Ravi ki duniya

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Wednesday, October 15, 2025

व्यंग्य: जूताक्रेसी

 

 

मेरा भारत महान यूं कभी डेमोक्रेसी था पर इसकी परिकल्पना में जूता कहीं न था। उसका एक कारण यह भी था कि भारत में कम ही लोगों को जूते मयस्सर थे। ज़्यादातर भारत नंगे पाँव रहता था। नंगे पाँव क्या, पूरे वस्त्र भी मुश्किल से मुहैया थे। फिर हमने तरक्की की। एक स्कूल के जूते हो गए। एक घर के या बाहर के। धीरे-धीरे पी.टी. वाले जूते भी आ गए। जो या तो ब्राउन होते थे या सफ़ेद। सफ़ेद जूते बहुत बिज़ी रखते थे। उनको धोना, खड़िया वाली पाॅलिश करना, सुखाना। यह विद्यार्थियों को बिज़ी रखने के तरीके होते थे। जैसे रोजाना स्कूल से आकर तख्ती को धोना, सुखाना, मुलतानी मिट्टी से उस पर लेप लगाना (पोतना) फिर सुखाना। फिर घोटा लगाना। तख्ती के लिए मुलतानी मिट्टी बाज़ार में बिका करती थी। गज़क के माफिक और दूसरी गोल टिकिया में। गोल टिकिया वाली महंगी मिलती थी। तख्ती के हैंडल पर एक छेद भी होता था ताकि आप चाहें तो उसमें डोरी बांध सकें। पकड़ने में आसानी रहती थी। इसी तरह घोटा भी बाज़ार में स्टेशनरी की दुकान पर बिकता था। यह पेपर वेट की तरह एक शीशे की चकरी टाइप डिस्क होती थी। उसको तख्ती पर इसलिए घोटा जाता था ताकि तख्ती की मुलतानी मिट्टी बैठ जाये और तख्ती में एक चमक आ जाये।

 

हाँ तो बात जूते की हो रही थी। उस अभावों के काल से हम आज इस मंज़र पर आ पहुंचे हैं जहां अगर आप से पूछ लिया जाये कि आपके पास कितने जोड़ी जूते हैं ? आपको याद ही नहीं होगा। अब जब इतने सारे जूते हो जाएँगे तो ज़ाहिर है आपके दिमाग में खुराफात सूझेगी। इसी खुराफात का यह फल है कि यदाकदा आपको ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं कि फलां ने फलां के ऊपर या उसकी ओर जूता उछाला है। ये जूते फेंकने का इतिहास ज्यादा प्राचीन नहीं है। यह यह हमारी समकालीन हिस्ट्री का पार्ट है। ऐसा इसलिए है कि जूता कॉमन ही अब हुआ है। यह विरोध ज़ाहिर करने का एक तरीका है। कई बार यह केवल पब्लिसिटी पाने का माध्यम भर साबित होता है। जूता फेंकने वाला इतना इम्पोर्टेंट नहीं है। ज्यादा इंपोर्टेन्ट है जिस पर जूता फेंका गया है। जूता सामान्यतः बड़ी-बड़ी ओहदेदारों हस्तियों पर ही फेंके जाते हैं। दबे-कुचले पर जूता फेंकने का कोई औचित्य नहीं। कई बार जूता फेंकने वाला जो वह जूते के माध्यमसे जो कहना चाहता है, उस में सफल हो जाता है। अभीष्ट काम हो जाता है। धीरे-धीरे हम उन्नति के उस सोपान की ओर बढ़ रहे हैं जहां सभा-सम्मेलन और अदालतों में जूता उतारने के बाद ही प्रवेश मिल सकेगा ताकि कोई बदसलूकी न हो। अब आप अपना कोट/पेंट/कमीज तो उतार कर फेंकने से रहे। और ऐसा करेंगे तो फिर उसका भी उपाय सोचा जाएगा। यूं जूते की ऊपर बहुत सी कहावतें और मुहावरे हमारे बीच हैं। यथा जूते में दाल बंटना, बाप का जूता जब बेटे के पाँव में आ जाये, किसी शख्स या वस्तु को जूते पर रखना। जूते मारो, छितरौल, भिगो-भिगो कर जूते मारना। चांदी का जूता मारना आदि। अतः जूता हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है, अब यह राजनीति में भी मंज़र-ए-आम हो रहा है। जूते का भविष्य उज्जवल मालूम देता है। क्या पता ? अब जूते बेचने वाले इस टैग लाइन का इस्तेमाल शुरू कर दें। 'हमारी कंपनी का जूता हल्का है, गाइडिड मिसाइल की तरह निशाने पर लगता है। आप अपना नाम गुप्त रखना चाहें तो पता भी नहीं चलेगा यह जूता किस दिशा से आया है किसने फेंका है? फिंगर प्रिंट भी नहीं आयेंगे। आने वाले वक़्त में लोग जूते और उसके विभिन्न उपयोग पर पी.एच.डी. किया करेंगे। बाज़ार में पुस्तकें बिका करेंगी: जूता-पुराण, किस्सा-ए-जूता, पादुका का उद्गम और भविष्य,  पादुका - चालीसा। जूता फेंकने के 101 तरीके।

 

थोड़ा और लोकप्रिय होते ही यह ईवेंट कॉमनवैल्थ गेम्स और ओलंपिक में जगह पा जाएगा। फिर आप जानते हो इसमें पदक किस देश की झोली में आयेंगे। शहर-शहर जूता थ्रोइंग अकेडमी खुल जाएंगी और आप ने सही पहचाना अध्यक्ष होगा वह जिसने सबसे ज्यादा जूते खाये है कारण कोई भुक्तभोगी ही उसके तमाम तकनीकी पहलुओं से नवोदित खिलाड़ी को प्रशिक्षित कर पाएगा।

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