Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Wednesday, June 18, 2025

व्यंग्य: टूटे दिल व आधुनिक लव पर डिग्री/डिप्लोमा कोर्स


  

     कई बार लगता है कि अमुक कोर्स बहुत आवश्यक है इसको इतना टाइम क्यों लग गया लाने में। मैं तो कहूँगा कि वक़्त आ गया है ये सब स्कूल के सिलेबस से चालू कर दिया जाये। किशोर और किशोरियों के ऊपर ही छोड़ देने से समस्या हल नहीं होती बल्कि जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं ना “यू लर्न हार्ड वे” अतः अब जबकि ये साबित हो चुका है कि बच्चों को 'को-एड' में पढ़ाना चाहिए ना की बाॅयज ओनली अथवा गर्ल्स ओनली में। इससे वे कुंठाओं के साथ, मिथक के साथ बड़े होते हैं। तरह-तरह की भ्रांतियों में जीते हैं। 'फाॅर एवर क्युरियस' रहते हैं।

 

   

        क्या फायदा है इन सब बातों का जब आप कभी मोबाइल फोन को कभी इंटर नेट को, कभी सिनेमा को, कभी टी.वी. को, कभी क्राइम पेट्रोल को दोष देने बैठ जाओ। अंधेरे की शिकायत करो इससे बेहतर है कि आप एक मोमबत्ती जलाओ। ये कोर्स मोमबत्ती की तरह ही शुरू किए जा रहे हैं। आपको पता नहीं हैं आजकल के निब्बा-निब्बी किन-किन समस्याओं से गुजर रहे हैं। इनके साथ कितने बवंडर, कितने तूफान चल रहे होते हैं। छाती में उमड़-घुमड़ रहे होते हैं। इन सब की ही परिणिति ही मर्डर, सुपारी, नीले ड्रम, ड्रग्स, शराब और लिव इन, ख़ुदकुशी में हो रही है। इमोशन को मैनेज करना आज की सबसे बड़े समस्या हो गया है।

 

अब ये कोर्स में आपको कुछ बेसिक बातें सिखाई जाएंगी। जिससे आपके कुछ बादल छंट सकें जो कि आपकी निगाहों और दिलो-दिमाग पर छाए होते हैं। हाँ ऐसे कोर्स की डिजाइन करना सिलेबस में क्या रखना है, क्या नहीं और कब कितना ज्ञान देना है ये बहुत दुष्कर काम है। कम से कम निब्बा-निब्बी को ये तो पता हो कि क्या ? क्या ! है। आपने देखा होगा अभी कल ही तो लव मैरिज हुई थी और कुछ ही हफ्तों में एक दूसरे से इतनी नफरत करने लग जाते हैं कि एक दूसरे के साथ विश्वासघात करने और हत्या तक कराने में नहीं हिचक रहे हैं। अतः यह सही समय है कि आप जानें कम से कम थियोरी का ज्ञान तो रहे। अभी सब गड्डमड्ड है। पप्पी लव है, इन्फेचुएशन है। प्रैक्टिकल लाइफ क्या होती है। दाल रोटी कमाना क्या होता है। घर चलाना क्या होता है? शादी क्या होती है? और उससे बड़ी बात, शादी क्या नहीं होती है?

 

 

                        डिप्लोमा कोर्स चलाओ, सर्टिफिकेट कोर्स चलाओ, भले डिग्री कोर्स चलाओ। भारतीय मर्द बहुत पजेसिव होता है। किस सीमा तक पजेसिव होना हैल्दी है और कब ये खतरनाक हो जाता है। मैं तो कहूँगा कुछ शॉर्ट टर्म कोर्स तो कंप्लसरी कर देने चाहिए ताकि सुखी विवाहित जीवन बिता सकें। उन्हें प्यार, मुहब्बत, इश्क़, दिल लगाना, दिल का टूटना ना जाने ऐसे कितने ही टाॅपिक हैं जो अभी तक अंधेरे में हैं और आपको ही कह दिया जाता है कि अपना रास्ता खुद ढूंढो। बुद्ध का एक महान वाक्य है

 

                          अप्पो दीपो भव'

 

