अभी स्विस जोड़े की फतेहपुर सीकरी में पिटाई पर लगी ‘डिटॉल’ सूखी भी न थी कि घोषणा हुई है कि स्मारक विश्व स्तर के बनेंगे. सही भी है. ये क्या कि अगले सात समंदर पार से आयें और आप देसी लट्ठ-भाले से मारें. उफ्फ़ कितना अमानवीय और प्राचीन तरीका है. ये यूथनेसिया का ज़माना है. मगिंग का नाम ही नहीं सुना होगा आपने जिसमें ‘मगर’ पूरी शालीनता से स्विस नाइफ या ऐसी ही कोई चीज आपके पेट या गले पर लगा कर उपर्युक्त सोफिस्टीकेटेड स्वर में कहता है “ योर मनी और योर लाइफ ? ” आप समझ जाते हैं और चुपचाप अपना पर्स, घड़ी, मोबाइल निकाल कर उसे दे देते हैं. तुरत-फुरत में काम हो जाता है. कितनी विश्व स्तर की सनातन, अहिंसक और वैजीटेरियन ‘मॉडस ऑपरान्डाइ’ है. ये क्या कि बेचारे टूरिस्टों के ऊपर आव देखा न ताव पिल पड़े. हमारी क्या छवि ले कर जायेंगे वो अपने देश. आप कुतुब मीनार, ताज महल, लाल किला या ऐसी ही किसी इमारत को देखने जायें तो पहले तो ऑटो-टैक्सी वाले ही आपके इस ट्रिप को यादगार बनाने में कोई कसर न उठा रखेंगे. ये एक तरह से उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है. वे आपसे औने पौने कुछ भी पूरे अधिकार से चार्ज कर लेंगे. आपने ना नुकुर की तो वे इसे और भी अधिक यादगार बनाने से नहीं चूकेंगे...इतना यादगार..इतना यादगार कि हो सकता है आप अपनी याददाश्त खो बैठें या आपका भी स्मारक यहीं कहीं बनाना पड़े.
आपको देख फौरन यहाँ वहाँ छितरे हुए बैठे लोग आपको पहचान लेते हैं और आपकी आवभगत के लिये पूरी आत्मयीता से जुट जाते हैं. उन्हीं में कोई ‘गाइड’ है, कोई सस्ती सस्ती शॉपिंग कराना चाहता है कोई सस्ती टैक्सी तो कोई सस्ता होटल. आप इनसे बचते-बचाते टिकट खिड़की तक पहुंच भी गये तो समझिये कि स्मारक आधा तो आपने देख ही लिया कारण कि टिकट खिड़की आपको ढूंढे नहीं मिलेगी. एक छुपा हुआ मोखा जैसा होगा जिसमें स्मारक के समय का ही व्यक्ति उदासीन बैठा होगा. वो आपको ऐसे देखेगा कि वो तो सन्नी लियोने या ओबामा को एक्स्पैक्ट कर रहा था कहाँ आप आन टपके. फिर भी वो आप पर लगभग एह्सान सा करते हुए आपको टिकट दे ही देगा. क़ुतुबमीनार में तो मीनार कहीं है और टिकट खिड़की सड़क पार करके दूसरी ओर है. कुछ कुछ वैसे ही है जैसे आपने लोकल बांद्रा वैस्ट से लेनी है और टिकट खिड़की बांद्रा ईस्ट में हो या कि लाल क़िले की टिकट जामा मस्जिद में और जामा मस्जिद की टिकट लाल क़िले में मिले. (वैसे जामा मस्जिद में टिकट नहीं है) आप विदेशी हैं तो मॉडर्न आर्ट की नेशनल गैलरी को देखने की टिकट पांच सौ रुपये है. ताज महल में तो विदेशियों से इतने पैसे टिकट के नाम पर ले लेते है कि वो समझ जाता है वंडर ऑफ दि वर्ल्ड देख रहा है.
पिछलग्गू अभी तक आपके साथ हैं. वो आपको गुड़िया, की-चेन, पोस्ट कार्ड के एलबम आदि आदि बेचना चाहते हैं. फोटोग्राफर अलग आपको तरह तरह के फनी पोज़ में फोटो खिंचाने को उकसायेगा. उनसे बचते बचाते “राँड-साँड साँप-सीढ़ी से बचें तो सेवें काशी” की तर्ज़ पर आप अंदर तो घुस गये. अब आप देखेंगे कि दरबान, गेट कीपर और बाकी कर्मियों को आप में तनिक भी इंटरेस्ट नहीं है. दरअसल आप उनके लिये एक प्रकार से अदृश्य मि. इंडिया हैं. वे या तो आपकी उपस्थिति से अनभिज्ञ अपनी बातों में मशगूल हैं या फिर अलसाये अलसाये ऊँघ रहे हैं. दरअसल उनका शरीर ही यहाँ है वे एक प्रकार से ‘निर्वाण’ को प्राप्त कर चुके हैं. कभी कभी आप किसी ओवर एनथुजिआस्टिक कर्मी से भी टकरा सकते हैं जो आपको हिकारत से देखते हुए हो सकता है आपकी तलाशी लेने पर आमदा हो जाये और नहीं तो आपका झोला उतरवा कर बाहर रखवा ले या फिर ताक़ीद करे कि नो कैमरा नो फोटोग्राफी.
अब अगर आपको टॉयलेट जाना हो तो आप पायेंगे कि या तो वहाँ टॉयलेट है ही नहीं या इतनी दूर है या फिर गेट पर जहां से आप घुसे थे था और आप बहुत पीछे छोड़ आये हैं. यही हाल पीने के पानी का है. अव्वल तो नल दिखेगा नहीं. पूछते पूछते दिख भी गया तो आप पायेंगे कि शायद ये भी क़ुतुबद्दीन या शाह्जहाँ के ही ज़माने का है, क्यों कि दस में से दस बार उसमें पानी नहीं होगा. अभी हम गंगा-जमुना साफ कर रहे हैं. प्लीज बेयर विद अस. हाँ कोई कैंटीन भले दिख जाये. जहां पानी की बोतल के वो श्रद्धा अनुसार कुछ भी चार्ज कर सकता है. एक सौ रुपये से लेकर पाँच सौ रुपये तक. इन जगहों के नलों को इस वजह से बेपानी रखा जाता है ताकि आप कैंटीन का पानी रख सकें. रहीम ने इन कैंटीन वालों के लिये ही कहा था:
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून
अगर शौचालय जाना हो तो हो सकता है आप अपना आइडिया मुल्तवी कर दें. वहां आप पायेंगे कि आप से पहले पूरी दिल्ली, अथवा पूरा का पूरा आगरा, या कि आक्खा मुम्बई आकर वहां पहले ही शौच कर गया है. ये स्थल स्वच्छता पार्टी के नेता जी और फोटोग्राफर की पहुंच से अभी बाहर हैं. बारी नहीं आई है.
अपुष्ट खबरें तो ये भी हैं कि सैल्फी का आविष्कार भारत में ही हुआ है कारण कि टूरिस्ट किसी भारतीय को कैमरा देता तो था फोटो खींचने के लिये अभी टूरिस्ट पोज़ बना ही रहा होता था तब तक यह फोटू खींचने वाला इतनी तेजी से तिड़ी हो जाता था कि टूरिस्ट देखता ही रह जाता और वो उसकी आँखों के सामने-सामने ये जा वो जा. दरअसल आपका फोटो खींचने लायक तो वो ही क्षण होता था. शिकायत करने गये तो पता चला पुलिस ने आपकी घड़ी और मोबाइल भी रखवा लिये. और रात भर हवालात में बंद रखा सो अलग. फैलते-फैलते बात इतनी फैली कि हिमसैल्फ और हरसैल्फ सारे के सारे अनुसंधान में लग गये तब सैल्फी का जन्म हुआ. आवश्यकता आविष्कार की मॉम है. (रही बात फतेह्पुर सीकरी की तो वो बात अलग और अपवाद स्वरूप देखी जानी चाहिये वहां स्विस जोड़े की पिटाई इसीलिये की गई कि उन्होने अपने भारतीय ’प्रशंसकों’ के साथ सैल्फी खिंचाने से नानुकुर की थी.)
अब विश्व स्तर के स्मारक बनेंगे तो पता नहीं क्या होगा. क्या शाहजहाँऔर मुमताज़ उठ बैठेंगे और आपको देख गाने लगेंगे:
“जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा”
या कि ज़िल्ले सुभानी अपना चोगा पहन आपका खैर मक़दम करेंगे.
पानी दे दें, शौचालय दे दें, विश्वसनीय ट्रांसपोर्ट दे दें और लुक्का लोग जो ठगने को आपके आस-पास मँडराते रहते हैं उनसे निज़ात मिल जाये तो समझो स्मारक खुद ही विश्व स्तर के हो जायेंगे. बड़ा काम है विश्व स्तर की इमारतों को बनाना उस से भी कहीं अधिक महान कार्य है इन इमारतों को विश्व स्तर का बनाये रखना. जब तक आस-पास मँडराते बर्बर ठगों के दल के दल की आमदनी का सहारा आपसे छिनैती और ठगी ही है तो कैसे विश्व स्तर की रख-रखाव हो पायेगी? पहले हम तो विश्व स्तर के हो जायें. स्मारक खुद्बखुद हो जाने हैं जी.
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