बहुत दिनों से न्यूज पेपर और टी.वी. में न्यूज आ रही है. अब न्यूज है, पेड न्यूज है या कि बस कोरी अफवाह है कि सरकार रिटायरमेंट की उम्र बढ़ा रही है. 60 वर्ष से 62 वर्ष कर देगी. कोई कोई कह रहा है कि 65 वर्ष होने वाली है. जहाँ तक मुझे याद पड़ता है रिटायरमेंट की उम्र पहले 55 बरस थी. फिर 58 हुई और उसके बाद 60 वर्ष हो गयी. सच तो यह है कि आदमी को किसी भी उमर में रिटायर किया जा सकता है. आप पहले आंकड़ा तय कर लें तर्क फिर उसी प्रकार के ढूंढे जा सकते हैं. वो सब तो लफ्फाजी है. आयु जो भी आप डिसाइड करें बड़े बड़े धुरंधर बैठे हैं जो हज़ार दो हज़ार पेज की रपट उठते- बैठते चुटकियों में बना देंगे. हमारे सरकारी दफ्तरों में ये कहावत है कि आप डिसाइड तो करो क्या करना है अंग्रेजी तो वैसे ही बन जायेगी. ऐसे ही चुनाव से पहले की एक शाम सरकार ने रिटायरमेंट की उम्र 100 वर्ष कर दी और तर्क दिया कि
भारत ऋषि मुनियों की धरती है हमारे यहां च्यवनप्राश और वियाग्रा के संगम से जो पीढ़ी पैदा हुई है वो 100 बरस से ऊपर जीने वाली है तो क्यों न उनकी प्रोडक्टिविटी का उपयोग राष्ट्र निर्माण में किया जाये. राष्ट्रनिर्माण के नाम पर तरह तरह के विध्वंस आप दिल खोल कर कर सकते हैं. कोई कुछ नहीं कहेगा. उल्टे हो सकता है आप पदमश्री जैसा कुछ झटकने में क़ामयाब हो जायें
आखिर उम्र क्या है ? है क्या ये उम्र ? सिर्फ एक नम्बर. महज़ एक आंकड़ा. जैसे गरीबी एक ‘स्टेटऑफ माइंड’ है उसी तरह बूढ़ा होना भी एक स्टेट ऑफ माइंड है. आप उस स्टेट ऑफ माइंड से बाहर निकलिये. फिर देखिये. एक बार निकल कर तो आईये. आप आये दिन अखबारों में डर्टी ओल्ड मैंनों के किस्से सुनते-पढ़ते रहते हैं. ज्यादा कहना उचित नहीं.
सरकारी दफ्तरों में काम होता कब है. आपने केस उलझाना ही तो है. आपके मुंह में कुछ जुमले फिट होने चाहिये जैसे इम्प्लांट करवा लिये हों जैसे कि ‘नहीं हो सकता’ ‘कल आईये’ ‘परसों आईये’ ‘ट्रिपलीकेट में लाईये’ ‘ आज बाबू छुट्टी पर है’ 'आज डीलिंग बबुआइन चाइल्ड केयर पर हैं'. उनका लड़का 17 का हो गया है 18 का होते ही चाइल्ड केयर मिलती नहीं सो अभी से सेंत ली है. दफ्तर में 100 बरस तक काम करने के लिये मुंह में दांत, सर पर बाल और पेट में आंत चाहिये ये कहां लिखा है ?. भारतीय नौकरशाही एक बहुत बड़ा सफेद हाथी है. इसे ये वरदान प्राप्त है कि ये दिन दूनी रात आठ गुनी रफ्तार से आकार में बढ़ रहा है. दफ्तरों में जा कर देखें लोग बारी बारी से बैठते हैं. जब तक एक बैठता है दूसरा लॉन में ताश खेलता है. या फिर चाय पी पी कर पॉलिटिक्स पर चर्चा करता है.बेचारे और करें भी क्या ?
इस स्टेज और एज तक आते आते वो अपने घरवालों के लिये एक विलासिता की वस्तु बन जाते हैं जिसे घरवाले एफोर्ड नहीं करना चाहते हैं. पुराने मॉडल की कार के माफिक जो शोर बहुत करती है और खाली पीली दर रोज़ मेंटिनेंस भी भारी मांगती है. बाबू लोगों के साथ आजकल कुछ मर्ज़ तो रविवार शनिवार के सफिक्स की तरह जुड़ गये हैं जैसे बी.पी., हार्ट, किडनी, कैटरेक्ट कहां तक गिनाऊं. कभी कभी लगता है ऑफिस की केंटीन के साथ ही अस्पताल की सुविधा होनी चाहिये जहां गठिया बाय के तेल मालिश से लेकर ऑक्सीजन सिलेंडर तक का पूरा पूरा इंतज़ाम हो. लोग बाग खास कर बड़े अधिकारी जो लाल बत्ती वाली कारों में ऑफिस आने जाने के आदी हैं मैंने उनके लिये भी उपाय सोच लिया है अब वो लाल बत्ती वाली गाड़ी की जगह लाल बत्ती वाली एम्बूलेंस से ऑफिस आया करेंगे. इस से उनका रुतबा भी बना रहेगा और स्पेशल मेडिकल अटेंशन भी मिलती रहेगी.
आजकल दफ्तरों में सैक्सुअल हरेसमेंट के केसों को देखते हुए मैं सोच रहा था कि रिटायरमेंट की उम्र 100 बरस होने से किस तरह के केस आया करेंगे. मसलन एक 88 साल के दादा जी पर 86 साला दादीनुमा भद्र महिला आरोप लगायेगी कि ये बुड्डा मुझे देख कर सीटी बजाता है और खांसता है. दादा जी सफाई में अपने एक छोड़ के एक टूटे हुए दांतों की श्रंखला दिखायेंगे कि कैसे बत्तीसी जो अब महज़ सत्ती रह गयी है इसलिये इनमें से हवा अपने आप निकल जाती है और लोग सोचते हैं वे सीटी बजा रहे थे. वे अपनी पुरानी खांसी के पुराने नुस्खे दिखायेंगे “जी मैं तो 65 साल की उम्र से खांस रहा हूं इसका तभी से इलाज भी चल रहा है. डॉक्टर के सार्टिफिकेट देख लो”. और इस तरह दादा जी बाल-बाल बाइज़्ज़त बरी हो पायेंगे .
आप लोगों ने इलेक्शन के समय मतदान के दिन एक फोटो ज़रूर देखा होगा जिसमें किसी एक बेहद बूढ़े व्यक्ति को पीठ पर लाद कर वोट डालने को लाया जाता है. बस ऐसा ही कुछ नज़ारा रोज़ सुबह शाम हर दफ्तर हर मंत्रालय के बाहर रहा करेगा. घर से दफ्तर, दफ्तर से घर. घरवाले भी चुपचाप सहेंगे ये सोच कर कि कमाऊ बुढऊ है. इससे वृद्धों के प्रति समाज का रवैया बदलेगा. ओल्ड एज होम नहीं बनेंगे. वे सम्मान के साथ अपने अपने सन्युक्त परिवार में रह सकेंगे. इस से उनके हार्ड कौर और यो यो हनी सिंह को अपना फॉस्टर पेरेंट्स समझने वाले नाती पोतों को अपने दादा-दादी की गाइडेंस सतत मिलती रहेगी जिससे नई पीढ़ी में संस्कारों का उदय होगा.
बड़े बूढ़ों को घर पर अक्सर पसंद नहीं किया जाता अत: मुंह अंधेरे ही वे ऑफिस आ जाया करेंगे. रात को नींद तो उन्हें वैसे भी नहीं आती. तो सोचो मुमक़िन है बहुत से बूढ़े तो घर ही न जायें. ये सोच कर कि कौन ये रोज रोज आने जाने की किल्लत मोल ले अत: वो ऑफिस की बेंच पर ही अपने अपने आशियां बना लेंगे. जैसे मुम्बई के टैक्सी वाले. वे टैक्सी में ही रहते, सोते-खाते हैं. सोचो इस से मैन पॉवर सदैव उपलब्ध रहेगी. और उत्पादकता का ग्राफ कहां से कहां पहुच जायेगा. बूढ़ों को आप फिज़ूल न समझें न उनको ये कह कर चिढ़ायें कि वे चले हुए कारतूस हैं. सोच समझ कर बोलना बच्चू अब वो दिन दूर नहीं जब आप क्या आपके पिताजी भी दादा जी से जेब खर्च लेने लाइन में खड़े होंगे.
आखिर उम्र क्या है ? है क्या ये उम्र ? सिर्फ एक नम्बर. महज़ एक आंकड़ा. जैसे गरीबी एक ‘स्टेटऑफ माइंड’ है उसी तरह बूढ़ा होना भी एक स्टेट ऑफ माइंड है. आप उस स्टेट ऑफ माइंड से बाहर निकलिये. फिर देखिये. एक बार निकल कर तो आईये. आप आये दिन अखबारों में डर्टी ओल्ड मैंनों के किस्से सुनते-पढ़ते रहते हैं. ज्यादा कहना उचित नहीं.
ReplyDeleteबहुत सटीक व्यंग्यात्मक विशलेषण