Ravi ki duniya

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Thursday, October 2, 2025

व्यंग्य : के.जी. से पी.एच.डी. -- नया सिलेबस

 

 

बहुत बावेला मचता है जब कोई एक चैप्टर हटा दिया जाये या जोड़ दिया जाये। ये शोर-शराबा अक्सर वो लोग ज्यादा करते हैं जो या तो कभी स्कूल गए नहीं अथवा अपनी स्कूली / कॉलेज शिक्षा बहुत पहले खत्म कर चुके हैं। यूं कहने को अब उनका अपना कोई 'स्टेक' नहीं है मगर रौड़ा डालना है तो डालना है। अब कोई इनसे पूछे कि क्या एक चैप्टर हटा देने या जोड़ देने से सल्तनत खत्म हो गयी। क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया ? इसी तरह चैप्टर जोड़ने से कोई रातों-रात महान नहीं बन जाता। बच्चों ने कौन सा याद रखना है। उनसे इम्तिहान तक तो याद रखा नहीं जाता।  बिना नकल के इम्तिहान तो पास होता नहीं। वो इन चैप्टर को कब तक याद रख पाएंगे? वो रोजी-रोटी की भाग-दौड़ में बिज़ी हो जाएँगे। संविदा की एक अच्छी बात ये है कि ये आपको हमेशा 'टो' पर रखते हैं। पता नहीं अगले महीने तक ये संविदा चलेगी या नहीं चलेगी ? स्कीम का नाम अग्निवीर ठीक रखा गया है आप हमेशा अग्नि परीक्षा सी दे रहे होते हैं।

 

मेरा मानना है कि सारे सिलेबस एक ऑर्डर से ‘डिलीट’ कर दें। पिछले सिलेबस को अग्नि की भेंट कर देना चाहिए। पुराने सिलेबस की बात करना, उसे रखना जुर्म माना जाये। तब तक युद्ध स्तर पर काम कर सभी कक्षाओं में नए सिलेबस लागू कर दें। देखिये एक साल में कोई पहाड़ नहीं तोड़ लाएँगे आप। आपको पास होने से मतलब है, वो हम बिना इम्तिहान कर ही देंगे। एक बार हम इसी प्रकार से सातवीं से आठवीं क्लास में आ गए थे सन 1966-67 की बात है कारण टीचर्स की हड़ताल चल रही थी जो लंबी खिंच रही थी। सरकार ने सोचा टीचर्स पहले ही नाराज़ चल रहे हैं कमसे कम विद्यार्थियों को तो अपने पाले में रखो। अतः यह घोषणा कर दी गयी। टीचर्स की हड़ताल का क्या हुआ ? याद नहीं। मगर हम महाखुश हो गए। वो गाना है न “... मिलने की खुशी न मिलने का ग़म खत्म ये झगड़े हो जाएँ...” उसी तर्ज़ पर  “... पेपर अच्छा होने की खुशी, न पेपर खराब होने का ग़म खत्म ये झगड़ा हो गया....” नये सिलेबस का मसौदा आपके विचारार्थ प्रस्तुत है:

 

1.       के.जी. से प्राइमरी तक: बच्चों पर किताबों का, बस्ते का, परीक्षा का बोझ नहीं डालना है। अतः टीचर लोग बच्चों को कहानियां सुनाया करेंगे। भारत महान में मौखिक इतिहास का बड़ा महत्व रहा है। आपने सुना नहीं  “... बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी...” इसलिए न पेन, न पेंसिल... सब बुक्स केंसिल। इस तरह पाँचवी  क्लास तक चलेगा। आप दरियाई घोड़े का निबंध न लिखवाएँ बल्कि बच्चों को ज़ू दिखाने ले जाएँ। निबंध वो अपने आप लिख लेंगे। 

