Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Tuesday, November 19, 2024

व्यंग्य: कीड़ा या जीरा

 

                     


 

            जब ट्रेन में यात्री को सांभर में कीड़े मिले तो उसने तुरंत केटरिंग स्टाफ को बुलाया और शिकायत करनी चाही तो केटरिंग स्टाफ ने उस यात्री को समझाया “ये कीड़े नहीं बल्कि जीरा है”। अब यात्री परेशान कि यह है क्या ? उसने स्कूल में पढ़ी पूरी बाॅटनी-ज़ूलाॅजी रिवाइज कर डाली। उसका मन नहीं माना। उसने कहा ये तो साफ-साफ कीड़े की टांगें हैं और आप हैं कि इन्हें जीरा बताने पर तुले हैं। तब स्टाफ ने समझाया “ये चाइनीज़ जीरा है ये लगता ऐसे ही है जैसे कि कीड़े की टांगें हों”।

 

              यात्री नहीं माना उसने वीडियो बनाना शुरू कर दिया इस पर स्टाफ ने ऐतराज़ जताया और यात्री को डांटा “रेल में, रेल परिसर में वीडियो बनाना कानूनी जुर्म है” तब तक वह वीडियो बना कर इधर-उधर सोशल मीडिया पर भेजना शुरू कर दिया। तिस पर केटरिंग स्टाफ ने उस यात्री को नई प्लेट देनी चाही पर यात्री ने मना कर दिया।  इस पर केटरिंग स्टाफ ने उन्हें कुछ पैसे भी देने चाहे मगर यात्री ने लेने से इन्कार कर दिया और ये बात भी लिख मारी।

 

            देखिये ! ये लंबी लंबी यात्राओं में ऐसे छोटे-छोटे कीड़े निकलते रहते हैं सेनोरिटा ! इससे दिल छोटा नहीं करते। अब ये किसका कसूर है कि जीरा, जो है सो, कीड़े की टांगों सा दिखता है। ऐ सनम ! जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है उसी मालिक ने मुझे भी तो मुहब्बत दी है। मैं तो कहता हूँ कि केटरिंग वालों को मेन्यू के साथ ही यह लिख देना चाहिए कि हमारा जीरा कीड़े की टांगों सा दिख सकता है। उसका नोटिस न लें, घबराएँ नहीं। इसी प्रकार अन्य खाद्य सामग्री के बारे में लिखा जा सकता है ये कानखजूरा नहीं बल्कि बड़ी इलायची खुल गई है। यह छिपकली नहीं हमारी नई डिश है जिसमें मंचुरियन इस तरह मिक्स किया गया है कि वो छिपकली सा दिखे। ये गरम मसाला है न कि मछली के अंडे, ये कॉकरोच नहीं बल्कि एक नए चाइनीज़ मसाले का बनाया हुआ ‘एड ऑन’ है। जैसे अपने देसी खाने में तेज पत्ता डालते हैं। आप इसको भी तेज पत्ते की तरह निकाल कर फेंक सकते हैं। हरकत नहीं। हमारी डिश का आनंद लें।

 

               यूं किसी जमाने में ट्रेन का खाना बहुत लज़ीज़ होता था, किसी-किसी ट्रेन का खाना तो इतना लोकप्रिय होता था कि भोजन ही मशहूर हो जाता था। जैसे किसी-किसी राजधानी का भोजन, किसी-किसी शताब्दी का भोजन, ताज एक्स्प्रेस का खाना। यहाँ तक कि किसी भी प्लेटफॉर्म से रेहड़ी की पूड़ी-भाजी, कचौड़ी-समोसा आदि भी स्वादिष्ट हो गए थे। फिर इस फील्ड में बड़े बड़े नाम उतर आए और उस लॉबी ने शुरू किया --- हाइजीन का भूत। हेल्दी फूड का जिन्न। सारे के सारे ठेले वाले न जाने कहाँ गुम हो गए। मोनोपली आ गई। “जैसा है ! ये ही है।“ “खाना है तो खाओ दूसरा बनाएंगे नहीं ! नखरे किसी के उठाएंगे नहीं”। आप हद से हद क्या करेंगे ?  शिकायत पुस्तिका में लिखेंगे ? आपको क्या पता ये शिकायत पुस्तिका असली है या डुप्लीकेट ? बोले तो केटरर की है। अब वो केटरर ने इतनी ‘नज़र और इनायत’ के बाद ये ठेका हासिल किया है वो इसलिए नहीं कि उसकी ‘माई एम्बीशन इन लाइफ’ आपको भोजन खिलाने की थी या उसके बचपन का कोई सपना था कि वह आपको स्वादिष्ट शुद्ध भोजन खिलाये। वह अपने लिए चार पैसे कमाने को आया है। उसके शब्दकोश में प्रॉफ़िट कोई ‘ड़र्टी वर्ड’ नहीं बल्कि ‘साॅट-आफ्टर’ चीज़ है और जितना अधिक प्रॉफ़िट उतना बेहतर।