        इस प्यार, मुहब्बत, इश्क़ के मामले में वक़्त आ गया है कि दिल दा मामला साफ-साफ सिंपल शब्दों में ठीक-ठीक यूजर फ्रेंडली एनवाइरमेंट में समझाया जा सके। आखिर इस सबका उद्देश्य यही है ना की मनुष्य खुश रहे, सुखी रहे। अब आप पेड़ पर लटकाते रहेंगे या अपने ही बच्चों को जान से मारते रहेंगे, और मार ही रहे हैं, पेड़ पर लटका ही रहे हैं । मगर इससे समस्या हल तो नहीं हुई।

 

 

                  मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की

 

 

निब्बा निब्बी को समझाया जाये “प्रेम गली अति साँकरी जा में दो न समाय”। 'शादी' का पर्यायवाची 'समझौता' है। अब घरवाला-घरवाली जैसे टर्म पुराने पड़ गए हैं। वो अब प्रासंगिक नहीं हैं। वे साथ आने का डिसाइड करते हैं ताकि आपकी खुशी दुगनी हो सके ना कि अपनी  और साथी की ज़िंदगी तबाह करनी है।

 

ऐसे कोर्सों का दिल से स्वागत है।

 

व्यंग्य: वांटड - एक अदद शराबी पति


                              

            पहले लड़के (दूल्हे) के बारे में जब इंक्वारी की जाती थी तो पता लगाया जाता था कि वह ऐमाली तो नहीं। ऐमाल मतलब वे शौक जो इंसान को पशेमान कर दें, मसलन जुआ, शराब, तंबाकू आदि। हिन्दी में इन्हें कुटेव भी कहते हैं। इनमें से पहले दो यदि शादी के बाद भी डवलप हो जाएँ तो उसे बुरा माना जाता था। पत्नियाँ रो-रो के आसमान सिर पर उठा लेतीं थीं। मायके तक गूंज उठती थी और बड़े बूढ़े लोग समझाने आ जाते थे। वक़्त बदला और ऐसा बदला कि वो ग़ज़ल का शेर है ना-

 

 

                 पहले आप, आप से तुम, तुम से तू हो गए

 

 

      धीरे-धीरे ये गहरे पैठ करते गए। घर-घर में ये घुस गए। कोई समारोह हो, शादी-ब्याह हो। कान छेदन से लेकर शिशु के जन्मदिवस तक शराब ऐसे बहने लगी कि जैसे बाढ़ आ गयी हो। अब ना पीने वाले को लोगबाग ऐसे देखते हैं कि 'हैं !ये कौन ग्रह से आया है प्राणी?' आप किसी को शादी का कार्ड दें तो उसकी उत्सुकता ये जानने में ज्यादा रहती है कि कॉकटेल कब है ? कितने बजे है ? कहाँ है ? दिल्ली में जगह जगह आपको 'कार-ओ-बार' मिल जाएगी। शादी के पंडाल में पीछे सामान्यतः इस सब का इंतज़ाम होता है। यदि कॉकटेल नहीं तो शादी में फिर जाने का मज़ा क्या?अक्सर ऐसी शादी में शगुन भेज दिया जाता है। एक को शादी का कार्ड दिया तो लिफाफे में देर तलक और दूर तलक ये देखता रहा कि कॉकटेल की जो अलग से एक टिकट सी होती है वो कहाँ है? कभी नीचे ज़मीन पर देखे, कभी फूँक मार-मार कर लिफाफे में देखे। फिर जब उन्हें बताया गया कि कॉकटेल नहीं रखा है तो उनका चेहरा मुरझा गया। मरी हुई आवाज में बोले ठीक है। हमें पक्का पता था ये नहीं आएंगे। एक बार लड़की की शादी थी अतः कॉकटेल नहीं रखा था, पार्टी ने, किन्तु उनके मेहमान ऐसे लपलपाते भटक रहे थे कि अलग ही पहचान में आ रहे थे। उनमें से एक गेस्ट लड़के वालों के 'कार-ओ-बार' में घुस गया। अब शराबी लोग ने उसको बड़ी तत्परता से सहर्ष गले लगाया और 'लार्ज पेग' ऑफर किया। और फिर तो आपको पता ही है उन्होने कहावत भी ऐसी ही निकाल रखी हैं ‘एक पेग तो दुश्मन के यहाँ पिया जाता है’

 

 

