Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Sunday, December 22, 2024

व्यंग्य: बिना अपेंडिक्स किया ऑपरेशन

 

                                                        


 

 

           मेरे भारत महान के एक महान सूबे में जब एक बच्ची के पेट में भयंकर दर्द हुआ तो ज़ाहिर है उसके अभिभावक उसे लेकर अस्पताल दौड़े गए। हमारे डॉ. साहिबान तो सवेरे से तैयार बैठे ही थे कि आज अभी तक कोई चीरा-फाड़ी का मरीज नहीं नज़र आया। इस बच्ची को आता देख उनकी बाछें खिल गईं। उन्होने तुरंत डिक्लेयर कर दिया कि बच्ची के पेट में अपेंडिक्स है और उसका तुरंत ऑपरेशन करना पड़ेगा, नहीं तो बच्ची की जान को खतरा है। घर वाले मरते क्या ना करते। तुरंत ऑपरेशन को राज़ी हो गए। डॉ. ने बिना वक़्त गँवाए ऑपरेशन कर दिया। मगर ये क्या ? उन्होने देखा कि अपेंडिक्स तो था ही नहीं। उन्होने आनन-फानन में जैसे पेट खोला था वैसे ही बंद कर दिया और थियेटर से बाहर निकल कर बताया कि खुशखबरी है अपेंडिक्स था ही नहीं। हमने पूरी तहक़ीक़ात की है। अब हम तसदीक करते हैं कि अपेंडिक्स है ही नहीं। चलिये इस बात की मिठाई खिलाओ।

 

         ये सुन बच्ची के अभिभावक बिलकुल भी मुतास्सर नहीं हुए उल्टे वो राशन-पानी लेकर चढ़ गए। अगर अपेंडिक्स था नहीं तो आप बच्ची को ऑपरेशन थियेटर में लेकर ही क्यूँ गए? आपने पेट खोला ही क्यूँ ?

इस बात का डॉ. के पास कोई जवाब नहीं था, तब तक सभी रिश्तेदारों ने जम कर उत्पात मचा दिया। अस्पताल के पास क्या जवाब होना था। उन्होंने ताबड़तोड़ एक इंक्वारी की घोषणा कर दी। हमारी आज़ादी के बाद की कोई एक उपलब्धि है तो वह है हम इंक्वारी घोषित करने में जरा देर नहीं लगाते। फौरन जैसे ही बात गर्मागर्मी तक पहुँचती है हम आनन-फानन में एक अदद इंक्वारी की घोषणा कर देते हैं। हमारे पास 'रेडी रिकनर' की भांति तरह-तरह के किस्म- किस्म की इंकवारी के लिए भद्र पुरुषों की लम्बी सूची सदैव तैयार रहती है। उनका ये शौक है, विशेषता है या कहिए कि उनकी 'लास्ट विश' यही होती है कि काश: ये संसार छोड़ने से पहले कोई हमसे भी एक ठौ इंक्वारी करा लेता तो हम भी अपनी सीट बैकुंठ में पक्की कर लेते। ऊपर वाले को नहीं तो क्या मुंह दिखाएंगे "अरे नालायक !  तुझे धरती पर भेजा था और तू बिना इंक्वारी के, बिना किसी कमेटी का मेम्बर बने लौट आया है।

 

 

        अस्पताल कह सकता है कि बिना पेट चीरे कैसे 100% पता लग सकता है कि अपेंडिक्स है या नहीं। अभिभावकों तो खुश होना चाहिए कि अपेंडिक्स नहीं है और ये बात हमने ईमानदारी से स्वीकार कर उन्हें बता भी दी है। वरना वो कौन से डॉ. हैं ? हम कहते अपेंडिक्स का ऑपरेशन कर दिया है। अब पेशेंट ठीक है। आप घर जा सकते हैं। मगर नहीं हमारा गहना ईमानदारी है हमने साफ बता दिया। बहुधा ऐसा होता है कि डॉ. को किसी बात की संभावना लगती है मगर वो मात्र डॉ है आखिर, कोई नजूमी तो नहीं। पक्का तो जब तक वह अपनी आँखों से ना देख ले कैसे कुछ कह सकता है? अब किसी के स्टोन है ये बात बिना चीर फाड़ तो एक कयास भर ही है। ऑपरेशन के बाद ही पता चलता है कि कहाँ कितना बड़ा-छोटा स्टोन था। अब दिल का कोई भी रोग हो बिना खोले कैसे कोई पता लगा सकता है। अतः यह बात ही गलत है कि अपेंडिक्स था ही नहीं और ऑपरेशन कर दिया अरे भाई ऑपरेशन के बाद अर्थात चीरा फाड़ी के बाद पता चला अपेंडिक्स नहीं है, हमने टांके लगा कर बंद कर दिया। बात खत्म। ज़िस्म के अंदर की बात डॉ. ही जान सकता है और उसके लिए उसे शरीर के अंदर झांकना पड़ता है। आपके कपड़े पारदर्शी हो सकते हैं, होते भी हैं मगर आपका शरीर पारदर्शी नहीं, उसके लिए तो काटा-पीटी करनी ही पड़ती है।

 

 

        तो आप खुश हो जाइए अपेंडिक्स नहीं था। भाई डॉ. और वकील के पेशे को इसीलिए प्रैक्टिस कहा जाता है। वो प्रैक्टिस करते ही रहते हैं। अब कोई वकील कह सकता है कि वह केस हारेगा? उसे लगता है कि वो ही जीतेगा। मगर हार-जीत अन्य कितने ही फैक्टर पर निर्भर करती है। अतः खुश होइये की आपको अपेंडिक्स नहीं है। रही बात टांकों की तो वो भर जाएँगे, पैसे आप फिर कमा लेंगे। ये डॉ. साब ही आपको टांके के दाग मिटाने की क्रीम भी बेच देंगे, खरीद लीजिये। अब आपको कभी डॉ. से या ऑपरेशन से डर नहीं लगेगा। आपको तजुर्बा हो गया। जीवन में तजुर्बा बहुत बड़ी चीज़ है।  आप चाहें तो औरों को इसे बता सकते हैं जो जरा जरा सी बात पर डर जाते हैं और ऑपरेशन को हव्वा समझते हैं।

   

         हैपी ऑपरेशन्स !!

