Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Thursday, October 2, 2025

व्यंग्य : के.जी. से पी.एच.डी. -- नया सिलेबस

 

 

बहुत बावेला मचता है जब कोई एक चैप्टर हटा दिया जाये या जोड़ दिया जाये। ये शोर-शराबा अक्सर वो लोग ज्यादा करते हैं जो या तो कभी स्कूल गए नहीं अथवा अपनी स्कूली / कॉलेज शिक्षा बहुत पहले खत्म कर चुके हैं। यूं कहने को अब उनका अपना कोई 'स्टेक' नहीं है मगर रौड़ा डालना है तो डालना है। अब कोई इनसे पूछे कि क्या एक चैप्टर हटा देने या जोड़ देने से सल्तनत खत्म हो गयी। क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया ? इसी तरह चैप्टर जोड़ने से कोई रातों-रात महान नहीं बन जाता। बच्चों ने कौन सा याद रखना है। उनसे इम्तिहान तक तो याद रखा नहीं जाता।  बिना नकल के इम्तिहान तो पास होता नहीं। वो इन चैप्टर को कब तक याद रख पाएंगे? वो रोजी-रोटी की भाग-दौड़ में बिज़ी हो जाएँगे। संविदा की एक अच्छी बात ये है कि ये आपको हमेशा 'टो' पर रखते हैं। पता नहीं अगले महीने तक ये संविदा चलेगी या नहीं चलेगी ? स्कीम का नाम अग्निवीर ठीक रखा गया है आप हमेशा अग्नि परीक्षा सी दे रहे होते हैं।

 

मेरा मानना है कि सारे सिलेबस एक ऑर्डर से ‘डिलीट’ कर दें। पिछले सिलेबस को अग्नि की भेंट कर देना चाहिए। पुराने सिलेबस की बात करना, उसे रखना जुर्म माना जाये। तब तक युद्ध स्तर पर काम कर सभी कक्षाओं में नए सिलेबस लागू कर दें। देखिये एक साल में कोई पहाड़ नहीं तोड़ लाएँगे आप। आपको पास होने से मतलब है, वो हम बिना इम्तिहान कर ही देंगे। एक बार हम इसी प्रकार से सातवीं से आठवीं क्लास में आ गए थे सन 1966-67 की बात है कारण टीचर्स की हड़ताल चल रही थी जो लंबी खिंच रही थी। सरकार ने सोचा टीचर्स पहले ही नाराज़ चल रहे हैं कमसे कम विद्यार्थियों को तो अपने पाले में रखो। अतः यह घोषणा कर दी गयी। टीचर्स की हड़ताल का क्या हुआ ? याद नहीं। मगर हम महाखुश हो गए। वो गाना है न “... मिलने की खुशी न मिलने का ग़म खत्म ये झगड़े हो जाएँ...” उसी तर्ज़ पर  “... पेपर अच्छा होने की खुशी, न पेपर खराब होने का ग़म खत्म ये झगड़ा हो गया....” नये सिलेबस का मसौदा आपके विचारार्थ प्रस्तुत है:

 

1.       के.जी. से प्राइमरी तक: बच्चों पर किताबों का, बस्ते का, परीक्षा का बोझ नहीं डालना है। अतः टीचर लोग बच्चों को कहानियां सुनाया करेंगे। भारत महान में मौखिक इतिहास का बड़ा महत्व रहा है। आपने सुना नहीं  “... बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी...” इसलिए न पेन, न पेंसिल... सब बुक्स केंसिल। इस तरह पाँचवी  क्लास तक चलेगा। आप दरियाई घोड़े का निबंध न लिखवाएँ बल्कि बच्चों को ज़ू दिखाने ले जाएँ। निबंध वो अपने आप लिख लेंगे। 

