Thursday, August 22, 2024

व्यंग्य: लेट्रल एंट्री के फायदे

 सरकार में एंट्री के अनेक तरीके और रास्ते हैं। कोई लिखित परीक्षा देता है, कोई इंटरव्यू देता है। कोई वाक-इन-इंटरव्यू देता है कोई सीधा नौकरी में ही वाक-इन करता है। लेटरल एंट्री के कई फायदे हैंइसे वापिस लेने के फायदे कहीं ज्यादा होंगे तभी न वापिस लिया। अब आप सोचते रहें कि नोटफिकेशन जारी करना मास्टर स्ट्रोक था या वापिस लेना...वांदा नहीं। आप चाहे तो कह सकते हैं कि दोनों ही अपने आप में मास्टर स्ट्रोक हैं। लाभ कितने हैं ये तो आपको पता ही हैं, नहीं पता है तो किसी भी उस बंदे या उसके परिवार से पूछ लो जिनको इस के थ्रू एंट्री मिली है। देते रहो आप प्रिलिम, मेन, मेडिकल और इंटरव्यू। आप लेते रहो बेसमेंट में कोचिंग, मरते रहो बाढ़ में। न रिज़र्वेशन का झंझट, न पेपर लीक करने की चिंता। लेटरल वाले तो सीधे दसवें फ्लोर पर अफ़सरी शुरू कर देते हैं। बेसमेंट वालों को वहाँ पहुँचने में 20 साल लगते हैं। नो बेसमेंट प्लीज़ ! वी आर लेटरल एंट्री।

 

          आप सोचो इससे कितना कीमती वक़्त बचता है। ये क्या पेपर में वही घिसा-पिटा एड, लाखों रुपये का खर्चा। क्या ये हमारे गरीब देश को शोभा देता है। फिर बोरे भर-भर कर आवेदन आएंगे। उनकी छंटनी करो। पोस्टल ऑर्डर अलग करो, उन्हे समय रहते जमा करो, लिखित परीक्षा, पेपर सेट, पेपर लीक, इंटरव्यू, मेडिकल, दोनों पार्टी पागल हो जाएँ। लेटरल एंट्री में फायदा ये है कि ये सिंगल विंडो की तरह है। कहीं और जाने का झंझट ही नहीं। मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोय। न सिलेबस, न किताब, न नोट्स,ज्ञान पेलने वाले स्वनाम धन्य प्रोफेसर। वैसे भी पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ.... !  

 

            वैसे एक बात है लेटरल एंट्री पर इतनी हू-हा इतना बावेला क्यों ? ये लेटरल एंट्री कहां नहीं है ? वकील का बेटा वकील बनता है, बनता है कि नहीं। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बनता है। भैया ! बनी बनाई लाइब्रेरी, सजा  सजाया क्लीनिक मिल जाता है। बनी-बनाई गुडविल मिलती है, रेडीमेड पेशेंट / मुवक्किल मिलते हैं। और जीने को क्या चाहिए? दिल्ली की बंगाली मार्किट में एक डॉ गांधी का क्लीनिक होता था। डॉ गांधी के बरसों बाद तक जो भी डॉ उस क्लीनिक में  बैठता वो डॉ गांधी ही कहलाता था। अतः लेटरल एंट्री कोई गंदी बात नहीं है। इंडस्ट्रियलिस्ट का बच्चा सीधे डाइरेक्टर से शुरू करता है न कि अप्रेंटिस या मेनेजमेंट ट्रेनी से। सरकार किसी की भी हो गरीबपरवर होती है न भी हो तो कहने में क्या हर्ज़ है। दरअसल सरकारों का बहुत सारा टाइम, बहुत सारा बजट और श्रम ये प्रूव करने में लगता है कि वे गरीबपरवर हैं और अब तक की जितनी सरकारें आईं उन सबमें सबसे बड़ी गरीबपरवर है। कुर्सीनशीन हमेशा यह भी कहते हैं कि हम विपक्ष की तरह पत्थर दिल नहीं। हमारा दिल मोम का है। विपक्ष ने इस तरह की जितनी भर्तियाँ की वो अपने चहेतों की, की हैं जबकि हमने सब विषय के एक्सपर्ट लिए हैं। वो जानते हैं हमें क्या चाहिए इसके वो एक्सपर्ट हैं। नोट ही ऐसा लिख कर लाते हैं और फिर हमें  ज्यादा सिर नहीं खपाना पड़ता। बल्कि वो सिर हिलाने मात्र से समझ लेते हैं क्या चाहिए...वैसा नोट आ जाता है। पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं। हमें तो बस चिड़ियाँ बिठानी होती है, बोले तो सही करना होता है। तभी न कहते हैं किंग कैन डू नो रॉन्ग। 


                 

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