मैंने ऐसे केस देखे हैं जहां पत्नी पीने में पति का शाना-ब-शाना, पैग दर पैग साथ देती हैं। उसके अपने लॉजिक हैं। ये बाहर पीते हैं तो चिंता ही लगी रहती है। अकेले खाना खाओ या फिर उठो, खाना गरम करो। यहाँ घर में नज़र भी रहती है। कितनी पी, कब मना करनी है। एक केस तो ऐसा भी देखा जहां पति महोदय नहीं पीते थे लेकिन उनकी बेगम अच्छा-खासा शौक रखती थीं।

 

 

                      एक केस अब भोपाल का खबर में आया है कि पत्नी ने तलाक के लिए अर्ज़ी दे दी है। क्यों? क्यों की पति ने शराब पीना छोड़ दिया है। मज़े की बात ये है कि उसने साफ-साफ अपने पति को कह दिया है कि वह शराब ना पीने के अपने फैसले को उलट दे अथवा मुझे तलाक दे दे। मुझे शराब ना पीने वाला पति नहीं चलेगा...नहीं चलेगा तो नहीं चलेगा। वह सिर्फ इसी शर्त पर रहेगी यदि शराब भी साथ रहे। 'नो शराब नो शादी'  मैरिज काॅउन्सलर अलग परेशान हैं अब तक उन्हें ऐसे केस डील करने पड़ते थे जहां पति को शराब के नुकसान समझा कर पति को शराब छोड़ने को मनाना होता था। ये अलग केस था, उनका माथा चकरा गया। कई तो समझाते समझाते खुद ही पीने लग पड़े हैं:

 

 

                  मेरे ग़म ने होश उनके भी खो दिये

                वो समझाते समझते खुद रो दिये

Tuesday, June 17, 2025

व्यंग्य: जाकी नौकरी सरकारी-मेरो पति सोई

     

 

         मीरा बाई का एक दोहा है “जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई...”  इस श्रंखला में एक युवती ने जब उसके विवाह की बात चली तो उसने पता लगाया कि भावी पति निखट्टू, नाकारा है। आजकल के टी.वी.सीरियल्स की भाषा में बोले तो 'नल्ला' है। सौ. (सौभाग्याकांक्षी) युवती का चिंतित होना स्वाभाविक था। इस नाकारे के पास न कोई रैगुलर नौकरी है, न आय का कोई रैगुलर स्रोत है। शादी के बाद ये खुद क्या खाएगा ? मुझे क्या खिलाएगा ? और तो और हम रहेंगे कहाँ ? खर्चा पानी कैसे चलेगा ? मेरी खुशियों का क्या होगा ? मेरे सपनों का क्या ? मेरी श्रंगार सामग्री, मेरे मनोरंजन, मेरी शॉपिंग का क्या ? मेरे घूमने सैर-सपाटे का क्या? ये मैं शादी कर रही हूँ या सश्रम आजीवन कारावास (कैद-ए-बामशक्कत) को ले जाई जा रही हूँ। मेरा क्या अपराध है ?

 

 

               निर्णय क्षमता और तुरंत बुद्धि (रैडी विट) में महिलाओं का कोई सानी नहीं। पुरुष इसके सामने कहीं नहीं ठहरता। युवती ने कुछ और विवरण लिया, बोले तो डाटा कलेक्ट किया। तब उसे पता चला कि ये भावी दूल्हा ज़रूर बेरोजगार है, निखट्टू-नाकारा है और निकट भविष्य में इसे रोजगार मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं। और तो और इस में कोई अग्नि ही नहीं बची है यानि कि ये अग्निवीर भी नहीं बन सकता। ना अग्नि है, न ये कहीं से वीर मालूम देता है। उसने तभी के तभी (दैन एंड देयर) अब चाहे माँ रूठे या बाबा.... एक फैसला ले लिया।

       

     उसको जब पता चला कि उसके भावी ससुर साब सरकारी नौकरी में वरिष्ठ पद पर हैं। वे विधुर भी हैं यानि रास्ता साफ है। ये आम रास्ता है। उसकी नज़रों ने भाँप लिया और कामदेव को आदेश दिया कि वो अपने तीर कमान का रुख पुत्र से हट कर पिता की ओर कर ले और निशाना साध कर रिपोर्ट करे। और लो जी लो ! तीर सीधा जाकर निशाने पर लगा। ससुर साब बिलबिला उठे:

 

 

        विधुर जीवन तेरी यही कहानी है...

