यह बहुत ट्रिकी वाक्य है। इसका शाब्दिक/नज़र
आने वाला अर्थ यूं है कि मैं आपका शुक्रगुजार हूँ जो आपने बड़ी कृपा पूर्वक मुझे ये
जिम्मेवारी सौंपी है। मैं कोशिश करूंगा कि उस पर खरा आऊं। इसके छुपे हुए अर्थ कई हैं: जैसे आपने मुझे
जिम्मेवारी दी है अतः मैं भी आपकी सेवा-पानी का ख्याल रखूँगा। हर माह की पाँच
तारीख तक आपको तयशुदा रकम जहां आप कहेंगे पहुँचती रहेगी। (दरअसल यही जिम्मेवारी तो
सौंपी है) जहां जब जिस के फ़ेवर में हम व्हिप जारी करें, उसी के पक्ष में वोट देना है। हम कहें, बैठ जा ! तो
बैठना है। हम कहें, खड़े हो जा! तो खड़े होना है। हम कहें वॉक
आउट तो वॉक आउट करें। बस इतनी सी जिम्मेवारी है। और हाँ अपने दिमाग को घर छोड़ कर
आना है। अपना दिमाग नहीं लगाना है। बस इतनी सी जिम्मेवारी है।
जो
भी चुना जाता है वह इस फंड, उस फंड में इतनी बड़ा फंड
देकर आता है कि उसका रिफ़ंड नामुमकिन है। अतः देखा जाये तो यह जिम्मेवारी बंदे ने
पार्टी को और उसके कर्ता-धर्ताओं को सौंपी है। बच्चू अब तुम्हारी खैरियत इसी में
है कि मुझे चुनो। और हाँ ये वाला डाइलॉग मैं बोलूँगा अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में। -
"मुझे जो जिम्मेवारी सौंपी है मैं उसे पूरा करूंगा, उस
पर खरा उतरूँगा"। आज का 'क्राइसिस' ही ये है कि जिसे जो जिम्मेवारी दी जाती है वह उसी का पालन नहीं कर रहा।
बच्चे पढ़ाई के अलावा सब काम कर रहे हैं। माता-पिता बच्चे को समय देने की बजाय पैसे
देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है। जिन पिताओं को अपने वक़्त में साइकिल
उपलब्ध नहीं थी, वे अब कार आते ही बच्चे को कार थमा देते हैं
जा बेटा ऐश कर, बेटा पिता की इस आज्ञा को शिरोधार्य कर कार
लेकर फर्राटे से निकल जाता है। और दोस्तों के साथ खा-पी कर कार से लोगों को रौंदता
हुआ घर आ जाता है। अभी तो एक केस ऐसा आया कि एक डॉक्टर साब अपने क्लीनिक में अपने
नाबालिग बेटे से ऑपरेशन करा रहे थे। जब मरीज और उसके परिजनों ने हो-हल्ला मचाया तब
ये बात प्रकाश में आई। पिता चाह रहे होंगे कि मेरा राजा बेटा जल्द से जल्द क्लीनिक
संभाल ले या अपना क्लीनिक खोल कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाये। चाहे इसके लिए मरीज
को क्लीनिक से औरों के पैरों से ही ले जाना पड़े। जीना-मरना बिधि हाथ। जिम्मेवारी
एक बहुत बड़ा टर्म है। आज जिसकी जो जिम्मेवारी है वही वो पूरा नहीं कर रहा है और
लगता है गाल बजाने, गाना गाने। तू काम न कर काम की फिक्र कर,
फिक्र का ज़िक्र और ज़िक्र की फिक्र कर, फिक्र
का ज़िक्र कर। कोई और तो आपका ढिंढोरा पीटेगा नहीं। पीटे तब, जब उसे कुछ दिखे। अतः इसके लिए या तो आप एक टोली रख लेते हैं जो
गाहे-बगाहे आपका इशारा पाते ही गुणगान करती है अथवा आप खुद ही अपना ढिंढोरा पीटने
लगते हैं। जैसे कहावत है जंगल में मोर नाचा किसने देखा उसी तह शहर के बीचों-बीच
मोर अव्वल तो नाचता नहीं। नाचे तो भी लोग जानते हैं ये चाबी से नाचता नकली मोर है।
और फिर आजकल तो माॅर्फिंग और ए. आई. के टूल भी आपके पास हैं।
मैं मुंबई के पानवालों की ईमानदारी का कायल
हूँ। वे आपसे पहले ही पूछ लेते हैं "पान में ज़र्दा प्योर मांगता या चालू?" दोनों के रेट अलग अलग हैं। फिर
उसमें वो पूरी पूरी जिम्मेवारी निभाते हैं। कोई मिलावट नहीं। एक मित्र बता रहे थे
पहले इतनी स्कॉच तो स्कॉटलेंड में बनती नहीं है जितनी अकेले भारत में पी जाती है।
लेकिन आज स्थिति बदल गई है। अतः कहावत भी बदल गई है। लेटेस्ट है इतनी स्कॉच तो
स्कॉटलेंड में बनती भी नहीं है जितनी अकेले गुड़गांव में पी जाती है। वही हाल दूध
का है। इतने दूध का उत्पादन भारत में होता ही नहीं जितनी खपत है। त्योहार आते ही
लोगों को पता लग सके कि ऐसा भी कोई डिपार्टमेन्ट है अतः मिलावट वाले जहां-तहां
छापे मार कर नकली खोआ नष्ट करते हैं और उसकी फोटग्राफी कर अखबारों में छ्पवाते
हैं। अगले त्योहार पर फिर मिलने आएंगे। तब तक आप फ्री हैं। मज़े की बात है कि ज़ब्त
की हुई शराब को थोड़े दिनों में ही थाने के चूहे पी जाते हैं। देखा जाये तो चूहे
अपनी क्षमता से अधिक अपनी जिम्मेवारी निभा रहे हैं।
हिंदुस्तान फिर से सोने की चिड़िया बन जाये
अगर सब अपनी-अपनी जिम्मेवारी निभाएँ । पर यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन है। पूरी
जिम्मेवारी से कह रहा हूँ।
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