Thursday, October 2, 2025

व्यंग्य : के.जी. से पी.एच.डी. -- नया सिलेबस

 

 

बहुत बावेला मचता है जब कोई एक चैप्टर हटा दिया जाये या जोड़ दिया जाये। ये शोर-शराबा अक्सर वो लोग ज्यादा करते हैं जो या तो कभी स्कूल गए नहीं अथवा अपनी स्कूली / कॉलेज शिक्षा बहुत पहले खत्म कर चुके हैं। यूं कहने को अब उनका अपना कोई 'स्टेक' नहीं है मगर रौड़ा डालना है तो डालना है। अब कोई इनसे पूछे कि क्या एक चैप्टर हटा देने या जोड़ देने से सल्तनत खत्म हो गयी। क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया ? इसी तरह चैप्टर जोड़ने से कोई रातों-रात महान नहीं बन जाता। बच्चों ने कौन सा याद रखना है। उनसे इम्तिहान तक तो याद रखा नहीं जाता।  बिना नकल के इम्तिहान तो पास होता नहीं। वो इन चैप्टर को कब तक याद रख पाएंगे? वो रोजी-रोटी की भाग-दौड़ में बिज़ी हो जाएँगे। संविदा की एक अच्छी बात ये है कि ये आपको हमेशा 'टो' पर रखते हैं। पता नहीं अगले महीने तक ये संविदा चलेगी या नहीं चलेगी ? स्कीम का नाम अग्निवीर ठीक रखा गया है आप हमेशा अग्नि परीक्षा सी दे रहे होते हैं।

 

मेरा मानना है कि सारे सिलेबस एक ऑर्डर से ‘डिलीट’ कर दें। पिछले सिलेबस को अग्नि की भेंट कर देना चाहिए। पुराने सिलेबस की बात करना, उसे रखना जुर्म माना जाये। तब तक युद्ध स्तर पर काम कर सभी कक्षाओं में नए सिलेबस लागू कर दें। देखिये एक साल में कोई पहाड़ नहीं तोड़ लाएँगे आप। आपको पास होने से मतलब है, वो हम बिना इम्तिहान कर ही देंगे। एक बार हम इसी प्रकार से सातवीं से आठवीं क्लास में आ गए थे सन 1966-67 की बात है कारण टीचर्स की हड़ताल चल रही थी जो लंबी खिंच रही थी। सरकार ने सोचा टीचर्स पहले ही नाराज़ चल रहे हैं कमसे कम विद्यार्थियों को तो अपने पाले में रखो। अतः यह घोषणा कर दी गयी। टीचर्स की हड़ताल का क्या हुआ ? याद नहीं। मगर हम महाखुश हो गए। वो गाना है न “... मिलने की खुशी न मिलने का ग़म खत्म ये झगड़े हो जाएँ...” उसी तर्ज़ पर  “... पेपर अच्छा होने की खुशी, न पेपर खराब होने का ग़म खत्म ये झगड़ा हो गया....” नये सिलेबस का मसौदा आपके विचारार्थ प्रस्तुत है:

 

1.       के.जी. से प्राइमरी तक: बच्चों पर किताबों का, बस्ते का, परीक्षा का बोझ नहीं डालना है। अतः टीचर लोग बच्चों को कहानियां सुनाया करेंगे। भारत महान में मौखिक इतिहास का बड़ा महत्व रहा है। आपने सुना नहीं  “... बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी...” इसलिए न पेन, न पेंसिल... सब बुक्स केंसिल। इस तरह पाँचवी  क्लास तक चलेगा। आप दरियाई घोड़े का निबंध न लिखवाएँ बल्कि बच्चों को ज़ू दिखाने ले जाएँ। निबंध वो अपने आप लिख लेंगे। 

2.       छठी क्लास से दसवीं तक: आप बच्चों को अमर चित्र कथा टाइप बुक्स से पढ़ाएँ। अमर चित्र कथाओं ने हमारे लगभग सभी इतिहास पुरुष और देवी देवताओं के जीवन चरित लिखे हैं। समकालीन महान आत्माओं के बारे में उनसे लिखवाया जा सकता है। जहां तक विज्ञान की बात है उसके लिए भी काॅमिक्स टाइप किताबें लिखवाई जाएँ। मसलन, पुष्पक विमान, गणेश जी की सर्जरी, वाई-फाई, इंटरनेट (संजय से युद्ध का सीधा प्रसारण/आँखों देखा हाल सुनना) हनुमान जी की स्पेस तकनीक, रातों-रात श्रीलंका तक पुल बनाना। युद्ध में मिसाइलों का इस्तेमाल। हाइड्रोजन बम (ब्रह्मास्त्र ) का निर्माण/इस्तेमाल। हमारे सभी इतिहास पुरुषों/ देवी देवताओं और उनके  स्तुति गानों की एलीमेन्ट्री स्टडी। आरती/गायत्री मंत्र का सूक्ष्म अध्ययन। रामायण, महाभारत के अंशों की सप्रसंग व्याख्या।

3.बारहवीं तक: गीता का गहन अध्ययन, कुरुक्षेत्र का स्टडी टूर, बच्चों को धनुष बाण चलाने का प्रशिक्षण।

4.बी ए: बच्चों को भाला-त्रिशूल बनाना/चलाना सिखाना। पुराण और वेद का गहन अध्ययन। किस्सा तोता-मैना ताकि विद्यार्थी जान सकें न केवल भारत महान में तोता-मैना बोल सकते थे बल्कि आदमी उनकी भाषा समझ भी सकते थे। स्टडी टूर अयोध्या, तथा अपने ज़ोन के छोटे बड़े मंदिर, उनका इतिहास, पुजारियों की ड्यूटी लिस्ट व फ्यूचर प्राॅस्पेक्ट्स

5.       एम ए: मंदिर निर्माण कैसे किया जाता है? कांवर का सामाजिक महत्व व यूथ के लिये उपयोगिता, भारत के तीर्थों का भ्रमण। व्रत-उपवास की ज़रूरत और लाभ। माथे पर परपेंडिकुलर और हाॅरिजैंटल टीका (तिलक) लगाने का अर्थ साथ ही चन्दन का तिलक लगाने में महत्व। समग्र हवन सामग्री, आदर्श आरती थाली के तत्व और उनके विकल्प।

6.       पी.एच.डी.: देश विदेश के मंदिरों पर रिसर्च, घंटा बजाने के अनगिनत दिव्य/आध्यात्मिक लाभ और पॉज़िटिव अनर्जी का उद्भव, सन्यास आश्रम का जीवन में महत्व, भिक्षाटन- इतिहास तथा विज्ञान, लंगोटी पहनने के लाभ, इसी तरह के संबन्धित विषयों पर डिजर्टेशन।

 

इस तरह आप पाएंगे कि दस साल से कम की अवधि में भारत ब्रह्मांड-गुरु हो जाएगा। मेरी गारंटी है। विश्वगुरु तो हम पहले से हईये हैं।

 

चलो एक बार फिर से….

 

 

चलो एक बार फिर से ‘अनफ्रेंड’ हो जाएँ हम दोनों 

ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं ‘कमेन्ट’ ओ ‘लाइक’ की

न तुम मेरी रील बनाओ ग़लत ए.आई. नज़रों से

न मैं तुम्हारी ‘डी.पी’. देखूं ‘ज़ूम’ कर-कर के

न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये तेरी सेल्फ़ियों से

न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ लॉक्ड-प्रोंफाइल से

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है ‘अनब्लॉक’ करने से

मुझे भी लोग कहते हैं कि ये तमाम ‘प्रोफाइल’ ‘फेक’ हैं

मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरी बेंकाक मीटिंग की

तुम्हारे साथ भी बेहिसाब शॉपिंग के बकाये हैं

फेसबुक फ्रेंडशिप रोग हो जाये तो उसका भूलना बेहतर

कमेन्ट’ बोझ बन जाये तो उसको ‘डिलीट’ करना अच्छा

वो फ्रेंड्स जिन्हें हर पोस्ट ‘लाइक’ करना न आये

उन्हें ‘लेपटॉप’ में ‘वाइरस’ कह ‘रिमूव’ करना अच्छा                                 

चलो एक बार फिर से अनफ्रेंड’ हो जाएँ हम दोनों

 

Wednesday, October 1, 2025

व्यंग्य: ज़िंदा या मृत

 

 