Saturday, December 21, 2024

व्यंग्य : स्मार्ट सिटी के वासी

 


 

       बचपन में सुनने में अच्छा लगता था कि फलां बच्चा बहुत स्मार्ट है। स्मार्ट एक ऐसा शब्द था जो ईर्ष्या की हद तक पाॅजिटिविटी लिए रहता था। काश: हम भी स्मार्ट होते। स्मार्ट लगना हम मिडल क्लास लोगों का एक 'माई एम्बीशन इन लाइफ' टाइप सपना होता है। इसमें माता-पिता का बहुत हाथ होता था। वे चाहते थे कि बच्चा पढ़ाई करे और बस पढ़ाई करे। इसके लिए ज़रूरी है कि वह फिल्में ना देखे, वह ज्यादा दोस्त-यारों की सोहबत में ना रहे। ज्यादा खेलकूद भी वर्जित था और हाँ, बाल बड़े कदापि ना रखे। अब इतनी सब बन्दिशों के चलते कोई कोई विरला ही स्मार्ट निकल पाता था या अपनी स्मार्टनेस कायम रख पाता था।

 

        बस सरकार ने और उत्पादकों ने ये बात पकड़ ली। अब फ्रिज स्मार्ट होने लग पड़े हैं। दरवाजे पर ही तफसील लिखी आ जाती है। टी.वी. स्मार्ट हुआ तो पता ये चला कि केवल हम ही टी.वी. नहीं देख रहे टी.वी. भी हमें दिन-रात देख रहा होता है और हमारी हर हरकत पर नज़र रखता है। गीज़र स्मार्ट हो गए हैं पानी गरम होने के बाद अपने आप ऑफ हो जाता है। ए.सी. स्मार्ट हो गए हैं एक तापमान के बाद खुदबखुद बंद हो जाता है और तापमान फिर बढ़ते ही पुनः चालू हो जाता है।

 

               

          बड़ा सवाल ये है कि क्या हम उस अनुपात में स्मार्ट हुए हैं ? आप कहते नहीं थकते फलां मशीन वर्ड क्लास है पर क्या हम, उन चीजों को बापरने वाले, वर्ड क्लास हुए हैं या हम अब भी वहीं फंसे हुए हैं। मुझे तो लगता है कि ये महज़ फट्टेबाजी है कि ये मशीन, ये अस्पताल, ये होटल वर्ड क्लास है। इसका मतलब क्या होता है ? यही न कि ये वैसा है जैसा वर्ड में होता है। बोले तो इंटेरनेशनल टाइप। लेकिन हम तो वहीं के वहीं शुद्ध भारतीय हैं। उसी तरह जब आप कहते हो कि मेरा शहर स्मार्ट हो गया तो मैं समझता हूँ कि हवा साफ हो गई होनी है, पानी शुद्ध होगा, जहां मर्ज़ी नल से मुंह लगाओ और पियो। टैक्सी वाला, ऑटो वाला आपको 'चीट' नहीं करेगा। ना लंबे रास्ते से से ले जाएगा ना ऊलजलूल किराया वसूल करेगा। गली हो या सड़क सब 'सेफ' होगी। रात-बिरात आप बेधड़क चल फिर सकते हैं। आप बैंक जाएँ आपका काम फौरन हो जाये। आप सरकारी दफ़्तर में जाएँ आपको सिंगल विंडो के माफिक पूरी तसल्ली से पूरा काम कर दिया जाये। ये नहीं कि कल आना, परसों आना। सबको पेंशन समय पर मिले। मिलावट का कोई नाम न हो। दूध शुद्ध हो। घी और मिठाई बिना मिलावट हो। अगर ये नहीं है तो बताओ फिर स्मार्ट है क्या ?

 

        बाज़ार में खीरा जाने कैसा हाइब्रीड आया है। न कोई खुशबू, ना कोई स्वाद। सब्जियाँ सब इंजेक्शन से चल रही हैं। अस्पताल वाले आपका इंतज़ार कर रहे हैं कब आप आयें और वो आपका नाम और बीमारी बाद में पूछें, पहले आपको वेंटीलेटर पर रख छोड़ें। आप ड्राइविंग लाइसेन्स बनवाने जाएँ और बाबू कहे सर ! आपने क्यूँ तकलीफ की मुझे फोन कर दिया होता हम ड्राइविंग लाइसेन्स हो पी.यू. सी. हो, घर पर ही पहुंचा देते बस एक मामूली सा सुविधा शुल्क आपसे लेते।

 

        आप चचा ग़ालिब की तरह से सोचें:

 

            मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ

             वो सितमगर मिरे मरने पे भी राज़ी न हुआ

 

 

         तो हुज़ूर रुकिए ! इतना आसान नहीं। इसमें भी दुनियाँ भर के रगड़े हैं। आपको डैथ सर्टिफिकेट चाहिए कि नहीं ? तो लाइये सुविधा शुल्क।

 

       स्मार्ट सिटी में आपका स्वागत है। आपको छोड़ कर यहाँ सब स्मार्ट हैं क्या नेता क्या अभिनेता, क्या चोर क्या व्यापारी। क्या वाशिंग मशीन क्या वोटिंग मशीन।

Thursday, December 19, 2024

व्यंग्य: नेताओं की विश्वनीयता में आई गिरावट


                                                               


 


                                  नेताजी ने फरमाया है कि नेताओं की विश्वनीयता में गिरावट आयी है। अब इसमें दो बातें हैं एक तो ताज्जुब यह है कि ये बात एक नेता ही कह रहा है तो हमें अविश्वास का कोई कारण नहीं है। दूसरे नेता जी को ये बात इतनी देर से क्यूँ समझ में आई। हमें तो चुनाव दर चुनाव यह बात पक्की से पक्की होती जाती है कि नेता की बात कुत्ते की लात। वो जो कह रहा है समझो करेगा उसका उल्टा। वो नेता क्यूँ बना है ? आपके कल्याण के लिए बना है ! अगर आप यह सोचते हैं तो आप बहुत बड़े चुगद हैं। नेता नेता बनता है ताकि वो अपना घर भर सके। नेता नेता बनता है ताकि वो अपनी पीढ़ियाँ सुधार सके। नेता नेता बनता है ताकि उसकी पैसे और पॉवर की भूख शांत हो सके। भले वो आपको कहानियाँ सुनाएगा कि वो नेता बना ताकि आपका, समाज का, देश का भला कर सके। सब बकवास है। वो नेता जो सन सेंतालीस में थे वो एक एक कर गुजर गए। अब जो नेता बचे हैं शुकर मनाओ कि वो आपके तन पर कपड़े छोड़ रहा है। 


                                    नेता और विश्वनीयता दो परस्पर विरोधाभाषी बातें हैं। अगर नेता है तो उसकी बात का विश्वास क्या ? और यदि इंसान विश्वास के लायक है तो वो और कुछ भी हो, नेता नहीं हो सकता। नेता सबसे पहले अपना भला सोचता है। फिर अपने बाल-बच्चों का भला सोचता और करता है। फिर भी फंड्स और अनर्जी बची रहे तो अपने खानदान, भाई भतीजे की सोचता है सबके अंत में नंबर आता है उसकी जाति का उसके धर्म का, और अंत में देश का। यूं जब वो बात करेगा तो उल्टा शुरू करेगा, सबसे पहले देश की बात करेगा, समाज कल्याण की बात करेगा, आदि आदि। 


                             ये एक छोटी सी बात नेता जी को इतनी देर लग गई समझने में। वो हमको क्या बुड़बक ही समझे बैठे थे। सच भी है वो सोचते होंगे जब चुनाव दर चुनाव उन्हीं को जिता रहे हैं तो हम वाकई बुड़बक ही होंगे। मगर सरजी !  ऐसा नहीं है। हमें चाॅइस क्या है ? एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ। एक कच्चा खाना चाहता है तो दूसरा भून के। भला आपने शाकाहारी शेर कभी देखा है ? नरभक्षी और शाकाहार परस्पर विरोधी टर्म हैं। ये कोई सोया चाॅप नहीं है कि आपको चाॅप का मज़ा भी आ जाये और आप शाकाहारी भी बने रहें। 