 

        मुझे यात्रियों से शिकायत है वे क्यों नहीं पहले की तरह घर से ही भोजन करके चलते या फिर अपना टिफिन बॉक्स लेकर चलते। सुराही तो अब भी मिलती है। शीतल शुद्ध जल पीने को सुलभ था। और तो और आप प्लेटफॉर्म की साग-पूड़ी भी निर्भीक हो कर खा सकते थे। ग़लती आपकी है आप बाहर खाने के चक्कर में और बड़े-बड़े ब्रांड के चक्कर में आ गए हैं। अतः जो आप डिजर्व करते हैं वो आपको मिल रहा है। शिकायत कैसी ? भाई ये कीड़ा ही है जिसे आपको जीरा बता कर खिलाया जा रहा है।

 

                                कीड़ा तो झांकी है-पूरा ज़ू बाकी है!

व्यंग्य: बाईं के बजाय दायीं आँख का कर दिया ऑपरेशन

 

                                                   



                आपने देखा होगा चौराहों, बाज़ार और बस स्टेंड पर टेम्पो रिक्शा और टर्री वाले कैसे पुकार-पुकार के सवारी बुलाते हैं और पकड़-पकड़ के लगभग जबरन ही आपको अपने टेम्पो / रिक्शा और टर्री में बैठा लेते हैं। चालक आपकी हर बात में हामी भर देता है। चाहे वह उस रूट पर जा भी न रहा हो, आपको हाँ कर देता है और फिर आपको निकटतम ठिकाने पर उतार देता है,  ये कहते हुए कि सामने ही है। तब आपको ज्ञात होता है कि आपकी मंज़िल अभी दूर है और आपको एक और रिक्शा लगेगा। 


          कुछ इसी तर्ज़ पर अब शहर-शहर इतने नर्सिंग होम इतने क्लीनिक खुल गए हैं कि वे पकड़-पकड़ के पेशेंट को दाखिल कर रहे हैं। तरह-तरह की स्कीम ला कर भावी पेशेंट्स को लुभा रहे हैं। दो चीजों के विज्ञापन कभी देखने को नहीं मिले थे, अब वो भी इन आँखों ने देख लिए।  एक स्कूल/यूनिवर्सिटी के और दूसरे अस्पतालों और डॉ के। अब दोनों के फुल-फुल पेज के एड धड़ल्ले से दिखते हैं। बस इनका ‘बाई वन-गेट वन फ्री’ स्कीम लाना शेष है। वो भी  आती ही होगी, ऐसी ‘लिटरली’ गला काट प्रतियोगिता चल रही है। बीमारी कम हैं, डॉक्टर ज्यादा हो गए हैं। और डॉ भी ऐसे-ऐसे जो आप सिर दर्द को भी जाएँ तो आपका सिर खोल कर ऑपरेशन को तत्पर बैठे हैं। आप कहें हाथ-पाँव में दर्द है तो वो आपको इतना डरा देंगे कि आप दाखिल हो जाने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं ताकि आपका अल्ट्रा साउंड, ब्लड टेस्ट, ईको टेस्ट, यूरिन टेस्ट, एक्स-रे और हो सके तो एम.आर.आई. भी करा कर देख लिया जाये कि आखिर प्रॉब्लम है कहाँ ?  