2.       छठी क्लास से दसवीं तक: आप बच्चों को अमर चित्र कथा टाइप बुक्स से पढ़ाएँ। अमर चित्र कथाओं ने हमारे लगभग सभी इतिहास पुरुष और देवी देवताओं के जीवन चरित लिखे हैं। समकालीन महान आत्माओं के बारे में उनसे लिखवाया जा सकता है। जहां तक विज्ञान की बात है उसके लिए भी काॅमिक्स टाइप किताबें लिखवाई जाएँ। मसलन, पुष्पक विमान, गणेश जी की सर्जरी, वाई-फाई, इंटरनेट (संजय से युद्ध का सीधा प्रसारण/आँखों देखा हाल सुनना) हनुमान जी की स्पेस तकनीक, रातों-रात श्रीलंका तक पुल बनाना। युद्ध में मिसाइलों का इस्तेमाल। हाइड्रोजन बम (ब्रह्मास्त्र ) का निर्माण/इस्तेमाल। हमारे सभी इतिहास पुरुषों/ देवी देवताओं और उनके  स्तुति गानों की एलीमेन्ट्री स्टडी। आरती/गायत्री मंत्र का सूक्ष्म अध्ययन। रामायण, महाभारत के अंशों की सप्रसंग व्याख्या।

3.बारहवीं तक: गीता का गहन अध्ययन, कुरुक्षेत्र का स्टडी टूर, बच्चों को धनुष बाण चलाने का प्रशिक्षण।

4.बी ए: बच्चों को भाला-त्रिशूल बनाना/चलाना सिखाना। पुराण और वेद का गहन अध्ययन। किस्सा तोता-मैना ताकि विद्यार्थी जान सकें न केवल भारत महान में तोता-मैना बोल सकते थे बल्कि आदमी उनकी भाषा समझ भी सकते थे। स्टडी टूर अयोध्या, तथा अपने ज़ोन के छोटे बड़े मंदिर, उनका इतिहास, पुजारियों की ड्यूटी लिस्ट व फ्यूचर प्राॅस्पेक्ट्स

5.       एम ए: मंदिर निर्माण कैसे किया जाता है? कांवर का सामाजिक महत्व व यूथ के लिये उपयोगिता, भारत के तीर्थों का भ्रमण। व्रत-उपवास की ज़रूरत और लाभ। माथे पर परपेंडिकुलर और हाॅरिजैंटल टीका (तिलक) लगाने का अर्थ साथ ही चन्दन का तिलक लगाने में महत्व। समग्र हवन सामग्री, आदर्श आरती थाली के तत्व और उनके विकल्प।

6.       पी.एच.डी.: देश विदेश के मंदिरों पर रिसर्च, घंटा बजाने के अनगिनत दिव्य/आध्यात्मिक लाभ और पॉज़िटिव अनर्जी का उद्भव, सन्यास आश्रम का जीवन में महत्व, भिक्षाटन- इतिहास तथा विज्ञान, लंगोटी पहनने के लाभ, इसी तरह के संबन्धित विषयों पर डिजर्टेशन।

 

इस तरह आप पाएंगे कि दस साल से कम की अवधि में भारत ब्रह्मांड-गुरु हो जाएगा। मेरी गारंटी है। विश्वगुरु तो हम पहले से हईये हैं।

 

चलो एक बार फिर से….

 

 

चलो एक बार फिर से ‘अनफ्रेंड’ हो जाएँ हम दोनों 

ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं ‘कमेन्ट’ ओ ‘लाइक’ की

न तुम मेरी रील बनाओ ग़लत ए.आई. नज़रों से

न मैं तुम्हारी ‘डी.पी’. देखूं ‘ज़ूम’ कर-कर के

न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये तेरी सेल्फ़ियों से

न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ लॉक्ड-प्रोंफाइल से

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है ‘अनब्लॉक’ करने से

मुझे भी लोग कहते हैं कि ये तमाम ‘प्रोफाइल’ ‘फेक’ हैं

मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरी बेंकाक मीटिंग की

तुम्हारे साथ भी बेहिसाब शॉपिंग के बकाये हैं

फेसबुक फ्रेंडशिप रोग हो जाये तो उसका भूलना बेहतर

कमेन्ट’ बोझ बन जाये तो उसको ‘डिलीट’ करना अच्छा

वो फ्रेंड्स जिन्हें हर पोस्ट ‘लाइक’ करना न आये

उन्हें ‘लेपटॉप’ में ‘वाइरस’ कह ‘रिमूव’ करना अच्छा                                 

चलो एक बार फिर से अनफ्रेंड’ हो जाएँ हम दोनों

 