      

                                    हाँ मगर एक बात है ये नेता भी तो हमारे इसी समाज से आते हैं। जो तालाब में है वही तो लोटे में होगा। अब नेता कोई मंगल ग्रह से तो इम्पोर्ट किए नहीं जाएँगे। इन नई नस्ल के नेताओं ने ईमानदारी की परिभाषा ही बदल दी है। पहले वो नेता ईमानदार समझा जाता था जो रिश्वत (सुविधा शुल्क) नहीं लेता था अब वह नेता ईमानदार समझा जाता है जो रिश्वत तो लेता है मगर काम कर देता है। वादे का पक्का है। भरोसे वाला है। अब तो लोग बाग पैसे से भरा सूटकेस लिए उस आदमी को ढूंढते ही रहते हैं जो पैसे ले ले मगर उनका काम कर दे। आज कोई इस बात को लेकर यकीन ही नहीं करता कि बिना पैसे या भ्रष्टाचार के भी कोई काम हो सकता है। हमारी यही उपलब्धि है कि हमने भ्रष्टाचार को सदाचार बना दिया है। ईमानदार आदमी ने अपने आपको शरीफ आदमी बना लिया है। बोले तो गुड मैन यानि गुड फॉर नथिंग। वह किसी काम का नहीं। बात बात में आपको रूल बताता है। नालायक पहला रुल ही नहीं जानता कि 'रूल्स आर फॉर फूल्स'। 


                  आपने अबसे पहले सभी रंग ढंग के नेता देखे हैं। मुंह से बस यही आह निकलती है कहाँ गए वो लोग ?

Wednesday, December 18, 2024

व्यंग्य: वन नेशन-वन चोर

 


                       हम लोग बहुत जुमला पसंद हैं। उसे हम कभी नारा बोलते हैं कभी वार-क्राई कभी आव्हान। इन नारों ने पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को उद्वेलित किया है। प्रेरित किया है। अंग्रेज़ो भारत छोड़ो, दिल्ली चलो, जय हिन्द, हर हर महादेव, आराम हराम है, जय जवान जय किसान, गरीबी हटाओ आदि से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। इसी श्रंखला में अब लेटेस्ट है वन नेशन और आगे आप जिसे भी तरजीह देना चाहें वो लिख मारें। जैसे वन नेशन-वन पार्टी, वन नेशन-वन इलेक्शन, वन पार्टी-वन बैंक, वन पार्टी-वन स्टील, वन नेशन-वन एयरपोर्ट, वन नेशन-नो एयर लाइंस, वन नेशन-नो जॉब्स। 

   

        इसी सीरीज़ में हम लाये हैं वन नेशन-वन चोर। ये क्या कि नेशन एक है मगर अब तक  चोर एक नहीं हो पाये हैं। चोर चारों ओर बिखरे पड़े हैं। इससे उनकी ताकत बँट गई है। उनमें एकता का अभाव है। वे एक झंडे तले इकट्ठे नहीं हो पा रहे हैं।  कॉमन मिनिमम प्रोग्राम नाम की कोई चीज ही नहीं है। कोई जाली करेंसी में लगा पड़ा है, कोई पाॅकेटमारी में तो कोई उठाईगीरी में। इससे उनमें 'सिनर्जी' नहीं आ पा रही। वे अपने सही पोटेंशियल को नहीं पहुँच पा रहे। 



      कितने ही फील्ड्स में अब कॉर्पोरेट कल्चर आ गई है जबकि ये चोरी चकारी का सेक्टर अब भी वही पुरानी दक़ियानूसी तरीकों में लिप्त है। ग्रो-अप। ये चंबल के जंगल का ज़माना नहीं। सब काम ऑन लाइन है। हम डिजिटल किसलिए हुए हैं ? हम डिजिटल हुए हैं ताकि आप लोग अब अपहरण, किडनेपिंग ना करें बल्कि डिज़िटल अरेस्ट करें। पलक झपकते ही बैंक के खाते के खाते साफ कर दें। अब आपको ये चक्कू, तमंचा नहीं दिखाना है, बस माउस का एक क्लिक दबाना है और काम हो गया। इतनी 'ईज़ ऑफ डूइंग बिजनिस' कभी थी ही नहीं। वक़्त आ गया है कि आप एक अपना फैडरेशन ऑफ चैम्बर ऑफ चोरी चकारी का विशेष अधिवेशन बुला धन्यवाद प्रस्ताव पास करें। 


    

        सरकार हमारा कितना ख्याल रखती है। हमें लेटेस्ट तकनीक में पीछे नहीं रखना चाहती। "जाॅनी हम गहना नहीं चुराते ! हम पूरा का पूरा लॉकर ही उड़ा देते हैं"। हम बिना ओ.टी.पी. भेजे आपको साइबर थाने की ओर दौड़ा देते हैं। डॉक्टर नकली, वकील नकली, अब नकली पुलिस नहीं होती वो पुराने समय की बात है। अब तो पूरा का पूरा थाना ही नकली है। थाने की क्या बात की ? अदालत भी फर्जी है। बैंक की ब्रांच फर्जी है। कहाँ तक गिनाऊँ। 


      इन सब बातों के चलते इस बात पर गंभीरता से गौर करने की ज़रूरत है कि अब वन नेशन-वन चोर को क़ानूनी रूप दे दिया जाये ताकि रिसोर्स जाया ना हों और एक दिशा में काम आ सकें। यदि देश का टार्गेट फाइव ट्रिलियन इकाॅनमी है तो हमें भी तो अपना टार्गेट फिक्स करना है। अपना मिशन स्टेटमेंट जारी करना है। फुल काॅरपोरेट स्टाइल में काम करना है। हमें हर हालत में वन नेशन-वन चोर को सफल करके दिखाना है, चाहे इसके लिए ये छोटे मोटे ऑपरेटर्स को समाप्त करना पड़े। भई हाथी के पाँव में सबका पाँव। वन नेशन-वन गेंग, वन नेशन-वन गेम, वन नेशन-वन ड्रिंक, वन नेशन-वन रेल, अतः हमारी मांग है कि वन नेशन-वन चोर को फौरन लागू किया जाये और हाँ इस बिल को किसी कमेटी फ़मेटी में भेजने की ज़रूरत नहीं है। बस ध्वनि मत से पास करा लिया जाये। अरे कोई मुझे दही-चीनी खिलाओ भई !

