Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Tuesday, January 14, 2025

व्यंग्य: बीवी को घूरने में बरकत है


 

       अब यह बात मैं आपको कैसे समझाऊं कि बीवी को घूरने में ही बरकत है। बस इतना ख्याल रखें कि वह आपकी अपनी बीवी हो। मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता जो कॉर्पोरेट हेड होंचो जी ने कही कि आप अपनी बीवी को कब तक घूरेंगे। सर जी ! पूरी पूरी उम्र गुजर जाती है। लोग पागल नहीं हैं जो यूं ही शादी की सिल्वर जुबिली और गोल्डन एनिवर्सरी मनाते फिरते हैं। वो दरअसल घूरने की ही एनिवर्सरी मना रहे होते हैं। आपने शम्मी कपूर जी का वो गाना नहीं सुना :

 

    बार बार देखो हज़ार बार देखो ये देखने की चीज़ है हमारा दिलरुबा

 

      लव मैरिज में यह कोई मुश्किल काम भी नहीं। हमारे माता-पिता और दादा-दादी के ज़माने में तो बिना देखे ही शादियाँ होतीं थी और ये घूरने घारने का प्रोग्राम शादी के बाद जीवन पर्यंत चलता था। आप एक इतवार की बात करते हैं यहाँ थोड़ी सी देर होने पर पत्नी परेशान हो जाती है। आप कहाँ रह गए थे ? देखो मैंने कितनी अच्छी साड़ी आपकी लिए पहनी है ! प्लीज आओ और मुझे घूरो। घूरने को आप एक तरह से साइकाॅलाॅजी का 'पॉज़िटिव स्ट्रोक' समझो। जब घूरने वाला ही ना हो तो सजने-सँवरने का अर्थ क्या है ? किसके लिए? अतः घूरना हमारी कोई समस्या नहीं है। बल्कि राष्ट्रीय हॉबी है। घूरने से प्यार बढ़ता है। ना घूरने से मन में कई तरह के शक़ पैदा होने शुरु हो जाते हैं ? ये मेरी तरफ क्यूँ नहीं देख रहा है ? हो ना हो कोई और कलमुँही तो नहीं आ गई इसकी ज़िंदगी में ?

 

           हम भारतीय तो घूरने के लिए कितनी दूर-दूर तक का सफर करते हैं कभी गोआ के बीच कभी पटाया बीच। ये आँखें ईश्वर ने घूरने के लिए ही दी हैं। ये फाइलों में कागज काले करने और बेफिज़ूल के टार्गेट के पीछे दीदे फोड़ने को नहीं दी हैं। मनुष्य आदिकाल से घूरता रहा है, कहते हैं जब जंगली जानवर सामने आ जाये तो आप उसकी आँखों में आँखें डाल कर घूरें। वह खुदबखुद चला जाएगा। मनोज कुमार जी से बड़ा कौन भारतीय होगा। उन्होंने तो अपना नाम तक भारत रख लिया। वे अपनी फिल्म में संदेश देते हैं:

 

             तेरी दो टकियां दी नौकरी...

 

          इस नौकरी के पीछे आप हमें हमारे नैसर्गिक घूरने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकते। मेरी सरकार से अपील है घूरने के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल किया जाये। ताकि इस घूरने को लेकर कोई कितना भी बड़ा कॉर्पोरेट हेड हो, लूज़ टाॅक ना कर सके।

 

     हमारे जीवन में और है क्या ? अब अगर हम घूरें भी नहीं तो क्या अपनी आँखें फोड़ लें? हम तो घूरेंगे। यह कोई ग़ैर कानूनी काम नहीं है। मैं पूछता हूँ भगवान ने आंखे दी किस वास्ते हैं ?  आप नहीं घूरना चाहते मत घूरो कोई आपसे घूरने को कह भी नहीं रहा है। असकी बात तो ये है कि अब आपकी उम्र सिवाय घूरने के और किसी काम की रह भी नहीं गई है। अतः आपको अन्य लोग जो घूरने से आगे बढ़ जाते हैं उन्हें लेकर आपके मन में ईर्ष्या का भाव है, आप तो असल में अब बस घूर ही सकते है। चचा ग़ालिब ने एक जगह लिखा है:

      गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है

     रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे

 

 

मृत्यु के वक़्त भी कहते हैं आँखें सबसे लास्ट में घूरना बंद करती हैं:

 

कागा सब तन खाइयो ये दो नैना मत खाइयो जिनमें पिया मिलन की आस

 

 या फिर

 

मरने के बाद भी आँखें खुली रही उन्हें आदत थी इंतज़ार की

 