यह हिन्दी फिल्मों का बहुत बार दोहराया गया संवाद है “उसे ज़िंदा या मृत पकड़ना है/मेरे सामने लाओ वह मेरा है। मैं मारूँगा उसे” थ्रिलर फिल्मों में अक्सर ऐसा होता था कि अंत में जिसे हमें पूरी फिल्म में मरा हुआ बताया जाता था वही क़ातिल निकलता था। उसके अपने आप को मृत घोषित करने में भी उसी का कोई स्वार्थ होता था। कहते हैं फिल्में देख कर बच्चे बिगड़ते हैं। और बड़े तरह-तरह के गुर सीखते हैं। चाहे वह चोरी-डकैती के हों या प्यार-मुहब्बत के। अब तो लोग कहने भी लग पड़े हैं कि फलां काम मैंने क्राइम शो देख कर किया। बहरहाल आजकल सब गड्डमड्ड है। पता नहीं रील लाइफ रियल लाइफ को फॉलो कर रही है या रियल लाइफ रील लाइफ को।

 

कोई दिन जाता है जब हम ये नहीं सुनते कि फलां गाँव में, फलां कस्बे में जिसे कागज पर मृत बताया गया वह ज़िंदा है। पता चलता है उसके घरवालों में से ही किसी ने ये प्रपंच रचा होता है अक्सर ज़मीन - जायदाद के लिए। इस पर एक अच्छी फिल्म पंकज त्रिपाठी अभिनीत ‘कागज’ भी बनी है।  मृत आदमी का अस्पताल में, श्मशान में ज़िंदा हो जाना भले आसान हो मगर बच्चू ! जिसे सरकारी कागज़ पर एक बार मृत दर्ज़ कर दिया तो उसके लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। यह वास्तव में ज़िंदगी-मौत की लड़ाई बन जाती है। एक बार किसी ने मुझे बताया था, मुझे सुन कर बहुत ताज्जुब हुआ था कि क्या ऐसा भी हो सकता है? उसका कहना था कि मानसिक चिकित्सालयों में जिसे आम भाषा में सीधे-सीधे ‘पागलखाना’ बोलते हैं वहाँ जिनका इलाज चल रहा है वो तो चल ही रहा है मगर वहाँ पर इन दो वर्गों के ‘मरीजों’ की भी एक अच्छी ख़ासी संख्या होती है जिन्हें उनके खुद के परिजन कुछ दंद-फंद करके दाखिल कर गए और फिर लौट कर नहीं आए। दूसरे वे जो ठीक हो गए हैं।  बिलकुल भले-चंगे हैं मगर उनके घरवाले लेने ही नहीं आ रहे। दोनों के आधारभूत कारण ज़मीन-जायदाद अथवा प्रेम प्रसंग है।

 

जब से सरकारी 'ग्रांट' और 'ओल्ड एज पेंशन' का रिवाज चला है तब से ऐसे केस खूब बढ़ गए हैं जहां मृत को ज़िंदा बता उसके नाम की पेंशन कोई और खा रहा है। ऐसे ही काल्पनिक नाम से पेंशन खाने के न जाने कितने प्रकरण हैं। सरकार में एक योजना है जिसके अंतर्गत यदि किसी कर्मचारी  की सर्विस में रहते हुए मृत्यु हो जाती है तो उसकी विधवा अथवा उसके बच्चे को सरकारी नौकरी में रख लिया जाता है एक साधारण सी परीक्षा के बाद। अब इस योजना के इतने पेच हैं कि सुन कर चक्कर आ जाएँ। जैसे कि मृत्यु एक, नौकरी थोड़े थोड़े अंतराल के बाद दो-दो बच्चों ने ले रखी है। विधवा के नाम पर भी खेल है। जैसे विधवा फर्जी है, असल विधवा तो गाँव में है उसे कुछ पता ही नहीं। इसी तरह एक तो और भी खिलाड़ी निकाला वह अपने गाँव चला गया और वहाँ से गाँव के सरपंच से मिल कर अपना डेथ सार्टिफिकेट भिजवा दिया जो उसके उम्मीदवार बेटे ने अपने सिर पर उस्तरा फिरवा कर ऑफिस में अपनी नौकरी के आवेदन के साथ सबमिट कर दिया। सो मेरे भारत महान में जहां पुनर्जन्म होता है वहाँ क्या जीवित क्या मृत ? जहां सात-सात जन्म साथ जीने-मरने की कसमें खाई जाती हैं। चचा ग़ालिब बहुत पहले कह गए हैं:

 

                         "मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने या मरने का

               उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले"

 

Monday, September 29, 2025

व्यंग्य : परीक्षा की एंटायर साइंस

 


 

पता नहीं किस दिलजले ने ये परीक्षा का सिस्टम चलाया और ये सिस्टम आज तक हमारा खून पी रहा है। यह कालज़यी है। इसे हम सब परीक्षार्थियों की उम्र लग गयी है। जब से पैदा हुए हैं परीक्षा ही दे रहे हैं। कभी कोई, कभी कोई। इसके चलते न जाने कितने परीक्षार्थी अपने जीवन से अपनी जवानी से हर साल हाथ धो बैठते हैं। एक गाना है न "....ज़िंदगी हर कदम एक जंग है.." । दरअसल, वह कहना यही चाहता है कि ज़िंदगी हर कदम परीक्षा है, एक्जाम है, इम्तिहान है। मेरी पीढ़ी के भुक्तभोगियों से पूछो। हमने पाँचवीं क्लास से बोर्ड की परीक्षा दी है। सोचो ! पाँचवीं क्लास में ही यह परीक्षा रूपी भूत हम मासूमों के पीछे पड़ गया था। कल्पना करिए पाँचवीं का बच्चा अपने मामा जी की उंगली पकड़े स्कूल से इतर दूसरे सेंटर पर इम्तिहान देने जा रहा है। बैरियों को तनिक भी दया नहीं आई। फिर आठवीं बोर्ड और फिर हायर सेकंडरी बोर्ड। इतने से मन नहीं भरा तो हर जगह इम्तिहान। स्कूल कॉलेज का तो मिशन वाक्य यही होना चाहिए। 'परीक्षा ही परीक्षा एक बार मिल तो लें'

 

इसमें हमारे सहायक होते थे, भगवान उनका भला करे, कुछ सहृदय टीचर ! जो परीक्षा से दो-चार दिन पहले ‘इंपाॅर्टेन्ट’ सवाल बता देते थे। हमरे टाइम पर कुंजी/गाइड बहुत चलती थी। एक और वैरायटी थी, ‘गैस पेपर’ की। बुक डिपो से गैस पेपर ले आते थे। वो उस्ताद भी उसे ‘देवर भाभी के किस्से’ की पीली पन्नी मे लिपटी पतली किताब की तरह स्टेपल लगा कर रखते थे। गैस पेपर भी कई ब्रांड के आते थे। सब आपकी इम्तिहान में बल्ले बल्ले का वायदा करते थे। कॉलेज में बाहर ही गाइड के अलावा ‘दुक्की’ भी उपलब्ध होती थी। जो टेक्स्ट बुक की अपेक्षा सस्ती मिलती थी। टीचर पूरे साल कह-कह के थक जाता था कि कुंजी मत पढ़ो, गाइड मत पढ़ो, दुक्की से दूर रहो पर अपनी नाव यही सब पार लगाते थे।

 

तब हमें बिलकुल भी भान नहीं था कि पूरा का पूरा पेपर लीक किया/कराया जा सकता है। अथवा महज़ एक ब्लू टूथ और आप सीना ठोक कर पास हो जाएगे। हमारे टाइम पर ये साॅल्वर वाली सुविधा भी नहीं थी। जो फर्रे, चिट बनाने होते थे खुद ही अपने करकमलों से रात-रात भर जाग कर बनाने पड़ते थे। फिर याद भी रखना पड़ता था कौन से सवाल का उत्तर कहाँ छुपाया है। इस चक्कर में न जाने कितनी कमीजों की 'कफ' की सिलाई उधेड़ी है।

 

 

अब परीक्षा पास करना कितना सुलभ हो गया। आपको साॅल्वर चाहिए ? मिल जाएगा। आपको पेपर पहले चाहिए ? मिल जाएगा। आपको परीक्षा रद्द करानी है ? हो जाएगी। आपको क्लास में नहीं आना है ? ‘जो हुकुम मेरे आक़ा’। आपको परीक्षा देनी ही नहीं है और डिग्री/डिप्लोमा चाहिए? वान्दा नहीं। आप तो कोर्स का नाम बोलो ? 'सिंगल विंडो' के माफिक हमने एक ही छत के नीचे पूरा का पूरा विश्वविद्यालय आपके लिये खोल मारा है। 'आपकी डिग्री आपके द्वार' के अन्तर्गत एम.बी.बी.एस. हो, एम.बी.ए. हो या फिर बी.टेक. डाइरेक्ट आपके एकाउंट में ट्रांसफर कर दी जाएगी। हरकत नहीं। आपको टेंशन नहीं लेनी है। फिर हम कायकू बैठे हैं। आप को फुर्सत कहां। आप तो राष्ट्र निर्माण के महत्ती काम में रत हो। जो अपने आप में बहुत बड़ी परीक्षा है। ये छोटे-मोटे पेपर-वर्क आप हम पर छोड़ दो।

 

                                      ऑल दि बेस्ट !!

