Ravi ki duniya

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Tuesday, November 18, 2014

व्यंग्य संतन को का क़ानून ते काम




मैं इन दिनों ये सोच सोच कर परेशान हूं कि सरकार जब संतन को ही नहीं पकड़ पा रही तो भला अपराधी, डॉन और स्मगलर तथा काला धन वालों को कैसे पकड़ पायेगी. इधर संत इतने करुणामय कृपालु हैं कि उन्होंने अपने आपको क़ानून के आगे पेश होने के लिये महज़ छोटी छोटी या यूँ कहें सूक्ष्मतम तीन शर्ते रखी हैं पहली, ये कि वे वीडियो कॉनफ्रेसिंग के ज़रिये पेश होंगे. दूसरे, ये कि वे जब तक अस्वस्थ्य हैं पेश नहीं होंगे. तीसरे, उनके केस की जांच सी.बी. आई. से कराई जाये.

अब लो ये बातें मुझे पहले पता होतीं तो मैं नकल करने के बचकाने आरोप में बचपन में यूं पिटता नहीं. आज सोचता हूं तो मन भर आता है. क्या है ? क्या है ये ? मुझे भी तभी शर्त रख देनी चाहिये थी कि यूँ तो मेरा न्याय पालिका में पूरा पूरा विश्वास है मगर इस पालिका स्कूल के इस मास्टर पर तनिक भी नहीं जो ट्यूशन न पढ़ने का मुझ से बदला इस तरह से ले रहा था.

मैं भी कह देता मैं तो थ्री-डी टेकनीक से पेश होऊंगा. (ये वही टेकनीक है जिससे मोदी जी एक ही समय में जगह जगह चुनाव के दौरान प्रकट हुए थे) इस टेकनीक से क्या है कि मैं लक्षद्वीप में हूं या होनोलूलू में हूं या बोरा-बोरा द्वीप पर पता ही नहीं चलेगा. यूँ भला पता चल भी जाये तो क्या उखाड़ लेना है मेरा. जिनका पता है उनका ही क्या कर लिया आपने ?. सौ-पाँच सौ की भीड़ जुटा लीजिये और अपने आस-पास बिठा लीजिये कृपा बरसते देर कहां लगनी है. कहते हैं सद्दाम हुसैन के कई हमशक्ल थे मैंने भी अपने कुछ हमशक्ल भर्ती कर लेने हैं दिहाड़ी पर. जब एक्टिव हैं तो एक्टिव हैं नहीं तो बिठला देना है उन्हें आजकल के नौजवानों की तरह बेंच पर.

दूसरे, मैंने कहना है कि जब तक मैं स्वस्थ्य न हो जाऊं मैं पेश नहीं होऊंगा. न हैड मास्टर के आगे न कहीं और. अब स्वस्थ्य--अस्वस्थ्य अपने हाथ कहां ? सब प्रभु के हाथ है. जैसे रेलवे का स्वास्थ्य इन दिनों प्रभु के हाथ है. वैसे भी अब इस उम्र में सर्दी-ज़ुकाम, खाँसी-खुर्रा लगा ही रहता है.

तीसरे, एक अदद छोटी सी शर्त मैंने ये रख देनी है कि जैसे मेरा इस पालिका स्कूल की व्यवस्था पर तनिक भी भरोसा नहीं वैसे ही मेरा भारत की पुलिस पर भरोसा नहीं है. अत: नेचुरल जस्टिस का तकाज़ा है कि मेरी जांच के.जी.बी. मोसाद या सी.आई.ए. से कराई जाये. जब तक मेरी ये मांगें मान ली नहीं जाती मुझे परेशान न किया जाये और ये जो मैंने भक्तों को भवसागर पार कराने का पुनीत काम हाथ में लिया हुआ है उसे शांति से सम्पन्न कराने दिया जाये. यूँ भी इस क्षण भंगुर जीवन का क्या भरोसा... क्या तेरा ? क्या मेरा ?. आत्मा तो इस शरीर की क़ैदी पहले से ही है..हम सब क़ैदी हैं अपनी वासनाओं के..अपनी तृष्णा के. क्या जेल ? क्या जेल से बाहर ?.


2 comments:

  1. बहुत बढ़िया व्यंग लिखा है.

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  2. bahut badiya tarike se pesh kia hai shreeman, bhartiya rail ko bhi aap gaurvanvit kr rahe honge isme koi shaq nahi.

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