Ravi ki duniya

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Monday, June 15, 2020

बदलती ज़िंदगी 2020 दौरान-ए-कोरोना


...........एक दिन का जनता कर्फ़्यू हम सबने देखा, और एक रविवार की तरह उसे सेलीब्रेट भी किया॰ अब ऐसा क्या पता था दूसरा, तीसरा,चौथा फेज भी आना है। लाइफ आजकल एक लंबे रविवार की तरह हो गई है।कभी न खत्म होने वाला सीरियल। कब से घर में लॉक-डाउन में बंद पड़े हैं ? याद ही नहीं। इधर घर के दरवाजे बंद हुए उधर मन के खिड़की दरवाजे खुल गए। खुद से बात करने का समय आ गया। घर के कोनों,घर के सदस्यों, रिश्तेदारों जिन पर ध्यान या तो जाता नहीं था, या कम बहुत कम जाता था, टलता रहता था उन सब पर ध्यान देने, सवाल-जवाब करने की फुरसत ही फुरसत है। ऑफिस नहीं, गप-शप नहीं । कपाल-भाति और अनुलोम-विलोम में ज़िंदगी कट रही है। महिलाओ को कौन सी साड़ी, कौन सा सूट पहनना है कोई टेंशन नहीं। जाना कहाँ है ? क्या मेकअप, क्या लिपस्टिक ?पतिदेव को वैसे भी क्या इंटरेस्ट कौन सा शेड लगाया है, उन्हें तो आपके इस शेड का नाम भी नहीं पता। ज़िंदगी एक पुरानी लूना की तरह 25 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से घिसट रही है। स्लो मोशन में आगे बढ़ रही है।

.............रेल जो शहर की लाइफ-लाइन थी यार्ड में बंद पड़ी हैं। लाइफ-लाइन में से लाइफ गायब है। स्कूल बंद, कॉलेज बंद, बाज़ार बंद, मॉल बंद

‘शॉपिंग गुम, बाई गुम, किटी गुम, ताश गुम

होश गुम, हवास गुम, ज़ाम गुम, गिलास गुम

...........घर में जितनी सामग्री थी सबके तरह-तरह के खाद्य पदार्थ बनाए जा चुके हैं। अब तो बची-खुची सामग्री से डिब्बे खंगाल-खंगाल कर नई-नई डिश के प्रयोग किए जा रहे हैं। सोचता हूँ लॉक डाउन खुलने के बाद कुकरी की एक किताब ही छपवा दूँ । टाइटल होगा ‘लॉक-डाउन डिशेज’। फोटो तो अभी से खींच कर फेसबुक पर भी डाल दिये हैं। मिसेज मल्होत्रा को भी तो पता चले। एक कुकरी शो में टीवी पर क्या आ गई अपने आपको बड़ा मास्टर-शेफ ही समझने लगी है। पेट में कभी-कभी अपच व खट्टी डकारों की शिकायत रहने लगी है, हो भी क्यों न, अब न पित्ज़ा-बर्गर, न दफ्तर न पड़ोसी की लगाई-बुझाई। लगता है पाषाण युग में जी रहे हैं।


...........ज़िंदगी बस तीन चीजों से चल रही है वाट्स अप, फेसबुक और टेलीविज़न

....ज़िंदगी 2020 ....कोरोना से पूर्व


हम लोग 20 वीं सदी में पैदा हुए और 21वीं सदी के एक चौथाई भाग में आ पहुंचे हैं। ज़िंदगी कितनी बदली है और पल-पल बदल रही है। आइये एक नज़र डालते हैं। कल तलक होटलों और रेस्तराओं में व्यक्ति भोजन केवल दो ही सूरत में करता था मजबूरीवश या बतौर विलासिता। आजकल क्या हाल है ? आप से छुपा नहीं है।

2..........हमारे पूर्वज कहते थे इंसान भूखे सो रहे मगर उधार न ले। आज देखिये क्रेडिट कार्ड, ई.एम.आई. की बहार है। उधार देने वाले फोन कर-कर के गुहार लगा रहे हैं और न लें तो धिक्कार लगा रहे हैं। बाजारवाद आपको-हमको हमारे बच्चों को निगल गया है। समाचार पत्र में समाचार कम, बाज़ार ज्यादा है। आप एक दिन विज्ञापन काट दें फिर देखें समाचारपत्र में क्या बच रह जाता है।

3..........पहले ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों को कोई अच्छी दृष्टि से नहीं देखता था। वे फिसड्डी माने जाते थे और छुपते - छुपाते ट्यूशन जाते थे। पास पड़ोस में बताते नहीं थे। माँ-बाप झिझकते थे। आज कोचिंग आवश्यकता है। स्टेटस सिंबल बन गया है।

4........हमारे माता-पिता के समय और हमारे समय पैसे की बहुत वैल्यू थी। गुल्लक में पैसे रखे जाते थे। आज पैसे की न वेल्यू है न दर्द। एक पिता ने जब रोज रोज पैसे की मांग से तंग आ कर अपने बच्चे को डांटते हुए पूछा “तुम्हें पता भी है पैसे कहाँ से आते हैं ?” पुत्र का मासूम सा जवाब था “हाँ पता है ! ए.टी.एम. से”

5........पहले गर्व से कहा जाता था ये मेरे दादा जी के जमाने की घड़ी है आज इस बात का दिखावा किया जाता है कि ये ‘नैक्स्ट जनरेशन’ की ‘लिमिटेड एडीशन’ घड़ी है। क्या वस्तुएँ, क्या रिश्ते, ‘यूज एंड थ्रो’ एक जीवन दर्शन बन गया है। आप भी वक़्त के बहाव का मुज़रा लीजिये। ज़माने का रोना हमारे बाप-दादे भी किया करते थे। पर वक़्त कहाँ रुकता है।


..........मर्जी आपकी कारवां के साथ चलें या पीछे छूट जायें।