Ravi ki duniya

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Friday, January 4, 2013

व्यंग्य : कलियुग का स्थापना काल




विद्वानों में कलियुग के स्थापना काल तथा पृथ्वी के किस भू-भाग पर इसका सर्वप्रथम आगमन हुआ इसे ले कर मतभेद हैं लेकिन पिछले दिनों की घटनाओं से स्थिति साफ़ हुई है और भारत नामक देश बार बार चर्चा में आया है 



प्राचीन समय की बात है भारत वर्ष में एक नगर था दिल्ली. यह नगर सुदूर पूर्व में अपनी रुपहली छटा के लिए जाना जाता था. एक के बाद एक राजा इस नगर को ही अपनी राजधानी बनाते रहे थे. वहाँ के बृहद राज मार्ग तथा राजमार्ग के दोनों ओर घने छायादार वृक्ष थे. महल के तथा राजा के अनेकानेक व्यस्त कार्यालयों के व्यस्ततम कर्मचारी वहाँ केलि-क्रीडा करते न थकते थे. वे अनेकानेक इंडोर गेम्स को आउट डोर में खेला करते थे. इसके अलावा प्रेमी-जन पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेम का राग अलापते थे. साथ साथ जीने मरने की झूठी शपथ लेते और छल प्रपंच रचते थे. स्थान स्थान पर फुव्वारों की रंगीन आभा देखते ही बनती थी. यद्यपि राज्य में जल का, विशेषकर पेय जल का अभाव था. प्रजा को पेय जल सुलभ नहीं था. यद्यपि तब तक सुलभ शौचालय आ गए थे. इतिहासकार ऐसी पुष्टि करते हैं. राजधानी की रंगीनियां देखते ही बनती थीं. बड़े बड़े राजमहल, धनाढ्य और राज सभा के सभासद अपने अपने भव्य विशाल भवनों में विश्राम करते थे. एक समय ऐसा आया कि अधिकतर सभासद और राजा विश्राम तंद्रा में ही लीन पाये जाते थे. और जब तब  तंद्रा टूटती भी तो  वे इस जोड़ तोड़ और युक्ति में व्यस्त रहते कि कम से कम समय  में कैसे अधिक से अधिक धन संग्रह किया जाये. विशाल आकार की उद्घघाटन पट्टिकाओं के अवशेष सर्वत्र खुदाई में मिले हैं. विदेशों में धन सुरक्षित रहेगा इस लालसा में लोगों के स्विट्ज़रलैंड नामक देश में अनेक छद्म नामों से खाते / संदूकची पाईं गयीं हैं.



यहीं से भारत वर्ष के पतन के युग का सूत्रपात बताते हैं. लोक लुभावन सार्वजनिक वक्तव्य प्रचुर मात्रा में दिये जाते थे. सभी राजनैतिक दलों में एक चिरन्तन होढ़ लगी रहती थी की अपने अपने वस्तु नृत्य ( आइटम डांस) से कौन अधिक से अधिक मतदाताओं को रिझा सकता है. मतदाता भी कम चतुर न थे. एक से मदिरा लेते, दूसरे से कंबल, तीसरे से स्वर्ण मुद्रा. तथा मतदान दिवस पर अपना मत किसी चौथे व्यक्ति को दे आते थे और इस प्रकार बाकी तीनों का चौथा सम्पन्न कर दिया करते थे.

बुद्धिजीवी वर्ग की भरमार थी. वे टिड्डी दल की भाँति शहर-शहर, नुक्कड़-नुक्कड़, चैनल- चैनल मंडराया करते थे. वे सदैव मुद्दों की जुगाली करते पाये जाते. वे एक नए काल्पनिक संसार की संरचना में व्यस्त रहते. उन्हें अपने परिवेश से, अपने राजा से, अपने राज्य से यहाँ तक कि अपने आप से वैराग्य था. ये वैराग्य इस सीमा तक पहुँच चुका था कि वे  इनके अस्तित्व के साथ साथ अपने अस्तित्व को भी घोर निंदा से देखते.



समाज में समाचार पत्र के पृष्ठ तृतीय पर अपने चित्र  देखने दिखाने की एक गला काट प्रतियोगिता सी निकल पड़ी थी. अक्सर इस पृष्ठ पर स्थान पाने के लिए माताएँ बहनें अल्पतम परिधान में रहतीं थीं. बल्कि परिधान रहित  होने को भी तत्पर थीं. इस युग में एक विधा चलचित्र की भी अपनी भरपूर तरुणाई में थी. उसमें विभिन्न प्रकार की त्वचा विशषज्ञ अपनी अपनी त्वचा का सार्वजनिक तौर पर दिग्दर्शन-प्रदर्शन कर भूरि-भूरि प्रशंसा बटोरती थीं. इसके लिए जो भाव-भंगिमायेँ वे अपनाती थीं तथा गीतों के जो शब्दांश मिले हैं उससे ज्ञात होता है कि चोली, स्कर्ट, सैयां, गोरी, कांटा, चमेली, बिजली, फेविकोल, झँडू बाम, फायर ब्रिगेड आदि विशेष आयोजन और प्रयोजन की वस्तुएं थीं.



शनै शनै एक ऐसे संक्रमण काल से यह राज्य गुजरा जहाँ स्त्री को देखने मात्र से जन साधारण में कुछ ऐसे कीटाणुओं का संचार होता था कि वे बलात उस से संबंध बनाना चाहते थे. इस में चल-दूरभाष (मोबाइल) की और संगणक अंतर्जाल ( इंटरनेट ) जैसे उपकरणों को विशेष दूत की सी भूमिका में हम पाते हैं. 



