मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब पता चला कि
सरकार अरावली की पर्वत श्रंखला को हटा रही है। यह हमारे विकास की पराकाष्ठा है।
अज्ञानी लोग विरोध कर रहे हैं। असल में जिन लोगों को पूरी समझ नहीं हैं वही
प्रतिरोध कर रहे हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि विकास की जल धारा, विकास की नदी कल-कल करती इसी पहाड़ के नीचे से निकलेगी। मसलन, एक बार यह श्रंखला 'लैवल' होते
ही आप सोच नहीं सकते कितने लाभ मिलने लग जाएँगे। एक कर्टेन-रेजर/टीज़र/ ट्रेलर
प्रस्तुत है:
1. वहाँ रेगिस्तान बनते ही अपुन 'दिल्ली डेजर्ट-फेस्टिवल' आयोजित किया करेंगे। सोचो!
कितने पर्यटक देसी-विदेशी आएंगे। विदेशी मुद्रा की झड़ी लग जानी है। रोजगार के इतने
अवसर खुल जाएँगे। क्या ऊंट की सवारी, क्या लोक नृत्य,
क्या लोक गीत, क्या 'बाॅन-
फायर'। वाहन, गाइड, होटल, क्यूरिओ, कैब सबको
रोजगार मिलेगा।
2. रेगिस्तान की तलहटी पर क्या पता कितना
सोना- चांदी, खनिज और तेल के भंडार हमारी प्रतीक्षा कर रहे
हैं। हम मालामाल हो जाएँगे। सोने के भंडार ही भंडार होंगे। भारतीयों के घरों में
सोने के बर्तन हुआ करेंगे। जिधर देखो सोना ही सोना होगा। आपने 'मॅकेनाज गोल्ड' फिल्म देखी थी न? बस कुछ वैसे ही। तेल-पेट्रोल तो इतना निकलेगा, इतना
निकलेगा कि बारह आने लीटर मिला करेगा। उत्पादन इतना होगा कि हम तेल सम्राट बन
जाएँगे। तेल-गुरु यू नो ? निर्यात ही निर्यात।
3. गगनचुंबी इमारतें बनेंगी। सबकी हाउसिंग
समस्या दूर हो जानी है। मिनिमम 4 रूम सेट सबको लगभग-लगभग यूं
ही मिल जाएँगे।
4. पहले हमारा ये इतिहास रहा है कि मांझी
जैसे लोग पर्वत काट-काट कर सड़क बनाते थे। अब उन्हें इस तरह का कोई उपक्रम नहीं
करना पड़ेगा। चारों ओर टोल, और छह लेन के एक्स्प्रेस वे बन
जाएँगे। चारों ओर फ्लाई ओवर और मेट्रो की बहार होगी।
5. दिल्ली वाले अपना प्रदूषण तो भूल ही
जाएँ। एक दम खुली हवा आया करेगी चारों ओर से। टैगोर ने कहा था “मैं नहीं चाहता कि
मेरा घर चारों ओर से दीवालों से घिरा/बंद रहे। मैं चाहता हूं कि सभी भूभाग की
संस्कृति की बयार निर्बाध रुप से चारों ओर से मेरे घर में बहे"
6. मगर क्यों कि टैगोर साब की बात तब मानी
नहीं गयी अतः इस पर्वत श्रंखला को ऐसे ही छोड़ दिया और आज देख लो इसकी वजह से आम
दिल्ली वालों को कितना प्रदूषण, कितनी गरीबी का सामना करना
पड़ रहा है। अंग्रेज़ लोग कलकत्ता से राजधानी इसीलिए दिल्ली लाये थे कि कलकत्ता में
पहाड़ नहीं थे और वो अपने इंग्लैंड के पहाड़ 'मिस' करते थे। अब अंग्रेज़ नहीं रहे तो हम क्यों उनकी नकल करें। हम वो करेंगे
जिससे हमारे देश का, हरेक देशवासी का विकास हो सके। हमारी
मूलभूत आवश्यकता क्या है? जल,जंगल,
ज़मीन बस तो ये तीनों हमें एक ही झटके में मिल जाएँगे। पहाड़ जाते ही
ज़मीन ही ज़मीन होगी। जहां तक जल की बात है सभी नदियां, पर्वत
माला से ही निकलती हैं। कौन जाने अरावली की गोद से भी कोई एक नदी या अनेक नदियां
निकल पड़ें। रही बात जंगल की तो जंगल पेड़-पौधों, झाड़-झाड़ी का हो या कंक्रीट का बात तो एक ही है ना?
जंगल तो जंगल है। जो इसका विरोध कर रहे हैं वो सब वो ही लोग हैं जो
आजकल कुकुरमुत्तों की तह चैनल-चैनल, अर्बन इंडिया में घुस गए
हैं। ये देश की प्रगति नहीं चाहते। सीधे-सीधे बोले तो देशद्रोह का मामला बनता है।