बल मिलेगा। आप तो जानते ही हो निर्बल के बल राम। सरकार की  इसी नीति के चलते कुश्ती संघ ने अपना दफ्तर और अभ्यास कराने के मैट-शैट अपने बंगले में ही बिछवा लिए थे। सब कुश्तीवालियों का वहीं  सांस लेने के तरीके का चेक-अप बड़े हकीम जी खुद करते हैं। तभी न सभी वहीं शरण लेते

 

                 अब देखिये स्टेडियम प्राइवेट करने के कितने फायदे हैं। एक तो उसके रखरखाव के लिए सरकारी कर्मचारी नहीं रखने पड़ेंगे। सरकारी कर्मचारी को रखने में बड़े लोचे हैं। पढ़ाई लिखाई तय करो, उम्र तय करो, विज्ञापन निकालो, लिखित मौखिक परीक्षा लो। सिफ़ारिशें देखो। पेपर आउट न हो जाये ये देखो। वेतन दो, पेंशन दो, मेडिकल दो, हिसाब रखो, सरकारी आवास दो। एक झंझट है। खर्चा ही खर्चा। स्टेडियम न हुआ सरकारी दफ्तर हो गया।  इस पर तुर्रा ये कि जब जाओ या तो बंदा छुट्टी पर है या बीमार है। रखरखाव इतना बेकार होता है कि पूछो मत। स्कैम पर स्कैम।

 

                      प्राइवेट के दे दो छुट्टी पाओ। खर्चा नहीं उल्टे आमदनी ही आमदनी। उनका एक आदमी सरकारी के पाँच के बराबर दौड़ दौड़ के काम करेगा। ये जो एथलीट वहाँ दौड़ते हैं उन्ही में से किसी को ठेके पर रख लो शाम को ठेके की रौनक देखने लायक होगी। मुंबई में स्टेडियम के अंदर जो बार हैं, रैस्टौरेंट हैं, जो शादी-ब्याह के हॉल हैं उनसे आमदनी ही आम्दानी है। कितने लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। लोग खूब जाते हैं और धीरे धीरे उनकी स्नोब वैल्यू इतनी हो चली है कि मैम्बरशिप भी नहीं मिलती। ये वाकई एक मॉडल है जो देश भर के स्टेडियमों को अपनाना चाहिए।

 

                 स्टेडियम खेलने के लिए ही तो हुआ करते हैं। सब अपना अपना खेल खेलते हैं। पता नहीं किस खेल में तुम्हारी प्रतिभा निखर के आए  और तुम अपने क्षेत्र अपनी क़ौम का नाम रोशन करो

 

           और खेल-फेल क्या होता है जी ! यही सब न ! 

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