व्यंग्य: फी मच्छर रुपये 2400/- का खर्चा

 

                    


 

 

       एक खबर पेपर में छपी है कि मुंबई में मच्छर मारने में लगभग फी मच्छर सरकार को रुपये 2400/- खर्च करने पड़ रहे हैं। मुझे ऐसा लगा और मैं समझता हूँ मच्छरों को भी लगेगा ये कुछ ज्यादा ही हैं। हाँ मगर मच्छर इस पर 'प्राउड' फील कर सकते हैं कि महज़ उन्हे खत्म करने के लिए सरकार को, मुंबई की भाषा में बोलें तो कितने की सुपारी देनी पड़ रही है। इससे सस्ते में तो आदमी को खत्म करने की सुपारी दी जा सकती है। हमें आए दिन अखबार में पढ़ने को मिलता है पाँच सौ रुपये के लिए जान ले ली। पचास रुपये के झगड़े में जान गई आदि आदि।

 

      

          सोचने वाली बात ये है कि ये मच्छरों को ऐसे रेट कब से बढ़ गए। और ये बताया किसने कि मच्छर मारने को प्रति मच्छर 2400/- खर्चने पड़ रहे हैं। अब मच्छरों ने कोई स्टडी की हो, कोई सर्वे किया हो तो पता नहीं। हो सकता है कि इस बार ठेका इस बात पर दिया गया हो कि एक मृत मच्छर लाओ और  2400/- रुपये पाओ। सुनते हैं सरकारें ऐसा प्लेग के वक़्त चूहों के लिए करतीं थीं कि एक मरा हुआ चूहा लाओ और इतनी धनराशि पुरस्कारस्वरूप ले जाओ। कहते हैं इसमें भी भाई लोग बाज नहीं आते थे और एक ही चूहे से कई-कई ईनाम लेने लग पड़े। मसलन एक सिर लेकर पहुंचा, दूसरा उसी चूहे की दुम लेकर पहुँच गया। तब ये हुआ कि चूहा पूरा का पूरा मांगता है। ये आधा-अधूरा नहीं चलेगा। इसी प्रकार मच्छर का किया होगा, ऐसा मैं समझता हूँ। मच्छरों की कोई जनगणना बोले तो मच्छरगणना हुई हो ऐसा भी नहीं लगता।  

 

   

       मेरी समझ में ये फी मच्छर खर्चा समझ नहीं आया इसमें ठेकेदार की 'गुड लक मनी' और बाबू लोग का सुविधा शुल्क भी शामिल है कि नहीं ? या वो अलग से है ? वो किससे वसूल किया जाता है ? ज़ाहिर है मच्छर तो नगदी लेकर चलते नहीं उनकी इकाॅनमी हमसे बहुत पहले  ही कैशलैस है। उनका तो किसी बैंक में खाता भी नहीं होता होगा। इतने झंझट हैं आजकल खाता खोलने में पेन कार्ड लाओ, आधार कार्ड लाओ, फोटो खिंचाओ नमूने के हस्ताक्षर आदि आदि।

 

    

       यदि मच्छर की जगह कोई मक्खी मर गयी तो वो गिनती में आएगी या नहीं अथवा ना केवल ये कि उसका कुछ नहीं मिलेगा बल्कि हो सकता है ठेकेदार पर फाइन लगाया जाये कि मारना किसे था मार किसे दिया। पर इतना तो 'कोलेटरल डैमेज' में कवर होता होगा।

 

 

        मैं सिर पकड़ कर बैठा इसी उधेड़बुन में था कि आखिर मुंसिपाल्टी इस राशि पर पहुंची तो पहुंची कैसे ? तभी मुझे बताया गया कि ये राशि पर-मच्छर नहीं है बल्कि पर-कपिटा है बोले तो मुंबई में जितने लोग रहते हैं उसमें से मच्छर भगाने के बजट को भाग कर दिया तो पर-कपिटा बोले तो 'पर-हेड' पता चल गया कि मुंसिपाल्टी प्रति मुंबईकर 2400/- रुपये खर्च रही है। इसमें वो खर्चा-पानी शामिल नहीं है जो आप अपने ईलाज़ पर उठाएंगे। यदि मच्छर आपको इस सब एतियाहात के बावजूद काट ले तो। वो तो कहीं और ज्यादा होगा। इसके अलावा आप जो रैकेट खरीदते हैं, गुड नाइट खरीदते हैं, फ़िनाइल और तमाम स्प्रे लाते हैं वो अलग है।

 

 

      भला सोचो तो ! एक मच्छर कितना बलशाली और खर्चीला है। चूहे हों तो आदमी बिल्ली पाल ले, बिल्ली हों तो आदमी कुत्ते पाल ले। मगर मच्छर को डरा सके किसमें इतना दम है ? इन मच्छरों के चलते ना केवल मच्छरों के बल्कि इन्सानों के कितने घर बार चल रहे होंगे। रिश्वत, बरस दर बरस ठेके, धुआँ, दवाई आदि आदि। मच्छर जीवित अथवा मृत हमारी अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग है। उसका सम्मान करें।

Tuesday, December 17, 2024

व्यंग्य : तीन हज़ार की घूस लेते हुए दिखा सिपाही

 

                          


                      

          खबर आई है कि एक सिपाही तीन हज़ार की घूस लेता हुआ दिखा। अब यह डेफ़िनिट चिंता का विषय है। आजकल तीन हज़ार की घूस कौन लेता है ? वह भी पुलिस ! नहीं.. नहीं.. कह दो कि ये झूठ है। इस सिपाही की जितनी भी लानत-मलामत की जाये कम है। ये ऐसे ही सिपाही हैं जिसने पुलिस के मुक़द्दस ख़िदमतगार चरित्र को बदनामी दिलाई है। इस सिपाही को फौरन से पेश्तर ट्रेनिंग को भेजा जाये। जहां पहले तो उसको करेंसी के और वर्तमान रेट लिस्ट से बावस्ता कराया जाये।

 

              

        अब ऐसी भी क्या मजबूरी रही होगी कि एक सिपाही को फक़त तीन हज़ार बतौर रिश्वत लेने पड़ गए। यह ज्याद्ति है। भला कोई तीन हज़ार भी रिश्वत लेता है। वो भी सिपाही। एक बात है ! लेता तो लेता, मगर उसका वीडियो पर दिखाना गजब हो गया। यह तो बात पब्लिक हो गई। ये सिपाही ट्रेनी था या कि फिर नया नया था। भला ऐसा भी क्या काम रहा होगा। जिसका सुविधा शुल्क मात्र तीन हज़ार रहा होगा। बहुत मुमकिन है ये महज़ एडवांस हो। बोले तो टोकन मनी। यह सिपाही दौरे-हाजिर से कितना बेखबर है इसने अखबार पढ़े ही नहीं हैं। आजकल सरकार में जब भी स्कैम होते हैं, गबन होते हैं ये हजारों करोड़ के होते हैं। इंडिविजुअल केस में इस अनुपात में ये रकम करोड़ों नहीं तो लाखों में तो बनती ही बनती हैं। ये क्या तीन हज़ार ? किसी को बताते हुए भी शर्म आएगी। मुझे पक्का है कि इस सिपाही को इसके बीवी बच्चों ने अलग कोसा होगा “पापा ये क्या कर दिया ! हम कॉलोनी में कैसे मुंह दिखाएंगे? लोग क्या कहेंगे ? मुझे तो स्कूल में चिढ़ाएंगे ?"  बीवी की अलग जग-हँसाई होगी किटी पार्टी में। हो सकता है अब किटी पार्टी में उसे बुलाना भी बंद कर दिया जाये " बहन ! तुम मोहल्ले में कमेटी डाला करो ये किटी पार्टी तुम्हारे लिए नहीं" इस सिपाही ने तो नाक ही कटा दी है।