इस दिशा में प्रजा तेज़ाब डालने से ले कर बलात उठा ले जाने तथा घर में घुस कर संबंध बनाया करते थे. सुनसान स्थान की अपेक्षा भीड़-भाड़ वाले स्थानों, राजमार्गों  और श्याम वर्ण काँच की खिड़कियों सज्जित वाहनों निजी तथा सार्वजनिक दोनों का व्यापक उपयोग होने लगा था. अपराधी अपराध करके अपनी रक्षा हेतु स्वयं ही प्रहरी की शरण में चले जाते थे. प्रहरी ही अपनी विलक्षण प्रतिभा से उन्हें एक ही समय में दूसरे स्थान पर दिखने के गुरु मंत्र बता देते थे. वे उन तिलिस्मी क्रियाओं में पारंगत थे जिनमें मृतक को जीवित तथा जीवित को मृत आसानी से घोषित किया जा सकता था. इस मायाजाल के अनेकानेक लाभ थे. किन्तु वे वर्तमान अनुसंधान का विषय नहीं.



प्रहरी, चिकित्सक तथा विधिकों की ऐसी प्रगाढ़ तिकड़ी थी की इस के आगे टिक नहीं पाती थी--  चालाकी हो या ईमानदारी. ये तीनों मिल कर तीन लोक से न्यारे लोक की रचना में सक्षम थे अर्थात इस लोक के वास्तविक विश्वकर्मा थे वे.



एक समय ऐसा आया कि आर्यवर्त रसातल की ओर द्रुतगति से अग्रसर होने लगा. प्रजा त्राहि त्राहि कर रही थी. राजा, रानी, युवराज, मंत्री, महामंत्री, सभासद सभी व्यस्त थे तथा दो के कैसे बाईस बनायें जाएँ इस जुगत में रात दिन लिप्त रहते थे. इस पूर्णकालिक गतिविधि से जैसे ही विश्राम के दो पल मिलते उसमें पुनः वे व्यस्त हो जाते की जन साधारण को किस विधि से अपने पक्ष में मतदान कराया जाये. मतगणना की कौन सी पद्धति अपनाई  जाये  तथा किस निर्वाचन क्षेत्र से किस जाति विशेष व धर्म विशेष के प्यादे को पदाया जाये  



इस सब के उपरांत जैसे ही विश्रांति आती वे विदेशगमन अथवा राग विलास में डूब जाते. यह एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई थी. राजकीय वर्ग हो या कुलीन वर्ग सभी लीन थे. सामाजिक मूल्य यह वाक्य अपनी अस्मिता खो चुका था. सभी धन लिप्सा में बौराए बौराये अनवरत गहरे गर्त में गिरते जा रहे थे. किन्तु वे सभी प्रसन्न थे. असंतोष और चिंता थी तो मात्र एक--- उनका बुद्धिहीन पड़ोसी अथवा पड़ोसी से भी अधिक बुद्धिहीन सगे- संबंधी इस स्पर्धा में कहीं उनसे आगे न निकल जाएँ.



इस अंतहीन स्पर्धा में राजकीय वर्ग राजनर्तकी की तरह राजकृपा पाने को किसी भी सीमा तक जाने को आतुर था. कोई सीमा थी ही नहीं. सीमा बंधन है. सीमा क्या है ? आपके पंखों को उड़ान न भरने देने का भारी पत्थर है. अतः सभासद इसे भालिभांति समझ कर आत्मसात कर चुके थे. नित नये  स्वांग मंडी में आते थे. जिसमें पैसे दुगना-चौगुना करने से लेकर साथी सेवा (एस्कौर्ट सर्विस ) ए टू ज़ेड मसाज सेवा सम्मिलित थी. यद्यपि ज़ेड तक कोई कोई विरले ही पहुँच पाते थे. अधिकतर तो ई.एफ.जी. तक आते आते अपनी सम्पति, सम्मान, और स्वास्थ्य तीनों से वंचित हो जाते थे.



जैसा कि  ऊपर उल्लेख आया है इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र के साथ साथ पी.पी.पी. के अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र की भी बढ़-चढ़ कर भागीदारी थी. अतः निजी वाहनों में अबलाओं के साथ बल प्रयोग अब सार्वजनिक वाहनों में भी आ गया था और उसके वाहक, संवाहक तथा अन्य कर्मी इसमें अपने तुच्छ जीवन की परवाह न करते हुए कूद पड़े थे. ऐसी ही एक घटना थी जो 16 दिसम्बर सन 2012 को आर्यवर्त के दिल्ली नगर में घटी थी. और उसी से कलियुग की पूर्णतः स्थापना मानी गई है. तभी से आर्यवर्त अनार्यवर्त कहलाया, भारत भार हो गया. और मानव दानव का अन्तर समाप्त हो गया.

3 comments:

  1. bahut khoob! Kaliyug kee is se sunder vyakhya ho hi nahi sakti. Laga mano hum sachmuch kuchh sau varsh aage ka samachar padh rahe hain aur utkhanan me nikli samagri ka aisa varnan, adbhut hai! Lekhak ke dil ka dard bhi isme bakhubi jhalakta hai ! Hats off(aapke shabdon me topi utarne ka dil karta hai).

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  2. एक सच्चाई की व्याख्या अब वह दिल्ली नहीं रही

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  3. Ye vyang pdne pr lgta hai mano hm pracheen kal se vrtaman kal ki or yatra kr rhe ho.....ati sunder.....ythrth ka chitran

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