दिल्ली में हमारे बचपन में ये बाज़ार एडवर्ड
पार्क (अब नेताजी सुभाष चंद बोस पार्क) के
पीछे वाली रोड पर हर रविवार को लगता था। यह उस रोड पर लगता था जो दरियागंज से कट
के आगे जगत सिनेमा (मछली थियेटर) तक जाती थी। यह बाज़ार सड़क के दोनों ओर फुटपाथ पर
लगता था। यह मिक्स बाज़ार होता था, अर्थात उसी में गरम कोट, ओवर कोट बिकते थे तो उसी में किताबें, नाॅवल्स और काॅमिक्स बिका करते थे। इन
सबसे बढ़ कर एक और आकर्षण की चीज होती थी। हैड फोन और फिल्म के बच्चों वाले मेनुअल
प्रोजेक्टर तथा फिल्मी रील के रोल। मुम्बई का चोर बाज़ार, शुरु से चोर बाज़ार ही कहलाता है।
हांलाकि ऐसा कहा जाता है कि वहां से उठने वाले कोलाहल की वजह से अंग्रेज उसे शोर
बाज़ार कह संबोधित करते थे जो धीरे धीरे चोर बाज़ार कहलाया जाने लगा।
संडे के संडे अपना प्रोग्राम होता था
वहाँ जाकर विंडो (?) शॉपिंग करना। जो अपनी खरीदने की वस्तुएँ होती थीं और जो हम अपनी 'ग़रीबी रेखा' के नीचे वाली पॉकेट मनी से एफोर्ड कर
सकते थे वो होते थे फेंटम (वेताल) के काॅमिक्स। तब ये काॅमिक्स केवल टाइम्स ऑफ
इंडिया ही पब्लिश करता था। उन पर एक सीरियल नंबर अंकित रहता था। हम इस बात पर गर्व
करते और सबको बताते फिरते थे कि हमारे पास पूरी सीरीज है सिवाय फलां फलां नंबरों
के। इतवार के इतवार उन खोये हुए नंबरों के 'वेताल' की तलाश में ऐसे जाते थे जैसे एडवेंचर नॉवल में
लोग खजाने की खोज में निकलते। कभी जब कोई काॅमिक्स मिल जाता तो बहुत खुशी से ऑन दि
स्पॉट खरीद लेते। एक बार ऐसे ही जब एक काॅमिक्स दिख गया तो उसे उलटते-पुलटते मैंने
दुकानदार से कीमत पूछी वो बिना मेरे तरफ देखे, बोला 'जिन में कवर लगा है अर्थात कवर इनटेक्ट है वो 15 पैसे (ढाई आने) के हैं और बिना कवर
वाले दो आने (12
पैसे ) के हैं'।
मेरे पास पैसे शायद तब तक दो आने ही बचे थे मैंने दुकानदार को ऑफर दी कि वह चाहे
तो कवर उतार ले पर मुझे दो आने में दे दे। उसने मुझे विनोद से देखा और साथ के
दुकानदारों को हँसते हुए बताने लगा “देखो ! देखो ! ये लड़का क्या कह रहा है” मेरे
समझ में ही नहीं आया कि इसमें दूसरे दूकानदारों को बताने वाली क्या बात हुई। अब यह
याद नहीं वो काॅमिक्स फाईनली खरीद पाया या नहीं। इन सब काॅमिक्स को रखने के लिए
पिताजी का एक पुराना लैदर बैग जो उन्होने रिटायर कर दिया था उसी में सीरियल से सजा
कर रखता था। कोई आता तो उस खजाने को खोलता। या फिर आपस में क्लास के बच्चों के साथ
अदला-बदली करते थे।
एक दूसरी दुकानों का ग्रुप जो अपनी ओर
खींचता था वह था फिल्मों के काले-काले मिनी प्रोजेक्टर और फिल्मों की रीलों के
रोल। शायद प्रोजेक्टर 20 या 25 रुपये का होता था। एक बार पैसे जोड़ कर और हिम्मत बटोर कर प्रोजेक्टर
खरीद ही लिया। फिल्म का एक छोटा सा रोल (कप-प्लेट) की प्लेट जितना बड़ा रील का रोल
फ्री मिला था। उसी शाम हम भाई बहन कमरे में अंधेरा करके बैठ गए। लगे कभी फोकस ठीक
करने, कभी
हेंडल चलाने। मगर ना तो कायदे का फोकस ही बन पाया न हेंडल कायदे से चला पाये।
फलस्वरूप कुछ भी समझ नहीं लगा। आवाज तो थी ही नहीं। कई सालों बाद जब जॉय
मुखर्जी-सायराबानो की जिद्दी देखी तो याद आया कि वो रील इसी फिल्म के एक प्रकरण की
थी, जो
फिल्म में मुश्किल से 5 मिनट का था, और हम प्रोजेक्टर का हेंडल घुमा घुमा के पसीने में नहा गए थे।
हाँ इलेक्ट्रोनिक की दुकान से हैडफोन
ज़रूर खरीदा था। वह एक कान का 5 रुपये का मिलता था जबकि दोनों कानों का दस रुपये का। ले दे कर 5 रुपये वाला खरीद लाये। उसमें मीडियम
वेव रेडियो हरदम बजता रहता था। आप ऐसे नहीं सुन सकते थे। उस को कान पर लगा, हाथ से पकड़े रहना होता था। उसमें से एक
तार एंटीना का काम करने को छत से लटकाना पड़ता था।
फिर जीवन की दो ट्रेजिडी साथ-साथ हुईं। बाज़ार वहाँ से लाल किले के पीछे शिफ्ट हो गया। दूसरे हम थोड़े और बड़े हो गए। वेताल-मेंड्रेक पीछे छूट गए। अब ना वेताल था, न कोई जादूगर। न कोई रील थी ना ही कोई प्रोजेक्टर था। जो बच रह गया वह था ‘अब ज़िंदगी आपकी रील बना रही थी’।
जीवन की वो छीटी छोटी खुशियाँ न जाने
कहाँ लुढ़क गईं।
(नोट: कालांतर में बुक बाज़ार दरियागंज
मेन रोड के फुटपाथ पर बरसों लगता रहा। बाद में सुप्रीम कोर्ट से हारने के बाद यह
बुक बाज़ार अब सिमट के आसफ अली रोड, डिलाइट सिनेमा के अपोजिट लगने लगा है)
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