            ऐसे ही एक केस में जब एक सात साल के बच्चे की आँखें लाल हुईं और दर्द होने लगा तो वो दौड़े-दौड़े इस क्लीनिक में जा पहुंचे। डॉक्टर साब की बांछें खिल गईं। आ गया ग्राहक ! बोले तो आ गया मुर्गा। उन्होंने बच्चे के अभिभावकों को पूरी तरह डरा दिया कि बच्चे की आँख में प्लास्टिक का टुकड़ा चला गया है और उसे ऑपरेशन द्वारा ही निकाला जा सकता है। फीस होगी पैंतालीस हज़ार रुपये। ग़रीब माता-पिता ने कैसे कैसे पैसों का इंतज़ाम किया और दाखिल करा दिया। डॉ साब हिन्दी फिल्मों के डॉ की तरह ऑपरेशन  थियेटर से निकले और बोले “बधाई हो ! ऑपरेशन सक्सेसफुल रहा। बच्चे को अभी होश आ जाएगा आप ले जा सकते हैं”। अब असली खेल शुरू हुआ।  जब पेरेंट्स ने देखा कि दर्द तो बाई आँख में था, प्लास्टिक का टुकड़ा तो बाईं आँख में था ये पट्टी दाहिनी आँख में क्यूँ लगी है। बच्चे को होश आया तो उसे एलर्जी होने लगी।  पूरे बदन पर लाल-लाल चकत्ते उभर आए। परेशान माता-पिता भागे-भागे दूसरे अस्पताल में लेकर गए। जहां पता चला ऑपरेशन तो बाईं आँख का भी नहीं हुआ। बस ऐसे ही पट्टी बांध दी है। अब उनका सब्र जवाब दे गया। उन्होने अस्पताल में जाकर हँगामा कर दिया। टॉप बॉस से मिले उनका जवाब था कि नर्सिंग स्टाफ की लापरवाही की वजह से पट्टी ग़लत आँख पर लगा दी गई है। दरअसल ऑपरेशन कोई हुआ ही नहीं था। प्लास्टिक का तथाकथित टुकड़ा जो आँख से चिपका हुआ था हटा दिया गया था।  बस यही ऑपरेशन था। तो लो जी एलर्जी अलग से ले आए। बच्चे की तबीयत तभी से ठीक नहीं है। जब ऑपरेशन नहीं था तो उसे बेहोश किया ही क्यों गया ?

 

        तो ये कंपीटिटिव संसार है। इस सांसारिक यात्रा में आप बच कर रहें। सवारी अपने ‘जिस्म-ओ-जान’ की हिफाजत खुद करे। यहाँ तो सौदागर आपके खून, गुर्दे, फेफड़े, लीवर आँख सबके पीछे पड़े हैं। अब वे रुमाल गले में बांधे  पॉकेट नहीं मारा करते बल्कि मास्क लगाए, सफ़ेद कोट पहन अँग्रेजी बोल के लूटते हैं। ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ आपके आसपास बिखरी हुई हैं। यह शहर-शहर की कहानी है। अब टारगेट पूरा करना है, नौकरी बचानी है तो ये सब औटपाए तो डॉ को करने ही पड़ेंगे। वक़्त आ गया है कि वो जो हिपोक्रेटिक शपथ है उसमें संशोधन कर लिया जाये। “...जो आयेगा मैं उसे और उसकी जेब को बिना किसी भेदभाव, करुणा, द्वेष और राग के काट दूंगा...ईश्वर इसमें मेरी मदद करे”

व्यंग्य: ऑपरेशन - बिना बेहोश किये

                                                                



      आप चिंता न करें हमारी चिकित्सा व्यवस्था भीषण उन्नत है और ऐतहासिक है। हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं जिसमें हमारे एडवांस मेडिकल कौशल व सुविधाओं का ज़िक्र है। ज़िक्र क्या पूरी तफसील से पूरा ऑपरेशन स्टेप बाई स्टेप दिया गया है। क्या सर्जरी, क्या खांसी-जुकाम, गंभीर से गंभीर बीमारी का इलाज़ हमारे पौराणिक ग्रन्थों में मिल जायेगा। न जाने कितने शास्त्रों मे यह पूरी चिकित्सा प्रणाली दी गयी है। बस उसको पढ़ लीजिये समझो आप एम.बी.बी.एस. हो गए। यही सब किताबें आक्रमणकारी आक्रांता बाहर ले गए और वहाँ से अंग्रेजी में तर्जुमा कर के हमें ही 'ज्ञान' देते हैं। हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊं। म्याऊं-म्याऊं करके एम.बी.बी.एस. और एम.डी के पाठ्यक्रम चला दिये। 'एम' बोले तो म्याऊं।

    

      इसी श्रंखला में एक सूबे में अब बिना क्लोरोफॉर्म दिये ऑपरेशन करने का रिकॉर्ड स्थापित किया है। बात क्रेडिट की तो है ही। नहीं तो न जाने कितना खर्चा-पानी क्लोरोफॉर्म पर ही हो जाता है। कई बार तो क्लोरोफॉर्म इस तरह और इतनी मात्रा में सुंघा देते हैं कि मरीज़ होश में ही नहीं आ पाता। यूं कहने को ऑपरेशन सफल रहा मगर मरीज है कि आँख ही नहीं खोल रहा। 


       असल में इस फील्ड में अब इतना कंपिटीशन हो गया है कि मरीज़ घर-घर ढूँढे जा रहे हैं। कबाड़ी (भंगार) वाले की तरह गली-गली ऑपरेशन करा लो ! ऑपरेशन !!  आवाज लगाते देखे जा सकते हैं। सस्ता लगा देंगे। अगले दिन छुट्टी...ऑपरेशन करा लो ऑपरेशन ! जले-कटे, पथरी, फेफड़े, गुर्दे सबका ऑपरेशन तसल्लीबख्श रियायती दाम पर करते हैं। मोतियाबिंद का ऑपरेशन करा लो ! मोतियाबिंद  कच्चा हो या पक गया हो फौरन हाथ के हाथ डिस्चार्ज। आप चाहें तो  'आपका डॉक्टर-आपके द्वार' स्कीम में  आपके घर आ कर भी ऑपरेशन कर देंगे। और तो और औज़ार भी आपके ही चल जायेंगे। हमें तो बस एक अदद कैंची, चिमटी और चाकू लगेगा। ये तीन चीज घर-घर होती  हैं। चाकू सब्ज़ी काटने वाला है तो भी चलेगा। ब्लेड हम साथ लाएँगे। आप अपना मनपसंद ब्रांड का ब्लेड भी दे सकते हैं। डिटाॅल आपके यहां होगी ही। देखिये हम 'काॅस्ट इफेक्टिव' मेडिकल सुविधाएं चला रहे हैं। अतः सब सुविधाएं आपके घर पर ही देंगे। हमें सेवा का अवसर ज़रूर दें। कोई बैड की किल्लत नहीं न एडमिशन का कठिन प्राॅसीजर। हम आपकी खटिया पर ही आपकी सर्जरी कर आपकी खटिया खड़ी कर देंगे। बोले तो आपको खड़ा कर दौड़ने - भागने लायक बना देंगे।


      हम घर-घर जाकर डिलिवरी भी कराते हैं। देखिये घबराने की कोई बात नहीं अपनी नानी-दादी से पूछिये सब घर में ही पैदा हुई थीं न कि किसी मैटरनिटी वार्ड में। हमारी यू.एस.पी. ही ये है कि आपकी डिलिवरी आप ही के घर के अंदर होगी। डेढ़ सौ करोड़ में से, सौ करोड़ घर पर ही पैदा हुए हैं और देख लो अस्पताल में पैदा हुओं से ज्यादा तंदुरुस्त हैं। 


     अतः घबराने का नहीं। घाबरू नका। कम वन कम ऑल !

Monday, November 18, 2024

व्यंग्य : प्रेमी ने महिला प्रिन्सिपल की पिटाई की

 

                                   


 

 

         देखिये प्रेम जो है सो वो ओहदा, दर्जा, पदवी, जात-कुजात नहीं देखता। जो ये सब देखे वो कुछ और ही है प्रेम नहीं। अतः जब प्रेमी ने अपनी प्रिन्सिपल प्रेमिका की पिटाई कर दी तो उसे ऐसे नहीं बताना नहीं चाहिए कि एक प्रिन्सिपल की पिटाई की। बताना तो चाहिए था कि एक प्रेमी ने एक प्रेमिका की पिटाई की। इंप्रेशन तो ऐसे दिया जा रहा है जैसे किसी स्टूडेंट ने प्रिन्सिपल की पिटाई कर दी अथवा जैसे पी.टी.आई. ने प्रिन्सिपल को कूट दिया हो। ये गलत और आधी अधूरी रिपोर्टिंग है। पता ये चला है कि दोनों एक गाना गाने वाले एप पर मिले थे। दो-चार गाने गा कर प्रेमी जी को लगा कि अब वो प्रिन्सीपल के साथ आमने-सामने ड्युट गा सकते हैं। प्रेमी महोदय सारे सिग्नल तोड़-ताड़ कर अपना सूबा छोड़-छाड़ कर प्रिन्सीपल महोदया के पास आ गये। मज़ेदार बात ये है कि इधर प्रिन्सीपल महोदया भी अपने पति को छोड़-छाड़ कर इस गायक प्रेमी के साथ रहने लगीं। तब एक स्टेज ऐसी आई कि प्रिन्सीपल मैडम को लगा केवल गाना गाने से ज़िन्दगी नहीं चलेगी। तब उन्होंने अपने पति के पास वापिस जाने का फैसला कर लिया। बस यहीं से सुर बेसुरे हो गये।

 

 

    अब पता नहीं प्रेमी ने प्रेमिका की पिटाई क्यों की ? हमें पूरी कहानी पता नहीं है। प्रेमी की साइड की कहानी तो पता ही नहीं चली तब तक प्रेमिका के अंदर का प्रिन्सिपल बाहर आ गया और बेचारे प्रेमी की पुलिस से सुताई करा दी। वैसे वो प्रिन्सिपल थी वो चाहती तो खुद भी प्रेमी को बेंत से मार सकती थी, डेस्क पर खड़ा कर सकती थी या फिर मुर्गा बना सकती। उसने बात खोल दी और खुलते ही पुलिस ने तो बीच में कूद ही पड़ना था। उन्हें तो पता चलना चाहिए कि दो लोग प्रेम कर रहे हैं। उनसे यह सहा नहीं जाता कि उनके रहते कोई दो दिल मिलें।

 

 

           प्रेमी को प्रेम करने से पहले सोचना चाहिए था,  प्रेम के अपने आदाब हुआ करते हैं मगर प्रिन्सिपल से प्रेम करने के अपने रिस्क और जोखिम होते हैं। वह बात-बात में आपसे लैसन रिवाइज़ कराएगी,  प्रश्न, कठिन  से कठिन पूछेगी,  होम वर्क देगी और आकर फिर सवाल करेगी। वह प्रिन्सिपल है और प्रिन्सिपल के जीवन में कुछ प्रिन्सिपल होते हैं। वो आपकी तरह ‘वेली’ नहीं उसे स्कूल भी देखना है, टीचर्स से भी निपटना है और इन सबसे बढ़ कर स्टूडेंट्स से निबाह करना है। एक आप हैं, आपका तो फुल टाइम जॉब ही प्रेम गीत गाना और प्रेम करना है। भले प्रिन्सिपल और प्रेम दोनों प से शुरू होते हैं पर दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। आपको भी दस बार सोचना चाहिए था कि आप न केवल एक प्रेमिका पर हाथ उठा रहे हैं बल्कि एक प्रिन्सिपल पर भी हाथ उठा रहे हैं। यूं प्रेमिका पर हाथ उठाना सरासर गलत था तिस पर वह प्रिन्सिपल है। आपने तो प्रेम करने का अधिकार ही खो दिया। प्रेम के ये तौर-तरीके नहीं हुआ करते। आप पहले प्रेम की कोचिंग लें। आप इश्क़ के आदाब से वाकिफ नहीं हैं। प्रेम तो सीखने का नाम है। ज़िंदगी भर आप स्टूडेंट ही रहते हैं। आप एक आदर्श स्टूडेंट साबित नहीं हुए। प्रेम की रीत यही, जो हारा सो जीत गया। प्रिन्सिपल महोदया ने पिट कर भी प्रेम के उदात्त भाव को एक गरिमा प्रदान की है। आपने पीट कर अपनी मर्दानगी का नहीं बल्कि अपने पुरुषवाद का वीभत्स प्रदर्शन किया है। पुरुष विनाश कर सकता है निर्माण नहीं। आपने एक बार फिर साबित कर दिया है। आप क्षमा भी मांगे तो भी आपके अंदर जो पुरुष बैठा है वो कितना हार गया है। आपको भान भी नहीं। भला प्रेमिका पर कौन हाथ उठाता है?  प्रेम तो मार खाता है, मारता नहीं। प्रेम तो देने का नाम है, समर्पण का नाम है। पिटने का नाम है, पीटने का नहीं। आप प्रेम में अभी बहुत कच्चे हैं या यूं कहिए आप प्रेम की परीक्षा में बुरी तरह फेल हो गए हैं। वैसे मुझे लगता नहीं पुलिस आपको प्रेम की अगली ऐसी किसी परीक्षा के लायक छोड़ेगी। मुझे पुलिस में पूरी आस्था है। मैं चाहूँगा कि पुलिस भी अपने प्रगाड़ प्रेम का कुछ सेंपल आपको दिखाये और प्रमाणित कर दे कि जब अपनी पर आए तो पुलिस से बेहतर प्रेम कोई नहीं कर सकता। आप जहां जिस-जिस अंग-प्रत्यंग पर कहेंगे वे अपने प्रेम चिन्ह छोड़ेंगे। क्या कहते हैं उसे ‘लव बाइट्स’ जिसकी सिकाई आप महीनों तक करने पर भी नहीं मिटा पाएंगे।

 

          बेस्ट ऑफ लक फॉर नैक्सट टाइम।

व्यंग्य: कोचिंग वाले सिलेक्शन नौकरी की गारंटी नहीं दे सकते

 

                           


 

       ऑथिरिटीज़ ने फैसला लिया है कि ये आजकल कोचिंग सेंटर को हुआ क्या है जिसे देखो वो ही सलेक्शन की गारंटी दे रहा है। सभी कह रहे हैं कि हमारे यहाँ से कोचिंग लो पक्की नौकरी पक्की। अब ये कोचिंग सेंटर ही सलेक्शन की गारंटी देने लग जाएँगे तो नेता लोग किसको क्या वादा करेंगे। और तो और एक बार नौकरी लग ही गई तो उनकी सभा में आयेगा कौन?  कौन अपनी नौकरी से छुट्टी लेकर किसी का फिजूल का भाषण सुनने जाता है ? सयाने नेता अपनी सभा दफ्तरों के आसपास लंच के दौरान रखते हैं।

 

     अब कुकुरमुत्ते की तरह कोचिंग सेंटर शहर-शहर खुल गए हैं। कितने ही इलाकों की पहचान तो कोचिंग सेंटर से ही होती है जैसे ओल्ड राजेन्द्र नगर अथवा मुखर्जी नगर। अब तो विषय-विषय की कोचिंग के स्पेशल सेंटर खुल गए हैं। बेचारे उम्मीदवार एक सेंटर से दूसरे सेंटर भागते फिरते हैं। फीस की तो आप पूछो ही नहीं। आपके खेत-मकान बिक जाएँ  इतनी फीस है। दूसरे सेंटर के आसपास पी.जी. में रहने का खर्चा अलग। माँ-बाप से अलग रहने का दुख अलग। कितनी एक्जायटी में जीवन जीते हैं। रात-दिन पढ़ाई करते-करते कितने लोग अर्ध विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं कुछ तो समय रहते अपने घर-गाँव लौट लेते हैं कुछ विक्षिप्त होने के बाद ले जाये जाते हैं।

 

    कोटा शहर की कहानी सबको पता है। कोई महीना  ऐसा जाता है जब कोई न कोई बच्चा आत्महत्या जैसा जघन्य कदम नहीं उठाता है। जब इसका विश्लेषण किया तो यही निकला कि या तो मां-बाप की ज़िद की वजह से या फिर पीयर प्रेशर में वे आ तो जाते हैं फिर कोचिंग सेंटर अपना रिजल्ट बेहतर से बहतर करने की होड़ में बच्चों को जोत देते है और इतना प्रेशर देते हैं कि वे जीवन से हार मान लेते हैं। ये कैसा कैरियर है जिसमें जान की बाज़ी लगा कर सीट ली जाती है।

                                   

                                      तिस पर अब ये नया फरमान कि कोचिंग सेंटर सफलता की गारंटी नहीं दे सकेंगे। तब भला कौन वहाँ झाँकेंगे। उन्हें कितने झूठे-सच्चे वादे करने पड़ते हैं। उम्मीदवारों को कितने सब्ज़बाग दिखाने पड़ते हैं। पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन देने पड़ते हैं। आंकड़े देने पड़ते हैं। सब यही कहते सुने जाते हैं कि हमारे सेंटर के सौ लोग सलेक्ट हो गए या दो सौ लोग सलेक्ट हो गए। पहले बीस में अठारह हमारे सेंटर के हैं आदि आदि। अब सरकार अगर इस बात की मना कर देगी कि आप सलेक्शन की या नौकरी लगाने की गारंटी नहीं दे सकते तो आपके पास फटकेगा कौन। दरअसल सरकार चाहती है कि ये काम नेताओं के लिए छोड़ दिया जाये। नेता लोग ही गारंटी दें। वो नौकरी क्या स्वर्ग ज़मीन पर उतार लाने की गारंटी दे सकते हैं। आप स्वर्गवीर कहला सकते हैं यदि उन्हें वोट दें। पहले डाकिया नियुक्ति पत्र लाता था। लोग खुश हो उन्हें मिठाई खिलाते थे और इनाम-इकराम भी देते थे। फिर दफ़्तरों ने ये काम डायरेक्ट अपने हाथ में ले लिया और किसी न किसी नेता  के ‘कर-कमलों’ से नियुक्ति पत्र दिये जाने लगे। दोनों का ध्यान फोटो खिंचाने पर ज्यादा रहता है नेता का भी और नियुक्ति पत्र पाने वाले का भी। जहां-जहां नेता जी नहीं पहुँच पाते वहाँ उनका कट-आउट पहुंचा दिया जाता है, पत्र देने के पोज में। डाकिया आउट हो गया। चिट्ठी-पत्री वैसे ही कोई किसी को नहीं लिखता। ये नियुक्ति पत्र देने से भी गए। अब वे किस मुंह से होली-दीवाली ईनाम लेने जाएँ। सारे जजमान एक झटके में ही झटका कर दिये।

 

          नेता लोग ज्यादा खुश न हों। कोचिंग सेंटर ने कुछ न कुछ नया निकाल लेना है आप इसे 'इम्पॉसिबल' कर देंगे तो उन्होने इसे 'आई एम पॉसिबल' कर लेना है। इसके बजाय आप सीट बढ़ाएँ,  नौकरी में सीटें बढ़ाएँ, तब कोचिंग की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी और हाँ पेपर लीक-पेपर लीक  गेम नहीं खेलना है प्लीज़।

Sunday, November 17, 2024

व्यंग्य: पशुओं की नकली दवाएं

 

                                            




                  पुलिस ने अपनी मुस्तैदी से एक नहीं बल्कि दो ऐसी फेक्टरी पकड़ीं हैं जहां पशुओं की नकली दवाएं बन रही थीं। दरअसल ये नकली वाले भी सतत अपनी आर एंड डी चलाते रहते हैं, अभी नया क्या नकली बनाना है। अब किस सेक्टर में उतरना है। इसी श्रंखला में उन्हें लगा कि पशुओं के लिए  नकली दवाएं बनाई जाएँ। आजकल अपने बच्चे घर छोड़ कर इधर-उधर पढ़ाई को या नौकरी को जाने लगे हैं। पेरेंट्स को जो पेरेंटिंग की आदत पड़ी हुई है उसको बरकरार रखने को और उनका मन बहलाने को घर - घर पैट रखने का रिवाज चल गया है। अतः नकली दवा बनाने वालों को इसमें बहुत संभावनाएं नज़र आयीं। एक बहुत बड़ा मार्किट उनका इंतज़ार कर रहा है। 


                           एक तो ये नव ‘पापा’ लोग अपने इस प्यारे क्यूट बच्चे के लिए कितनी भी महंगी दवा खरीदने को तैयार रहते हैं। कुछ भी हुआ तो भागे - भागे वैट के पास पहुँच जाते हैं। “डॉ साब देखो ना ! इसने कल से खाना नहीं खाया है”। “ये बहुत सैड-सैड फील कर रहा है”, “ये आजकल डिप्रेसन में चल रहा है”। डॉ अपनी खुशी के लिए क्या चाहे ? एक सैड पापा (या मम्मी) दूसरे एक अदद सैड पैट। वो कुछ और अँग्रेजी के लफ्ज बोलता है। मंहगे-मंहगे ब्लड टैस्ट , एक्स रे, अल्ट्रा साउंड लिखता जाता है और  मूड स्विंग पर अपना ज्ञान देता जाता है।  कुछ ‘फैटी लीवर’ 'वीक हार्ट' जैसी बातें बोल कर आपको गोली देता है और पैट के लिए गोली लिखता है।   


            नकली मेनुफ़ेक्चरर को इसमें असीम संभावना दिखना लाजिमी था। एक तो पैट ने किसी को शिकायत करनी नहीं। अब किसी इंसान को कैसे तो पता चलना है कि दवा नकली है। वह लैब में टेस्ट कराने से रहा। फायदा हो न हो नकली वाले भाई साब को तो फायदा ही फायदा है।  जो लागत है वो बस चमकीले पैकिंग की है। बाकी तो आप कुछ भी दे दो अब क्या पता, उसमें पैडीग्री है, चाक का पाउडर है, कुछ मीठा हो जाये टाइप कोई मीठी चीज़ डाल दो। आप भी खुश, पैट भी खुश। अब हारी-बीमारी का क्या कहना ? मैंने देखा है वो खाना छोड़ जब घास खाना शुरू कर दे तो समझ लो वो अपना इलाज़ खुद कर रहा है। इसके लिए वो सक्षम है। पर ‘पापा’ को तो चिंता लगी है अतः सीन पर वैट और अपने नकली दवा वाले भाई साब आते हैं। यहाँ इंसान की दवा-दारू दोनों में भरपूर मिलावट हो रही है। उसे देखने वाला कोई नहीं आप ठीक हो गए तो भगवान का शुक्र है और भगवान को प्यारे हो गए तो भगवान  की मर्ज़ी। आखिर भगवान की मर्ज़ी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता। सबका मालिक एक। जिस भगवान ने आपको बीमारी या शफ़ा दी है उसी ने तो नकली वाले को फैक्ट्री दी है। इन दिनों भगवान के ऊपर भी बहुत 'वर्कलोड' डाल दिया है हमने। 


                 आप ही बताइये क्या देश में यही दो फैक्ट्री थीं या और भी हो सकती हैं ? आई मीन हर शहर में कमसेकम दो। कितनी सारी हो गईं ! उनका क्या ? उनका देखनहार बोले तो पालनहार कौन ? क्या वे पकड़े जाएंगे ? छूट  के आकर क्या वो असली दवा बनाना शुरू कर देंगे ? या फिर जिस विषय में विशेषज्ञता है उसी में फिर लग जाएँगे ? 


                         वो छापे  मारे जा रहे हैं हम दवा बनाए जा रहे हैं 

                        अपना - अपना फर्ज़ है दोनों अदा किए जा रहे हैं

व्यंग्य: 40 कुंवारियों को गर्भधारण का बधाई संदेश

 

                                                    


       


                    नेता लोग बहुत ‘ओवर-एन्थू’  बोले तो हड़बड़ी और जोश में रहते है। ऐसा ही एक केस सामने आया है जब एक सूबे में अपने सीनियर नेता की नज़रों में आने के लिए एक छुटभैये नेता ने 40 ऐसी लड़कियों के नाम भी सूचीबद्ध कर दिये जिनकी अभी शादी भी नहीं हुई थी। दरअसल सूबे ने कोई योजना चलाई थी की ऐसी युवतियों को बधाई दी जाएगी जिन्होंने गर्भ धारण किया है जैसे आजकल अँग्रेजी में चला है बेबी शाॅवर।  

     मैं सोच रहा था नेता लोग बिलकुल भी नहीं बदले हैं। हमेशा एक दूसरे से आगे निकलने की होड़। हमेशा अपने निकटतम प्रतिद्वंदी से आगे रहने की सतत भागदौड़। ‘आपातकाल’ में भी ऐसे केस आते थे जब नसबंदी करानेवालों की संख्या गाँव की जनसंख्या से भी ज्यादा होती थी। फर्जीवाड़ा तब से चलते- चलते यह ऑन-लाइन हो गया है। हाई-टैक हो गया है। 

   

        इन लड़कियों के फोन नंबर उन्होने कहीं से किसी और स्कीम के अंतर्गत ले लिए और अपने नंबर बढ़ाने के चक्कर में जो आजकल डाटा बेचने का काम चला है इनके नाम इस सूची में भी बिना किसी जांच-पड़ताल के आंगनवाड़ी वालों ने शामिल कर लिए। शामिल कर लिए तो कर लिए वो आगे नेता जी को भी सौप दिये अब नेता जी को तो हर शख्स महज़ एक वोट नज़र आता है, सो उन्होने दन्न से सबको भावी माँ बनने और गर्भ धारण की बधाइयाँ दे डाली। साथ ही उन्हें हिदायत देना नहीं भूले कि वे अपने भोजन का ख्याल रखें पुष्ट भोजन लें ताकि स्तनपान में भावी शिशु को सहूलियत रहे। लड़कियों के घर में हंगामा मच गया। ऐसा कैसे हुआ ? कब हुआ ? अफरा तफरी मच गई। फिर पता चला कि यह किसकी कारस्तानी है बोले तो ये किसका किया धरा है। मुझे लगता है कि डाटा बैंक का सही होना बहुत ज़रूरी है। अब जैसे जाति-जनगणना की बात हो रही है। इसे भी बहुत फूँक-फूँक कर देखना-भरना होगा। पहले ही न जाने कितने सूबों में खूब जाली सर्टिफिकेट पकड़े जाते हैं लोग न केवल नौकरी पा गए बल्कि बिना पकड़ाई में आए रिटायर भी कर गए। हमारे यहाँ नकली पिछड़ा होने पर बहुत ही प्रीमियम है। 


        सोचिए बेचारी लड़कियों पर, उनके घरवालों के ऊपर क्या गुजरी होगी इस प्रकरण से। यकीन जानें जब ये लड़कियां भविष्य में वाकई माँ बनने की राह पर आएंगी तब कोई बधाई संदेशे नहीं आने वाले हैं। क्यों कि तब तक सूबे की सियासत न जाने और किस दिशा में, कितनी आगे निकल चुकी होगी।