Saturday, September 27, 2025

व्यंग्य : बहुत टेंशन है

 

 

 

हमने अपने बचपन में ये टर्म  कभी सुना भी नहीं था। यहाँ तक कि जब कॉलेज पास कर लिया और नौकरी करने लगे तब भी इस शब्द से अनजान थे। टेंशन किस चिड़िया का नाम है हमें कोई क्लू नहीं था। हो सकता है कुछ ऐसा रहा भी हो तो हमारे माता-पिता को रहा होगा। वो इसको हमारे पास तक नहीं आने देते थे। हम पास होंगे या फेल, ये टेंशन अगर रही भी होगी तो हमारे मास्टर साब को रही होगी। हमें कतई नहीं थी। धीरे धीरे पता चला जब एक भाई की पिटाई हो रही हो तब जो फीलिंग बाकी भाइयों में आती थी उसे टेंशन कहते हैं। घर से माता जी की बरनी/मर्तबान से अचार चुराते वक़्त जो फीलिंग आती थी, उसी का नाम टेंशन था। पर हमें ऐसी कोई टेन्शन नहीं थी। मज़े की बात है माता जी की गुल्लक से तार से चवन्नी/अठन्नी चुराते वक़्त भी हमें कोई टेंशन नहीं होती थी। कारण कि माता जी को कौन सा पता लगना है। जब गुल्लक फोड़ी जाएगी तब की तब देखी जाएगी। साफ मुकर जाएँगे।

 

 

इसके विपरीत अब 2025 में मेरे घर के कॉकरोच बोलो, छिपकली बोलो, सब टेंशन में मालूम देते हैं। न केवल घर-बाहर सब टेंशन में मालूम देते हैं। वो साफ-साफ ऐलानिया इस बात को कहते भी फिरते हैं। उनका बस चले तो अपने सी.वी. में एक कॉलम अथवा अपने विजिटिंग कार्ड पर ये लिखवा लें कि वो कितनी टेंशन में रहते हैं। गोया कि टेंशन में रहना अब एक गुण बन गया है। जिसे पर्याप्त टेंशन न हो उसे हिकारत की नज़र से देखा जाता है। इसे तो कोई फिक़र ही नहीं, इसे तो पढ़ाई की परवाह ही नहीं। कितना ही कहते रहो ये तो घर के काम की टेंशन ही नहीं लेता। इसके चलते स्कूल में पढ़ रहे छोटे-छोटे बच्चों को टेंशन होने लग पड़ी है। कॉलेज तक आते-आते फुल-फुल टेंशन की आदत पड़ जाती है। घर वाले इसमें कोई कमी लाने की बजाय पूछ-पूछ कर या गलत कोर्स में दाखिला दिला कर बच्चे की टेंशन में इजाफा ही करते हैं। यकीन नहीं आता तो देख लो कोटा शहर के कोचिंग सेंटर की खबरें। 

 

 

वो फिल्म 'हम दोनों' का एक गाना है न "...जहां में ऐसा कौन है जिसको ग़म मिला नहीं...." बस तो आज इस जहां में ऐसा कौन है जिसे टेंशन नहीं। हमें माँ बाप से छिप कर सिगरेट पीने में भी टेंशन नहीं होती थी। आजकल बच्चे लोग प्रोटीन और कार्ब की टेंशन भी लेते हैं। कहीं नेट स्लो न हो जाये कहीं नेट चला न जाये। कहीं डाटा खत्म न हो जाये। इस बात की भी टेन्शन रहती है। प्रेमी टेंशन में रहता है हरदम। वही हाल प्रेमिका का है। पति टेंशन में है, पत्नी टेंशन में है। भाई टेंशन में है, बहन टेंशन में है। मालिक मकान टेंशन में है, वही हाल किरायेदार का है। मैं बाहर चला जाऊं तो मेरा पालतू कुत्ता टेंशन में आ जाता है। बैठा-बैठा न जाने क्या सोचता रहता है। फिल्म बनाने वाला टेंशन में है, मल्टीप्लेक्स का मालिक टेंशन में है। और तो और जो फिल्म में कलाकार नाचते गाते खुश नज़र आते हैं उन्हें भी भयंकर टेंशन रहती है। अगली फिल्म कब मिलेगी, मिलेगी भी कि नहीं। मिल गयी तो चलेगी कि नहीं। ब्लॉक बस्टर होगी या आजकल की बायोपिक फिल्मों की तरह पहले हफ्ते में बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ देगी। आप भागे भागे डॉक्टर के पास जाते हैं तब से वो खुद टेंशन में बैठा था क्या बात है आज कोई मरीज नहीं आ रहा। वह आपको दर्जन भर टेस्ट और गोलियां देता है, दोनों किस्म की, लाल-पीली भी और मुहावरे वाली भी। आपसे फीस लेकर उसकी टेंशन कुछ देर को कम हो जाती है। तो देखा हुज़ूर आपने इस टेंशन का कमाल। जैसे कि टेंशन अकेले काफी नहीं थी सो अब उसका एक नया संस्करण चल गया है - हाइपर टेंशन। तो भाइयो बहनो ! अब टेंशन में रहने का एक फैशन चल निकला है। आप अगर अपने साइक्लाॅजिस्ट से मिलेंगे तो वह आपको समझाएगा कि थोड़ी टेंशन अच्छी चीज़ होती है ज़िंदगी के लिए। एक मित्र एक बार मेरे रात की ड्राइव को लेकर सलाह दे रहे थे कि एक पेग लगा कर ड्राइव करोगे तो उसकी टेंशन में बेहतर ड्राइव कर पाओगे। खैर ! आप कोई टेंशन न लें।  आप महज़ वोटर हैं, टेंशन लेगा, उम्मीदवार लेगा, बी. एल.ओ. लेगा, नेता लेगा। मुझे कब से टेंशन थी इस लेख को लिखने की। कम्पलीट हो गया है तो अब छपवाने की टेंशन है।

Thursday, September 25, 2025

क्या खबर कौन सी बात उनको नागवार

 

क्या खबर कौन सी बात उनको नागवार

 

गुजरे

 

सो एक मुद्दत हुई हमें उनकी गली से

 

गुजरे

 

मेरी शामो सहर आबाद थी जिनके दम पे

 

एक अर्सा हुआ उनको मेरी  ख्वाबीदा नज़र से

 

गुजरे

 

ज़ाहिर हैं वो खफा हैं मुझी से

 

जिनकी चाहत में मेरे दिन रात

 

गुजरे

 

गुजरे तो गुजरे वल्लाह सबकी हंसी खुशी

 

गुजरे

 

दिन गिन गिन काटने पड़ें दिन

 

अब ऐसी भी न किसी चाहने वाले पे

 

गुजरे 

Wednesday, September 24, 2025

व्यंग्य : वोट चोरी के फायदे

 

                                                

 

एक गाना है मैं उससे सहमत हूँ  “...हमने एक बार सताया तो बुरा मान गए” ऐसा ही कुछ एक नेतानी जी ने भी कहा है। देखिये जब मुहब्बत होती है तो मीठे-मीठे उलाहने दिये जाते हैं। तुमने मेरी नींद चुरा ली है, तुमने मेरा चैन चुरा लिया है। फाइनल स्टेज आती है जब कहा जाता है तुमने मेरा दिल चुरा लिया है। इस प्राॅसस में दिल की चोरी अल्टीमेट है। फिर उसके बाद चुराने को कुछ अगले के पास रह भी नहीं जाता। देखिये कोई चीज़ कितनी भी बुरी हो, कोई न कोई अच्छाई उसमें भी होती है। जैसे कहते हैं न, वक़्त ज़रूरत खोटा सिक्का काम आता है। यहाँ मैं इस बात से बच रहा हूँ कि किसने क्या किया। मेरा तो सिंपल काम है कि 'एज़ सच' वोट  चोरी  के क्या-क्या फायदे हो सकते हैं। कोई भी करे, किसी देश में भी करे, कहीं भी करे।

 

1.       वोट चोरी से चुना हुआ नेता हमेशा गुडी-गुडी बिहेव करता है। वह असलियत जानता है और यह भी जानता है किसके सौजन्य से वह नेता बना बैठा है अतः उसकी लाॅयल्टी और एकनिष्ठता सदैव अपने आका के साथ रहती है।

2.       वोट चोरी के ख्याल अथवा ज़िक्र मात्र से नेता सचेत हो जाता है। यह एलर्टनैस बहुत काम की चीज़ है। नेता सचेत हो तो अगला स्टेप सक्रिय बनने का है। सक्रिय नेता ही सफल नेता होता है।

3.       वोट चोरी से बने नेता को क्लीन शेव रहने की सलाह दी जाती है ताकि कोई दूर-दूर तक यह न कह सके चोर की दाढ़ी में तिनका।

4.       इससे कितने मैन आवर्स बचते हैं। भाई आप वोट देने जाओ, जाओ मत जाओ आप अपना कोई अन्य प्रोडक्टिव काम करो। देश में उत्पादकता बढ़ाने की बहुत ज़रूरत है। ये चुनाव, वोट डालना, वोट गिनना, हमारे ऊपर छोड़ दो।

5.       आप अब 75 साल में समझ ही गए हो कि नेता अपने आप एक अलग ही वैरायटी है। वह भले किसी भी दल का हो। सच तो ये है कि आप अगर कल को नेता बन जाएँ तो आप भी उन जैसे ही बन जाएँगे। बस आपको ही पता नहीं चलेगा कि ये कायाकल्प कब हुआ।

6.       आप सोचो ये चुनाव कितना खर्चीला प्राॅसस है। पोस्टर, स्याही। कागज़, ई वी एम मशीनें, इस काम में लगे बेचारे टीचर, गाड़ियों का काफिला और भी न जाने क्या क्या? हमारे ग़रीब देश को ये सूट करता है क्या ? चोरी बड़ी किफ़ायती चीज़ है। उपरोक्त तमाम तामझाम की अपेक्षा सस्ते में ही काम हो जाता है। आपको नेता चुनना है। आपने चुन लिया। अब घर जाइए। हमने इसका क्रेडिट खुद नहीं लेना है, आपको ही देना है।

7.       देखो ये चोरी को पता नहीं कब किस काल में और किसने एक डर्टी वर्ड बना दिया यह डर्टी वर्ड नहीं। आदि काल से चल रहा है। आप बॉलीवुड की तरफ नज़र घुमाइए। स्टोरी चोरी की, गीतों की धुन चोरी की, चोरी-चोरी, चोरी मेरा काम, चोर मचाये शोर। हमारे बचपन में खेल भी होते थे। चोर-सिपाही, चोर-पुलिस। फिल्मी गीत तो बिना चोर बन ही नहीं सकते। चोरी, चुरा लिया। अतः चोर-चोरी कोई गलत काम नहीं। इसे हीन दृष्टि से देखना बंद करिए।

8.       आप देखिये इससे कितने लोगों को रोजगार मिलता है। टी.ए. डी.ए. अलग, एक चुनाव क्षेत्र से दूसरे चुनाव जाना होता है। वो भी फटाफट। इससे देश की एकता में, उसके एकीकरण में मदद मिलती है। कहावत भी है 'ट्रैवल मेक्स मैन कम्प्लीट'। 

9.       जब सब चोरी में लिप्त रहेंगे तो कौन किसे चोर कहेगा? हम सब चोर हैं। मुझे याद है एक बार नेता जी ने अपने वोटर्स से वोट की अपील करते हुआ कहा था। मैं नहीं कहता मैं भ्रष्ट नहीं हूँ। आप तो उसे वोट दो जो सबसे कम भ्रष्ट हो। आप मुझे ही कम भ्रष्ट पाएंगे। तो वोट चोरी में भी ये मायने नहीं रखता कि आपने  बीस वोट चुराये या बीस हज़ार।

10.      आदमी के ज़ीन में है चोरी करना। फल तोड़ना मना था फिर भी ईव ने ईडन गार्डन से सेब चुरा कर आदम को खिलाया था। खिलाया था कि नहीं ? क्या आप आदम ईव की संतान नहीं। कोई चैन चुराता है, कोई नींद चुराता है। कोई दिल चुराता है। कोई कोई तो पति ही चुरा लेती हैं। कोई बेंक से रकम चुराता है। कोई सड़क, पुल चुराता है। कोई विमान तो कोई रेल चुराता है। क्षेत्र अपना अपना, विशेषज्ञता अपनी अपनी। यूं कहने वाले कहते हैं चोरी घर से ही शुरू होती है। मम्मी की गुल्लक से, पापा की जेब से।

11.      कहते हैं कोयल घोंसला नहीं बनाती। वह कौव्वे के ऊपर कड़ी नज़र रखती है। और सही टाइम पर वह अपने अंडे कौव्वे के घोंसले में रख आती है। चालाक इतनी कि अगर चार अंडे रखती है तो कौव्वे के चार अंडे चुरा लेती है। इससे दो बातें पता चलती हैं।  एक, चोरी करने के लिए लगातार कड़ी नज़र रखना जरूरी है दूसरे, जब यह गुण पशु पक्षियों में भी पाया जाता है तो मनुष्य को तो भगवान ने बेहतर दिमाग से नवाजा है। वह बेहतर करेगा इसकी उम्मीद की जाती है। और कर भी रहा है।

12.     अतः कृपया किसी को भी वोट चोर कहने से पहले सोचिए। अगला वोट चुरा क्यों रहा है ? ईमानदारी से आप उसे चुनाव जीतने नहीं देते। एक थानेदार जब एक हत्या की तफतीश के सिलसिले में एक गाँव पहुंचा तो लगा हलवाई की दुकान पर दबादब मिठाई खाने। किसी ने कहा "साब ! आप किसी के मरे में आए हैं। दुख की घड़ी है"। थानेदार बोला "भाई ये ठीक है ! खुशी में तुम बुलाओ नहीं और दुख में मैं मिठाई नहीं खाऊँ। तब मैं मिठाई खाऊँगा कब अतः जब तक चले इस चोरी को चलाते रहो। चोर कौन है ? इसमें न जाएँ। मान के चलें चोर कौन नहीं ? ज़ौक़ बहुत पहले कह गए हैं:

 

                        लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले

                        अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले

                        दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ

                        तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले

 

 

 

Memorandum to Doggie sir!

 

                                                         


 

 

India is a country of many diversities. Quite colorful at that, to say the least.  In an Indian province, when the delegation of farmers decided to submit their Memorandum of Demands to the District Magistrate-cum- Collector, containing their grievances. Lo behold! D.M. was not in his office, popularly called Collectorate. Anguish of farmers was understandable. More so, when they had taken prior appointment of DM. Learned readers would realize, DM is not 'do nothing idler'. He has many engagements. Office Meetings, meeting number of aggrieved citizens as also field inspections and as if this was not enough, VCs (Video Conferences) at the drop of hat. Farmers did not take absence of DM kindly. Farmers were so enraged that when they spotted a stray dog in Collectorate courtyard, they decided to tie their memorandum in the neck of this dog and as if it was not enough, they got themselves photographed with the dog. 

 

 

Farmers were enraged after giving appointment to them how could Collector chicken out like this. The memorandum had nothing uncharitable against the collector. In fact, the grievances raised were not within the authority of the collector. It was addressed to the Central Govt. Collector’s office and bungalow has large garden. The garden often has squirrels, pet dog, cat, deer and even langoor. So, they can be trained to receive memorandum on collector’s behalf. The delegates can get themselves group-photographed with them. You are used to see tourists getting themselves photographed with chimpanzee, drugged tigers, parakeets and dolphins. For this purpose, it could be notified for the information of all and sundry that with immediate effect Squirrel of Collector’s office/residence garden is nominated/authorized to receive memorandum. Delegates cannot give this memorandum to any other squirrel found loitering on road. Remember! a young first-time film actor turned M.P., busy in film world was on the horns of dilemma whether to ‘act’ in films or in his constituency.  He authorized a Tom or was it Dick to act as his emissary, meet electorates and local officials.  The over enthusiast Tom / Dick went ga ga and splashed the letter in entire social media. Needless to say, the Hon’ble M.P. became butt of jokes. The letter was withdrawn/cancelled within one week of its issuance. The opposition contestant felt sadistic pleasure.  The actor found acting, his old passion and avocation more paying and satisfying then in his new role thrust upon him. Poor electorates were left high and dry.    

 

 

These creatures, as is the trend these days, would be hired on contract basis. For this purpose, two sets of creatures would be hired one for office and the other one for official residence. May mull over training/hiring crows and parrots to attend to telephone calls. Not a tough task, only a couple of sentences would suffice e.g. "Saab is in bathroom"

"….saab is in meeting…." "Saab is out on field…" "No idea" etc.

This would also help increase efficiency. With men attending these routine chores there is always a fear he may be hobnobbing with visitors, in the process may be getting his palm greased.   These docile creatures are far from such temptations. They just need a couple of bananas, a bowl of milk, green chillies, green grass and may be a bone. Imagine! just a bone to wipe away the bone of contention forever. The animal will be filled with self-confidence and pride. After all they are integral part of our culture. No deity travelled on foot. They had their favorite ‘rides’ be it mouse, buffalo, lion or crow. Time to restore the ‘lost’ pride among them.

 

Tuesday, September 23, 2025

व्यंग्य : वीज़ा एक लाख डॉलर का

 


 

 

अमेरिका ने अपने वीज़ा की फीस सीधे एक हज़ार डॉलर से बढ़ा कर एक लाख डॉलर कर दी है। इससे हमारे भारत महान में खुशी की लहर दौड़ गयी है।  बक़ौल सरकारी प्रवक्ता, यह एक 'गोल्डन-अपॅरचुनिटी' है इसके लिए हमें अमेरिका का शुक्रिया अदा करना चाहिए। कारण कि अब ये सत्तर लाख टैकी जब घर वापसी करेंगे तो दुनिया की कोई ताकत इंडिया को महान बनने से रोक नहीं सकती। अमेरिका का आव्हान अगर ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) है तो हमारा ‘मीगा’ (मेक ग्रेट इंडिया ग्रेट अगेन)  है। अब अगर मीगा बनना है तो उसके लिए 'हार्ड-डिसीजन' लेने पड़ेंगे। वो एक कहावत है न 'डेस्परेट टाइम्स नीड डेस्परेट मैजर्स'। अतः यह एक 'गाॅड- सेंट' अवसर है। आपदा में आपको अवसर मिला है। हमारे यहाँ तो इसका सरकार ने खूब ही 'वैलकम' किया है।

 

अब हमने 'मीगा' कह तो दिया। अमेरिका वालों ने इसे सीरियस ले लिया। उसने पूरा सहयोग दिया कि भारत को ग्रेट बने। सोचने वाली बात ये है कि ये लोग जब घर वापसी करेंगे तो हम इनका करेंगे क्या ? क्या हमारे पास इनके लिए पर्याप्त नौकरियाँ हैं। यूं वैसे तो दो करोड़ जॉब्स में यह कोई मुश्किल भी नहीं। सोचो क्या ग़ज़ब समां रहेगा। मनरेगा से सीधे मीगा। नौकरी मैंने इसलिए कहा कि अब हरेक को बिजनिस करना तो आता नहीं। और क्या कर सकते हैं ? जामतारा ? मेवात ? वो भी सेचुरेट हो गया है। मुझे डर ये है और ये डर वर्तमान में मनरेगा में लगे लोगों को भी है कि ये सब अमेरिका से आएंगे तो उनको उतना न्यूनतम काम मिल भी पाएगा ?

 

इस प्रस्तावित घर वापसी को सब अपने-अपने चश्मे से देख रहे हैं। एक वर्ग का कहना है कि अभी भारत 5 ट्रिलियन की इकॉनमी के लिए संघर्षरत है। मगर जैसे ही ये सत्तर लाख आए तो आप समझो हम नंबर वन तो नहीं (ये कुछ ज्यादा हो जाएगा) नंबर दो तो बन ही जाएँगे। विश्वगुरू हम पहले से हैं हीं। हमारे दोनों हाथों में लड्डू हैं। हमारे इन सत्तर लाख लोगों को भी तो हक़ है कि वे अमृत काल में अमृत-पान करें। हमें ये शोभा नहीं देता कि हम स्वार्थी बन अपने भाई-बहनों को इससे वंचित रखें।

 

एच-1 बी का तो अर्थ ही ये है।  एच फॉर हिंदुस्तान। बस ! तो ये सोचो हम डेढ़ अरब तो ऐवें ही 'टाइम पास' करते रहे। असली ब्रेन तो अब आयेंगे। वो भी दो चार दस नहीं पूरे सत्तर लाख। सोचो ! सत्तर लाख प्रखर, प्रतिभाशाली लोग यहाँ गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले दफ्तर-दफ्तर नज़र आएंगे तो क्या सीन रहेगा। मेरी चिंता यह है कि ये लोग का मार्किट में कितना प्रेशर रहेगा। क्या रियल स्टेट, क्या माॅल, क्या कपड़े, क्या कारें। अब इस के सामने हम शुद्ध भारतीय नागरिक कैसा लाचार सा फील करेंगे वैसे ही जैसे बंगलोर, पुणे के सामान्य नागरिक फील करते होंगे। दूध से लेकर दारू तक मंहगी हो जाती है। मकान के किराये आकाश छूने लगते हैं।

 

ये सत्तर लाख टैकी के लिए हमारा प्लान क्या है ? क्या उनके लिए नौकरियाँ हैं ? या वो अप्रेंटिस से शुरुआत करेंगे? हो सकता है हम इन्हें संविदा पर रख लें। इससे स्मार्ट सिटी ही नहीं बनेगे बल्कि स्मार्ट राज्य, स्मार्ट इंडिया बनेगा। और कुछ नहीं तो अग्निवीर तो बन ही सकते हैं।         

Monday, September 22, 2025

व्यंग्य : नो गिफ्ट्स प्लीज़ !

 


 

सरकार ने आदेश निकाला है कि इस दीवाली खबरदार किसी ने किसी को गिफ्ट दिया तो। भई ! हमारा देश ग़रीब है। ग़रीबों को क्या ये शोभा देता है कि वो महंगे-महंगे गिफ्ट्स दें। यह उपहार लेने-देने का रिवाज ही ग़लत है। यह बिलकुल वैसा ही जैसे आप दहेज लेते-देते हैं। हमारे देश में दीवाली, रिश्वत लेने-देने का ऑफिसियल त्यौहार है। आप निडर, निशंक होकर रिश्वत का आदान-प्रदान कर सकते हैं। दीवाली पर, आपके लिए थोड़े कुछ होता है। सब उपहार बच्चों के लिए, भाभी जी के लिए होते हैं। कुछ लोग, ऐसा मीठा उलाहना देते सुने जाते हैं: सर ! आप हमारे और भाभी जी के बीच में नहीं आएंगे। ये देवर-भाभी का मामला है। इससे आपकी आत्मा पर जरा भी बोझ नहीं पड़ता। बशर्ते आत्मा अभी ज़िंदा हो।

 

मुझे वो जोक याद आ रहा है कि भिखारी होकर गर्लफ्रेंड रखते हो? वह बोला जी गर्ल फ्रेंड ने ही भिखारी बनाया है। अतः हम पीछे, नेशनल और इन्टरनेशनल फील्ड में गिफ्ट्स का खूब खुले दिल से लेना-देना करते आए हैं। ऐसा करते-करते हम इस स्टेज पर आ गए हैं कि अब सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है कि बस बहुत हो गया। जल्द भ्रष्टाचार निरोधक कानून (प्रिवेन्शन ऑफ करप्शन एक्ट ) की तरह उपहार निरोधक कानून (प्रिवेन्शन ऑफ गिफ्ट एक्ट) लाया जाएगा। अब इस दीवाली पर, न कोई गिफ्ट लेगा, न देगा। मैं समझता हूँ अफसर लोग इसका कोई न कोई तोड़ निकाल लेंगे। और कुछ नहीं तो, जहां से ये आदेश निकले हैं वो अफसर ही पतली गली बता देंगे। फिर भी मेरा काम है आपको सुझाव देना। अतः प्रस्तुत है:

 

1.       आप अपने परिवार में किसी का काल्पनिक बर्थ डे मना सकते हैं। परिवार में आपके कुत्ते-बिल्ली-तोता भी आते हैं। बर्थ डे पर गिफ्ट्स लेना अथवा रिटर्न गिफ्ट देने पर कोई पाबंदी नहीं है।

2.       अभी दीवाली में बहुत समय है आप दीवाली आए इससे पहले ही बेधड़क गिफ्ट ले दे सकते हैं

3.       आप हवाई जहाज से 'ऑल एक्सपेन्सस पेड हॉलिडे' पर जा सकते हैं। दीवाली से इसका क्या लेना देना।

4.       वसुधैव कुटुंबकम के अंतर्गत सब भाई बहन हैं। भाई बहन को उपहार देने की दीर्घ परंपरा है। दीवाली तक इसकी वेट नहीं की जाती।

5.       आपकी कार पुरानी हो गयी है। नयी कार जो देने आए उससे बदल लीजिये। एक्सचेंज ऑफर का ज़माना है।

6.       आप महंगा कोट / महंगा पर्स अथवा ऐसी ही कोई वस्तु जो आप देना चाहते हैं उसे आप अपने विजिट पर भूल भी तो सकते हैं। बात खत्म हुई। कौन कब छोड़ गया? न आपको याद है, न छोड़ने वाले को।

7.       आपके बच्चे के महंगे स्कूल की महंगी फीस देना कोई गिफ्ट नहीं है।

8.       इन दिनों अपने आउट हाउस का ख्याल रखिए। कहीं ऐसा न हो कोई वहां बड़ी धनराशि छोड़ जाये और आप को पता ही नहीं चले।  

9.       हमारे ऑफिस में जब यह तय हुआ कि मीटिंग में प्रति गेस्ट केवल पाँच रुपये स्वीकृत किए जाया करेंगे। मित्र लोगों ने उसके लोए भी जुगाड़ निकाल लिया। लोगों ने गेस्टों की संख्या बढ़ा दी। जिससे सबको काजू, काजू कतली, चीज़ सेंडविच और लंच का इंतज़ाम हो जाता था। खाने वाले खुश, खिलाने वाले खुश। नियम का फुल-फुल पालन भी हो गया।

10.     अक्सर शादी -ब्याह के निमंत्रण पत्रों पर लिखा होता है कृपया उपहार न लाएँ। इसके दो अर्थ होते हैं। पहला है, आपको याद दिलाना कि भूलना नहीं। दूसरा, उपहार न लायें आप तो कैश दे दें। दूल्हा-दुल्हन अपने आप जिस वस्तु की दरकार है ले लेंगे। बाई दि वे, शगुन को गिफ्ट नहीं माना जा सकता। शगुन तो कभी भी लिया-दिया जा सकता। सालगिरह के पहले भी सालगिरह के बाद भी। एंगेजमेंट की एनिवर्सरी, मैरिज एनिवर्सरी। दीवाली पर मना है तो क्या आस पास ही न जाने कितने त्यौहार हैं। आखिर भारत को यूं ही तो नहीं त्यौहारों का देश कहा जाता।

Sunday, September 21, 2025

व्यंग्य : रेल नीर एक रुपया सस्ता--खुशी की लहर

 

                                           


 

   

जैसे ही ये खबर पता चली कि रेल नीर की एक लीटर पानी की बोतल अब पंद्रह रुपये की जगह मात्र चौदह रुपये की बिका करेगी, पूरे समाज में खुशी की लहर फैल गयी है। क्या 'प्यासे' क्या 'न प्यासे' सब आत्मविभोर हो गए हैं। सोचो ! आपने कितने पैसे बचा लिए। अब आपको अमीर बनने से कोई नहीं रोक सकता। आप ही सोच कर देखो! आप और आपके परिवार में कितना पानी पीया जाता है। हर बोतल पर एक रुपये यानि पूरे सौ पैसे की बचत हुआ करेगी। अब ये आपकी जिम्मेवारी है कि आप चार रुपये खुले रखा करें कारण कि आपने देना है बीस रुपया या पचास रुपये का नोट और फिर चेंज की किल्लत। अतः अब ये पूरी आपकी जिम्मेवारी है चार रुपये खुल्ले जेब में रख कर यात्रा करें। इसमें ये नहीं पता चला कि यदि यही बोतल ठंडी ली जाएगी तो कितना खर्चा लगेगा। अक्सर वेंडर यही कहता है कि ठंडी बोतल का मुकतलिफ़ दाम है और सादी बोतल का अलग। सो ये चौदह रुपये हो न हो सादी बोतल का दाम होगा।

 

पानी जीवन अमृत है। अब अमृत काल में ये पानी रूपी अमृत सब ग़रीबों को मुहैया कराया जायेगा। आखिर ग़रीबों का भी हक़ है इस नीर पर। अब उन्हें कहने की ज़रूरत नहीं:

 

                            मैं नीर भरी दु:ख की बदली

 

 खुश हो जाइए। पूरे सौ पैसे कम किए गए हैं। एक-एक पैसे का महत्व होता है। आपने कहावत सुनी है न बूंद बूंद से दरिया बनता है। तो रेल नीर की यही बूंद आपको मालामाल कर देगी। भूलना नहीं है यह उपलब्धि आपको रेलवे की वजह से मिलने जा रही है। रेल नीर अब पंद्रह की जगह केवल चौदह रुपये में मिला करेगा। मुझे डर है अब कहीं लोग बस यूं ही न रेल नीर खरीदने और पीने लग जाएँ। कारण कि जब भी शराब सस्ती होती है तो  ठेके पर भीड़ जुट जाती है। पेटी की पेटी लोगबाग खुशी खुशी ले जाते हैं। उनके चेहरे की खुशी छुपाए नहीं छुपती है। ऐसा ही कुछ रेल नीर के साथ होने वाला है। मुझे डर है कहीं रेल नीर आउट ऑफ स्टॉक न हो जाये।

                        नीर वही तीर वही

                        बस पानी की रवानी बदल गई

                        पीर वही कसक वही

                       बस दर्द की कहानी बदल गई

 

इतना ही नहीं, आधी लीटर रेल नीर पानी की बोतल भी सस्ती हो गई है। उसके लिए आपको अब दस रुपये नहीं केवल और केवल नौ रुपये देने होंगे। इसे कहते हैं बोनान्जा। सोचो !  आधे लीटर रेल नीर के लिए आपको अब केवल नौ रुपये देने हैं। बस ये देखना कि नौ रुपये खुले हों आपके पास। अगर आपके पास नहीं तो बेचारे वेंडर के पास कहाँ से आएंगे ?  फिर न कहना कि वेंडर ने एक रुपया वापिस नहीं किया। कहीं आप लग जाओ ट्वीट करने या रील बनाने। आपको शुकर मनाना चाहिए कि अन्य ब्राण्डों की तरह रेल नीर अभी नकली बनना शुरू नहीं हुआ। बाकी सब ब्राण्ड्स को देख लो। सबके नाम से दसियों बोतल मार्किट में हैं। मैं तो कहूंगा रेल नीर को खरीदना कंपलसरी कर देना चाहिए। बल्कि जो भी एक बार रेल में यात्रा करेगा उसे एफीडेविट देना होगा कि वह प्यासा मर जायेगा/जायेगी मगर रेल नीर के अलावा किसी अन्य ब्रांड को हाथ भी न लगायेगा।  यात्री हो, या रेल अफसर, या रेल कर्मचारी सब रेल नीर ही पिएंगे। रिजर्वेवन फाॅर्म के साथ ही भावी यात्री लिखित में रेल नीर पीने की शपथ लेगा। उसको रेलवे लोअर बर्थ देगी। फ्रीक्वेंट रेल नीर बापरने वाले को वी.आई.पी. कोटा में प्राथमिकता मिलेगी। अगर स्टेशन परिसर में कोई दूसरा ब्रांड पीते देखा जाएगा तो उसे तुरंत आर.पी.एफ. गिरफ्तार कर लेगी आर.पी.यू.पी. एक्ट में (रेल परिसर अनलाॅफुल पानी एक्ट) अब आर.पी.एफ. के पास पहले ही बहुत लोड है इसलिए एक  अलग यूनिट बनाई जाये। नाम आर.पी.एफ. ही (रेल पानी फोर्स) रखा जाएगा। इससे अतिरिक्त खर्चा नहीं करना पड़ेगा। अब इंतज़ार किस बात का है। फौरन ट्वीट करिए, फेसबुक पर डालिए, धन्यवाद अदा कीजिये। आपका कितना ख्याल रखा जाता है। पहले कभी किसी ने सोचा रेल नीर पर पैसे कम करने का। किसी ने नहीं। अब पंद्रह रुपये की बोतल चौदह रुपये में और दस रुपये वाली बोतल नौ रुपये में मिला करेगी। ग़रीबों के लिए योजना को ग़रीबों तक पहुंचाना है। पैसे का मुंह नहीं देखना है।  इसके लिए स्टेशन-स्टेशन पब्लिसिटी की जाये। अपनी कॉलोनी में पोस्टर लगवाएँ। जगह जगह रेल नीर की बोतल के कट आउट लगाएँ। सेल्फ़ी पॉइंट बनाएँ। इस खबर को वायरल कर दीजिये।

Saturday, September 20, 2025

व्यंग्य: डेट ऑफ बर्थ

 

 

 

पहले के ज़माने में अच्छा था डेट ऑफ बर्थ का कोई ठीक नहीं था। जब बालक का दाखिला कराओ तो वो मोटा-मोटा पूछ लेते थे कब पैदा हुए? पिताजी ने कौन सा रिकॉर्ड रखा हुआ था। वह बता देते जब नौचन्दी का मेला लगा था, या जिस साल बहुत पाला पड़ा था, या उसी साल जिस साल बाढ़ आयी थी। हेड मास्टर साब अपनी कैलकुलेशन कर लेते। पहली जनवरी या फिर पहली अगस्त। आप पाएंगे उस पीढ़ी में पहली तारीख को पैदा हुए लोगों की भरमार है। दूसरे शब्दों में हैड मास्टर डिसाइड कर देते थे कि आपको कौन से महीने की पहली तारीख को जन्म लेना है।

 

इस डेट ऑफ बर्थ के चक्कर में फिर ये हुआ कि जो मैट्रिक के 'साटिफिकेट' में दर्ज़ है वही रहेगी। हमारे सरकारी विभागों में ऐसे लोगों की खूब तादाद है जो अपनी डेट ऑफ बर्थ बदलवाना चाहते थे, कारण कि उनका कहना होता था उनके माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए ग़लत लिखा दी। जबकि असल में वो फलां सन् में पैदा हुए थे। ये बात अक्सर उनको रिटायरमेंट के आसपास याद आती थी। आपने ऐसे केस भी सुने होंगे जहां छोटा भाई रिटायर हो गया और बड़ा अभी नौकरी कर रहा है। एक केस तो ऐसा भी बताया गया कि बेटा रिटायर हो गया, मगर पिताजी नौकरी  कर रहे थे। यह कमाल है डेट ऑफ बर्थ का।

 

मैं एक ऐसे उच्च अधिकारी को जानता हूँ जिसका दावा था कि वह गाँव में अपने दादाजी के साथ रहता था जो शिक्षित छोड़िए साक्षर भी नहीं थे। मास्साब ने अपने मन से लिख मारा। इन अधिकारी महोदय का मंतव्य था एक दो साल मिल जाएँ तो राज्य की नौकरशाही का सर्वोच्च पद भी उनकी झोली में आ गिरेगा। मगर ‘मित्र’ लोग भी घात लगाए बैठे थे। उन्होने दस सबूत दे दिये कि अगला सरासर झूठ बोल रहा है। फर्जी दस्तावेज़ जुगाड़ लाया है। वो कहावत है न:

 

                             आधी छोड़ पूरी को धावे

                             आधी मिले न पूरी पावे 

 

एक सैन्यअधिकारी का केस आपके ध्यान में होगा जिसमें उन्होने कार्ट का दरवाजा भी खटखटाया था कि वे डेट ऑफ बर्थ से कहीं अधिक छोटे हैं। दिल तो बच्चा है जी। ये सब भानगड़ किसलिए ? क्यों कि ये अंग्रेज़ लोग डेट ऑफ बर्थ का प्रपंच दे गए। न ये होती न लोग छोटे दिखने की होड में रहते। नानी-दादी की कोई एज नहीं पूछता था। न उन्हें पता होती था। करना क्या है ? यही हिसाब लगाते रहो कितने के हो गए और कितना छोटा दिखना है। खासकर महिलाओं के साथ आजकल ये बहुत बड़ा इशू हो चला है। याद है वह मर्डर केस जिसमें माँ अपनी बेटी को छोटी बहन बताती रही। सारा ब्यूटी पार्लर का व्यवसाय इसी के इर्दगिर्द घूम रहा है। हमारे दादा जी बहुत समझदार थे। बोले तो स्ट्रीट स्मार्ट। उन्होने हम सब भाई बहन की उम्र एक बरस कम लिखवाई थी। मार्जन रखा था। भूल चूक लेनी देनी। अब ये जो सालगिरह मनाने की फैशन चल निकली है। ये क्या है ? जन्मदिन की खुशी या मलाल कि उम्र का एक साल और चला गया। शायद इसलिए ही बर्थ डे मनाते हैं कि नहीं तो अगला सोच-सोच कर ही डिप्रेशन में चला जाएगा अब मेरे इतने साल रह गए। पहले लोग दूध-दही, घी खाते थे और उम्र की ऐसी तैसे बोलते थे। अब लोग पिज्जा, मोमोज़ खाते हैं और उम्र छुपाते फिरते हैं। कहीं हलफ्रनामा दे कर कहीं झूठा सर्टीफिकेट बनवा कर। क्या ज़रूरत है इन सब की।  बस इतना याद रखिए आप परमात्मा का अंश हैं। परमात्मा की कोई उम्र नहीं। वह अजर-अमर है। बस ऐसा ही कुछ आप भी हो। इस मामले में आप तो अपने आप को नॉन-बायलाॅजिकल ही मानो।

 

 

Friday, September 19, 2025

व्यंग्य: अमृत काल की अमृत पीढ़ी

 


 

मुझे पता ही नहीं था कि मैं अमृत काल की अमृत पीढ़ी का हूँ। मैं अभी तक इस मुग़ालते में था कि मैं पढ़ा-लिखा बेरोजगार हूँ। जो इतना पढ़-लिख कर भी, बोले तो, इंजीनियरिंग पास करके भी डिलिवरी बॉय बना हुआ है। सुबह से अपनी किश्तों पर ली हुई सेकंड-हैंड मोटर साइकिल लेकर पीठ पर कूरियर बोरा उठाए घर-घर, कॉलोनी-कॉलोनी धूल फाँकता हूँ। मुझे अपने को लेकर, अपने परिवार को लेकर अपने समाज को लेकर बड़ी उलझन रहती थी। मेरा क्या होगा ? मेरे बीवी बच्चों का क्या होगा ? कोई सेविंग नहीं। अच्छा है!  इसे ज़ीरो बैलेन्स खाता नाम दिया है। जब देखो तब बैलेन्स ज़ीरो ही रहता है। दो टाइम के खाने के बाद कुछ बचे, तो न पैसे खाते में डाले जाएँगे। वो तो अच्छा हुआ फटे कपड़ों, जींस का फैशन आ गया इसलिए एक ही फटी जींस से काम चल रहा है। पर जिस दिन से पता चला कि मैं वो नहीं जो मैं खुद को अपनी नासमझी में समझ रहा था। मैं तो अमृत पुत्र हूँ।जैसे हिन्दी फिल्मों में होता था, मामूली सा मुफलिस, मजदूर हीरो, रियासत का बचपन में खोया या चुराया प्रिन्स निकलता है।

 

ये अमृत काल है। अब इसका क्या मतलब है ? ये दानिश्वर जानें ? मैं तो खुश हो गया। ज़िंदगी में खुशी बड़ी चीज़ है। और मैं जी हाँ मैं इसी अमृत काल की, अमृत पीढ़ी का अमृत पुत्र हूँ। भई ! मज़ा आ गया सुनकर। मैं तो खुशी के मारे पागल सा हो गया हूँ। जी हाँ मैं नालायक, नाकारा नहीं। मैं अमृत पुत्र हूँ। मैं भी कितना बेखबर था इस अपनी नयी पहचान से। मैं फेसबुक, एक्स, इन्स्टाग्राम पर हूँ। रोज़ न जाने कितने घंटे मैं इन सब पर लगाता हूँ। क्या फ्रेंड लिस्ट क्या फाॅलोवर, नफ़री खूब बढ़ती जा रही है। सच पूछो तो यही मेरी अब तक की कमाई है। मेरा सरमाया है।

 

एक बात मेरी समझ नहीं लग रही। सुनते हैं जो एक बार अमृत छक ले उसे फिर भूख- प्यास नहीं लगती। वह हमेशा को तृप्त हो जाता है। वह अमर हो जाता है। कालजयी। आप ही सोचो एक बार अमृत चख ले उसे फिर मिलावटी आटे की रोटियाँ, इंजेक्शन लगी सब्जियाँ खाने की क्या ज़रूरत ? वह तो चिर-तृप्त हो गया। अब मुझे अपनी संतान की भी चिंता नहीं। कारण कि मैं अगर अमृत पीढ़ी का नुमाइंदा हूँ तो मेरे बच्चे भी तो कुछ प्लेटिनम, कुछ हीरक, कुछ प्लूटोनियम टाइप होंगे। दूसरे शब्दों में अब मेरा भविष्य उज्जवल हो चला है, तो मेरे बच्चों का मुस्तकबिल भी रोशन है।

 

सो जिसे भी रोज़ी-रोटी की चिंता सता रही हो वह याद रखे कि वो अमृत काल की अमृत पीढ़ी का अमृत पुत्र है।  उसे ये नौकरी, कपड़े-लत्ते, दाल-रोटी की चिंता कतई नहीं करनी चाहिए। अच्छे अमृत पुत्र ऐसा नहीं करते। मैं तो चाहता हूँ सबको अपने नाम के आगे, अपने स्टेटस पर, अमृत पुत्र लिखना कंपलसरी कर देना चाहिए। मैं भी अमृत पुत्र।  क्षितिज पर देखो ! अमृत वेला आ रही है। कब तक चलेगी ? अब अमृत पुत्र ऐसे सवाल नहीं करते। अन्यथा आप में और एंटी नेशनल में क्या फर्क रह जाएगा ?

Thursday, September 18, 2025

व्यंग्य : कुत्ता साब हमारा ज्ञापन स्वीकार करें

                                                                


                                             

 

भारत अनेक विविधिताओं वाला देश है। रंग-रंगीला। एक सूबे में जब किसान लोग अपना आंदोलन लेकर कलेक्टर साब के दफ्तर पहुंचे तो कलेक्टर साब ऑफिस में थे ही नहीं। अब भई कलेक्टर के पास और बहुत काम होते हैं। वो कहाँ इस इंतज़ार में बैठा रहेगा या बैठी रहेगी कि किसान भाई आंदोलन करते अपना ज्ञापन लेकर आते होंगे। बहरहाल! जब आंदोलनकारी किसानों ने कलेक्टर को नदारद पाया तो वे बिफर गये। कलेक्टर की ये मजाल कि ‘जानते-बूझते’ गायब हो जाये। महज़ इसलिए कि वे विपक्ष के नेतृत्व में आए हैं। किसानों ने आव देखा न ताव और वहाँ प्रांगण में घूम रहे एक कुत्ते के गले में अपना ज्ञापन बांध दिया। और उसके साथ फोटो सेशन भी करा लिया।

 

किसानों में इस बात को लेकर रोष था और वे कह रहे थे कि कलेक्टर को पता था हम आने वाले हैं। यह सुन वह पतली गली से ‘फील्ड’ में निकल गए। यह भी खूब रही। जब फील्ड वाले उनसे मिलने आयें तो वे यूं ही खिसक लेते हैं। अब हम क्या करें। इससे लोगों को आइडिया आया। क्यों न ऑफिस और बंगले में कुत्ता, बिल्ली, लंगूर, हिरण, गिलहरी पाल लिए जाएँ। उनमें विभागो का बंटवारा किया जा सकता है यथा कोई महिला मोर्चा आयेगा तो उनका ज्ञापन गिलहरी रिसीव करेगी। कोई स्पोर्ट्समैन का दल आया तो एतद् द्वारा सूचिता किया जाता है कि आज से हिरण को यह पाॅवर डेलीगेट की जाती है वह ज्ञापन रिसीव करेगा। इसी तरह अन्य जीव-जंतुओं को यह पाॅवर डेलीगेट की जा सकती है। एतद् द्वारा कुत्ता, बिल्ली, नील गाय, मोर इसके लिए प्राधिकृत किए जाते हैं कि वे कलेक्टर के लिए आए ज्ञापनों को रिसीव करेंगे। एक अभिनेता सांसद ने बाकायदा एक पत्र जारी किया कि उनकी अनुपस्थिति मे झण्डा सिंह उनकी तरफ से एक्ट करेंगे। अब झण्डा सिंह की तो बल्ले बल्ले हो गयी। अभिनेता को कहाँ टाइम था कि वह फिल्म में एक्टिंग करे या निर्वाचन क्षेत्र में। झण्डा सिंह यह ऑथिरिटी लैटर पा अपने को असल सांसद ही समझने लग पड़ा। उसने इस खत को तमाम सोशल मीडिया में पोस्ट कर दिया। वो गाना है न

 

                                      तेरा खत लेकर सनम

                                     पाँव कहीं रखते हैं हम

                                     कहीं पड़ते हैं कदम

 

 

 

जब बहुत बावेला मचा तो सांसद अभिनेता ने वह पत्र विदड्रा कर लिया। हालांकि वह फिल्मी दुनिया में ही रहते हैं। अतः बेचारे वोटर झण्डा सिंह से भी गए। वो कहावत है न:

 

                                   ना मामा से काना मामा अच्छा’

 

अब काने मामा से भी गए। अगले चुनाव की अगले चुनाव में देखी जाएगी।

 

ये जीव जन्तु संविदा पर रखे जाएँगे। रेगुलर नहीं। एक सेट ऑफिस में दूसरा सेट आधिकारिक आवास बोले तो कैंप ऑफिस मे रहा करेगा। अब कुछ तोते और कौव्वों को ट्रेन किया जा रहा है कि वे फोन अटेण्ड कर सकें और कुछ स्टैंडर्ड जवाब दे सकें। जैसे "साब बाथरूम में हैं। साब मीटिंग में हैं। साब बाहर गए हैं। साब फील्ड में हैं।" जानकार लोग बताते हैं इसके बहुत लाभ होंगे और दूरगामी परिणाम मिलेंगे। आदमी के साथ डर ही लगा रहता है। कौन क्या बात बनाने लग जाये, पैसे खा ले, जीव जंतुओं के साथ ये अच्छा है कि उनको कैश में कोई दिलचस्पी नहीं। दाना-दुनका, केवल केला, एक कटोरी दूध, हरी मिर्च, हरी घास, हड्डी बस उतना भर काफी है। वो भी जब भूख लगी हो। आदमी के विपरीत उनमें कोई संग्रह की प्रवृति नहीं होती। वही उनकी ईमानदारी का राज़ है।

                               

                               पेड़ प्यारा, पेड़ का पत्ता प्यारा

                              कलेक्टर तू प्यारा तेरा कुत्ता प्यारा

Tuesday, September 16, 2025

व्यंग्य: डर मुक्त व्यापार सेंटर

 


 

एक सूबे के नेता जी ने ऐलान  किया है कि वह सूबे को 'डर मुक्त व्यापार सेंटर' बनाना चाहते हैं। यह खबर सुन दोनों वर्गों में खुशी की लहर दौड़ गयी। दोनों बोले तो डरने वाले और डराने वाले। सच है घोषणाएँ ऐसी ही होनी चाहिए जिससे सभी 'स्टेक-होल्डर्स' की बल्ले-बल्ले हो जाये। अब आप पूछेंगे कि ऐसा कैसे मुमकिन है ? दरअसल डरने वाले सोच रहे हैं कि अब डरने की क्या ज़रूरत है और डराने वाले सोच रहे हैं कि अब टाइम आ गया है अपने बिजनिस मॉडल को 'रीडिफ़ाइन' किया जाये। आजकल के 'मैनेजमेंट जारगन' में इसे 'पैराडाइम शिफ्ट' अथवा 'डिफरेंट बॉल गेम' कहते हैं। आसान शब्दों में अब उनको पता रहेगा कि कौन कौन पार्टी डर रही है। इससे अपने 'रिसोर्सस चैनलाइज' करने में आसानी रहेगी। 'वेस्टफुल एक्सपेंडीचर' नहीं होगा। दिल्ली में डी.एम.आर. सी. (दिल्ली मेट्रो) है हम खोलेंगे डी.एम.वी.सी., नहीं समझे ? डर मुक्त व्यापार सेंटर

 

 

अब सरकार में डरने वालों की सूची बनाई जाएगी। इससे साफ हो जाएगा कि कौन-कौन मोटी आसामी है। वही सूची फिर डरानेवालों को लीक कर दी जाएगी। आजकल लीक का आलम तो आपको पता ही है। बस हुए न दोनों पार्टी गद् गद्। अब आप को ही तो जांच करनी है। उसी पार्टी पर डाल दो कि आपने, हो न हो, किसी न किसी को बताया होगा। या आपने अपनी बैलेन्स शीट पब्लिक कर दी होगी। इसमें हमारा और हमारे सूबे का क्या ? गलती आप करें और जिम्मेवारी हम पर थोप दें। आप नाहक ही सूबे को बदनाम न करें। माइंड इट !

 

 

इधर आप देखेंगे कि न जाने कितने स्टार्ट अप्स खुल जाएँगे कोई आपको डरने वालों की सूची और वीक पॉइंट्स बताएगा, 'टर्न की'  बेसिस पर कंसल्टेंसी देंगे दूसरी ओर होंगे वे स्टार्ट अप्स जो आपको बचाने का उपक्रम करेंगे। वे आपको बताएँगे कैसे उन्होने अमुक व्यापारी को ऐन मौके पर बचा लिया। ये एक तरह की 'प्रोटेक्शन-फी' है जो वो लेंगे और उनके बाउंसर टाइप लोग आपको, आपके परिवार को और आपके ऑफिस/आवास को घेरे रहेंगे। यह उसी तरह होगा जैसे ट्रक ड्राइवर ने एक सिपाही को पैसे दे दिये हैं तो दूसरा सिपाही आपको तंग नहीं करता।

 

यह डी. एम. वी. सी. अपने डिपो जगह जगह डी.एम.आर.सी. की तर्ज़ पर खोलेगा। उसे विज्ञापित करेगा कि हमारी सूबे में इतनी ब्रांच हैं। कुछ झूठा-सच्चा भी लिख मारिए। जैसे 130 देशों में हमारी 'प्रेजेंस' है अफ्रीका हो या एशिया या यूरोप सब हम पर भरोसा करते हैं। अब डरने वाले तो ऐसा कोई विज्ञापन देगें नहीं। देखिये बड़ा जबर्दस्त बिजनिस मॉडल है। बस इंतज़ार है तो उद्यमियों का। हमारे सूबे में आइये हम आपको 'ईज़ ऑफ डूइंग बिजनिस' की गारंटी देते हैं। बस अपनी डी.पी.आर. ( डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) सबमिट करिए। आपके लिए सिंगल विंडो का प्रबंध है। एक डरने वालों के लिए दूसरी डराने वालों के लिए। उठिए संपन्नता आपका इंतज़ार कर रही है। फिर कहते हो हमें नौकरी नहीं है। हमें रोजगार चाहिए।