Ravi ki duniya

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Friday, September 12, 2025

व्यंग्य : बाढ़ आई है ? भजन गाईये !


 

जब आपको लगने लगता है कि नेता लोग ने हद कर दी तभी किसी न किसी नेता का कारनामा सामने आ जाता है। जिससे उनकी प्रतिभा और कौशल पर आपको यकीन आ जाता है कि अभी तो नेताजी के पास बहुत गोला बारूद कारतूस बाकी है। अब यही देख लीजिये जब एक नेतानी के निर्वाचन क्षेत्र में बाढ़ ने तबाही मचा दी तो उनको ख्याल आया कि उनका निर्वाचन क्षेत्र होने के नाते उन्हें भी जाना चाहिए। नहीं तो अगले चुनाव में ये बाढ़ग्रस्त वोटर कहीं उन्हें सूखाग्रस्त इलाके में न भिजवा दें। ताबड़तोड़ नेतानी जी जा पहुंची उन लोगों के मध्य जहां वोटर, बोले तो बाढ़ पीड़ित विस्थापित टेंटों और छोलदारी में रह रहे थे। आजकल उनको अग्रेज़ी में ‘शेल्टर होम’ कहते हैं। इज्ज़त वाला लगता है।

 

अब प्रश्न ये था कि वो अपनी ग्लिसरीन तो घर ही भूल गईं थीं। अब उनकी इस हालत पर वे आँसू बहातीं तो कैसे ? कुछ ठोस करने की न उनकी मंशा थी और न उन पर संसाधन थे। पता नहीं हाई कमांड अगली बार टिकट देती भी है या नहीं।  अभी कोई ठीक नहीं है। काफी कुछ इंतज़ाम ज़िले के अधिकारियों ने बामामूल कर ही दिये थे। फिर भी वो आपदाग्रस्त लोगों से ऐसे पूछ रही थीं जैसे सारी राहत सामग्री उन्हीं ने भिजवाई है। वो भी अपने घर से, अपने पैसे से। “... खाना ठीक है...? दोनों टाइम मिल रहा है ? यहाँ आपको कोई तकलीफ तो नहीं ? आप आराम से तो हैं ?.....” इससे अधिक हिन्दी उन्हें आती भी न थी। फिल्मों में तो ‘वॉयस ओवर आर्टिस्ट’ मिल जाते हैं यहाँ इस तरह की 'डबिंग' संभव नहीं थी। यह तो 'लाइव' ड्रामा था। कोई रीटेक नहीं।

 

कलेक्टर और उनका सारा अमला तारिका नेतानी को ऐसे सब राहत कार्यों की जानकारी दे रहा थे जैसे वो उन सबकी बॉस हैं और जरा सी भी कोताही बरतने पर उनका ट्रांसफर /सस्पेंशन पक्का है। दरअसल वो भी फोटो खिंचाने में व्यस्त थे और अपने आपको राजकपूर और धर्मेन्द्र से कम नहीं समझ रहे थे। हालांकि सिने तारिका नेतानी खुद साल में एक दो बार से ज्यादा  इधर का रुख नहीं करतीं। कौन इतनी धूल मिट्टी में धक्के खाये। ये अभागे, कोई अमीर  प्रोड्यूसर तो हैं नहीं जो इनके पास वैनिटी वैन हो। जरा देर में सारा मेकअप अचानक आई बाढ़ में कच्चे मकान की तरह ढह जाता है।

 

यह सब ‘डिरामा’ तो दस मिनट में ही ‘दि एंड’ की तरफ बढ़ चला था। तभी सिने तारिका को ख्याल आया और उन्होने भजन गाना शुरू कर दिया। उन्हें भजन गाता देख, कलेक्टर का भजन न गाना उनके खिलाफ भी जा सकता था। क्या पता लोग उसे सेकुलर गेंग का समझने लगें ।  यह सोच उसने भी तुरत फुरत सुर में सुर मिलाया और अगला भी चालू हो गया। अब जब कलेक्टर भजन गा रहा था तो उनके अधीनस्थ सरकारी अमले की इतनी हिम्मत कि वो नहीं गायें। वो भी खूब ज़ोर ज़ोर से गाने लगे। बल्कि आपस में प्रतियोगिता सी करने लगे कि कौन कितनी ज़ोर से गाता है। उनको भय  था कि कलेक्टर साब ने देख लिया कि अमुक कर्मचारी नहीं गा रहा है तो उसका ट्रांसफर पक्का है। हो सकता है अनुशासनात्मक कार्यवाही भी हो जाये। वो खूब मगन होकर गा रहे थे। अपने नाती-पोतों को बताएँगे कि कैसे उनके गाँव में जब सिने तारिका आई तो उसने उनके साथ ड्यूएट गाया था, भले भजन ही सही। जल्द ही वहाँ भक्ति का अनूठा वातावरण बन गया। लोग-बाग बाढ़ को भूल गए। और  तभी एक पहले से सिखाई पढ़ाई महिला का वक्तव्य आया कि तारिका नेतानी के साथ उनके भजन गाने से वो अपनी दुख तकलीफ भूल गए भले भजन गाते वक़्त ही सही।

 

यही राजनीति में उनका सबसे बड़ा योगदान है कि देखने वाला अपना दुख दर्द भूल जाये। भले उनके भजन गाते वक़्त या अपनी फिल्म का संवाद बोलने के दौरान। अलबत्ता यह नया सूत्र यकायक ही भावी नेताओं को मिल गया है। अब कभी भूकंप आए तो नृत्य कराएं। बाढ़ आए तो भजन। फसल कम हुई है या नष्ट हो गयी है ? तो  ग़ज़ल। महामारी फैले तो आर्केस्ट्रा, महंगाई बढ़ गयी है ? वान्दा नहीं ! मेला लगवाएँ। बस्ती मे आग लगी है ? चिंता नहीं सर्कस चालू कर दें।

 

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