 

 

इस प्रकरण से एक तो यह बात पक्की हो गई कि शादी ब्याह में सरकारी नौकरी वालों की कल भी इज्ज़त थी, आज भी इज्ज़त है और कल भी रहेगी। सौभाग्याकांक्षी ये बात जानती समझती है कि सरकारी नौकरी का अर्थ है पेंशन, फैमिली पेंशन, सरकारी क्वाटर, टी.ए. डी.ए. मेडिकल सुविधा और भी ना जाने क्या क्या। अब सरकारी नौकरी वाले को पति चुनने में ही समझदारी है। उम्र का क्या है ?

 

 

        ना उम्र की सीमा हो न जन्मों का हो बंधन

 

 

        अब भावी दूल्हे उर्फ लड़के को चाहिए कि कमर कस कर सरकारी नौकरी की तैयारी करे अन्यथा उसकी दुल्हन इसी तरह रास्ते में सरकारी नौकरी वालों द्वारा अगुवा की जाती  रहेंगी। आप देखते रह जाएँगे। अतः जागें, उठें और तब तक न रुकें जब तक नियुक्ति पत्र न मिल जाये।

 

       ये शादी नहीं आसां इक आग का दरिया है

Monday, June 16, 2025

व्यंग्य: जज को जज

 

 

            हम सुनते हैं राजा - महाराजाओं के ज़माने में कैसे शहर मुंसिफ़, शहर क़ाज़ी, शहर कोतवाल और अदालत अमीरों के हित में और मज़लूमों के खिलाफ काम करती थी। ये रसूख, ये पैसा, ये नज़र, ये दस्तूरी, ये उपहार, ये भेंट, ये बच्चों के लिए मिठाई इत्यादि आदि काल से चले आ रहे हैं। ‘पहला सुख निरोगी काया...’ वाले दोहे में भी एक सुख ‘राज में हो पासा’ बताया गया है। सुधिजन के लिए ये दोहा इस लेख के अंत में पूरा दिया जा रहा है।

 

           अब आप देखिये कैसे हमें ये यकीन दिलाया जाता है कि हम आपके लिए पूर्णतः निष्पक्ष न्याय व्यवस्था लेकर आए हैं। इन लोगों ने सांसारिक सुखों से मुंह मोड़ लिया है, कोई वास्ता नहीं है। ये सब पहुंचे हुए लोग हैं इनका ‘सेल्फ एक्चुलाइज़ेशन’ हो चुका है। इनके लिए धन धुलि समान हो गया है। अब आप समझ गए होंगे कि एक जज साब के आउट हाउस में यही तो हो रहा था धन को धूलि/राख़ में बदला जा रहा था। समस्त मानवता इनकी अपनी हैं अथवा इनकी नहीं है। अतः ये बेस्ट फैसले सुनाएँगे। आपको यकीन नहीं अथवा आप संतुष्ट नहीं तो आप ऊपर की अदालत में जा सकते हैं। ऐसा करते-करते आदमी वाकई ऊपर चला जाता है। अब पता नहीं उस ऊपर की अदालत का निज़ाम कैसा चलता है। किसी ने कभी विस्तार से बताया नहीं या कहिए कोई बताने को लौटा ही नहीं।

 

         सोचने वाली बात ये है कि लेटेस्ट पता चला है कि एक अर्दली महोदय कोर्ट के भीतर ही अपनी बेल्ट में क्यू. आर. कोड खोंसे विचरण कर रहे थे। अब वो कोई केले, संतरे खरीदने को अथवा जागरण के लिये चन्दा तो इकट्ठा कर नहीं रहे थे। पर यह एक बानगी है, झांकी है। देखो हम कितनी बड़ी डिजिटल क्रांति के चश्मदीद गवाह हैं । क्या चाय की टपरी वाले, क्या चाट-पकोड़े वाले, क्या भिखारी बंधु सब आजकल अपना-अपना क्यू . आर. कोड लिए हैं। इंप्रेस होने की बात ही है। इसी की क्लाइमेक्स है ये अर्दली महोदय का कोर्ट में यूं खुल्लमखुल्ला  क्यू. आर. कोड बेल्ट में खोंसे घूमना।

 

 

     कबिरा घूमें कोर्ट में लिये क्यू आर कोड लटकाय

     जो पहले पे.टी.एम. करे सो विजयी हो आय

 

 

       हम हिन्दुस्तानी शायद टेम्परामेंट से जुगाड़ू लोग होते हैं। कहीं लंबी क्यू देखी जुगाड़ खोजने लग जाते हैं। ड्राइविंग लाइसेन्स हो, स्कूल में दाखिला हो, पासपोर्ट हो, नौकरी हो, नौकरी की परीक्षा हो, पेपर लीक का केस हो या फिर इंटरव्यू का, हमारी पहली प्राथमिकता होती है, जुगाड़ देखो, जुगाड़ ढूंढो। किसी का चाचा, मामा, दोस्त, अंकल, सगे वाला, जात वाला ज़रूर ही विभाग में निकल आएगा। सूत्र मिलते ही क्या विजयी भाव आता है मन में, देखते ही बनता है। 

 

 

     पहला सुख निरोगी काया दूजा सुख घर में हो माया

     तीजा सुख सुत आज्ञाकारी, चौथा सुख वचन में नारी

     पांचवा सुख भाईयों में वासा, छठा सुख राज में पासा

 

        जुगाड़-मेव जयते!

Friday, June 13, 2025

व्यंग्य: जिम वाली बहू

 

            जब हम अपने बेटे के लिये लड़की देखने गए तो हमें बताया गया कि उनकी "बेटी जिम की शौकीन है" हमने सोचा आजकल सब फिजिकल फिटनेस को लेकर सचेत हैं, हमारी होने वाली बहू भी अगर फिटनेस के प्रति रुचि रखती है, ये तो अच्छी बात है। हमने रिश्ते के लिये हाँ कर दी सोचा इस बहाने हमारे साहबजादे के पिज़ा/मोमोज और लेट नाइट्स पर कुछ लगाम लगेगी। दिन बीतते क्या टाइम लगता है। शादी हो गई। 


एक तो होता है जिम का शौकीन होना। दूसरा होता है बिला नागा दिन में दो बार जिम जाना, तीसरा होता है जिम में ट्रेनर होना चौथा और फाइनल सोपान  होता है जिम घर में ले आना। बस तो हमारी बहू  ये सभी थी, बोले तो 'फोर-इन-वन'। वह अपने साथ डम्बल, ट्रैड मिल, बैंच प्रैस, अज़ब-गजब गेजेट्स लाई। अपने कमरे को उसने जिम बना लिया। कहीं से कुछ लटक रहा था, कहीं से कुछ और। तरह तरह के वज़न वाली गोल-गोल डिस्क थीं। कहीं साइकिल, कहीं पैडल वाली मशीन,कहीं लाल-नीली बड़ी बड़ी बाॅल, तो कहीं मैट। वो जब उसका मूड करता तब जिम में बिज़ी हो जाती। कभी स्क्वैट, कभी अपर बॉडी, कभी लोअर कभी कार्डियो। वो ऐसे ऐसे नाम लेती जो हमने कभी सुने ही नहीं थे। 


         उसने आते ही मेरी और पत्नी की क्लास ली। "आप लोग तो अपनी फिटनेस का बिल्कुल ख्याल नहीं रखते। ऐसे कैसे चलेगा ? आप का बी.एम.आर.  डांवाडोल है। आपको पता भी है ऑस्ट्रोपोरसिस हो जाएगा। आपने लास्ट टेस्ट कब कराया था ? आप कैल्शियम सप्लीमेंट लेते हैं या नहीं ? 


                     हम दोनों के लिए अगले सप्ताह ही ट्रैक सूट आ गए। महंगे वाले वाकिंग शूज आ गए। प्रोटीन सप्लीमेंट के डिब्बे के डिब्बे आ गए। हमारा एक एक्सरसाइज़ का टाइम-टेबल बहू ने बना दिया। सुबह-सुबह मुझ से तो उठा भी नहीं जाता। मगर वह पहले दिन ही इतने जोर से चिल्लाई कि मुझे लगा कोई आग-वाग लग गई है या घर में चोर घुस आया है। हम दोनों सकपका कर भागते-लुढ़कते नज़र आए। अगले दिन से ये हो गया कि मैं तो ट्रैक सूट पहन कर ही सोने लगा। इधर बेटे-बहू के कमरे से सुबह-सुबह खट-पट की आवाज आती इधर हम दोनों बदहवास से घर से निकल भागते। फिर भले कोई सी दिशा हो। कई बार तो हड़बड़ी में ऐसा हुआ कि पत्नी जी एक दिशा में तो मैं एकदम अपोजिट दिशा में चला जाता। स्पोर्ट्स शूज को पहन कर तो नहीं सो सकते थे मगर टाइम बचाने के लिए एकदम 'रेडी टू वियर' कंडीशन में रखते थे। बैड के नीचे, फीते खोल कर ताकि सुबह फीते खोलने-बंद करने में टाइम खोटी न हो। 


                कुछ-कुछ दिनों में बहू हमारा बी.पी. लेती। हम दोनों को 'स्मार्ट वाच' के नाम पर एक जासूसी रिस्ट वाच पहना दी गई थी। वो देखती आज हम कितने कदम चले। पाँच हज़ार से कम कदम होते तो वो ऐसे आँखें तरेर कर देखती कि हम हकलाने लगते।


                     जैसे तैसे ये एक्सरसाइज़ से तो निपटने के तौर-तरीके हम दोनों ने खोज लिए। पत्नी जी अपनी महिला समिति में चली जातीं, मैं अपने दोस्त-यारों के साथ गप लड़ाता। बहू के सौजन्य से अब तो मुझे ऐसे ऐसे टर्म याद हो गए थे कि मेरे यार-दोस्त मेरे नाॅलिज़ की दाद देने लग पड़े थे। उन्हें क्या पता था कि हमारी घर में क्या हालत है। ये सब हम अपनी खुशी से थोड़े कर रहे हैं। 


                 अब हमारी वेदना का, यातना का दूसरा पहलू शुरू हुआ। उसने हमारा 'डाइट-चार्ट' बना दिया। अब बना दिया तो बना दिया उसे डाइनिंग टेबल के साथ ही दीवाल पर चिपका भी दिया। वो चार्ट पढ़ने से मुझे तो चक्कर ही आने लग गए। आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। जीवन की निस्सारता यकायक समझ आने लग पड़ी। अब ये भी कोई ज़िंदगी है कि आप सलाद खाएँगे, फीका दलिया खाएँगे और स्प्राउट खाएँगे। लंच में सूप पीएंगे। आधी रोटी खाएँगे मिक्स्ड ग्रेन की, सलाद, टमाटर खाएँगे। एक कटोरी दाल पीएंगे। डिनर में तो और भी बुरी हालत थी। शायद तिहाड़ के क़ैदियों को बेहतर खाना मिलता होगा। कभी टिंडे, कभी लौकी, वही सूखी रोटी, बोले तो नो घी और मक्खन। चाय फीकी। नो अंडा। नो मिठाई, नमक कम। नो मैदा। नो पकौड़े।  वो कभी कहती "नो कार्ब्स फॉर यू" कभी कहती "नो फैट फॉर यू"। मैं सूखी रोटी खा-खा कर सूखता जा रहा था और वो कहती "वंडरफुल ! आपका वेट कोन्स्टेंट है"। वज़न तोलने की दो मशीन वो ले आई थी। एक अपने कमरे में और एक हमारे कमरे में रखवा दी गई थी। वो मशीन मुझे लगता जैसे मुझे मुंह चिढ़ा रही है। सिर्फ चाय ही नहीं मेरी ज़िंदगी ही फीकी-फीकी हो गई है।


 

Wednesday, June 11, 2025

व्यंग्य : कैसी हो डार्लिंग -- कोर्ट के आदेश


 

 

       हमारे कोर्ट भी हमारे मनोरंजन में कोई कमी नहीं रखते। अतः ना केवल कार्यपालिका और विधानपालिका बल्कि न्यायपालिका भी हमें हँसाने का कोई अवसर नहीं छोड़ती। उन्हें भी पता है इस इंसान के साथ ना जाने क्या क्या चल रहा है। ये कितने भँवर जाम में है। खबर है कि एक दंपति जब अपने घरेलू झगड़े को लेकर अदालत पहुंचे तो पत्नी का कहना था कि यह अपने में ही मस्त रहता है। अपने में ही खोया रहता है। इसे मेरे कोई परवाह ही नहीं है। मुझसे बोलता नहीं है और जब बोलता है तो सिवाय दारु पी कर झगड़ने के और कुछ नहीं। वे एक दूसरे से इतने आजिज़ आ चुके थे कि तलाक चाहते थे। फुल फुल घरेलू हिंसा का मामला था।

 

     अब जितनी चट-पट शादी होती है उसी स्पीड से तलाक सुलभ हो गया है। नहीं तो दोनों पार्टनर किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर दिखाई देते हैं। जब तक निभ रही है वैल एंड गुड नहीं तो कहीं नीला ड्रम-सीमेंट है तो कहीं शिलांग की खाई। जज महोदय ने युक्ति से और समझदारी से काम लेते हुए सिर्फ यह आदेश दिया है कि पति रोजाना ऑफिस से आने के बाद पत्नी से ये तीन शब्द बिला नागा बोलेगा, ज़ोर से बोलेगा, “कैसी हो डार्लिंग ?” अपना ऑफिस का बैग, टिफिन बॉक्स आदि बाद में रखेगा। जूते बाद में उतारेगा। पहले यह मंत्र बोलेगा। कपड़े बाद में चेंज करेगा। पहले यह बोलेगा। सभी को उम्मीद है कि कुछ पता नहीं यह बोलते बोलते ही इनकी शादी सफल हो जाये। वो किसी डाकू की कहानी है न कि वो कैसे लगातार मरा मरा बोलते बोलते राम राम का जाप करने लगा और मुक्ति पा गया। अतः पति जब रोज़ रोज़ शाम को कैसी हो डार्लिंग ? कैसी हो डार्लिंग ? मंत्र का जाप करेगा तो एक न एक दिन सब ठीक हो जाएगा।

 

          अब कैसी हो डार्लिंग बोलने के भी अंदाज़ हुआ करते हैं। ये नहीं कि आप लाल लाल आँखें दिखाते हुए, क्रोध में नथुने फुला कर लगभग चीखते हुए कहें जैसे कि कोई गाली दे रहे हों। ना ही बस मुंह में बुदबुदाना भर है ! भैया कोर्ट के आदेश हैं । एकदम लाउड एंड क्लियर बोलना है जीभ में समुचित मिठास के साथ बोलना है। सबको सुनाई दे ऐसे बोलना है। आखिर बीवी का भी तो एक सर्कल है, वो अपनी सहेलियों के साथ बैठी है या फर्ज़ करो किट्टी पार्टी में है, तो भी बोलना है। सबको सुनाते हुए बोलना है। कहीं ऐसा ना हो कल को यही लेडिस गवाही दे दें कि ये 'कैसी हो डार्लिंग' बोलता हीच नहीं है।

 

       कहीं अगली पेशी पर 'मी लॉर्ड'  कुछ और लॉन्ग सेंटेन्स ( लंबा वाक्य ) ना दे दें। अतः कैसी हो डार्लिंग ? कैसी हो डार्लिंग ? का जाप करते रहें। ये आपका एक तरह का बीज मंत्र है।

 

            आपका पर्सनल 'जय माता दी' मंत्र।                      

व्यंग्य : अमृत काल है भइये !


 

    

     क्या आबादी बढ़ जाती है तो यह प्रकृति कराती है या कि यह 'मैन-मेड' हादसे हैं  जिनमें बेहिसाब जान जातीं हैं और कोई श्रेय लेने को तैयार नहीं  होता है।  ना कोई जांच, ना कोई पोस्ट-माॅर्टम, ना कोई भविष्य के लिए एहतियात। आप नज़र दौड़ाइए तो आप देखेंगे बेचारे लोग इस अमृत काल में कहीं भी, कैसे भी मर रहे हैं। शायद साइत ही ऐसा निकला हुआ है कि जो भी इस अमृत काल में मरेगा वह डाइरेक्ट स्वर्ग में जाएगा। एक दम टोल फ्री। समझो !  उसके माथे पर 'फास्ट टैग' लग गया है।

 

    लोग 'लोकल' से गिरकर मर रहे हैं। लोग झूले से, पुल से, यहाँ तक कि घर में बैठे-बैठे या फिर शादी में नाचते-नाचते अथवा जिम में कसरत करते- करते स्वर्गारोहण कर रहे हैं। यह सुविधा, विशेषत: अपने नागरिकों के लिए अमृत काल में लाई गई है। एक बार यह अमृत काल खत्म समझो ये ऑफर भी खत्म। मरते रहिए फिर एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर। यह फास्ट फॉरवर्ड की सुविधा अमृत काल के रहते-रहते ही सुलभ है।  आप क्या समझते हैं फिर मरना इतना आसान रह जाएगा? हरगिज़ नहीं। अभी तो आप कोरोना से अगर बच भी गए हो तो वान्दा नहीं। अपुन इंतज़ाम किएले हैं। कोई न कोई रोग अपुन तुम्हारे वास्ते लेकर आएंगे ही। आप पानी से भी मर सकते हैं। आप आग से भी मर सकते हैं। आप डूब के भी मर सकते हैं। वो शाहरुख खान की किस फिल्म का संवाद है- जब आप किसी चीज़ को इतनी शिद्दत से चाहो तो सारी कायनात आपको उसे मिलाने में लग जाएगी। बस आप समझ गए !

 

         पता नहीं यह कौन सा कॉम्बो है या बोलो तो कॉर्पोरेट प्लान है कि पूरी की पूरी नाव पलट जाती है। लेंड स्लाइड हो जाता है। और तो और आप नहाने गए ये सोच कर कि चलो कुछ पुण्य कमा लिया जाये।  स्वर्ग में इंडियंस के लिए वेकेन्सी चल रही है। फौरन सब काम छोड़ कर बस आ जाओ। वो गाना है ना "तुम सब को छोड़ कर आ जाओ"... ट्रेन दुर्घटनाएँ हों या फिर सड़क हादसे या फिर आप कश्मीर घूमने गए ये सोच कर कि आप पृथ्वी के स्वर्ग में घूम रहे हैं। यकायक देखा आप तो वाकई स्वर्ग में टहल रहे हैं। यह सुविधा है अमृत काल में। 70 साल में पहली बार ये स्पेशल सुविधा भारतीयों के लिए विशेष पैकेज के अंतर्गत चलाई गई है। अब ये पुल इस पार से उस पार जाने भर के लिए नहीं है बल्कि बच्चन जी सीनियर के अनुसार:

 

 

         इस पार प्रिये तुम हो, मधु है

         उस पार न जाने क्या होगा

         इस पार मेरे जीने का आधार

         प्रिये तुम हो मधु है

         उस पार न जाने क्या होगा

 

 

 अतः आज के पुल इस पार से उस पार नहीं बल्कि इस भवसागर को ही  पार करा देते हैं। वे इस लोक से परलोक जाने के पुल साबित हो रहे हैं। उसी तरह रेलवे स्टेशन पर रेल ही नहीं बल्कि प्लेटफॉर्म भी भगदड़ के चलते आपको बैकुंठ ले जाने को तत्पर दिखते हैं। जरा सी भगदड़, माइक से जरा सा गलत-सलत  एनाउंसमेंट, और लो जी असंभव, संभव बन जाता है।

 

 

          होनी को अनहोनी कर दे

         अनहोनी को होनी

         एक जगह जब जमा हों तीनों

         झूठ ! गोदी मीडिया! जुमले!

 

 

   कई बार लगता है कि माॅल्थस और डार्विन से सुपारी लेकर हम जनसंख्या को हर हाल में कम करने हेतु कटिबद्ध हैं। अतः आपका मरना इतना सुलभ कभी न था। किस लिए महज़ इस लिए कि आप जल्द से जल्द बैकुंठ के, स्वर्ग के जन्नत के नागरिक बन सकें। जीवन के आवागमन चक्र से मुक्ति इतनी आसान कहां होती है ? हमने भारत में इसी को आसान कर दिया है। हर आदमी की पहुँच में है बैकुंठ अब, पहली बार 70 साल में आप डिसाइड तो करें, हम हाजिर हैं आपकी सेवा में। बैकुंठ यात्रा को ऐसे समझो कि हमने एक्सप्रेस सर्विस, शुरू कर रखी है। अपने मित्रों और रिश्तेदारों के साथ इस ऑफर का लाभ उठाएँ

 

 

         काल मरे सो आज मर, आज मरे सो अब

         अमृत काल बीत जाएगा फेरि मरेगा कब