 

 

          अब वक़्त है कि डैमेज कंट्रोल किया जाये। इसे कहा जा सकता है कि यह तो फलां चीज़ का शुल्क था और इसके लिए बाकायदा रसीद जारी की गई है। इस बीच किसी भी ऊटपटाँग चीज की रसीद दिखा दी जाये। बात खत्म नहीं भी होगी तो इसमें शक का बीज तो पड़ ही जाएगा, फिर जितने मुंह उतनी बात। बात आई गई हो जाएगी। इस पुलिस के सिपाही को कायदे से ट्रेनिंग की ज़रूरत है। उसे सब नफा-नुकसान बताया जाये। छवि की बात बताई जाये। छवि बहुत ज़रूरी होती है। आपकी रेपुटेशन ही तो सब-कुछ है। उसे मात्र तीन हज़ार के लिए दांव पर नहीं रखा जा सकता। रसीद देना संभव ना हो तो उसे रिफ़ंड कर दिया जाये बात खत्म या इस सिपाही को ही डिसओन कर दिया जाये। ये सिपाही था ही नहीं, कोई चीप बहरुपिया था।

 

 

            इंटेरनेशनल फ़लक पर इस बात का बहुत एडवर्स प्रभाव पड़ता है। क्या छवि बनती है भारत की। खासकर भारत की पुलिस की। यह चिंदी चोर वाले काम हमें नहीं करने हैं। हम विश्वगुरु हैं। यह हमें शोभा नहीं देता।

Monday, December 16, 2024

व्यंग्य: महिला प्रिन्सिपल की प्रेमी ने की पिटाई

 

                              


 

 

       हैडिंग से एक बात तो स्पष्ट है की इसमें प्रेमिका जो है सो प्रिन्सिपल हैं और प्रेमी जी जो हैं वो कोई या तो टीचर है या फिर कोई नालायक रहा स्टूडेंट है जो बड़ा होकर एक नालायक नागरिक कहिए, प्रेमी कहिए वह बनेगा। तफसील पढढ़ने पर पता चला दोनों किसी सिंगिंग एप पर मिले और ड्युट गाते गाते उनके दिल का सितार झनझना उठा। एप से बाहर निकल गायक महोदय अपना शहर छोड़ गायिका के शहर में ही आन बसे। इससे पता चलता है कि गायक महोदय कितना बडड़ा 'वेला' बोले तो फालतू इंसान रहा होगा।

 

                                     प्रेम गली अति साँकरी...

 

   अतः प्रेम गली में आप आ सकते हैं आपको अपना पद प्रतिष्ठा बाहर ही रख कर आना पड़ेगा। प्रेम फर्क़ नहीं करता कोई प्रिन्सिपल है या मास्टर, तालिब-ए-इल्म है या कोचिंगवाला है। मुखर्जी नगर वाला है या ओल्ड राजिन्दर नगर वाला।

 

      यही बात प्रिन्सिपल के प्रेमी महोदय को अखर गयी शायद। प्रेमिका लगता है प्रेमिका बनी नहीं और प्रिन्सिपल ही बनी रही। फिर लव स्टोरी फेल होनी ही थी। लेकिन ये पिटाई वाली बात हज़म नहीं हुई। ये बात प्यार-मुहब्बत से लड़ाई झगड़े से होते होते मार-कुटाई तक कैसे आन पहुंची?  ये तो प्रेमी-प्रेमिका के लक्षण नहीं होते। खासकर प्रेमी के तो बिलकुल भी नहीं। यह तो खलनायक टाइप लोगों के लक्षण हैं। बेचारी प्रिन्सिपल ने भी किससे दिल लगाया। जिसने न आपके प्रेमिका होने का मान रखा ना आपके प्रिन्सिपल होने का। ऐसा भी कहीं होता है। आप अपनी मर्ज़ी की मालकिन हो। आप अपने दिल की मालकिन हैं। पुरुषों की यही प्रॉब्लम है। वो प्रेमिका को अपनी मिल्कियत ही समझने लगते हैं। और चाहते हैं कि आप किसी और का ख्याल भी दिल में ना लाएँ और ना ही किसी की तरफ आँख उठा कर देखें। जैसा कि खबर में लिखा है आपको लगा कि आपको अपने पति के पास वापिस जाना चाहिए बस यही बात प्रेमी महोदय को बुरी लग गई। आप भी मेरी मानो तो इस बंदे की शिकायत पुलिस से कर दो देखते हैं कि पुलिस हवालात में शायद उसे प्रेम के कुछ गुर सिखाने में क़ामयाब हो जाये।

 

                            भय बिनु प्रीत नहीं

 

      जब पुलिस अपने डंडे चलाएगी तो अच्छे अच्छे प्रेम बरसाने लगते हैं। ये प्रेमी-प्रेमिका के लिए बैड एक्जाम्पल है। प्रेमी-प्रेमिका को ऐसे नहीं होना चाहिये। ऐसा नहीं करना चाहिए। क्या उदाहरण पेश किया है। कहाँ गए वो प्रेमी-प्रेमिका जो उफ नहीं करते थे। कलेजे पर पत्थर रख लेते थे। आँसू भी नहीं बहाते थे। आह भी नहीं भरते थे। एक ये जनाब हैं ! जो सरेआम मार-पिटाई पर ही उतर आए।

 

 

                           मैं तो कहूँगा मैडम जी आपने आदमी परखने में भूल कर दी। यह आपके प्रेम के लायक कभी था ही नहीं। आप अपने पति के पास लौट जाएँ और इस बेवफा हरजाई को भुला दें। यह आपके याद करने के काबिल नहीं। प्रेम में हिंसा को जगह कहाँ। हमने तो सुना था प्रेम गली में दो न समाएं। एक ये है जो अपनी ईगो अपनी तथाकथित मर्दानगी को भी इसमें घुसा लाया है और तो और उसका वीभत्स प्रदर्शन उसने पहले अवसर पर आपको और आप पर कर दिखाया। प्रेम कोमल हृदय स्पर्शी भावनाओं का अतिरेक होता है उसमें तो कड़वी बात तक नहीं करते। एक ये हैं महाराज !  जो लगे अपने मसल्स दिखाने। मेरा मानना है की ये बंदा प्रेमी मैटेरियल है ही नहीं। आप खुश रहें इसी कामना के साथ लेख की इतिश्री करता हूँ आप अपने प्रेम का अपने पति के साथ श्रीगणेश करें। वह समझदार होगा तो ज़रूर समझेगा।

Tuesday, December 10, 2024

व्यंग्य: विधायक ने 100 गंजों को किया सम्मानित

                            


 

 

      जब भी नेता लोग सभा करते हैं तो लोगों के साथ एक कनेक्ट स्थापित करने को लोकल प्रतिभाओं को, बच्चों को या फिर किसी उम्रदराज व्यक्ति को या फिर किसी अन्य सामाजिक कार्यकर्ता को खासकर अपनी पार्टी वाले को या फिर कमसेकम अपनी पार्टी लाइन से सहानुभूति रखने वाले को सम्मानित करते हैं। कोई ईनाम-इकराम भी देते हैं और दो शब्द उनकी शान में बोलने का भी रिवाज है।

 

        इसी श्रंखला में एक विधायक महोदय ने अद्भुत काम कर दिया। उन्होने अपने इलाके के दो-चार नहीं बल्कि सौ गंजों को सम्मानित करने का फैसला किया। उन्होंने बाकायदा सौ गंजों को मंच पर एक एक कर बुलाया और एक ओजस्वी भाषण दिया तथा उनको मोटीवेट किया। विधायक महोदय जानते थे कि गंजे बेचारे अपने गंजे सिर को लेकर परेशान रहते हैं। उसी परेशानी को एड्रेस किया।  गंजों में एक स्फूर्ति और खुशी की लहर दौड़ गई है।

 

      

           देखिये होता क्या है सामान्यतः नेता लोग मंच से कुछ भी ऊलजलूल बोल कर चले जाते हैं। ना लोकल इशू उठाते हैं ना उन पर ध्यान जाता है। वो ना जाने कौन सी दुनियां के मुद्दों की बात करते नज़र आते हैं जिनका गाँव-खेड़े से कुछ लेना-देना नहीं होता। लेकिन ये एक बड़ा ही रिफ्रेशिंग बदलाव है और इसकी शुरूआत हम गंजों से की है। इसके लिए विधायक महोदय ने हम गंजों का दिल जीत लिया। ऐसा नहीं है कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में केवल सौ गंजे ही होंगे कम ज्यादा हो सकते हैं। लेकिन ये प्रतीकात्मक जेश्चर है। मैं किसी ऐसे गंजे को नहीं जानता जिसने अपने गंजेपन से रिकन्साइल कर लिया हो उसके सीने में एक दबी इच्छा सदैव बनी रहती है। काश कोई ऐसा तेल, लेप, चल जाये जिससे उनकी खेती फिर से लहलहा उठे।

 

           अब तो यह नुक्स महिलाओं में भी दृष्टिगोचर होने लगा है। किसी भी भद्र महिला से पूछ देखिये उसके दुख ही तीन हैं। एक पति, दूसरा  कामवाली बाई, तीसरा गिरते हुए बाल। इस नज़र से विधायक जी ने सही नब्ज़ को पकड़ा है। पहले के शायर दीवान के दीवान ज़ुल्फों पर लिख मारते थे आजकल ये गिरते हुए बालों का कारोबार डॉ और डॉ का स्वांग भरने वालों ने अपना लिया है। यह उद्योग खूब फल-फूल रहा है। बाल आयें ना आयें इस के चक्कर में इनके बाल-बच्चे सैटल हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में ये गंजा होता हुआ इंसान अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा सहारा है। इस नज़र से भी गंजों का सम्मान बहुत सफल प्रयोग है। कोई पता लगाए इन विधायक महोदय का कोई बाल-उगाने का क्लीनिक तो नहीं ?  संयोग हो सकता है।

 

अब गंजों के सम्मान के बाद किसका नंबर है? समाज में तरह तरह के वर्ग हैं जो एकदम उपेक्षित पड़े हैं। उनका कोई धनी-धोरी नहीं। जैसे शिक्षित बेरोजगार, जैसे बिन शिक्षा बेरोजगार, जैसे भिखारी, जैसे जेबकतरे, जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट के ड्राइवर्स, जैसे कैब ड्राइवर्स, जैसे मकान बनाने वाले राज-मिस्त्री, जैसे बाइक पर आने वाला आपका इंजीनियरिंग डिग्री वाला कूरियर बॉय। आपकी सोसायटी के गेट पर खड़े गार्ड्स। गोया कि हमारे आस-पास ही ऐसे ना जाने कितने कर्मवीर चुपचाप अपने काम से लगे हैं उन पर कभी किसी का ध्यान ही नहीं जाता सिवाय तबके जब वो कोई गलती कर दें या कोई बड़ा मसला ना उठ खड़ा हो। इस मामले में हम सब गंजे हैं। बोले तो कोई किसी बात से कोई किसी बात से। हमें कभी ऐसे विधायकों का भी सम्मान करना चाहिये जो सफलतापूर्वक असल मुद्दे से बच रहे हैं। ना उनके बस का बेरोजगारी खत्म करना है, ना वो अपने इलाके में कोई इंडस्ट्री लगवा सकते हैं और ना ही अपने क्षेत्र के लिए कोई अन्य रचनात्मक काम ही करा सकने में सक्षम हैं। बेचारों को खबर में भी रहना है और चुनाव भी जीतना है तो चलो गंजों से ही शुरूआत सही। बात यहीं खत्म नहीं होती नेता जी चाहते हैं कि इन गंजों को बतौर बुद्धिजीवी मान्यता भी प्रदान की जाये। अबसे समस्त गंजे बुद्धिजीवी कहलाएंगे। वैसे एक बात है हमारे देश में कोई वर्ग अगर इफ़रात में पाया जाता है तो वो है बुद्धिजीवी वर्ग। एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं दूर ढूंढो... इन्हीं बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल होने आ गए हैं – हम गंजे।

Monday, December 9, 2024

व्यंग्य: छुट्टी के लिए बॉस को भेजी मल-द्वार की फोटो

                                                            



     हमारे देश में लोग छुट्टी पाने के लिए नित नये, एक से बढ़ कर एक बहाने लगाते हैं। वहीं छुट्टी देने वाले भी एक से बढ़ कर एक छुट्टी ना देने के कारण बताते हैं। ऐसे ही एक कर्मचारी ने जब अपने 'पाइल्स' के इलाज के लिए छुट्टी मांगी तो बॉस को शक़ हुआ और उन्होने आवेदन पत्र पर ही लिख मारा "प्रूफ दीजिये आपको पाइल्स की बीमारी है"। अब बॉस ने तो, जहां तक मेरा ख्याल है, मेडिकल प्रमाणपत्र मांगा होगा। मगर जैसा कहा गया है कि वो तो डॉ. को अभी दिखाने जा रहा था मेडिकल प्रमाणपत्र तो डॉ. जाने के बाद ही देता। कर्मचारी ने आव देखा ना ताव अपने मल-द्वार का फोटू छुट्टी के आवेदन पत्र के साथ चस्पा कर दिया। 



       अब बॉस महोदय अपना सिर पकड़ कर बैठे हैं वो शेर है ना "....कभी हम आवेदन को कभी फोटू को देखते हैं...." मैंने अपने ऑफिस में जब एक कर्मचारी से जिसके बारे में पता था कि वो अपने गाँव जाकर किसी न किसी फर्जी वजह से छुट्टी  बढ़ाता था। अत: जब उसने अपने दादा जी की मृत्यु का बहाना लगाया तो मैंने कहा उनका 'डैथ सर्टिफिकेट' लेकर आओ। अब तो वह फड़फड़ाने लगा। यूनियन वाले मेरे पास आए "सर ! एक तो उसके दादाजी नहीं रहे वह इतनी ग़मीं में चल रहा है और एक आप हैं जो उसके दादा जी का डैथ सर्टिफिकेट मांग रहे हैं। गांव-खेड़े में कहां डैथ सर्टिफिकेट होते हैं"।

इतिहास गवाह है कि लोग बाग  क्या स्कूल, क्या दफ्तर क्या फौज, छुट्टी पाने के लिए एक से एक अनोखे कारण देते आ रहे हैं। ये बहाने शादी-ब्याह के मौसम में और फसल कटाई-बुवाई के सीजन में खूब इफ़रात में पाये जाते हैं। जो परदेस में नौकरी करते हैं उनके बारे में तो मशहूर है कि उन्होने गांव जाकर छुट्टी बढ़ानी ही बढ़ानी है। कई लोग जो छोटी-मोटी नौकरी करते हैं या घरेलू नौकरी करते हैं वो तो गाँव से तब तक नहीं हिलते जब तक उनके पैसे नहीं खत्म हो जाते और जब तक किराया उधार मांगने की नौबत नहीं आती। यहाँ आकर नौकरी चेंज या फिर कोई मेलोड्रामा। आजकल हम लोग भी तो इन पर खूब ही निर्भर हो गए हैं। वो दिन हवा हुए जब ये हम पर निर्भर थे। अब उल्टा हो गया है। इनकी डिमांड सतत बनी रहती है। अच्छे घरेलू पति और घरेलू नौकर आजकल कहाँ मिलते हैं ? 



           मेरे दफ्तर में एक बाबू जब अपने मुल्क़ जाये (मुंबई में अंग्रेजों के जमाने से मुल्क़ या नेटिव बोलते हैं) वापिस हमेशा लेट आए और एक से बढ़ कर एक कहानी सुनाये। जैसे एक बार उसने बताया कैसे वह ज़हरखुरानी का शिकार हो गया और वो लोग सामान,पर्स, घड़ी के साथ उसका मोबाइल भी ले गए। अतः वह कोई सूचना भी नहीं दे पाया। तबीयत तो खराब हो ही गई थी। ऐसे ही उसने एक बार कारण दिया की वह झुका और फोन जेब से खिसक कर गरम पानी की बाल्टी में गिर गया। बस फिर क्या था दूसरा मोबाइल लेने और डुप्लीकेट सिम लेने में एक हफ्ता और लग गया।  एक कर्मचारी को जब चार्जशीट लेकर एक पते पर देने भेजा तो वो उल्टा जाकर उसी से मिल गया और आकर उसने जो कहानी सुनाई वो सुनिए: "साब मैंने जैसे ही डोर-बैल बजाई दरवाजा बिना खोले ही जवाब आया कौन है ? मैंने कहा मैं दफ़्तर से आया हूँ बड़े बाबू कहाँ हैं" अंदर से ही जवाब आया "हमें खुद नहीं पता कहाँ हैं हरिद्वार का कह कर गए थे पता नहीं कहाँ चले गए क्या हुआ ?” मैंने कहा दरवाजा खोलिए एक दफ्तर का पत्र देना है तो दरवाजा खुला और एक खूंखार कुत्ता मेरे ऊपर झपटा मैं जैसे तैसे जान बचा कर भागा। मरते मरते बचा हूँ। आप मुझे ऐसी जगह ना भेजा करें जहां शिकारी कुत्ते हुआ करें"। 


      तो जब बॉस ने उसके पाइल्स का प्रमाण मांग लिया तो वह पूरा पक गया और मलद्वार का फोटो नत्थी कर दिया। लीजिये देख लीजिये और जब तक कन्विन्स ना हो जाएँ देखते रहें। बस इसमें एक ही पेच है कि राजपत्रित अधिकारी के बिना अटैस्ट किये बॉस ने पहचाना कैसे होगा कि यह इसी कर्मचारी के मल द्वार की तस्वीर है ?

व्यंग्य: दूध पीने से हो सकता है हार्ट अटैक

 

                         


 

         पढ़ कर बहुत खुशी हुई की आखिर ये दूध दही और घी की नदियां बहाने वाले देश में अब इनसे लोग मरने भी लगेंगे। भई ! होता है ऐसा भी। कभी दूध-घी लोग शरीर को मजबूत बनाने को करते थे। लेकिन अब सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया है। वो दिन गए जब दूध घी, दिल के लिए अच्छे थे। पहले तो डॉ. लोग जिनको घी खाने को नहीं मिलता था वो बोले जब हम नहीं खाते तो तुम कैसे खाओगे सो उन्होने कहना शुरू कर दिया कि घी खाने से हार्ट अटैक हो जाएगा। अब वही लोग नया रिसर्च ले आए। बेटा ! दूध नहीं पीना है। दूध पीने से भी हार्ट अटैक हो जाता है।

 

         वो अपने इस क्लेम को पक्का करने को कुछ ऊटपटांग  काल्पनिक स्टैटिस्टिक्स बता दो फलां देश में लोग दूध पीने से लदरपदर हार्ट अटैक का शिकार हो रहे हैं। वैसे सोचा जाये तो उनका ये क्लेम एकदम गलत भी नहीं। जैसा दूध आजकल मार्किट में चल रहा है तौबा तौबा। कहते हैं कि अब इसमें कैमीकल मिलाये जा रहे हैं, इंक-रिमूवर वाली सफ़ेद स्याही मिलाई जाती है। पोस्टर इंक/पेंट मिलाया जाता है। गोया कि कुछ भी जो सफ़ेद और दूध से सस्ती हो मिला दीजिए। आखिर गाय-भैंस भी कहाँ तक आपके दूध और घी की मांग पूरी करे। आपने  इंजेक्शन लगा लगा कर उनके दूध की आखिरी बूँद तक निचोड़ ली है। उसके अपने बछड़े को पीने को कुछ नहीं उसके हिस्से का भी आप पी गए और आपको फिर भी चैन नहीं

 

          मैं कहीं पढ़ रहा था कि इंसान ही एक ऐसा प्राणी है जो दूसरे प्राणी का दूध पीता है। बात बढ़ते बढ़ते अब उस मंज़र पर आ पहुंची है कि कुछ भी मिला दो मगर बढ़ती आबादी को दूध की आपूर्ति करनी है। ज़हर है ? परवाह नहीं ज़हर ही सही मगर दो। जैसे नकली शराब होती है वैसे ही अब नकली दूध भी नाॅर्म हो गया है। कुछ लोग इसी के चलते ग्रीन टी और ब्लैक टी पीने लग पड़े हैं। अब धीरे धीरे डॉ लोग कुछ ऐसा और ले आयें कि गेहूं खाने से खून की उल्टी होंगी और आदमी मर जाएगा। दाल खाने से आदमी के समस्त शरीर पर दाल के बराबर दाने-दाने  निकल आएंगे और वो बुरी मौत मारा जाएगा। हरी सब्जी खाने से आदमी हरा-हरा हो जाएगा जैसे पीलिया में पीला पीला हो जाता है वैसे ही कुछ। पहले से ही कहावत भी है सावन के अंधे को हरा हरा ही दिखाई देता है।

 

     हमारे देश में अभावों के चलते और मंहगाई के चलते इसकी बहुत ज़रूरत है कि बेटा ! कुछ भी खाओगे तो मौत निश्चित है। धीरे धीरे आदमी सभ्यता के उस पायदान पर पहुँच जाएगा जहां कुछ भी खाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। पहले की तरह पेड़ की छाल पहनेगा और कंदमूल-फल खा कर गुजारा करेगा। जो नॉन वेज हैं वो अपना-अपना शिकार खुद करें। मारें शेर भालू। बस एक सावधानी बरतनी है कि शेर भालू भी भूखे आपकी तलाश में घूम रहे होंगे। जिसे जो भोजन मिल जाये। वो कहते हैं ना 'सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट'

 

        मैं सोच रहा था जो नकली दूध बनाते हैं वो अपने लिए, अपने बाल-बच्चों के लिए दूध कहाँ से लाते हैं ? उन्हें असली दूध कहाँ से मिल पाता होगा। फर्ज़ करो दूध असली ले भी आए तो बाकी चीजों का क्या ? नकली चीनी, नकली चाय पत्ती, साबुन तेल, घी, इंजेक्शन लगी सब्जियाँ उनका क्या ?

               

                                 जहां जाईयेगा हमें पाईयेगा

Sunday, December 8, 2024

व्यंग्य: पुलिस चौकी में दारू पार्टी

 


                                                 


 

 

         खबर है कि एक पुलिस चौकी में दारू पार्टी हुई। अब सोचने वाली बात ये है कि ये बात लीक कैसे हुई ? किसने की ? पुलिस चौकी में सी.सी. टी.वी. तो होते नहीं। फिर ये खबर किसी चश्मदीद ने दी है या किसी दिलजले ने जो उस दिन पार्टी में आने से रह गया। क्या ये पहली पार्टी थी ? ऐसा देखा जाता है कि किशोर जब भी पकड़ा जाये यही कहता है कि आज पहली बार ही सिगरेट पी और पकड़ा गया। मैंने इंग्लिश फिल्मों में देखा है सभी पुलिस वाले थाने में अथवा बगल के रूम में शौक से शराब पीते हैं या फिर कितनी बार पार्टी भी करते हैं। आखिर केंटीन होती ही है। आप क्या सोचते हैं केंटीन केवल चाय-कॉफी के लिए होती है। फिर आप जूस काॅर्नर का सच जानते ही नहीं।

 

     एक शहर में जब एक बिज़ी कोलाहल वाले इलाके में से पुलिस वालों ने सख्ती की अब से आप केवल जूस ही बेचेंगे और कोई अगर उनके ठेले पर शराब पीता दिखाई दिया तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी।आपका जूस बेचने का ठेला बंद भी किया जा सकता है। वे सब एक सुर में सुरा के फेवर में बोले "साब ! ईमानदारी की बात तो ये है कि यदि आप शराब बंद कर देंगे और पीने वालों की पकड़-धकड़ करेंगे तो हमारा ठेला वैसे ही बंद हो जाना है। हमारे यहाँ कोई मात्र जूस पीने नहीं आता। सब अपने खींसे में बाॅटली लेकर आते है और हमसे जूस में मिलवा लेते हैं।

 

        अब जब इतनी सुलभ व्यवस्था है। दूर ढूंढो पास मिलती है तो फिर इतना हो हल्ला क्यूँ ? प से पुलिस प से प्याला, प से पुलिस प से प्यासी आत्मा, प से पुलिस प से पीना-पिलाना,  इतना काम है दम मारने की फुर्सत नहीं। एक ये लोग हैं जो कोई जरा घूंट दो घूंट ले ले तो हंगामा बरपा देते हैं। ऐसा भी कहीं होता है। दुनियाँ की भाग-दौड़ करें हम, शराब की भट्टी पकड़ें हम, नकली शराब बनाने वालों को पकड़ें हम, शराब पी कर हुड़दंग करें तो पकड़ें हम, बस हमीं को हराम है क्या ये ? भाई हम भी इंसान हैं। जिस खुदा ने ये शराब बनाई है उसी ने हमें भी बनाया है। फिर उसके साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यूँ ?

 

       दिन भर की इतनी बेहद थकाऊ कार्यप्रणाली के बाद कोई सुस्ता भी नहीं सकता। आप हमसे दक्षता तो अमरीका जैसी मांगते हैं मगर इस मामले में चाहते हैं कि हम वही दक़ियानूसी "ओह नो !  नो गंदी बात"  वाला रुख अपनाए रहें। दरअसल हम बहुत बड़े हिपोक्रेट हैं। करना कुछ और दिखाना कुछ। मेरा ऐसा मानना है कि इसको इतनी पाबंदी के साथ रखना ग़लत है। देखिये बरसों से ड्राई गुजरात भी अब धीरे धीरे इसके लिए अपने दिल और द्वार खोल रहा है।

 

                   क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया

 

          इसको पीने के इतने कारण हैं कभी किसी शराबी से पूछ कर देखिये: इससे नींद अच्छी आती है, इससे थकान उतर जाती है, इससे अनर्जी मिलती है, इससे साहस में वृद्धि होती है, इससे खाना अच्छी तरह खाया जाता है, इससे एक सोशल लाइफ बनती है, इससे हम पार्टी में जा पाते हैं, इससे फ्रेंड्स बनते हैं। यह क्लब की जान है। हेल्थ प्राॅब्ल्म्स कैसे भी हों इससे दूर हो जाती हैं। दूर नहीं होती तो कमसेकम उतनी देर को इसमें आराम मिलता है। मैं हर ग़म को भुला कर पी गया।

 

                                      आखिर ये यूं ही नहीं मिलिट्री में सब को दी जाती। बड़े बड़े जनरल्स से पूछिए। बड़े बड़े शायरों से पूछिए, बड़े बड़े बुद्धिजीवियों से पूछिए। ये बदनाम तो कमज़र्फ लोगों ने की है जिन्हें न पीने का सलीका था न पिलाने का शऊर। मुझे कोई थ्री एक्स रम की परिभाषा बता रहा था। थ्री एक्स=30 दिन, रम = रेगुलर यूज़ मेडिसिन। शास्त्र के शास्त्र भरे पड़े हैं सोमरस के वर्णन से। यह इंसान को इंसान से पहले पैग से ही जोड़ती है और आप चले हैं इसका दिनों में बंटवारा करने। आज ड्राई डे है। आज फलां महापुरुष की सालगिरह है शराब बंद रहेगी। अरे भैया पता तो लगा लो वो महापुरुष भी इससे तुम्हारी ही तरह घृणा करते थे क्या ? जो देवताओं का प्रिय पेय था उसे आपने प्रतिबंधित क्या किया देवता बनने ही बंद हो  गए। आपने हज़ारों अशआर से कोई सीख नहीं ली

  

      ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर

            या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो