वह मेरे कार्यालय में काम करता था। यह ग़लत है असल में मैंने उसे कभी काम करते नहीं देखा, काम करते क्या मैंने उसे अपने तीन साल के कार्यकाल में कभी देखा ही नहीं। बस उसके बारे में सुना था। अलग-अलग लोग अलग- अलग अपने ढंग से उसके बारे में बताते। मैं जितना सुनता जाता उतनी मेरी उत्सुकता बढ़ती जाती थी। ऐसा नहीं है कि उसको आकर ऑफिस जॉइन करने की हिदायत पहले नहीं मिली थी। मेरे पूर्ववर्ती सहकर्मियों ने भी ट्राई किया और फिर सरमा जी को उनके हाल पर छोड़ दिया।
आप सोच रहे होंगे कि ऐसी क्या बात हुई। कोई क्यों इतनी बड़ी इज्ज़त वाली नौकरी, उप मुख्य अधिकारी की। क्यूँ इस तरह बेकद्री करेगा। हम सबको सब तरह की समस्याएँ होती हैं आकार-प्रकार बदलता रहता है मगर हम सबकी अपनी-अपनी समस्याएँ हैं अपने-अपने ग़म हैं। धीरे-धीरे सरमा जी की समस्या बढ़ने लगीं। उसी अनुपात में बल्कि उससे कहीं ज्यादा वो खुद बहुत बड़ी समस्या बन गये थे। हुआ ये कि एक दिन सरमा जी ने हमारी एक सह संस्था (इंस्टीट्यूट) में वहाँ के हेड को फोन खड़खड़ा दिया “ मैं सरमा बोल रहा हूँ आपके इंस्टीट्यूट वर्किंग के बारे में बहुत कम्प्लेन्ट्स आ रही हैं मुझे विशेष तौर पर भेजा गया है। अतः आज दोपहर को मैं आ रहा हूँ। ऐसे नहीं चलेगा” फोन रखते-रखते महानिदेशक महोदय थरथराने लगे। ये क्या साला बैठे बिठाये मुसीबत आन पड़ी। अफरा तफरी मच गयी। सबको जरूरी निर्देश दे दिये गए, जितना जो कुछ चमकाया जा सकता है चमकाया जाने लगा। दोपहर होते-होते सरमा जी आ धमके। उन्होने महानिदेशक को खूब डांटा। कभी-कभी महानिदेशक को शक भी पड़ जाता मगर सरमा जी की बात काटने अथवा प्रतिकार करने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी। वह खूब डाँट-डपट कर तुरत फुरत चले गए और महानिदेशक को पसीना-पसीना छोड़ गए। महानिदेशक ने मोबाइल की सीरीज़ से पता लगाया कि ये सीरीज़ मेरे विभाग/ऑफिस वालों को मिली हुई थी। महानिदेशक मेरे अच्छे मित्र थे उन्होने मुझे फौरन फोन लगाया और पूछा “ये सरमा कौन है?”
सरमा जी हमारे ऑफिस में रोल पर थे। वो धीरे धीरे उप मुख्य अधिकारी बन गए थे पर पता नहीं क्यूँ कहाँ उनके अंदर कोई फ़्रस्ट्रेशन थी। वह ऊटपटाँग बोलने लगता। अज़ब अज़ब हरकत करने लगता। चिल्लाने लगता। कभी इंगलिश बोलने लगता कभी कोई अन्य भाषा। बोलना क्या बड़बड़ाने लगता। ऑफिस में उसे लेकर डर का माहौल बन गया। कोई उसके पास फाइल लेकर जाने को या केस डिस्कस करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह कहीं से भी टेक ऑफ करता। मसलन एक सांस में बोलना
" इन दि नोन हिस्ट्री ऑफ मैनकांइड दि फंडामेंटल राइट्स ऑफ ह्युमन वर नाॅट सप्रैस्ड इवन इन डार्क काँटीनेन्ट्स ऑफ अफ्रीका द वे दे आर बीइंग ट्रैंपल्ड इन दिस रीजीम/ऑफिस। आई रिफ्यूज टू वर्क एंड कैन नाॅट बी ए पार्टी टू दिस कांइड ऑफ वर्किंग"
कभी आप कोई केस डिसकस कर रहे हैं वो एकदम नेशनल या इन्टरनेशनल विषय पर प्रलाप करने लगता। अब तक ऑफिस में ये राय बन चुकी थी कि उसका कोई स्क्रू ढीला है और उसका ऑफिस में रहना-रखना खतरनाक है। उसको 'स्पेशल मेडिकल' के लिए भेज दिया गया।
पता नहीं वह स्पेशल मेडिकल को गया भी कि नहीं। बस उस दिन से सरमा जी ने 'वर्क फ्राॅम ऑफिस' कर लिया। जिस तिस को फोन घनघना देते। कुछ भी अंड शंड बोलने लगते। घंटों घंटों पूजा में बैठा रहता। जब जाओ वो पूजा कर रहा होता। एक बार दो लोग 'वेट' करते रहे कि उनके लिए मिल कर जाना बहुत जरूरी है उन्हें एक पत्र देना है और उनके हस्ताक्षर चाहिये पावती के तौर पर। घंटों इंतज़ार के बाद सरमा जी बाहर आए, कुछ बुदबुदाते हुए। हाथ में एक लुटिया पकड़े हुए थे। उसमें से पानी की छींटें इधर उधर मारते जा रहे थे। ऑफिस के इन दो लोग को देख कर वो भड़क गए। वापिस घर में घुस गए और लौट कर आए तो उनके हाथ में कटा हुआ नींबू था और मंत्र पढ़ते हुए इन ऑफिस के दोनों लोग पर फेंक दिया और लुटिया का पानी भी उन पर डाल दिया। वो बेचारे जैसे तैसे जान बचा कर भागे। जिसे कहते हैं न सिर पर पैर रख कर भागना। उसके बाद कोई उनके घर जाने की हिमाकत नहीं करता। लोगों को लगता न जाने कौन सा जिन्न हमारे पीछे दौड़ा दे।
महानिदेशक महोदय को जब सब विस्तार से बताया तो वे बोले अगर ऐसा है तो इसको ऑफिस का फोन क्यूँ दे कर रखा है। फौरन उससे ले लो। अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। यह तय हुआ कि फोन के सिम को डिएक्टिवेट कर दिया जाये। कमसेकम न्यूसेंस तो नहीं होगा। तिस पर महानिदेशक महोदय मुझ से राइटिंग में नोट मांगने लगे। मुझे हंसी तो आई कि अभी तो इतनी लंबी लंबी छोड़ रहे थे अब फोन डिसकनेक्ट करने को भी लिखित में चाहिए। खैर मैंने दे दिया। पर इससे सरमा जी की सेहत पर, रवैय्ये पर कोई फर्क नहीं पड़ा। फिर उनके खिलाफ विभागीय कार्यवाही की जाने लगी। क्यों कि उनकी सर्विस 20 साल से ज्यादा हो चुकी थी अतः यह तय पाया गया कि उन्हें कंप्लसरी रिटायरमेंट की पेनल्टी लगा कर गुड बाई कर लिया जाये। मगर इस पर हमारे एक सीनियर अड़ गए "यार ये पाप मेरे हाथों से क्यूँ करा रहे हो ?" इस बीच मेरा ट्रांसफर हो गया।
कालांतर में पता लगा कि सरमा जी का रोग बढ़ता गया। अंततः तंग आकार उनको कंपल्सरी रिटायर कर ही दिया। लोग कहते हैं कि उनकी शादी नहीं हुई थी। एक भाई था जो साथ रहता था वह भी 24 घंटे में 22 घंटे पूजा-पाठ में लगा रहता। लोग एकदम पागल नहीं होते हैं धीरे धीरे होते हैं और पूरी केयर और दवा-दारू के अभाव में उनका मर्ज बढ़ता जाता है और उसकी परिणिति सरमा जी में ही होती है। उनकी मृत्यु का सुन कर मुझे दुख हुआ कि एक अच्छी भली ज़िंदगी कैसे 'वेस्ट' हो गई।
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