2.       छठी क्लास से दसवीं तक: आप बच्चों को अमर चित्र कथा टाइप बुक्स से पढ़ाएँ। अमर चित्र कथाओं ने हमारे लगभग सभी इतिहास पुरुष और देवी देवताओं के जीवन चरित लिखे हैं। समकालीन महान आत्माओं के बारे में उनसे लिखवाया जा सकता है। जहां तक विज्ञान की बात है उसके लिए भी काॅमिक्स टाइप किताबें लिखवाई जाएँ। मसलन, पुष्पक विमान, गणेश जी की सर्जरी, वाई-फाई, इंटरनेट (संजय से युद्ध का सीधा प्रसारण/आँखों देखा हाल सुनना) हनुमान जी की स्पेस तकनीक, रातों-रात श्रीलंका तक पुल बनाना। युद्ध में मिसाइलों का इस्तेमाल। हाइड्रोजन बम (ब्रह्मास्त्र ) का निर्माण/इस्तेमाल। हमारे सभी इतिहास पुरुषों/ देवी देवताओं और उनके  स्तुति गानों की एलीमेन्ट्री स्टडी। आरती/गायत्री मंत्र का सूक्ष्म अध्ययन। रामायण, महाभारत के अंशों की सप्रसंग व्याख्या।

3.बारहवीं तक: गीता का गहन अध्ययन, कुरुक्षेत्र का स्टडी टूर, बच्चों को धनुष बाण चलाने का प्रशिक्षण।

4.बी ए: बच्चों को भाला-त्रिशूल बनाना/चलाना सिखाना। पुराण और वेद का गहन अध्ययन। किस्सा तोता-मैना ताकि विद्यार्थी जान सकें न केवल भारत महान में तोता-मैना बोल सकते थे बल्कि आदमी उनकी भाषा समझ भी सकते थे। स्टडी टूर अयोध्या, तथा अपने ज़ोन के छोटे बड़े मंदिर, उनका इतिहास, पुजारियों की ड्यूटी लिस्ट व फ्यूचर प्राॅस्पेक्ट्स

5.       एम ए: मंदिर निर्माण कैसे किया जाता है? कांवर का सामाजिक महत्व व यूथ के लिये उपयोगिता, भारत के तीर्थों का भ्रमण। व्रत-उपवास की ज़रूरत और लाभ। माथे पर परपेंडिकुलर और हाॅरिजैंटल टीका (तिलक) लगाने का अर्थ साथ ही चन्दन का तिलक लगाने में महत्व। समग्र हवन सामग्री, आदर्श आरती थाली के तत्व और उनके विकल्प।

6.       पी.एच.डी.: देश विदेश के मंदिरों पर रिसर्च, घंटा बजाने के अनगिनत दिव्य/आध्यात्मिक लाभ और पॉज़िटिव अनर्जी का उद्भव, सन्यास आश्रम का जीवन में महत्व, भिक्षाटन- इतिहास तथा विज्ञान, लंगोटी पहनने के लाभ, इसी तरह के संबन्धित विषयों पर डिजर्टेशन।

 

इस तरह आप पाएंगे कि दस साल से कम की अवधि में भारत ब्रह्मांड-गुरु हो जाएगा। मेरी गारंटी है। विश्वगुरु तो हम पहले से हईये हैं।

 

चलो एक बार फिर से….

 

 

चलो एक बार फिर से ‘अनफ्रेंड’ हो जाएँ हम दोनों 

ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं ‘कमेन्ट’ ओ ‘लाइक’ की

न तुम मेरी रील बनाओ ग़लत ए.आई. नज़रों से

न मैं तुम्हारी ‘डी.पी’. देखूं ‘ज़ूम’ कर-कर के

न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये तेरी सेल्फ़ियों से

न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ लॉक्ड-प्रोंफाइल से

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है ‘अनब्लॉक’ करने से

मुझे भी लोग कहते हैं कि ये तमाम ‘प्रोफाइल’ ‘फेक’ हैं

मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरी बेंकाक मीटिंग की

तुम्हारे साथ भी बेहिसाब शॉपिंग के बकाये हैं

फेसबुक फ्रेंडशिप रोग हो जाये तो उसका भूलना बेहतर

कमेन्ट’ बोझ बन जाये तो उसको ‘डिलीट’ करना अच्छा

वो फ्रेंड्स जिन्हें हर पोस्ट ‘लाइक’ करना न आये

उन्हें ‘लेपटॉप’ में ‘वाइरस’ कह ‘रिमूव’ करना अच्छा                                 

चलो एक बार फिर से अनफ्रेंड’ हो जाएँ हम दोनों

 

Wednesday, October 1, 2025

व्यंग्य: ज़िंदा या मृत

 

 

यह हिन्दी फिल्मों का बहुत बार दोहराया गया संवाद है “उसे ज़िंदा या मृत पकड़ना है/मेरे सामने लाओ वह मेरा है। मैं मारूँगा उसे” थ्रिलर फिल्मों में अक्सर ऐसा होता था कि अंत में जिसे हमें पूरी फिल्म में मरा हुआ बताया जाता था वही क़ातिल निकलता था। उसके अपने आप को मृत घोषित करने में भी उसी का कोई स्वार्थ होता था। कहते हैं फिल्में देख कर बच्चे बिगड़ते हैं। और बड़े तरह-तरह के गुर सीखते हैं। चाहे वह चोरी-डकैती के हों या प्यार-मुहब्बत के। अब तो लोग कहने भी लग पड़े हैं कि फलां काम मैंने क्राइम शो देख कर किया। बहरहाल आजकल सब गड्डमड्ड है। पता नहीं रील लाइफ रियल लाइफ को फॉलो कर रही है या रियल लाइफ रील लाइफ को।

 

कोई दिन जाता है जब हम ये नहीं सुनते कि फलां गाँव में, फलां कस्बे में जिसे कागज पर मृत बताया गया वह ज़िंदा है। पता चलता है उसके घरवालों में से ही किसी ने ये प्रपंच रचा होता है अक्सर ज़मीन - जायदाद के लिए। इस पर एक अच्छी फिल्म पंकज त्रिपाठी अभिनीत ‘कागज’ भी बनी है।  मृत आदमी का अस्पताल में, श्मशान में ज़िंदा हो जाना भले आसान हो मगर बच्चू ! जिसे सरकारी कागज़ पर एक बार मृत दर्ज़ कर दिया तो उसके लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। यह वास्तव में ज़िंदगी-मौत की लड़ाई बन जाती है। एक बार किसी ने मुझे बताया था, मुझे सुन कर बहुत ताज्जुब हुआ था कि क्या ऐसा भी हो सकता है? उसका कहना था कि मानसिक चिकित्सालयों में जिसे आम भाषा में सीधे-सीधे ‘पागलखाना’ बोलते हैं वहाँ जिनका इलाज चल रहा है वो तो चल ही रहा है मगर वहाँ पर इन दो वर्गों के ‘मरीजों’ की भी एक अच्छी ख़ासी संख्या होती है जिन्हें उनके खुद के परिजन कुछ दंद-फंद करके दाखिल कर गए और फिर लौट कर नहीं आए। दूसरे वे जो ठीक हो गए हैं।  बिलकुल भले-चंगे हैं मगर उनके घरवाले लेने ही नहीं आ रहे। दोनों के आधारभूत कारण ज़मीन-जायदाद अथवा प्रेम प्रसंग है।

 

जब से सरकारी 'ग्रांट' और 'ओल्ड एज पेंशन' का रिवाज चला है तब से ऐसे केस खूब बढ़ गए हैं जहां मृत को ज़िंदा बता उसके नाम की पेंशन कोई और खा रहा है। ऐसे ही काल्पनिक नाम से पेंशन खाने के न जाने कितने प्रकरण हैं। सरकार में एक योजना है जिसके अंतर्गत यदि किसी कर्मचारी  की सर्विस में रहते हुए मृत्यु हो जाती है तो उसकी विधवा अथवा उसके बच्चे को सरकारी नौकरी में रख लिया जाता है एक साधारण सी परीक्षा के बाद। अब इस योजना के इतने पेच हैं कि सुन कर चक्कर आ जाएँ। जैसे कि मृत्यु एक, नौकरी थोड़े थोड़े अंतराल के बाद दो-दो बच्चों ने ले रखी है। विधवा के नाम पर भी खेल है। जैसे विधवा फर्जी है, असल विधवा तो गाँव में है उसे कुछ पता ही नहीं। इसी तरह एक तो और भी खिलाड़ी निकाला वह अपने गाँव चला गया और वहाँ से गाँव के सरपंच से मिल कर अपना डेथ सार्टिफिकेट भिजवा दिया जो उसके उम्मीदवार बेटे ने अपने सिर पर उस्तरा फिरवा कर ऑफिस में अपनी नौकरी के आवेदन के साथ सबमिट कर दिया। सो मेरे भारत महान में जहां पुनर्जन्म होता है वहाँ क्या जीवित क्या मृत ? जहां सात-सात जन्म साथ जीने-मरने की कसमें खाई जाती हैं। चचा ग़ालिब बहुत पहले कह गए हैं:

 

                         "मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने या मरने का

               उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले"