रेल में नौकरी लग जाये तो लोगों के घर बस
जाते हैं। मैं यहाँ उनकी शादी-ब्याह की बात नहीं कर रहा बल्कि उनके मकान की बात कर
रहा हूँ। खबर आई है कि एक नागरिक के मकान में रेल की पटरी मिली है। पटरी भी दीवार
में चिनवाई हुई है। बस इतना बहुत है, उसकी ज़िंदगी को पटरी से उतारने के लिए। वो
बेचारा गुहार लगा रहा है कि ये पटरी मैंने एक नीलामी में 50 साल पहले खरीदी थी और घर की दीवार
मजबूत बनाने की गरज से इसे दीवार में चिनवा दिया था। अब 50 साल पहले के कागज उस पर है नहीं।
बस फिर क्या था
पुलिस की आवा-जाही शुरू हो गई उसके घर और उन्होने उसे सीधे-सीधे पुलिस की भाषा में
समझा दिया कि अब उसके घर को ध्वस्त करना पड़ेगा और लगी हुई पटरी रेलवे को सौंप दी
जाएगी। रेलवे को ये 'टैग लाइन' लिखनी ही नहीं थी कि रेलवे आपकी अपनी
संपत्ति है। कुछ लोग इसे सच मान लेते हैं। पर एक बात बताइये हमने रेल की सीटें, स्पंज और सीट की रेक्सीन घरों में खूब
देखे हैं। पता नहीं उनका क्या होगा। वो तो अच्छा है कि पंखा और बल्ब घर के करंट से
चलते नहीं हैं। नहीं तो लोगों की बिजली और पंखे की कमी की पूर्ति भी होजाती।
लोगबाग अक्सर रेलवे के दरवाजे के हेंडल, वाश बेसिन, मिरर और तौलिया आदि के संग्रह का तो शौक रखते हैं मगर ये पटरी का
केस तो पहली बार सुना है। अब कहीं से खबर ना आती हो कि कौन घर बनाए हम रेल का डिबा
ही उठा लाये। सब खिड़की दरवाजे, पंखा, बिजली, बर्थ बाथरूम सभी तो है। भई वाह ! सरकार
चाहे तो लोगों की घर की समस्या पर इस दृष्टि से देख सकती है। रेल तो अब वैसे भी
चल-वल नहीं रही हैं।
अब रेलवे वाले
क्या करेंगे ? वो उसके घर को तोड़ के अपनी पटरी ले जाएँगे ? उस पटरी का वो क्या करेंगे ? इस पर रेल तो चलने से रही। हो सकता है
पुलिस ही केस रफा-दफा कर दे यह कह कर कि वो रेल की पटरी है ही नहीं। ग़लती से लोहे
के टुकड़े को रेल की पटरी समझ लिया था। या फिर रेलवे वाले आकर अपनी केटरिंग वगैरा
करा के सर्टिफ़ाई कर दें कि हाँ इस तरह की रेल सन 1976 में बड़े पैमाने पर नीलाम हुई थीं। बस
बात खत्म। पर कुल मिला कर यह सौदा है खतरे का। मसलन आप रेलवे की सीट की रेक्सीन के
बने झोले में बाज़ार से कुछ सौदा-सट्टा ला रहे हों और छापा पड़ जाये। आपका झोला
ज़ब्त और आप गिरफ्तार। अब बताते रहो पुलिस वालों को और रेलवे वालों को कि ये
रेक्सीन आपके पास कैसे पहुंची ? आपने खुद चोरी की या किसी चोर से चोरी का सामान
खरीदा।
रेलवे की ज़मीन पर झुग्गी-झोंपड़ी और दुकान बाज़ार आम मिल जाते हैं।
नित्य-प्रति प्रातः निवृत्ति के लिए रेल की पटरी ज़िंदाबाद। रेल बड़ी ग़रीबपरवर है।
ऐसे समझो ! अपनी 1853 से स्थापना से ही गरीबों का पालन-पोषण कर रही है। क्या नौकरी देकर
क्या पटरी, रेक्सीन, सीट, वाश-बेसिन, मिरर, चादर, तकिये, हेंड टाॅवल, बोलो जी क्या क्या खरीदोगे ? बोले तो क्या-क्या चुराओगे ?
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