एक फिल्मी गीत है “जब चली ठंडी हवा... जब घिरी
काली घटा... मुझको ऐ जाने वफा तुम याद आए”। बस इसी तर्ज़
पर जब चलती है चुनावी हवा सियासतदानों को रेवड़ी याद आती हैं।
तरह तरह की रेवड़ी, किसम किसम की रेवड़ी। सब अपनी रेवड़ी को दूसरे की
रेवड़ी से मीठी और पौष्टिक बताते हैं। वैसे कहावत तो यूं थी कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर अपने को दे’। मगर ये सियासतदान वोटर को
अंधा समझते हैं या बनाते हैं। वे खुद अंधे नहीं होते।
जब हम देते हैं तो वह ‘सम्मान राशि’
कहलाती है। जब विरोधी पक्ष देता है तो वो गरीब की गरीबी का मज़ाक उड़ा रहा होता है।
उन्हें ये ‘रेवड़ी’ बांटता है। गरीब खूब ही खुश है क्योंकि वह दोनों से दोनों हाथों
से रेवड़ियाँ लूट रहा है। वोट वह अपने विवेक अनुसार देता है। मेरा मतलब है कि वह
देखता है किस की रेवड़ी में दम है। किसकी रेवड़ी लॉन्ग लास्टिंग है। यह रेवड़ी आजकल
की शादी-ब्याहों की तरह हो गई है। जैसे
आजकल लोग बाग शादी में जाने से पहले ही पूछ लेते हैं कि कॉकटेल कब है उसी तरह अगर
कोई उम्मीदवार रेवड़ी नहीं दे रहा है तो उसको भीड़ जुटाने के भी लाले पड़ जाते हैं।
वोटर चुस्त है। वो वायदों का यकीन कम करता है। उसे हाथ में रेवड़ी रूपी एक चिड़िया
चाहिए ना की झाड़ी में छुपी दो चिड़िया का वादा।
इसमें
वो रेवड़ी शामिल नहीं जो छदम वोटर को मिलती है। एक से ज्यादा वोट डालने की। वोटर को
घर से बूथ तक लेकर आने की। वोटर का आजकल नेताओं की तरह ही कोई भरोसा नहीं रह गया
है। वो कंबल एक से, शराब दूसरे से और नगद तीसरे से लेकर
वोट किसी चौथे को दे आता है और बाकी तीनों का ‘चौथा’ सम्पन्न कर देता है। अब
उम्मीदवार ने ऐसे में भगवान का, गंगाजल
का, इसकी-उसकी सौगंध का सहारा लेना शुरू कर
दिया है। वोटर को चेतावनी के तौर पर डराने-धमकाने का रिवाज भी चल निकला है। जैसे
अगर हमें वोट नहीं दिया तो हमें सब पता चल जाएगा फिर देखना। भीरू वोटर वैसे अपने
बाल-बच्चों की कसम से या गंगाजली उठाने मात्र से मन ही मन ठान लेता है कि वोट अमुक
पार्टी को ही देना है। हमारे देश में डेमोक्रेसी बहुत आगे तक आ गई है। अब ये पीछे
लौटने से रही। ईमानदार और ग़रीब उम्मीदवार अब सिर्फ वोट कटवा के काम आते हैं या फिर
पैसे लेकर ऐन मौके पर फलां उम्मीदवार के फ़ेवर में बैठने के।
अब तो कोर्ट कचहरी भी कहने लगे
हैं कि रेवड़ी से परजीवी वर्ग पैदा होता है। हमारे देश में तरह तरह के ‘जीवी’ पाये
जाते हैं। मसलन परजीवी, केमराजीवी, आन्दोलनजीवी। ऐसा सुनते हैं कि चीन के एक नेता
कहा करते थे कि जब मैं ‘कल्चर’ शब्द सुनता हूँ तो अपनी बंदूक की तरफ बढ़ता हूँ। उसी
तरह भारत में ‘विकास’ शब्द का बहुत ‘मिसयूज’ हुआ है। ‘कुछ भी’ और ‘सब कुछ’ विकास
कहलाने लगा है। आप विकास के नाम पर पेड़ लगा सकते हो, पेड़ काट सकते हो। आप मकान गिरा सकते हो, आप मकान बना सकते हो। आप ज़मीन से बेदखल कर सकते
हो, आप शौचालय बना सकते हो। गोया कि आप कुछ
भी करो वो कहलाएगा विकास ही और जो आपके इस ‘विकास’ को विकास ना समझे आप जानते हो ऐसे इंसान को
क्या कहते हैं ? ठीक समझे ‘एंटी-नेशनल’।
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