      शायरों ने इस देखने, घूरने, निहारने पर दीवान के दीवान लिख रखे हैं। कभी इस ऑफिस के जंजाल से फुरसत निकाल कर उन्हें पढ़िये। आपको घूरने के फवायद समझ आ जाने हैं। आप कितने ग़ैर रोमांटिक इंसान होंगे समझ आ रहा है।

 

इन फाइलों और टारगेट्स ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

 

     आप घूरें और खूब घूरें इससे डेफ़िनिटली प्यार बढ़ता है। आप आज से ही इस पर अमल करना शुरू करें और अपने घर में ही इस अमृत काल में अमृत चख कर देखें

Saturday, January 11, 2025

व्यंग्य : ना कोई घुसा है ना कोई घुसा हुआ है

 


     

        बचपन में जब भी मेरे कम मार्क्स आते थे घर में माता-पिता और स्कूल में टीचर दोनों एक सुर में कहते थे इसके दिमाग में तो ना जाने कौन घुसा हुआ है ? ना जाने दिमाग में क्या है ? कहाँ ध्यान रहता है ? घर में माता-पिता थोड़ा 'स्पेसिफिक' डांटते और बताते जाते इसकी खोपड़ी में गोबर भरा हुआ है अथवा भूसा घुसा हुआ है। मैंने तभी से ये वाक्य रट लिया था और पूरे जतन से उनको यक़ीन दिलाने की कोशिश करता ना कोई घुसा है, ना कोई घुसा हुआ है।

 

       टीनएज आते-आते जब कविता-वविता लिखने लगा तो घरवालों को पूरा-पूरा शक पड़ना शुरू हो गया कि हो ना हो वो पड़ोस की लड़की मेरे दिलो दिमाग में घुसी हुई है और जब तलक वो नहीं निकलेगी मेरा कुछ भी नहीं हो सकता। मैं फिर उनको कहता- ना कोई घुसा है ना कोई घुसा हुआ है। पर मेरे माता-पिता भी आजकल के देशवासियों की तरह ही थे उनको इस बात पर कतई विश्वास ना होता। अब इससे ज्यादा मैं क्या कर सकता था।

 

     फिर और बड़े हुए और नौकरी करने लगे तो सब पूछते कितनी सेलेरी मिलती है मैं बताता तो बहुतों को वो बहुत ज्यादा मालूम देती। वो कहते ये ना जाने अपने आप को क्या समझता है इतने ऊंचे-ऊंचे ख्वाब देखता है। इसके अंदर ना जाने किसका भूत घुसा हुआ है। मैं कहता ना कोई घुसा है ना कोई घुसा हुआ है। पर वो मेरी इस बात पर हँस देते। यक़ीन हरगिज़ नहीं करते। अब बताओ मैं ऐसे में क्या कर सकता था ? मेरे को तो ऐसी बातें नकारनी ही थीं।

 

                  पर फिर मेरे आलस में भी ऐसी ही कुछ बातें आने लग पड़ीं जैसे घर वाले कहते लगता है घर में चूहा है, रसोई से आवाजें आ रही थीं। मैं उन्हें यक़ीन दिलाता हो ही नहीं सकता ना कोई घुसा है... अब कोई मेरे से इस तरह की बातें करता मैं ये  रटा रटाया जवाब देने लग गया। एक स्टेज ऐसी आई कि लोगों ने, क्या घर, क्या बाहर मुझसे सवाल ही करना छोड़ दिया। ना ही वो किसी काम की उम्मीद मुझसे करते। मैं अब एक तरह से केयर फ्री हो गया। कोई दफ्तर में कहता आपकी मेज पर फाइलों का ढेर लगा है और ना जाने कितनी ही जरूरी और अरजेंट फाइल तुम्हारी अलमारी में घुसी हुई हैं। बस ये सुनते ही मुझे याद हो आता और मैं शुरू हो जाता ना कोई घुसा है....

 

     पर फिर ये एक सेंटेन्स मुझे कब तक ढाल बनके बचाता। धीरे धीरे मेरी कलई खुलने लगी। मेरे अलमारी में वे सब फाइलें निकल आयीं जो मिल नहीं रही थीं। घर में एक आध नहीं चूहों की पूरी की पूरी कॉलोनी निकल आई और तो और मेरी पुरानी गर्ल फ्रेंड का भी बीवी को पता लग गया। अब मैं यह कह ही नहीं सकता था कि ना कोई घुसा ... मैं एक तरह से, क्या कहते हैं उसे, रंगे हाथों पकड़ा गया था। लोग मेरे मुंह पर तो कुछ नहीं बोलते पर वो समझ गए थे कि मैं जो कहता हूं उसका उल्टा सच होता है। एक मशहूर शायर का शेर है:

 

       मांगा करेंगे दुआ अबसे हिज़्रे यार की

       आखिर तो दुश्मनी है दुआ को अमल के साथ

 

 

व्यंग्य: कब तक बीवी को घूरोगे

 

 

      जब से सुना है एक बड़े आदमी ने ऐसा कहा है। मैं तो तड़के अंधेरे मुंह ही ऑफिस के लिये निकल जाता हूँ। देर रात गए घर लौटता हूँ। जब मैं ऑफिस जाता हूँ तो चुपके से उसी तरह बीवी बच्चों को सोता छोड़ जाता हूँ जैसे कभी गौतम बुद्ध अपनी पत्नी और बेटे राहुल को छोड़ जंगल को निकल गए थे। बड़ी अच्छी- अच्छी त्यागनुमा फीलिंग आती है।  देर रात गए जब लौटता हूँ तब तक सब सो रहे होते हैं। मैं उस भले आदमी की नसीहत का अक्षरश: पालन कर रहा हूँ।

 

                       पर इसमें अड़चन आ रही है इन चार-छ: दिनों में ही मुझे मेरे ऑफिस के चपरासी से लेकर सहकर्मी और बॉस तक घूर-घूर कर देख रहे हैं। कुछ 'कलीग्स' तो पूछने भी लग पड़े हैं "भाभी जी मायके गई हैं क्या ?"  मेरे ना में गर्दन हिलाने पर पूछते हैं "भाभी से कुछ खटपट चल रही है क्या?"

 

         उधर मेरा स्टाफ मुझ से बहुत कंटाल आ गया है। अब मेरे पास खूब टाइम है उनको परेशान करने का। उनकी फाइल तुरंत क्लीयर कर देता हूं। मेरा बॉस मुझ से अलग दुखी: है। बल्कि उसे तो अब शक़ पड़ने लग गया है कहीं मैं बड़े बॉस के नज़दीक आने को तो नहीं ये सब कर रहा। कहीं मेरी प्लानिंग उसका ट्रांसफर करा के उसकी सीट हथियाने की तो नहीं चल रही। अब वो मुझे तंग करने के नए नए उपाय सोचता रहता है।

 

      इधर घर में भी हालात कुछ अच्छे नहीं चल रहे। मेरी बीवी मेरी तलाशी लेती है और कमीज-रुमाल सूँघती है। मैं इतनी जल्दी क्यूँ जाता हूँ ? कहां जाता हूं ? इतनी लेट क्यूँ आता हूँ ? कहीं ऑफिस में कोई कलमुँही चुड़ैल के चक्कर में तो नहीं हूं।, अब उसे कौन समझाये कि इतनी बड़ी कंपनी के इतने बड़े आदमी ने कहा है कि बीवी को घूरने का नहीं। पर यहां तो उल्टा मेरी बीवी ही मुझे घूर घूर कर मेरा काॅन्फ़िडेंस गिरा रही है। इसका उन्होने कोई समाधान नहीं बताया।

 

         मैं बड़ी पसोपश में हूँ ऑफिस में बॉस घूरता है। स्टाफ अलग आग्नेय नेत्रों से मुझे तकता है। घर में बीवी रूठी हुई है। ये इन साहब की सीख मुझे लगता है, कहीं का नहीं छोड़ेगी।

                           

                 न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम

 

       ऑफिस में लोग अब तो मेरा नाजायज फायदा उठाने लगे हैं। कोई काम हो मुझे जोत देते हैं। "सर ! वो जल्दी आता है उसे ये काम दे दें"। थोड़े दिनों में मुझे लगता है कहीं ऑफिस के लोग मुझसे दूध और भाजी ना मंगाने लगें। "सुबह-सुबह मंडी से होते हुए आ जाया करो।"  एक दिन तो मेरी बीवी ऑफिस ही आ धमकी और लगी पर्दों को इधर-उधर करके देखने। यहाँ तक कि उसने मेरी टेबल के नीचे भी झांक कर देखा। ये सब हिन्दी फिल्मों और क्राइम पेट्रोल देखने का नतीजा है। समझ नहीं आता, मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊं ? मुझे लगता है कि बीवी मुझे घूरे उससे कहीं बेहतर है कि मैं बीवी को घूरूँ वह भी खुश, मैं भी खुश। काका हाथरसी जी ने एक जगह लिखा था:

 

यूं तो बुझ चुका है तुम्हारे हुस्न का हुक्का

ये तो हमीं हैं जो फिर भी गुड़गुड़ाये जाते हैं

 

 

       ऑफिस के लोग भी खुश!  अब इतनी सी तनख्वाह में तो यही हो सकता है। जब उन बड़े आदमी के सरीखा  पैकेज मिलेगा तब की तब देखी जाएगी।

                  तब तक हैपी स्टेयरिंग !!

 

(लेखक के आगामी व्यंग्य संग्रह 'स्मार्ट सिटी के वासी' से)

 

Thursday, January 9, 2025

व्यंग्य: माउंट आबू में भरी सड़क पर भालू


                                                                 


       

       सोचो कितनी गुरबत के दौर से गुजर रहा है मेरे भारत महान का क्या फ्लोरा-फौना क्या इंसान। जिसे देखो वो सड़क का रुख कर रहा है। कभी स्टूडेंट, कभी टीचर, कभी वर्कर कभी, किसान। हद तो तब हो गयी जब माउंट आबू में भालू भी सड़क पर आन पहुंचे। यूं देखा जाए तो पता नहीं चल सका ये भालू लोग क्यूँ सड़क पर उतरे उनकी मांग क्या है। मगर मोटा-मोटा अन्दाजा तो लगाया ही जा सकता है। जिस कारण से इंसान सड़क पर उतर रहे हैं उन्ही कुछ कारणों के चलते ये बेचारे भालू भी जंगल छोड़ आबादी में आन घुसे हैं। वे बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सड़क पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं। अतः कृपया उनको इंसान या टीचर समझ लाठी चार्ज ना किया जाये। ना ही उन पर कोई आँसू गैस छोड़ी जाये। उनका ये चार सदस्यीय शिष्ट मण्डल मिलने आया है। उनसे वार्ता की जाये। उनकी समस्याओं को ध्यान से सुना जाये। कई बार उनकी बात सुनने से ही दिल हल्का हो जाता है। कहते हैं आधी समस्या तो सुनने मात्र से ही खत्म हो जाती है। 


     

      हो सकता है उन की मांग हो कि आजकल शहद पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। आदमी जंगल में घुस-घुस कर उनके हिस्से का शहद भी उठा लिए जा रहा है। और तो और नकली शहद बना रहा है। कुछ भी मिला-मिला कर बेच रहा है। उसे दुष्ट 100% शुद्ध भी बता रहा है। कभी गुड मिला देता है। कहीं चीनी, तो कहीं  कैमिकल। अब ऐसे में हम भोले भाले भालू कहाँ जाएँ ? हमसे ना तो मिलावट होती है ना हम मिलावटी खाते हैं। सरकार हमारे लिये भी कुछ करे। 


इससे तो पहले ठीक था कमसेकम मदारी हमें दो टाइम की रोटी तो देता था। खुद उसकी भी रोज़ी-रोटी चलती थी और हमारी भी देखभाल हो जाती है। हँसी-खुशी ज़िन्दगी चल रही थी। तभी ये पशु अधिकार वालों की नज़र लग गई। उन्हें हममें अपने लिये संभावनाएं दिखने लगीं। हम उन एनिमल रक्षा समिति वालों से पूछते हैं तुम ये जो एन.जी. ओ. खोल के हमारे नाम पर मिलने वाली  ग्रांट डकार रहे हो, हमारे लिए  वास्तव में क्या किया है तुमने ? बस ले दे कर लिप सर्विस। ऐसे अब नहीं चलेगा। अब हमें भी सड़क पर उतरना पड़ेगा। पब्लिक का ध्यान अपनी हालत पर लाना होगा। ये हाल केवल हमारा ही नहीं है। हमारे जैसे और बहुत से हमारे भाई बहन हैं जो ऐसी ही हालत से गुजर रहे हैं क्या बंदर, क्या चील, क्या गिद्ध, क्या कुत्ते, क्या नीलगाय, क्या हिरण। यहाँ तक कि शेर चीते भी आदमी के लालच से अछूते नहीं रह गए है। अब हम कहाँ जाएँ ? ना जाने कौन ये उड़ा देता है कि हमारे नाखून, हमारे पंजे दवा के काम आते हैं। बस पड़ गया आदमी हमारे पीछे। आदमी को कौन समझाये भैया हमारे नाखून भी तुम्हारे जैसे ही हैं इनमें कोई मेडिसिनल क्वालिटी नहीं हैं। दूसरे ये ओझा और तंत्र मंत्र वाले लोग भी आदमी को हमारे पीछे छोड़ देते हैं। भालू का ये ले आओ, वो ले आओ। बंदर का ये ले आओ, वो ले आओ। बस आदमी पागल माफिक हमारे पीछे पीछे। बंदर फिर हनुमान के भक्तों के चलते कुछ केले वेले खाते रहते हैं मगर हम भालू जो यूं तो  जामवंत के वंशज हैं हमें देखने वाला कोई नहीं। भैया ऐसे में प्लीज हमारे मदारी हमें वापिस दे दो। हम खुश हैं। वो हमे अपनी फेमिली की तरह रखते रहे हैं। ये ना जाने किसने उड़ा दिया कि हम पर अत्याचार हो रहा है कोई अत्याचार वात्याचार नहीं। बस एन.जी.ओ. को अपने पैसे बनाने हैं। देश विदेश से ग्रांट लेनी होती है तो कहानी डालते हैं।



     सोचो हम खुशहाल होते तो हम सड़क पर क्यूँ उतरते ?आजकल हमारे खाने के वांदे हैं । हमे या तो आप चिड़िया घर में रखो या मदारी के पास। जंगल में अब हमारा गुजारा नहीं है।  वहाँ तो आदमी ने कॉलोनियाँ और प्लाॅट काटने शुरु  कर दिये हैं। प्लॉट पर प्लॉट बेच रहा है। हमारे जंगल के अंग्रेज़ी में रंगीन ब्रोशर बना लिये हैं। ठीक है मगर हमारा क्या ? हमारे घरों के लिए भी तो सोचो ? और हाँ जल्दी सोचो ! नहीं तो अगर हम अपनी पर आ गए तो इन्सानों का जीना दूभर कर देंगे ये बात गांठ बांध लो।

Wednesday, January 8, 2025

व्यंग्य: बाएँ पैर में था फ्रेक्चर दायें का कर दिया ऑपरेशन

 


                                           


 

     आपने 'एलिस इन वंडरलेंड' कहानी पढ़ी सुनी होगी। मेरे भारत महान में हम लोग भी एक तरह से वंडरलेंड में ही रह रहे हैं। यहाँ कुछ भी मुमक़िन है। अब इसी घटना को ले लो डॉ साब ने आव देखा ना ताव दायें पैर का ऑपरेशन कर छोड़ा। बाद में उनको रियलाइज हुआ कि साला फ्रेक्चर तो बाएँ पैर में था जी। अब क्या किया जा सकता है। बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहतीं हैं सेनोरिटा। देखिये पैर पैर एक से। आप यह क्यूँ नहीं सोच रहे हैं कि उसी आदमी के पाँव का ऑपरेशन किया है। आप क्या कर लेते अगर डॉ साब किसी और को पकड़ कर ऑपरेशन कर देते ? इसको आप ऐसे भी ले सकते हैं कि यह आदमी फ्रेक्चर  'प्रोन' है अतः एडवान्स में ही कर छोड़ा है। इस प्रकार से एक पाँव को सिक्युर कर लिया है। अब दूसरे पाँव जिसमें फ्रेक्चर है उसको देखते हैं। रेलवे में जब कोई दुघटना होती है तो पहला काम होता है दूसरी लाइन को सुरक्षित/सिक्युर करना। सो उसी तर्ज़ पर दूसरी टांग को सिक्युर कर लिया गया है। अब इत्मिनान से फ्रेक्चर पर कंसट्रेट किया जा सकता है।

 

      यह कैसे हो जाता है ? मत पूछिए। आप तो ये पूछिये कि जो ठीक हो रहा है वो कैसे हो रहा है।  जिनके सही ऑपरेशन हो रहे हैं वो कैसे हो पा रहे हैं ? ईश्वर अगर कहीं है तो डेफ़िनिटली हिंदुस्तान में है। हमारे मुल्क़ को चला रहा है। उसी की कृपा से पंगु गिरि लांघ रहे हैं।

 

        अब हम उस स्टेज से कहीं आगे आ गए हैं जहां पर डॉ साहिबान तौलिया और कैंची पेट में ही छोड़ देते थे। लोग मज़ाक में कहते थे जब दुबारा ऑपरेशन करना पड़े तो कैंची-तौलिया आदि ढूंढने में वक़्त ना गंवाया जाये। पेट खोलो उसी में सब निकल आयेगा। सब कुछ कितना आसान कर दिया है। हमारे हिंदुस्तान में जब पेशेंट मृत्यु को प्राप्त होता है तो यह उसकी किस्मत बताई जाती है। उसकी मौत इसी तरह से लिखी कही जाती है। उसकी उम्र इतनी ही मानी जाती है। डाॅ. को कोई दोष नहीं देता। इसके चलते हमारे डॉ अब मृत जिस्म को वेंटीलेटर पर कितने ही दिन तक रख कर मीटर बढ़ाते रहते हैं।

 

     डॉ. को हमारे यहा भगवान का दर्जा हासिल है। अब भगवान भी भला कोई गलती करता है ? अगर कुछ उन्नीस बीस हो भी जाये तो प्रभु की ऐसी ही मर्ज़ी थी। इसी में कोई भलाई छुपी होगी। जिन दो 'नोबल' क्षेत्रों का जी भर के व्यवसायीकरण हुआ है उनमें एक मेडिकल है दूसरा शिक्षा है। दोनों अब मार्किट में फुल फुल आ गए हैं। रक्स जारी है आप पैसे लुटाइये रक्कासा पर। अब प्रॉफ़िट कोई डर्टी वर्ड नहीं रह गया है। तुम बीमार हो तो मैं ठीक हूँ। अब तो केस ऐसे ऐसे सुने जा रहे हैं कि एक साल से कम में ही फीस लेकर डॉ. की डिग्री पकड़ा दी जाती है। लोग विदेश जाकर डिग्री ले आते हैं और बेधड़क प्रेक्टिस करते हैं। पीछे उच्चतम न्यालयालय में केस आया है जिसमें बताया गया है कि हिंदुस्तान में आधे वकीलों की डिग्री फर्जी है। जब कोर्ट ने कहा कि इन सब की जांच करो तो सरकारी जवाब था हमारे पास इतनी मशीनरी नहीं है। फिर यह तय पाया गया कि सेम्पल जांच ही कर ली जाये। अब जांच करने वाले भी उसी मशीनरी के पार्ट हैं मेरे मामा जी जिन्होंने रात-रात भर जाग कर लाॅ की है उनकी जांच तीन बार हो चुकी है। कुछ समझे आप ?  जेनुइन केस में ही जांच की जा रही है। कागज पूरा। सब चंगा है।

 

       मुझे लगता है मेरे भारत महान में आज के दौर में रोल मॉडल का बहुत टोटा है। किसे रोल मॉडल बताया जाये ? क्या समाज क्या राजनैतिक परिदृश्य। सभी जगह से रोल मॉडल समाप्त प्राय: हैं। उनकी जगह ले रहे हैं सफल व्यवसायी।  सफल सिल्वर स्क्रीन के नकली हीरो। अमीर होना जीवन का एकमात्र नहीं तो सर्वोच्च प्राथमिकता हो गया है। यदि अमीर होना ही सर्वोच्च प्राथमिकता हो जाती है तो 'बाई हुक और बाई क्रुक' बस एक कदम ही दूर रह जाता है।

 

                यह रेस कहाँ जाकर रुकेगी पता नहीं। तब तक आप चुपचाप अपनी दाएं बाएँ टांग का ऑपरेशन कराइये। ज्यादा शोर मचाएंगे तो जांच बैठा दी जाएगी। हमारे देश में इस बात की जांच होनी चाहिए कि कितनी जाँचें चल रही हैं। जांच जिसकी रपट कभी नहीं आती या जब आती है तब तक लोग भूल चुके होते हैं क्यों कि उस से कहीं अधिक संगीन कुछ और घट जाता है या किया जाता है। यही कलयुग है आप इसके मारक प्रभाव से बच नहीं सकते। जब तक रख सकते हैं अपने और अपने परिवार के दामन को बचाए रखिए यह भी कम उपलब्धि नहीं।

 

बेस्ट ऑफ लक

Tuesday, January 7, 2025

व्यंग्य: प्यारा भैय्या योजना

 


 

         आजकल पार्टियां जितनी भी योजनाओं की घोषणाएँ कर रही हैं सब बहनों या मईय्या से संबन्धित हैं, उनके लिए हैं। बेचारे ग़रीब भईय्या लोग को कोई पूछ ही नहीं रहा है। भाई है तो बहन है। मगर नहीं। जिसे देखो वही कहीं लाड़ली बहना, कहीं प्यारी बहना, कहीं मईय्या सम्मान निधि, कहीं बेटी की पढ़ाई लिखाई तो कहीं उसको साइकिल, कहीं स्कूटी। अब भईय्या लोग कहाँ जाएँ ?

 

         मेरा सभी राजनैतिक पार्टियों से अनुरोध है कि आपको असल में 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' सफल बनाना है और प्यारी बहना को सार्थक करना है तो राजा भाईयों का भी तो कुछ ख्याल करें। नहीं तो प्यारी बहना के सब पैसे लेकर इस लाड़ले भाऊ ने जुआ और शराब में लुटा देना है। क्या आप, क्या आई-वडिल क्या ताई, क्या लाड़ली बहन सब हाथ मलते देखते रह जाएंगे। ऐसा नहीं होना चाहिए। आप को समानता लानी चाहिए। ये क्या ? जो योजना आ रही है वो या तो मईय्या लोग के लिए है या फिर बहना लोग के लिए। अब ये पति, ये भाई लोग कहाँ जाएँ ? क्या वे किसी और देश में जाकर बस जायें। जहां उनके लिए भी कोई योजना चल रही हो।

 

                                  पहले ही इन बहनाओं ने, आई मीन पापा की परियों ने सारे शहर में धमाल मचा रखा है। मनमर्जी कर रही हैं। बोले तो मनमानी कर रही हैं। जिसे देखो उसे फंसा देती है। कभी दहेज के मामले में। कहीं मानसिक उत्पीड़न में। अब वो भी बेचारा किसी का भाई है। भाऊ है। अता काय कराय चा है ?

 

        अब आप ही हम को उनका ग़ुलाम बनाने को तुले हैं तो कोई क्या करे ? मईय्या अलग ताने मारती है "दिन भर घर में बैठा-बैठा रोटी तोड़ता रहता है कोई  काम-धंधा क्यूँ नहीं करता ?" अब उन्हें कौन समझाये देश पर कितना संकट चल रहा है। सेंट्रल विस्टा बन रहा है। भारत पुरानी ग्लोरी को पा रहा है। सनातन स्थापित हो रहा है। पाकिस्तान थर-थर कांप रहा है। मगर वो ये बातें नहीं समझती। वो कहती है मुझे कोई नौकरी करनी चाहिए। मैंने बताया उसको कि नेता जी ने कहा है 'नौकरी लेने वाले नहीं नौकरी देने वाले बनो'। इसी तर्ज़ पर मैं जल्द ही एक अपने 'लाइक माइंडड' फ्रेंड्स का गिरोह बोले तो ग्रुप बना रहा हूँ। अब कुछ छिनैती, कुछ डकैती, कुछ ऑन-लाइन स्कैम, कुछ डिजिटल अरेस्ट किया करेंगे। जो इसमे लगे हैं उनकी लाइफ स्टाइल बदल गई है। अब वो ना बीड़ी पीते हैं न देसी पीते हैं। सिगरेट और अंग्रेजी विस्की पीते हैं। कुछ- कुछ अंग्रेज़ी भी बोलने लग पड़े हैं। मैंने भी ये हैक करने वाला और ओ.टी.पी. वाला बिजनिस ही करना है। जब तक वो नहीं होता तब तक सरकार को कुछ तो अपने लाड़ले भाऊ के वास्ते भी करना चाहिए। सब ओर पापा की परियों, प्यारी बहनाओं के लिए होगा तो भाऊ लोग कहाँ जाएँगे ?

 

                            मेरा सभी पाॅलिटिकल पार्टीज़ से अनुरोध है कि हम भाईयों को न भूलें। हम ही आपके लिए मतदान के समय एक-एक भाई बीस-बीस वोट डालता है। झूठी सच्ची बातें बना-बना कर मतदाताओं को आपकी पार्टी को वोट देने के लिए बूथ तक लाता है। जो नेता जी रटा देते हैं, वही नारे हम लगाते हैं। आपके लिए लाठी खाते हैं, कहीं-कहीं तो जान पर खेल जाते हैं। आप जब कहते हो जौन सी यात्रा पर जाने को कहते हो उस पर जाते हैं। काँवड़ हो, कुम्भ हो। हम हाजिर मिलते हैं, बहना नहीं। अतः हमारे लिए भी कुछ जल्द से जल्द सोचा जाये।

आप ये ना सोचें कि नौकरी मिलने पर हम आपको छोड़ देंगे। कतई नहीं। हम आपके एक काॅल पर हाजिर मिलेंगे। आप हमको पन्ना प्रमुख से ज्यादा प्रमुखता से हर जगह पाएंगे। फौरन से पेश्तर 'प्यारे भाई' योजना की घोषणा करें प्लीज़ और कुछ नहीं तो गुटखे का खर्चा पानी तो निकले। ये हमारे शहर का 'यूथ' नाहक ही अधीर हो रहा है। हम लोग समुचित तौर पर ट्वीट कर रहे हैं और ट्रोल भी कर रहे हैं। आपके वाट्स-अप मैसेज भी हम खूब चारों ओर फैला रहे हैं। अतः अब हमारा टर्न है। हम भी आपकी ही संतान हैं आपकी ही इन प्यारी बहनाओं के नल्ले भाई हैं। आप नाम कुछ भी रखो कुछ भ्रातृवृति हमें मिलनी ही चाहिए। हम आपके 'फुट सोल्जर' हैं। हमारा भी कुछ ख्याल रखा जाये बस यही मन की बात आपसे करनी थी।

                                                        

                        भूल चूक माफ।

Monday, January 6, 2025

व्यंग्य: अब कुत्तों के पीछे भागेंगे टीचर

 


                                                           


 

                 देखिये टीचर, जो है सो, समाज को दिशा देता है। वह कितने सारे काम पढ़ाई के अलावा करता है, कोई हिसाब नहीं है। सोचो जनगणना करानी हो, इलेक्शन कराना हो, बच्चों को टीके लगवाने हों या पोलियो की दवा पिलानी हो। टीचर ही इन सब कामों को सम्पन्न कराते हैं। ये उन कामों से इतर हैं जो स्कूल उनको सौंपता है। स्कूल वाले  पढ़ाई के सिवाय भी दुनियाँ भर के काम इन्हीं टीचर से कराते हैं। लेकिन हद तो तब हो गई जब एक सूबे की सरकार ने अब इन टीचर को कुत्ते भगाने का काम भी दे दिया है। सोचा होगा बच्चू ! बच्चे तो बहुत भगा लिए अब कुत्ते भगाने के काम में लग जाओ।

 

            यूं देखा जाये तो टीचर को तजुर्बा होता है। ऐसा क्या कहा जाये कि सब 'डिस्पर्स' हो जाएँ। इस मामले में वो चाहें तो घंटी भी बजा सकते हैं जैसे कि पूरी छुट्टी हो गयी हो। क्या पता कुत्ते उसे सुन कर दौड़ जाएँ। प्रयोग के तौर पर वो टैडी बेयर की तरह शेर के रूई भरे पुतले लेकर निकलें। शेर की दहाड़ या तो अपने मुंह से खुद निकालें या फिर मोबाइल में रिकॉर्ड कर लें ज्योग्राफिक चैनल से। आप इसे मज़ाक ना समझें मैं तो आपका काम आसान कर रहा हूँ।  हो न हो सरकार ने सोचा होगा ये टीचर लोग शरारती आवारा बच्चों को लाइन पर ले आते हैं ये तो सीधे सादे कुत्ते हैं। भले थोड़े आवारा ही सही मगर अधिक दिक्कत पैदा नहीं करेंगे। टीचर चाहें तो उनमें से ही किसी को मॉनिटर बना सकते हैं। या फिर सब को कान पकड़ कर फुटपाथ पर खड़ा करने की सज़ा दे सकते हैं। अब वो पहले से ही बेचारे कुत्ते हैं सो उन्हें मुर्गा बनने की सज़ा तो दी नहीं जा सकती।

 

          सरकार भी ना जाने क्या सोचती है कि ये टीचर ही एक फालतू क़ौम है हिंदुस्तान में। अब उन्हें कौन समझाये कि सभी टीचर ट्यूशन की दुकान नहीं चलाते। बहुत हैं जो ईमानदारी से स्कूल में पढ़ाते हैं। अब आपका दिया ये काम भी वो पूरी ईमानदारी से करेंगे। मगर ये कोई वन टाइम काम तो है नहीं। नई-नई नस्ल नई- नई पीढ़ी आती रहेंगी। ये क्या परमानेंट काम उनके जिम्मे आ गया है। यदि ऐसा है तो उनको 'डॉग-एलाउंस' मिलना चाहिए। और एक लाठी भी एलाॅट करनी चाहिए। अब इसकी खरीद में कोई लाठी घोटाला मत कर देना। मेरे भारत की उर्वरा भूमि पर पहले ही क्या घोटालों की कमी है। एक घोटाला कुत्ते का नाम भी सही। यूं अभी तक उनके नाम कोई कायदे का घोटाला आया भी नहीं है। सिवाय उनकी नसबंदी के नाम पर मिलने वाली राशि में हेरफेर के। एक बात और है, इसका भी खुलासा अभी हो जाये तो ठीक है, देसी कुत्ते भगाने का काम जहां सरकारी स्कूल के टीचर को मिलेगा वहीं जो विदेशी नस्ल के कुत्ते आई मीन डाॅगीज़ हैं उनको पब्लिक स्कूल /इंग्लिश स्कूल के टीचर ही हटाएँगे। वे उनको इंग्लिश में अच्छे से समझा पाएंगे। "नो डाॅगी !  गुड डाॅगी ! डोंट डू दिस" टाइप। जहां तक देसी कुत्तों की बात है वो तो पिट कर ही भागेंगे। बैड मैनर्स वाले जो होते हैं। बातों से कहाँ मानने वाले हैं।

 

           कुत्ता इंसान का वफादार दोस्त है। वह ज़रूर इंसान की मजबूरी समझेगा और पूरा-पूरा सहयोग करेगा। चाहे तितर-बितर होना हो या फिर घोटाला करना हो।

 

             टीचर-टाॅमी एकता ज़िंदाबाद!