Wednesday, October 1, 2025

व्यंग्य: ज़िंदा या मृत

 

 

यह हिन्दी फिल्मों का बहुत बार दोहराया गया संवाद है “उसे ज़िंदा या मृत पकड़ना है/मेरे सामने लाओ वह मेरा है। मैं मारूँगा उसे” थ्रिलर फिल्मों में अक्सर ऐसा होता था कि अंत में जिसे हमें पूरी फिल्म में मरा हुआ बताया जाता था वही क़ातिल निकलता था। उसके अपने आप को मृत घोषित करने में भी उसी का कोई स्वार्थ होता था। कहते हैं फिल्में देख कर बच्चे बिगड़ते हैं। और बड़े तरह-तरह के गुर सीखते हैं। चाहे वह चोरी-डकैती के हों या प्यार-मुहब्बत के। अब तो लोग कहने भी लग पड़े हैं कि फलां काम मैंने क्राइम शो देख कर किया। बहरहाल आजकल सब गड्डमड्ड है। पता नहीं रील लाइफ रियल लाइफ को फॉलो कर रही है या रियल लाइफ रील लाइफ को।

 

कोई दिन जाता है जब हम ये नहीं सुनते कि फलां गाँव में, फलां कस्बे में जिसे कागज पर मृत बताया गया वह ज़िंदा है। पता चलता है उसके घरवालों में से ही किसी ने ये प्रपंच रचा होता है अक्सर ज़मीन - जायदाद के लिए। इस पर एक अच्छी फिल्म पंकज त्रिपाठी अभिनीत ‘कागज’ भी बनी है।  मृत आदमी का अस्पताल में, श्मशान में ज़िंदा हो जाना भले आसान हो मगर बच्चू ! जिसे सरकारी कागज़ पर एक बार मृत दर्ज़ कर दिया तो उसके लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। यह वास्तव में ज़िंदगी-मौत की लड़ाई बन जाती है। एक बार किसी ने मुझे बताया था, मुझे सुन कर बहुत ताज्जुब हुआ था कि क्या ऐसा भी हो सकता है? उसका कहना था कि मानसिक चिकित्सालयों में जिसे आम भाषा में सीधे-सीधे ‘पागलखाना’ बोलते हैं वहाँ जिनका इलाज चल रहा है वो तो चल ही रहा है मगर वहाँ पर इन दो वर्गों के ‘मरीजों’ की भी एक अच्छी ख़ासी संख्या होती है जिन्हें उनके खुद के परिजन कुछ दंद-फंद करके दाखिल कर गए और फिर लौट कर नहीं आए। दूसरे वे जो ठीक हो गए हैं।  बिलकुल भले-चंगे हैं मगर उनके घरवाले लेने ही नहीं आ रहे। दोनों के आधारभूत कारण ज़मीन-जायदाद अथवा प्रेम प्रसंग है।

 

जब से सरकारी 'ग्रांट' और 'ओल्ड एज पेंशन' का रिवाज चला है तब से ऐसे केस खूब बढ़ गए हैं जहां मृत को ज़िंदा बता उसके नाम की पेंशन कोई और खा रहा है। ऐसे ही काल्पनिक नाम से पेंशन खाने के न जाने कितने प्रकरण हैं। सरकार में एक योजना है जिसके अंतर्गत यदि किसी कर्मचारी  की सर्विस में रहते हुए मृत्यु हो जाती है तो उसकी विधवा अथवा उसके बच्चे को सरकारी नौकरी में रख लिया जाता है एक साधारण सी परीक्षा के बाद। अब इस योजना के इतने पेच हैं कि सुन कर चक्कर आ जाएँ। जैसे कि मृत्यु एक, नौकरी थोड़े थोड़े अंतराल के बाद दो-दो बच्चों ने ले रखी है। विधवा के नाम पर भी खेल है। जैसे विधवा फर्जी है, असल विधवा तो गाँव में है उसे कुछ पता ही नहीं। इसी तरह एक तो और भी खिलाड़ी निकाला वह अपने गाँव चला गया और वहाँ से गाँव के सरपंच से मिल कर अपना डेथ सार्टिफिकेट भिजवा दिया जो उसके उम्मीदवार बेटे ने अपने सिर पर उस्तरा फिरवा कर ऑफिस में अपनी नौकरी के आवेदन के साथ सबमिट कर दिया। सो मेरे भारत महान में जहां पुनर्जन्म होता है वहाँ क्या जीवित क्या मृत ? जहां सात-सात जन्म साथ जीने-मरने की कसमें खाई जाती हैं। चचा ग़ालिब बहुत पहले कह गए हैं:

 

                         "मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने या मरने का

               उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले"

 

Monday, September 29, 2025

व्यंग्य : परीक्षा की एंटायर साइंस

 


 

पता नहीं किस दिलजले ने ये परीक्षा का सिस्टम चलाया और ये सिस्टम आज तक हमारा खून पी रहा है। यह कालज़यी है। इसे हम सब परीक्षार्थियों की उम्र लग गयी है। जब से पैदा हुए हैं परीक्षा ही दे रहे हैं। कभी कोई, कभी कोई। इसके चलते न जाने कितने परीक्षार्थी अपने जीवन से अपनी जवानी से हर साल हाथ धो बैठते हैं। एक गाना है न "....ज़िंदगी हर कदम एक जंग है.." । दरअसल, वह कहना यही चाहता है कि ज़िंदगी हर कदम परीक्षा है, एक्जाम है, इम्तिहान है। मेरी पीढ़ी के भुक्तभोगियों से पूछो। हमने पाँचवीं क्लास से बोर्ड की परीक्षा दी है। सोचो ! पाँचवीं क्लास में ही यह परीक्षा रूपी भूत हम मासूमों के पीछे पड़ गया था। कल्पना करिए पाँचवीं का बच्चा अपने मामा जी की उंगली पकड़े स्कूल से इतर दूसरे सेंटर पर इम्तिहान देने जा रहा है। बैरियों को तनिक भी दया नहीं आई। फिर आठवीं बोर्ड और फिर हायर सेकंडरी बोर्ड। इतने से मन नहीं भरा तो हर जगह इम्तिहान। स्कूल कॉलेज का तो मिशन वाक्य यही होना चाहिए। 'परीक्षा ही परीक्षा एक बार मिल तो लें'

 

इसमें हमारे सहायक होते थे, भगवान उनका भला करे, कुछ सहृदय टीचर ! जो परीक्षा से दो-चार दिन पहले ‘इंपाॅर्टेन्ट’ सवाल बता देते थे। हमरे टाइम पर कुंजी/गाइड बहुत चलती थी। एक और वैरायटी थी, ‘गैस पेपर’ की। बुक डिपो से गैस पेपर ले आते थे। वो उस्ताद भी उसे ‘देवर भाभी के किस्से’ की पीली पन्नी मे लिपटी पतली किताब की तरह स्टेपल लगा कर रखते थे। गैस पेपर भी कई ब्रांड के आते थे। सब आपकी इम्तिहान में बल्ले बल्ले का वायदा करते थे। कॉलेज में बाहर ही गाइड के अलावा ‘दुक्की’ भी उपलब्ध होती थी। जो टेक्स्ट बुक की अपेक्षा सस्ती मिलती थी। टीचर पूरे साल कह-कह के थक जाता था कि कुंजी मत पढ़ो, गाइड मत पढ़ो, दुक्की से दूर रहो पर अपनी नाव यही सब पार लगाते थे।

 

तब हमें बिलकुल भी भान नहीं था कि पूरा का पूरा पेपर लीक किया/कराया जा सकता है। अथवा महज़ एक ब्लू टूथ और आप सीना ठोक कर पास हो जाएगे। हमारे टाइम पर ये साॅल्वर वाली सुविधा भी नहीं थी। जो फर्रे, चिट बनाने होते थे खुद ही अपने करकमलों से रात-रात भर जाग कर बनाने पड़ते थे। फिर याद भी रखना पड़ता था कौन से सवाल का उत्तर कहाँ छुपाया है। इस चक्कर में न जाने कितनी कमीजों की 'कफ' की सिलाई उधेड़ी है।

 

 

अब परीक्षा पास करना कितना सुलभ हो गया। आपको साॅल्वर चाहिए ? मिल जाएगा। आपको पेपर पहले चाहिए ? मिल जाएगा। आपको परीक्षा रद्द करानी है ? हो जाएगी। आपको क्लास में नहीं आना है ? ‘जो हुकुम मेरे आक़ा’। आपको परीक्षा देनी ही नहीं है और डिग्री/डिप्लोमा चाहिए? वान्दा नहीं। आप तो कोर्स का नाम बोलो ? 'सिंगल विंडो' के माफिक हमने एक ही छत के नीचे पूरा का पूरा विश्वविद्यालय आपके लिये खोल मारा है। 'आपकी डिग्री आपके द्वार' के अन्तर्गत एम.बी.बी.एस. हो, एम.बी.ए. हो या फिर बी.टेक. डाइरेक्ट आपके एकाउंट में ट्रांसफर कर दी जाएगी। हरकत नहीं। आपको टेंशन नहीं लेनी है। फिर हम कायकू बैठे हैं। आप को फुर्सत कहां। आप तो राष्ट्र निर्माण के महत्ती काम में रत हो। जो अपने आप में बहुत बड़ी परीक्षा है। ये छोटे-मोटे पेपर-वर्क आप हम पर छोड़ दो।

 

                                      ऑल दि बेस्ट !!

Saturday, September 27, 2025

व्यंग्य : बहुत टेंशन है

 

 

 

हमने अपने बचपन में ये टर्म  कभी सुना भी नहीं था। यहाँ तक कि जब कॉलेज पास कर लिया और नौकरी करने लगे तब भी इस शब्द से अनजान थे। टेंशन किस चिड़िया का नाम है हमें कोई क्लू नहीं था। हो सकता है कुछ ऐसा रहा भी हो तो हमारे माता-पिता को रहा होगा। वो इसको हमारे पास तक नहीं आने देते थे। हम पास होंगे या फेल, ये टेंशन अगर रही भी होगी तो हमारे मास्टर साब को रही होगी। हमें कतई नहीं थी। धीरे धीरे पता चला जब एक भाई की पिटाई हो रही हो तब जो फीलिंग बाकी भाइयों में आती थी उसे टेंशन कहते हैं। घर से माता जी की बरनी/मर्तबान से अचार चुराते वक़्त जो फीलिंग आती थी, उसी का नाम टेंशन था। पर हमें ऐसी कोई टेन्शन नहीं थी। मज़े की बात है माता जी की गुल्लक से तार से चवन्नी/अठन्नी चुराते वक़्त भी हमें कोई टेंशन नहीं होती थी। कारण कि माता जी को कौन सा पता लगना है। जब गुल्लक फोड़ी जाएगी तब की तब देखी जाएगी। साफ मुकर जाएँगे।

 

 

इसके विपरीत अब 2025 में मेरे घर के कॉकरोच बोलो, छिपकली बोलो, सब टेंशन में मालूम देते हैं। न केवल घर-बाहर सब टेंशन में मालूम देते हैं। वो साफ-साफ ऐलानिया इस बात को कहते भी फिरते हैं। उनका बस चले तो अपने सी.वी. में एक कॉलम अथवा अपने विजिटिंग कार्ड पर ये लिखवा लें कि वो कितनी टेंशन में रहते हैं। गोया कि टेंशन में रहना अब एक गुण बन गया है। जिसे पर्याप्त टेंशन न हो उसे हिकारत की नज़र से देखा जाता है। इसे तो कोई फिक़र ही नहीं, इसे तो पढ़ाई की परवाह ही नहीं। कितना ही कहते रहो ये तो घर के काम की टेंशन ही नहीं लेता। इसके चलते स्कूल में पढ़ रहे छोटे-छोटे बच्चों को टेंशन होने लग पड़ी है। कॉलेज तक आते-आते फुल-फुल टेंशन की आदत पड़ जाती है। घर वाले इसमें कोई कमी लाने की बजाय पूछ-पूछ कर या गलत कोर्स में दाखिला दिला कर बच्चे की टेंशन में इजाफा ही करते हैं। यकीन नहीं आता तो देख लो कोटा शहर के कोचिंग सेंटर की खबरें। 

 

 

वो फिल्म 'हम दोनों' का एक गाना है न "...जहां में ऐसा कौन है जिसको ग़म मिला नहीं...." बस तो आज इस जहां में ऐसा कौन है जिसे टेंशन नहीं। हमें माँ बाप से छिप कर सिगरेट पीने में भी टेंशन नहीं होती थी। आजकल बच्चे लोग प्रोटीन और कार्ब की टेंशन भी लेते हैं। कहीं नेट स्लो न हो जाये कहीं नेट चला न जाये। कहीं डाटा खत्म न हो जाये। इस बात की भी टेन्शन रहती है। प्रेमी टेंशन में रहता है हरदम। वही हाल प्रेमिका का है। पति टेंशन में है, पत्नी टेंशन में है। भाई टेंशन में है, बहन टेंशन में है। मालिक मकान टेंशन में है, वही हाल किरायेदार का है। मैं बाहर चला जाऊं तो मेरा पालतू कुत्ता टेंशन में आ जाता है। बैठा-बैठा न जाने क्या सोचता रहता है। फिल्म बनाने वाला टेंशन में है, मल्टीप्लेक्स का मालिक टेंशन में है। और तो और जो फिल्म में कलाकार नाचते गाते खुश नज़र आते हैं उन्हें भी भयंकर टेंशन रहती है। अगली फिल्म कब मिलेगी, मिलेगी भी कि नहीं। मिल गयी तो चलेगी कि नहीं। ब्लॉक बस्टर होगी या आजकल की बायोपिक फिल्मों की तरह पहले हफ्ते में बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ देगी। आप भागे भागे डॉक्टर के पास जाते हैं तब से वो खुद टेंशन में बैठा था क्या बात है आज कोई मरीज नहीं आ रहा। वह आपको दर्जन भर टेस्ट और गोलियां देता है, दोनों किस्म की, लाल-पीली भी और मुहावरे वाली भी। आपसे फीस लेकर उसकी टेंशन कुछ देर को कम हो जाती है। तो देखा हुज़ूर आपने इस टेंशन का कमाल। जैसे कि टेंशन अकेले काफी नहीं थी सो अब उसका एक नया संस्करण चल गया है - हाइपर टेंशन। तो भाइयो बहनो ! अब टेंशन में रहने का एक फैशन चल निकला है। आप अगर अपने साइक्लाॅजिस्ट से मिलेंगे तो वह आपको समझाएगा कि थोड़ी टेंशन अच्छी चीज़ होती है ज़िंदगी के लिए। एक मित्र एक बार मेरे रात की ड्राइव को लेकर सलाह दे रहे थे कि एक पेग लगा कर ड्राइव करोगे तो उसकी टेंशन में बेहतर ड्राइव कर पाओगे। खैर ! आप कोई टेंशन न लें।  आप महज़ वोटर हैं, टेंशन लेगा, उम्मीदवार लेगा, बी. एल.ओ. लेगा, नेता लेगा। मुझे कब से टेंशन थी इस लेख को लिखने की। कम्पलीट हो गया है तो अब छपवाने की टेंशन है।

Thursday, September 25, 2025

क्या खबर कौन सी बात उनको नागवार

 

क्या खबर कौन सी बात उनको नागवार

 

गुजरे

 

सो एक मुद्दत हुई हमें उनकी गली से

 

गुजरे

 

मेरी शामो सहर आबाद थी जिनके दम पे

 

एक अर्सा हुआ उनको मेरी  ख्वाबीदा नज़र से

 

गुजरे

 

