Monday, September 8, 2025

व्यंग्य : यूज़ एंड थ्रो

 

                                                  


 

 

      हम इस बात में बहुत गर्व करते रहे हैं कि मेरा यह जूता दस साल से चल रहा है। यह घड़ी मेरे दादा जी के टाइम की है, अब भी सही समय बताती है। यह फ्रिज मेरे बचपन में लिया गया था, आज भी ठीक ठाक चल रहा है। यह टी.वी. बीस साल से हमारे घर में है और एक बार भी खुला नहीं है। इसके उलट आई कंजूमर अर्थव्यवस्था जहां अगर आप की चीज़ खराब नहीं होगी तो नई कैसे आएगी वाला दर्शन शास्त्र लागू होता है। अतः या तो वस्तु स्वयं खराब हो जाती है अथवा बार-बार मकैनिक मांगने लगती है। आप एक दिन आजिज़ आ उसे औने-पौने दाम पर बेच देते हो। यदि आपकी वस्तु खराब नहीं होती है तो आपको विज्ञापन आदि के जरिये यह ताकीद की जाती है कि एक्सचेंज स्कीम में इसे दे कर दूसरी नई ले आओ। छत्तीस तरह के टी.वी. मार्किट में हैं। मोटे, पतले, और पतले, प्लाज्मा, एल.ई.डी. और न जाने क्या क्या। इसी तरह फ्रिज हमारे टाइम पर डिफ्राॅस्ट करना एक बहुत बड़ा काम होता था। सारा सामान निकाल कर बाहर रखा जाता था। जैसे कोई दुकान लगी हो। फिर फ्रिज को ऑफ करके उसकी सारी जमी बर्फ पिघलाई जाती और धो-पोंछ कर सारा सामान फिर सजा दिया जाता सिर्फ उस सामान को छोड़ कर जो रख के भूल गए थे और अब वह खराब हो चुकी है। अलबत्ता उसके लिये हमें ही डांट पड़ती। जब बच्चे थे तब और जब बच्चे वाले हो गये तब भी।

 

धीरे धीरे देखने में आया कि यह 'यूज़ एंड थ्रो' वाला दर्शन शास्त्र सब क्षेत्रों में आ गया। पानी की बोतल हो, घड़ी वाले पेन हों या कंप्यूटर हो। रिस्ट वाच हो या फिर मोटर कार। अब तो होड़ सी लगी हुई है। कोई चीज़ खराब हुई, निकालो ! निकालो ! दूसरी नयी वाली लाओ। सबसे दु:खद पहलू इस यूज़ एंड थ्रो का हमारे रिश्तों में आया। अव्वल तो कोई एक दूसरे को याद करके ही राज़ी नहीं। जब काम पड़े तब याद भी करते हैं तो जल्द से जल्द भूल जाना चाहते हैं।

 

                             हम यार किसके ?

                             काम निकला और खिसके

 

 गये वो जमाने जब स्वार्थी आदमी को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अब स्वार्थी होना कोई गलत बात नहीं रह गई। अब तो अपने-पराये की शिक्षा घर से ही मिल जाती है। माँ बाप ही सिखा देते हैं। परोपकार ! परोपकार ? वो क्या होता है ? लोग समझते हैं परोपकार तो अब केवल एन. जी. ओ. का एक काम या नाम भर रह गया है। परोपकार करना आउट ऑफ फैशन हो गया। अपना, मेरा इज़ इन। आज की एक बहुत दुखद त्रासदी यही है कि परिवार में, समाज में, रोल मॉडल की कमी है। 

 

इसी श्रंखला में ताज़ा खबर है कि एक सूबे में अभी दो साल भी न हुए थे बने और सड़क की सड़क बरसात में बह गयी। कहते हैं कि वह सड़क शो केस बतौर जी-20 के लिए बनाई गयी थी। भई ! जी-20 खत्म अब सड़क का क्या काम ? भारत तो वैसे भी सदैव से अपने गाँव, अपनी पगडंडियों पर गर्व करता आया है। भारत गांवों में बसता है और न जाने क्या क्या। खबर है कि इस सड़क के निर्माण में पूरे चार सौ तीस करोड़ लगे थे। (असल में 420 कहने में थोड़ा अटपटा लगता है। लोग मज़ाक बनाते हैं अतः दस करोड़ तो महज़ इसलिए खर्चे हैं कि 430 की फिगर सम्मानजनक लगे) दरअसल यह सड़क भी यूज़ एंड थ्रो का ही नमूना है। भई यूज़ हो गया। जी-20 खतम पैसा हजम। 

 

अब एक सड़क को कितने बरस चलाओगे ? सब सड़क जी. टी. रोड नहीं होतीं न सब बनाने वाले शेर शाह (सूरी) होते हैं। फिर कंजूमर इकनाॅमी का क्या होगा ? आप चाहते हैं कि सड़क बनाने वाले मजदूर बेकार बैठे रहें ? वे बेचारे दिहाड़ी मजदूर हैं। काम नहीं रहेगा तो भूखे मर जाएँगे। आप यही चाहते हैं क्या? आखिर मनरेगा कितनेक को रोटी देगा ? तारकोल इंडस्ट्री का क्या होगा? रोड रोलर और गेती, फावड़ा कुदाल कनस्तर डलिया, जूनियर इंजीनियर, चीफ इंजीनियर, ठेकेदार , नेता एक झटके में सब ‘बह’ जाएँगे अतः वे सब न बहें इसके लिए जरूरी है कि सड़क बहे। क्या करें बारिश थी ही इतनी तगड़ी इस साल। किसान जहां थोड़ी बारिश की आस लगता है ताकि फसल अच्छी हो उपरोक्त सभी लोग चाहते हैं कि मूसलाधार हो, लगातार हो ज़ोरदार हो, जम के हो ताकि सड़क, पुल बिल्डिंग्स बह जाएँ। ठेके मिलें और निर्माण हो। यह विध्वंस और निर्माण सब प्रकृति के चक्र हैं। इसमें अवरोध पैदा करने वाले, इसकी आलोचना करने वाले हम-तुम कौन ?

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