ज़ाहिर हैं वो खफा हैं मुझी से

 

जिनकी चाहत में मेरे दिन रात

 

गुजरे

 

गुजरे तो गुजरे वल्लाह सबकी हंसी खुशी

 

गुजरे

 

दिन गिन गिन काटने पड़ें दिन

 

अब ऐसी भी न किसी चाहने वाले पे

 

गुजरे 

Wednesday, September 24, 2025

व्यंग्य : वोट चोरी के फायदे

 

                                                

 

एक गाना है मैं उससे सहमत हूँ  “...हमने एक बार सताया तो बुरा मान गए” ऐसा ही कुछ एक नेतानी जी ने भी कहा है। देखिये जब मुहब्बत होती है तो मीठे-मीठे उलाहने दिये जाते हैं। तुमने मेरी नींद चुरा ली है, तुमने मेरा चैन चुरा लिया है। फाइनल स्टेज आती है जब कहा जाता है तुमने मेरा दिल चुरा लिया है। इस प्राॅसस में दिल की चोरी अल्टीमेट है। फिर उसके बाद चुराने को कुछ अगले के पास रह भी नहीं जाता। देखिये कोई चीज़ कितनी भी बुरी हो, कोई न कोई अच्छाई उसमें भी होती है। जैसे कहते हैं न, वक़्त ज़रूरत खोटा सिक्का काम आता है। यहाँ मैं इस बात से बच रहा हूँ कि किसने क्या किया। मेरा तो सिंपल काम है कि 'एज़ सच' वोट  चोरी  के क्या-क्या फायदे हो सकते हैं। कोई भी करे, किसी देश में भी करे, कहीं भी करे।

 

1.       वोट चोरी से चुना हुआ नेता हमेशा गुडी-गुडी बिहेव करता है। वह असलियत जानता है और यह भी जानता है किसके सौजन्य से वह नेता बना बैठा है अतः उसकी लाॅयल्टी और एकनिष्ठता सदैव अपने आका के साथ रहती है।

2.       वोट चोरी के ख्याल अथवा ज़िक्र मात्र से नेता सचेत हो जाता है। यह एलर्टनैस बहुत काम की चीज़ है। नेता सचेत हो तो अगला स्टेप सक्रिय बनने का है। सक्रिय नेता ही सफल नेता होता है।

3.       वोट चोरी से बने नेता को क्लीन शेव रहने की सलाह दी जाती है ताकि कोई दूर-दूर तक यह न कह सके चोर की दाढ़ी में तिनका।

4.       इससे कितने मैन आवर्स बचते हैं। भाई आप वोट देने जाओ, जाओ मत जाओ आप अपना कोई अन्य प्रोडक्टिव काम करो। देश में उत्पादकता बढ़ाने की बहुत ज़रूरत है। ये चुनाव, वोट डालना, वोट गिनना, हमारे ऊपर छोड़ दो।

5.       आप अब 75 साल में समझ ही गए हो कि नेता अपने आप एक अलग ही वैरायटी है। वह भले किसी भी दल का हो। सच तो ये है कि आप अगर कल को नेता बन जाएँ तो आप भी उन जैसे ही बन जाएँगे। बस आपको ही पता नहीं चलेगा कि ये कायाकल्प कब हुआ।

6.       आप सोचो ये चुनाव कितना खर्चीला प्राॅसस है। पोस्टर, स्याही। कागज़, ई वी एम मशीनें, इस काम में लगे बेचारे टीचर, गाड़ियों का काफिला और भी न जाने क्या क्या? हमारे ग़रीब देश को ये सूट करता है क्या ? चोरी बड़ी किफ़ायती चीज़ है। उपरोक्त तमाम तामझाम की अपेक्षा सस्ते में ही काम हो जाता है। आपको नेता चुनना है। आपने चुन लिया। अब घर जाइए। हमने इसका क्रेडिट खुद नहीं लेना है, आपको ही देना है।

7.       देखो ये चोरी को पता नहीं कब किस काल में और किसने एक डर्टी वर्ड बना दिया यह डर्टी वर्ड नहीं। आदि काल से चल रहा है। आप बॉलीवुड की तरफ नज़र घुमाइए। स्टोरी चोरी की, गीतों की धुन चोरी की, चोरी-चोरी, चोरी मेरा काम, चोर मचाये शोर। हमारे बचपन में खेल भी होते थे। चोर-सिपाही, चोर-पुलिस। फिल्मी गीत तो बिना चोर बन ही नहीं सकते। चोरी, चुरा लिया। अतः चोर-चोरी कोई गलत काम नहीं। इसे हीन दृष्टि से देखना बंद करिए।

8.       आप देखिये इससे कितने लोगों को रोजगार मिलता है। टी.ए. डी.ए. अलग, एक चुनाव क्षेत्र से दूसरे चुनाव जाना होता है। वो भी फटाफट। इससे देश की एकता में, उसके एकीकरण में मदद मिलती है। कहावत भी है 'ट्रैवल मेक्स मैन कम्प्लीट'। 

9.       जब सब चोरी में लिप्त रहेंगे तो कौन किसे चोर कहेगा? हम सब चोर हैं। मुझे याद है एक बार नेता जी ने अपने वोटर्स से वोट की अपील करते हुआ कहा था। मैं नहीं कहता मैं भ्रष्ट नहीं हूँ। आप तो उसे वोट दो जो सबसे कम भ्रष्ट हो। आप मुझे ही कम भ्रष्ट पाएंगे। तो वोट चोरी में भी ये मायने नहीं रखता कि आपने  बीस वोट चुराये या बीस हज़ार।

10.      आदमी के ज़ीन में है चोरी करना। फल तोड़ना मना था फिर भी ईव ने ईडन गार्डन से सेब चुरा कर आदम को खिलाया था। खिलाया था कि नहीं ? क्या आप आदम ईव की संतान नहीं। कोई चैन चुराता है, कोई नींद चुराता है। कोई दिल चुराता है। कोई कोई तो पति ही चुरा लेती हैं। कोई बेंक से रकम चुराता है। कोई सड़क, पुल चुराता है। कोई विमान तो कोई रेल चुराता है। क्षेत्र अपना अपना, विशेषज्ञता अपनी अपनी। यूं कहने वाले कहते हैं चोरी घर से ही शुरू होती है। मम्मी की गुल्लक से, पापा की जेब से।

11.      कहते हैं कोयल घोंसला नहीं बनाती। वह कौव्वे के ऊपर कड़ी नज़र रखती है। और सही टाइम पर वह अपने अंडे कौव्वे के घोंसले में रख आती है। चालाक इतनी कि अगर चार अंडे रखती है तो कौव्वे के चार अंडे चुरा लेती है। इससे दो बातें पता चलती हैं।  एक, चोरी करने के लिए लगातार कड़ी नज़र रखना जरूरी है दूसरे, जब यह गुण पशु पक्षियों में भी पाया जाता है तो मनुष्य को तो भगवान ने बेहतर दिमाग से नवाजा है। वह बेहतर करेगा इसकी उम्मीद की जाती है। और कर भी रहा है।

12.     अतः कृपया किसी को भी वोट चोर कहने से पहले सोचिए। अगला वोट चुरा क्यों रहा है ? ईमानदारी से आप उसे चुनाव जीतने नहीं देते। एक थानेदार जब एक हत्या की तफतीश के सिलसिले में एक गाँव पहुंचा तो लगा हलवाई की दुकान पर दबादब मिठाई खाने। किसी ने कहा "साब ! आप किसी के मरे में आए हैं। दुख की घड़ी है"। थानेदार बोला "भाई ये ठीक है ! खुशी में तुम बुलाओ नहीं और दुख में मैं मिठाई नहीं खाऊँ। तब मैं मिठाई खाऊँगा कब अतः जब तक चले इस चोरी को चलाते रहो। चोर कौन है ? इसमें न जाएँ। मान के चलें चोर कौन नहीं ? ज़ौक़ बहुत पहले कह गए हैं:

 

                        लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले

                        अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले

                        दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ

                        तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले