Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Tuesday, March 30, 2010

WITH YOU FOR YOU ALWAYS ...

Behold the beautiful green fields..

Spread green to the horizon ..

Whereever our vision go...

The hues of colours deck the sky

Grey blue orange skies...

Softly whispering the gentle breeze flows....

As it wraps the softness of the air ...

We seem to flow along......

But yet we resist the blow of the wind...

The silence breaks with the chirping of the birds ..

As they fly back to their nest..

they seem to say ..

"Are u not in a hurry today.. ?"



For a change..a pause in life...

Air is still.. and I laugh

I laugh aloud to say i am not...

For I am with you....











एहसास

41.
मेरी पलकों पे तेरे ख्वाब रख गया कोई
मेरी साँसों पे तेरा नाम लिख गया कोई
चलो ये वादा रहा तुम्हें भूल जायेंगे
इस कायनात में गर तुम सा दिख गया कोई.
42.


तुम्हें तो मेरे बिना जीने की आदत पड़ जाएगी
देखें मेरी बेखुदी मुझे कहाँ ले जाएगी
मौसम आयें जाएँ,बदला करें, किसे परवाह
क्या बहार मुझे देगी ? खिंजा मेरा क्या ले जाएगी ?


43.
तरक्की के आसमां पर चमको तुम चाँद बन कर
शोहरत के बाग़ में महको गुलाब बन कर
तुम बिछुड़ पाओ हमारे दिल से ये तो मुमकिन ही नहीं
हमेशा साथ रहोगे ख्वाब बन कर
44.
दूर क्षितिज पर जब दिन ढले
साँसों के स्पर्श से जब तन जले
आओ समाज की सीमा से आगे बढ़ चलें
और उस नीम के वृक्ष तले हम-तुम गले मिलें
45.
मेरी खुशियों के दिन की रात हो गयी
ज़माना लाख कहे मुहब्बत में ऐसा ही होता है
कौन सी नयी बात हो गयी
पर तेरा ग़म भी प्रिये मेरे लिए बड़ी बात हो गयी.
46.
यादों का दूसरा नाम तड़पन है
तेरे आने का दूसरा नाम तेज धड़कन है
अधिकार की बात मत करो प्रेम में
प्रेम का दूसरा नाम समर्पण है
47.
कैसा खौफ़े अलमबरदारी
किससे ये शरमसारी
मैंने कब तुम्हें इस
दुनियाँ का बता रखा है .
न ये झिलमिल सितारों की चमक
न नूर खुदा का जलवागर
मैंने तो बस तेरे ख़्वाबों को
अपनी पलकों पे सजा रखा है.
48.
तेरा इखलाक बुलंद रखने को हमने
क्या क्या स्वांग रचाए हैं
कभी दिल, कभी इज्ज़त
कभी जान हथेली पे लाये हैं
वो और होंगे जो गुंचों की तलाश में
भटकते रहे गुलशन-गुलशन
हम तो बस अपने दामन में तेरी रहगुज़र के
तमाम काँटे समेट लाये हैं.
49.


तितलियों की बस्ती में
फूल ने खुदकुशी कर ली
रोज़ मचाता था वो 'जागते रहो' का शोर
आज सुबह उसी ने रहजनी कर ली
यारब अब क्या होगा इन मुसाफिरों का
सुना है मांझी ने
तूफाँ के यहाँ नौकरी कर ली .
50


गुमगशता रातों में चाँदनी के फूल चुनते हुए
मैंने देखा है तुम्हें सपनों के गजरे बुनते हुए
तुम नहीं गा रहे थे कैसे यकीन करूँ
मैं सोया हूँ हर रात तुम्हारे नगमे सुनते हुए

(काव्य संग्रह 'एहसास' से )



Sunday, March 28, 2010

हम दोनों की ही
कुबूल हो गयी दुआ
तेरे दिल को कभी दर्द न मिला
और मेरे दर्द को दवा

32.

हम जागते हुए भी
तमाम उम्र सोते से रहे
तुम्हें ख्वाब में मिलने का
वादा करना न था

33.

भीड़ में एक आदमी
आज फिर पहचाना सा लगा
बातें करता था अमनो ईमान की
कुछ कुछ दीवाना सा लगा

34.

अपनी जफ़ा का मजबूरी
नाम दिया है बेवफ़ा ने
आ मेरी वफ़ा !
मैं तुझे आज नया नाम दूँ.

35


इक लम्हे को तुम से मिले
क्या से क्या हो गयी मेरी ज़िंदगी
चाहत ने दी चाहत दर चाहत और ज्यादा
अज़ब अनबुझ प्यास हो गयी मेरी ज़िंदगी

36.


मैं क़यामत तक करूँगा तेरा इंतज़ार
सब कहते हैं आदमी की एक उम्र होती है
कितने ही पक्के क्यों न हो
सब कहते हैं रिश्तों की एक उम्र होती है

37.

सुर्खी है आज
हर इक अख़बार में
आदमी का भाव
गिर गया बाज़ार में

38.


झूठे को ही सही
एक बार रुकने को कह देते
दिल में मुहब्बत का
भ्रम रह जाता

39.

 
मेरे जैसे और भी मिल जायेंगे

तमाम घर इस जहान में

ऊँची दीवारें तो हैं

मगर खिड़की नहीं इन मकान में

खिलौना बिकते देख

अजब दर्द है बच्चे की ज़ुबान में

वो जानता है भूखी माँ

बेच रही है इसे नुकसान में.

40.



आँखें बंद कर लोगे तो

दिल में उतर जायेंगे

दोस्त ये लम्हे

बहुत दूर तलक जायेंगे
ऐ खुदा उन्हें लंबी उम्र दे

हर बात में

कहते हैं

तुम्हारे बिना मर जायेंगे.

Thursday, March 25, 2010

मेरा आज का शेर

दोनों हथेलियों में सूरज को थाम
उसकी पेशानी पे लिखना है इक नाम
अपने होठों से उसकी पलकों को पैगाम

जलते रहना मेरा नसीब,रोज़ मरना मेरा काम

एहसास

21.
जिनके ख्याल में हम

दुनियाँ भुलाए बैठे हैं

उनकी बेखयाली को क्या कहें
वो हमी को भुलाए बैठे हैं

22.

होंठ सिल के काटी है अब तक

आगे भी बशर हो जाएगी

आह भी की हमने तो

ज़माने को खबर हो जाएगी

23.
मेरी मईयत पर न डालो फूल
तुम ज़िंदगी भर मुझ पर हँसते रहे

आज फिर फूलों के बहाने

तुम चले आए मेरी मौत पे मुस्कराने

24.

मैंने भी खुद को ख़त्म करने की कसम खायी है

इस खुदी को बेखुदी से बदल लूँगा
तू खुश रह अपने गुले-गुलज़ार में

मेरा क्या ? मैं तो काँटों से भी बहल लूँगा.

25

यादों के साये में जी लेंगे हम, तुम्हारी कसम

हिज़्रे वीरां में काट लेंगे उम्र, तुम्हारी कसम
किस कमबख्त को परवाह है अपने बर्बाद होने की

हर साँस में करेंगे तुम्हें आबाद, तुम्हारी कसम

26.

अपने इशारों पर ज़माना लिए फिरती हो

हर एक सुर में एक तराना लिए फिरती हो

मेरी प्यास से पूछो कीमत अपनी आँखों की

दो आँखों में जहाँ भर का मयखाना लिए फिरती हो

27.

करार मत दे लेकिन मैं दर्द भी नहीं चाहता

दवा मत दे लेकिन मैं मर्ज भी नहीं चाहता

यूँ किसके दिये पर किस की बशर हुई आजतक

तू प्यार मत दे लेकिन मैं नफरत भी नहीं चाहता

28.

साथ तू रहे तो बंजर भी हरियाली है

साथ तू रहे तो अमावस भी ऊषा की लाली है

साथ तू रहे तो मैं मर के भी जी लूँगा

साथ तू रहे तो विषघट भी अमृत की प्याली है
29.
आप छोड़ आए थे हमें हमारे हाल पर
मगर हम खुश रहे अपनी तन्हाइयों में भी
टूटे दिल की आह लेकर किसकी बशर हुई

आप तड़पते रहे मुहब्बत की शहनाइयों में भी

30.

उसकी खामोशी भी बोलती है

तुम एक बार सुन कर देखते

पेश्तर इसके काफिर कहो मुझे

काश उस हसीन बुत को तुम भी इक बार देखते

(काव्य संग्रह 'एहसास' 2003 से )

Saturday, March 20, 2010

एहसास

11.



कभी तुमसे सुलह की

कभी खुद से जिरह की

गरज कि हर शब-ए-ग़म की

हमने रो रो के सुबह की.

12.

तुम यूँ तो उस रात मेरे शहर में न थे

फिर भी गुनगुनी धूप का सुगंधी एहसास था

तुम मना कर गए थे तो क्या

फिर भी आओगे ये मेरा अंधविश्वास था.

13.

अपने सपनों का नायक बना लो मुझे

अपने गीतों का गायक बना लो मुझे

मैं तो बस ये चाहता हूँ

किसी भी तरह अपने लायक बना लो मुझे.

14.

दवा मत दे मुझे,मर्ज कुछ तो रहने दे

करार मत दे मुझे,दर्द कुछ तो रहने दे

इतनी मेहरबान न हो मुझ पर

इंसान और खुदा में फर्क कुछ तो रहने दे

15.

माली ने लूटा है आशियाँ मेरा

मेहरबानों ने लूटा है जहाँ मेरा
हमसफ़र जो थे कल तलक़

आज उन्ही ने लूटा है कारवाँ मेरा

16.

मेरे मर्ज-ए-इश्क़ की दवा हो गयी

हिज्र की रात की आखिर सुबह हो गयी

मैं काफिर हूँ ! काफिर ही सही

मेरी तो महबूब ही मेरी खुदा हो गयी.

17.
तुमसे बिछुड़ने के बाद कुछ यूँ अंधेरों का राज़ रहा.
एक चिराग को तरसती रही शब-ए-ज़िंदगी

लिखे थे बड़ी तवज्जह से चन्द हर्फ़ प्यार के
स्याही कुछ यूँ फिरी,हमी से न पढ़ी गयी इबारत-ए-ज़िंदगी.
18.

तुमसे दिल लगा के,उम्र भर के ग़म खरीदे हैं हमने
रातों की नींद गँवा के,चश्मे नम खरीदे हैं हमने

अब जो हो सब्र करना ही होगा

दिल सी चीज़ के बदले,पत्थर के सनम खरीदे हैं हमने

19.

छेड़ तो दूँ मैं तराना मगर साज़ नहीं है

गीत मैंने भी लिखे हैं मगर आवाज नहीं है

मुहब्बत,मुहब्बत मैं भी कर लेता

मगर वफ़ा का आजकल रिवाज नहीं है

20.

लो उम्र की एक तारीख और
तुम्हारे नाम कर दी

तुम ना आए, इंतज़ार में ही

शब तमाम कर दी.


(काव्य संग्रह 'एहसास' 2003 से )

Friday, March 19, 2010

एहसास

 1.


बाद-ए-सबा ने भेजे हैं सलाम तुझे
रिमझिम फुहारों ने भेजे हैं सलाम तुझे
इक बार नज़र उठा के मेरा भी सलाम ले

ये माना सितारों ने भेजे हैं सलाम तुझे.

2.

आज खुल जाने दो जुल्फों को
आज टूट जाने दो गजरे को

फिर नज़र अफ़साना-ए-दिल न कह पाएगी

आज बिगड़ जाने दो कजरे को

3.

ज़ुल्फ़ के साये देखे हैं हमने

बाहों के दायरे देखे हैं हमने

ओ नाजनीन ! सुनो जरा

तुमसे पहले भी हसीं देखे हैं हमने.
 4.

आज इन गेसूओं में खो जाने दो मुझे.

आज इन आँखों में डूब जाने दो मुझे

फिर तुम न जाने किस जनम में मिले

आज इस चेहरे पर मिट जाने दो मुझे.

5.

तेरे नाम से होती है सुबह अपनी

तेरे नाम से होती है सहर अपनी

अब तो तेरी याद बन गयी है

ज़िंदगी भर की धरोहर अपनी.

6.

मेरी मौत की खबर सुन

यार ने कुछ यूँ मुँह छुपाया

कोई जान न पाया

वो रोया है या मुस्कराया.

7.

मेरी उम्र भर की वफ़ाओं का

दिया है उन्होने ये इनाम

मेरा ज़िक्र सुन के कहते हैं

"कहीं सुना है ये नाम".

8.

बहार पर कर्ज़ है तेरी नज़रों का

रात चुरा रही है रंग तेरे कजरे का
संभाल अपनी जुल्फें
गुलशन उड़ा रहा है नूर तेरे गजरे का.

9.

हर सुबह कोहरा क्यूँ है
हर रात अमावस क्यूँ है

तुम रोशनी का वादा ले उतरे थे ज़िंदगी में
फिर भी यह दिल उदास क्यूँ है.

10.

यूँ तो दिल और भी टूटे थे इस दुनियाँ में

फर्क बस इतना था
उनके शीशा-ए-दिल पत्थर ने तोड़े थे

मेरा पत्थर दिल, शीशे ने तोड़ डाला


(काव्य संग्रह 'एहसास' 2003 से )

सीपी मोती भरी

मेरे मर्ज़-ऐ-इश्क की दवा हो गयी
हिज्र की रात की आखिर सुबह हो गयी 
मैं क़ाफ़िर हूँ ? क़ाफ़िर ही सही !
मेरी तो महबूब ही मेरी ख़ुदा हो गयी 


************
तुझे क्या खबर तुझसे मुलाक़ात के 
क्या क्या आसार खोजा करता हूँ मैं 
मनाता हूँ , तू कुछ भूल जाये 
और आधे रास्ते देने आऊँ मैं 

****************
दूर क्षितिज पर जब दिन ढले 
साँसों के स्पर्श से जब तन जलें 
आओ ! समाज की सीमा से आगे बढ़ चलें 
और उस नीम के वृक्ष तले, हम-तुम गले मिलें 


(काव्य संग्रह 'सीपी मोती भरी' 1992 से )

ओस की बूंदें

भटक रहीं थीं उम्मीदें 
ज़िन्दगी के बियाबाँ में 
दूर दूर तक मंजिल का 
पता न था.
अपना तो था ही नहीं कोई 
पराया भी न था.
एक दिन तुमने वो धड़कन सुनी 
अनौपचारिक रूप से 
तुम अब वो धड़कन बन गये.
मेरी आवारा उमंगों के
घर बन गये .
बेखुदी कुछ यूँ छायी 
मैं- तुम अब, 'हम' बन गये.

***************
एक आँख भर देखा था तुम्हें 
तुम्हारी छवि नयनों में बसा ली है.
एक बार तुम मुस्कराए थे 
उपहास में या प्रशंसा  में 
ठीक से पता भी नहीं .
तुम्हारी वो छवि नयनों में बसा ली है .
तुम्हें खबर नहीं होगी !
मैं निश्चित हूँ 
तुम्हें खबर  नहीं होगी .
क्योंकि और भी बेहतर बातों का 
ख्याल रखना है तुम्हें.
पता है ? मैं रोया नहीं हूँ तब से 
लोग तो विछोह में हँसते नहीं हैं .
तुम्हें याद है तुमने कहा था 
"पानी से भीगना अच्छा नहीं लगता "
बस ये ही मेरी मजबूरी है.
तुम मेरे नयनों में बसती हो 
और मैं रो नहीं सकता.


(काव्य संग्रह 'ओस की बूंदें' 1994 से )





Thursday, March 18, 2010

पंखुरियां गुलाब की

अच्छे बुरे कैसे भी थे 
हमारे थे 
इन रिश्तों को 
आम मत बनाओ.
ये हमसफ़र शायद 
हमराज़ न हो सकें 
इन्हें हमारे इश्क के 
अफ़साने मत सुनाओ.
कहीं ऐसा न हो फिर 
उतर भी न सके, कमजर्फ हैं ये 
इन्हें मुहब्बत की  शराब 
इतनी मत पिलाओ.
जो तुम्हारा हो गया 
ताउम्र किसी और का न हो पायेगा 
ख्याल रहे 
इनके इतने करीब मत आओ.
वक़्त का क्या पता है 
संभल के रखना 
नाज़ुक कदम  गुलशन में 
यारो अभी से मेरी बर्बादी का 
जश्न मत मनाओ.  
(काव्य संग्रह 'पंखुड़ियां गुलाब की' 1994 से )

Wednesday, March 17, 2010

ओस की बूँदें

इस रूखे से जग में
नभ के तल में
मेरे जीवन के मरुस्थल में.
तुम भर लायीं थीं
अपनी अंजुरि में खुशियाँ.
और मैं अपनी
शाश्वत प्यास को
साथ ले मर न सका.
हाँ यह और बात है
ठीक से जी भी तो न सका.
मुझे लगा तुम्हारा ये
अंजुरि भर अमृत कहीं
कम न हो जाए.
ये भी क्यों नहीं मेरी प्यास
की तरह शाश्वत हो जाये.
काश तुम अविरल
झरने सी बहती रहो.
मैं चुप, कुल जग से
बेखबर हो पान करता रहूँ.
जग अज्ञानी गाता रहे
गुण ज्ञान के
मैं तो बस तुम्हारा
गान करता रहूँ .






********






वक्त तुम्हें मुझसे
दूर ले जाएगा
मुझे तुम्हारी नज़रों में
अजनबी बनाएगा.
मगर सच तो यह है
हर गुजरा लम्हा मुझे
तुम्हारे और नज़दीक लाएगा.
मुझे यकीन है
तुम जब भी कभी आओगे
मेरे मरुस्थली जीवन में
वसंत लाओगे.
और यकीन जानो
जब भी याद करोगे
मुझे अपने
इंतज़ार में पाओगे.






****************






गुजर रहा है ज़िंदगी का सफर
इस ख्याल में मेरा.
तुम्हें आज नहीं तो
कल आएगा ख्याल मेरा.
तेरे लब पे होगा
मेरी सुबह का बसेरा.
तेरी ज़ुल्फ़ तले ढँक जाएगा
मेरा हर अंधेरा.
गिनती करा रहा है बार बार
ये जहाँ खामियाँ मेरी.
एक तुम साथ जो होते
ये ही बन जातीं खूबियाँ मेरी.
सच ! मैं जैसा भी हूँ
तुम्हें स्वीकारना होगा.
खुद को बदलने का अर्थ
हारना होगा.










(काव्य संग्रह 'ओस की बूँदें' 1994 से )

Sunday, March 14, 2010

विज्ञापन गोरी के

(हिंदुस्तान में शादी का अर्थ दो जन की शादी नहीं होता, यह दो परिवारों,दो गांवों,की शादी होती है. यह मौका होता है देखने-दिखाने का, रूठने-मनाने का,कर्ज़ लेने देने का. झगड़े-फसाद का,रिश्तेदारी निभाने, बदला लेने का )




कहते हैं जोड़े स्वर्ग से तय होकर आते हैं मगर आजकल अखबारों ने वर-वधू को मिलवाने का काम अपने जिम्मे ले लिया है. अखबारों के सफ़े के सफ़े भरे जाने लगे हैं. साथ ही उन्होने इस बात को भी झुठला दिया है कि सुंदरता देखनेवाले की आँखों में होती है.अख़बार तो कह रहे हैं आओ देखो हमारा हर विज्ञापन सुंदर और प्रेटी वधू ही ऑफर कर रहा है पता नहीं जो लड़कियाँ सुंदर नहीं हैं वे किस अख़बार में विज्ञापन देती हैं. देती भी हैं या नहीं. हो सकता है अब इतने सारे ब्युटि पार्लर के चलते हिन्दुस्तान में कोई असुंदर रह ही न गया हो. आपने कोई विज्ञापन नहीं पढ़ा होगा जिसमें कुरूप लड़के या लड़की का हवाला दिया गया हो. बताया गया हो कि लड़की क्या है पूरी चामुंडा है. सूपर्णखा सी सुंदर है. आओ बेटा आँख बंद करो सिर नबाओ और वरमाला स्वीकार करो.


वैवाहिक विज्ञापनों में एक झूठ धड़ल्ले के साथ बोला जाता है. कोई भी वधू काली नहीं होती सब फेयर होती हैं. जिनकी लड़कियाँ वाकई गोरी-चिट्टी थीं उन्हें इन नकली गोरियों से अपनी स्थिति ख़तरे में जान पड़ी वो फट से अंग्रेजी के विज्ञापन में भी सीधे सीधे गोरी गर्ल लिखने लग गए ताकि आप खातिरजमा रहें कि गोरी, गोरी ही होती है फेयर उसका क्या खा के या कहना चाहिये क्या लगा के मुक़ाबला करेगी.आवश्यकता आविष्कार कि जननी होती है. बाज़ार में तेल,क्रीम,उबटन,मास्क,हर्बल आ गए हैं. सात दिन के अंदर अंदर आपको इतना गोरा कर देने के क्लेम हो गए कि आपकी सखी सहेलियाँ भी आपको पहचान नहीं पायें और पहचान लें तो ईर्ष्या के मारे सिर धुनें 'हाय ये क्या हो गया, कैसे हो गया' ?


लड़का चाहे भौंडा हो या गैंडा हो, सींकिया पहलवान हो या फिर बेरोज़गारी के चलते रोड-इंस्पेक्टरी करता हो,उसके कालेपन को 'कालू राम' नहीं कहते बल्कि पुरुषों ने मिल कर उसे डार्क एंड हेंडसम बना लिया है जैसे जितना ज्यादा काला उतना ही अधिक हेंडसम और ही-मैन होगा.कोई नहीं कहता लड़की डार्क एंड ब्यूटीफूल है. मैं समझता हूँ ये गोरे बनने का बुखार का वाइरस अंग्रेजी दासता के समय से चला आ रहा होगा. वैसे है ये शोध का विषय कि गोरी ही क्यूँ. भारत कि जनसंख्या जिस प्रकार के भू-भाग में बसती है वहाँ तरह तरह के रंग हैं. दरअसल भारत एक रंग-निरपेक्ष देश है. अफ्रीका के रंग भेद की चिंता करने तो हमारे नेता लोग विशेष प्लेन से पूरे यूरोप का चक्कर लगा आते हैं लेकिन अपने देश में जो रंगभेद है उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता. जाये भी क्यूँ ? खुद के फँसने के चान्सेज ज्यादा रहते हैं. इसलिये ऐसे टंटों से दूरी भली.


यह भारतीयों कि ही मनोवृति होगी अन्यथा भला सोचिए कि अफ्रीका वाले गोरी वधू कहाँ से लाएँगे. हमारे सयाने कहते कहते सठिया गए कि चाम नहीं काम प्यारा होता है. ब्युटी तो स्किन डीप होती है. सुंदरता से अधिक महत्वपूर्ण शील-स्वभाव होता है आदि आदि.इस सबके बावजूद शादी लायक होते ही हर लड़का ठान लेता है कि शादी करनी है तो मसाला फिल्म की हीरोइन से या उस से मिलती जुलती से न कि आर्ट फिल्म की नायिका से. वह तो आर्ट फिल्म में ही भली. उस से सहानभूति रखी जा सकती है उसके परिवेश पर अंग्रेजी में सेमिनार आयोजित किए जा सकते हैं. शादी ? और उससे, न बाबा न. उबटन,क्रीम,खीरा,नींबू-संतरे के छिलके आदि न जाने क्या क्या चीजें गोरा बनने की चाह में इस्तेमाल में ली जा रहीं हैं. ये कोसमेटिक सर्जरी वाले पकोड़े सी नाक को क्लिओपेट्रा की नाक बना सकते हैं. आपके गाल में गड्डे डाल सकते हैं (जेब में भी ) आपकी ठोड़ी को काट-छांट कर मोहक बना सकते हैं, आँखों बालों का रंग बादल सकते हैं. मगर आपका रंग अगर काला है तो वे कुछ नहीं कर सकते.


आप भी भला क्या करें. रेगमाल से तो नहीं घिस सकते. ऐसे में आपकी मदद को आते हैं ये विज्ञापन जिसमें आप 'फेयर' लिखकर बात बना सकते हैं. 'डिसेंट मैरिज' का अर्थ अब सब समझने लगे हैं कि मोटी मुर्गी है. सभी वधुएँ स्वीट, लविंग,केयरिंग,प्रेटी और होमली हाती हैं. जैसे मर्द सारे टॉल,हेंडसम के साथ साथ वेल् सेटल्ड और चार अंकों कि आय वाले होते हैं. यह एक हज़ार से लेकर नौ हज़ार नौ सौ निन्यानवे तक कुछ भी हो सकती है.


मेरे एक परिचित से लड़की वालों ने ज़िद की कि आगे की बात बाद में करेंगे पहले बतायें बारात कौन से फाइव स्टार में ठहराना पसंद करेंगे-- अशोका या इंपीरियल ? चार्टर्ड प्लेन करें या स्पेशल ट्रेन से आयेंगे ? खर्चे की फ़िकर न करें सब हमारा होगा, आखिर हमारी इज्ज़त का सवाल है. लड़केवालों को ऐसी बातें सुन सुन कर सन्निपात सा हुआ जाता था. आगा पीछा सोचे बिना मंत्र-मुग्ध हो गए और दौड़े दौड़े गोद भर आए. जब बारात शहर में उतरी तो किसी ने पानी की भी न पूछी और खाना ऐसा था कि बारात सवेरे फ़ूड पोइजनिंग से अस्पताल में दाखिल थी. सबको स्पष्ट तौर पर कट्टे-तमंचों की सहायता से 'समझा' दिया गया था कि चूँ भी की तो सबको दहेज के इल्ज़ाम में अंदर करा देंगे. बाराती अस्पताल से ही छुपते-छुपाते जान बचा कर भागे. किसी ने अपने सामान की रिपोर्ट भी न लिखायी.कहने लगे लड़की वालों को गिफ्ट कर आए हैं.


लड़केवालों के नखरे की बात ही निराली है. विवाह समारोहों में लड़केवाले मील भर दूर से ही पहचाने जाते हैं. उनके हाव-भाव और व्यक्तित्व से लड़केवाले होने का घमंड लगातार टपकता रहता है. हमारे मोहल्ले के एक सज्जन ने बेचारे लडकीवालों को यह कह कर भौंचक्का कर दिया कि 'दुल्हा हाथी पर आएगा इसलिये बारात के साथ साथ हाथी के खाने का इंतज़ाम भी कर रखें. ज्यादा नहीं यही कोई चार मन केले और बीस गट्ठर गन्ने' उनका यह भी कहना था ' मैं तो ऐसी चीजों के सख्त ख़िलाफ़ हूँ मगर लड़के की माँ की ज़िद है पप्पू को हाथी पर बैठा देखने की' आपने गौर किया होगा कि लड़की पर या लडकीवालों पर जितना लड़की लड़के की माँ,बहन,भाभी भारी पड़ती है उतना अन्य कोई पुरुष संबंधी नहीं. निष्कर्ष वही पुराना 'औरत ही औरत की दुश्मन होती है' बहरहाल जब बारात जाने लगी तो हाथी को देख पप्पूजी की घिग्घी बंध गयी. उसने सारी ज़िंदगी तो साइकल की सवारी की थी.पप्पू के पापा फिर भी हाथी को साथ ले गए थे. रौब रहेगा.


बारातियों के ठसके भी लाजवाब होते हैं. गाँव और कस्बों की शादियों में तो बाराती भी दूल्हे से उन्नीस तैयारी नहीं करते. निकटतम काबे के बड़े बाज़ार में अनेक दुकानें तो मात्र बारातियों की ज़रूरत की चीजें ही रखती हैं जैसे रंगीन तेल की छोटी शीशी, खुशबूवाला साबुन (किसी भी कंपनी का) , साबुनदानी, रूमालों का जोड़ा,टोपी,तौलिया,सस्ते से सस्ते इत्र, छोटीवाली क्रीम की शीशी, चटख रंग के मोजे, किसी भी ब्रांड की छोटी टूथपेस्ट और टूथब्रश.


जब से होटल और मैरिज हौल में शादियाँ होने लगी हैं सारा मज़ा ही किरकिरा हो गया है. न पत्तल रही न पांत रही और न ही वो इसरार से खीर-पूड़ी और शर्त बद कर लड्डू खाने-खिलाने वाले रहे. रह गयी है तो बस डायबिटीज़,डाइटिंग और बूफ़े डायनिंग अर्थात कौव्वा भोज.




(व्यंग्य संग्रह 'मिस रिश्वत' 1995 से)

Friday, March 12, 2010

फंडे मैनेजमेंट के



(इन सब के बिना भारत में ऑफिस / नौकरशाही की कल्पना नहीं की जा सकती)

कहावत है कि पहले आई.सी.एस. के बेटे आई.सी.एस. हुआ करते थे. फिर आई.ए.एस. की संतान आई.ए.एस बनने लगी. मगर जब से इस प्रकार के इम्तिहानों में रूरल बायस (ग्रामीण ज़ोर) आया और कम्प्युटर ने आकर लोगों का बंटाधार करना शुरू किया तो चिंता होना स्वाभाविक थी
आई.ए.एस. के बेटे-बेटियों को आई.ए.एस. बनने में जेनुइन परेशानी आने लगी. क्या करें ? अब बड़े-बड़े अफसरों की संतान बाबूगिरी तो करने से रहीं. न रिक्शा टेम्पो ही चला सकते हैं. मेरे विचार से वे छोले- भठुरे भी नहीं बेच सकते थे पर पिछले दिनों इतने सारे फास्ट फ़ूड रेस्तराओ को देख कर मुझे यह धारणा बदलनी पड़ी.फिर भी जिन्हें डिस्ट्रिक्ट चलाना था वो कड़छी चलाते अच्छे लगते हैं क्या? ऐसी परिस्थिति में हैसियत के मुताबिक नए हाई टेक रोजगार खोजे जाने लगे. आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है.अतः इसी आवश्यकता की प्रतिपूर्ति के लिए जगह-जगह स्कूल कॉलेज खोले गए जिसमें मेनेजमेंट से लेकर मेनरिज़्म तक पढ़ाई जाने लगी. मेनेजमेंट भी तरह तरह की. साबुन,तेल,अगरबत्ती,सलवार-कमीज़, पापड़, बड़ी आदि बनाने बेचने का काम भी अब मेनेजमेंट एक्सपर्ट करते हैं. वो टाई लगाते हैं और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं.

कहते हैं ब्रिटिश राज को हमारे यहाँ सफल बनाने में हिन्दुस्तानी सिपाहियों और मुंशियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है. उसी तरह मल्टीनेशनल और फ़ॉरेन बाँकों के प्रचार-प्रसार में इस तरह के मेनेजरों का काफी योगदान रहा है. वहाँ ऐसे एक्सपर्ट की काफी खपत है. वे उन्हे पदनाम भी बहुत भन्नाट देते हैं. जैसे ग्रुप जनरल मैनेजर, वाइस प्रेसीडेंट, चीफ प्रेसीडेंट, कंट्री हेड आदि. सारे जनरल मैनेजर और डाइरेक्टर ताकते रह जाएँ. ऐसे मैनेजर मील भर दूर से ही पहचाने जा सकते हैं. डिजाइनर शर्ट, डिजाइनर जूते-मोजे, टाई और ब्रीफकेस. वे किंग साइज़ सिगरेट,क्षमा करें , फैग (यथा संभव विदेशी) पीते हैं. यस को याह बोलते हैं. इन मेनेजरों का तो शब्दकोश ही निराला है. इनके साथी और नीचे काम करने वाले सभी चैपी, जौनी ,चार्ली होते हैं.

इसी वर्ग के एक मैनेजेर मेरे परिचित थे. कोई फ़ाइल जाए एप्रूवड एज पर रूल (नियमानुसार स्वीकृत) लिख देते थे. उन्हें इस से अधिक मैनेजमेंट आती ही नहीं थी. अब फ़ाइल भेजने वाले सिर धुना करते थे की यह हाँ हुई या ना हुई. कोई पूछने चला जाये तो बस उसकी तो आफत ही आ जाती थी. काटने दौड़ते थे. यू डोंट नो एनिथिंग इतनी फटकार लगाते थे कि कोई दुबारा जाने की हिम्मत ही न करे. एक मैनेजर साहब तो भारतीय संस्कृति और यहाँ के पशु-पक्षियों से  इस कदर मुतास्सर थे कि मातहत मैनेजर के गुणों की तुलना पशु-पक्षियों से करते थे. यथा मैनेजर को गधे से कुछ सीखना चाहिये (धीरज और मेहनत)मैनेजर को कुत्ते जैसा होना चाहिये (सदैव चौकन्ना और स्वामीभक्त). उनके कमरे में जाने से पहले ही हम शर्त लगाया करते थे कि आज किस जानवर की मुसीबत आनेवाली है. उनका सबसे प्रिय उदाहरण बिलौटे का था पुरुषार्थ (यदि दूध मलाई खानी है ) और फास्ट मूविंग. जब उनकी बदली हुई तब कहीं जाकर हमारी और जानवरों की  रिश्तेदारी ख़त्म हुई. उनकी जगह जो बॉस आए वो पहले कभी प्रोफेसर रहे थे. उनके बारे में मशहूर था कि उन्हे हार्ट प्राब्लम है. बस फिर क्या था जब कभी किसी पर बिगड़ना होता तो पूरे ज़ोर से चिल्लाते और धड़ाम से खुद ही गिर पड़ते. बुरी तरह हाथ पाँव फेंकने लगते. मुँह से झाग निकालने लगते. टोबाटेक सिंह की स्टाइल में इतना कुछ हिन्दी अंग्रेजी में बड़बड़ाते कि कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता था (मंटो की एक मशहूर कहानी का पात्र) अगले के जरूर हाथ पाँव फूल जाते और वह सिर पर पैर रख कर भागता. फिर वो स्वतः ही सामान्य होकर ऐसे कार्य करने लगते जैसे कुछ हुआ ही न हो.

एक मैनेजर हमें ऐसे मिले जो कम्प्युटर के कायल थे. उन दिनों हमें चिट्ठी-पत्री,नोट,स्मरण-पत्र सभी कम्प्युटर से आते थे. उनके व्यवहार में कम्प्युटर की नामावली का बहुत उदार प्रयोग होता था यथा हार्ड कॉपी मिलते ही फीडबैक देना. तुम्हारा डाटा बेस क्या है ? आदि आदि.उनके साथ मीटिंग वाले दिन लोग बोर्ड रूम के हिज्जे (स्पेलिंग) बादल कर बोर रूम कर देते. वो सदैव भूतकाल में रहते थे. जब मैं फलां कंपनी में था.. और शुरू हो जाते कि कैसे उन्होने तीर मारे,झंडे गाड़े थे. कई कई बार सुन कर हम सब को उनकी कहानियाँ जुबानी याद हो गयीं थीं.अन्य कंपनी के पात्रों से भी हमारा अच्छा ख़ासा परिचय हो गया था. बदकिस्मती से एक बार उस कंपनी के एक सज्जन से मुलाक़ात हुई तब पता चला कि उस कंपनी के इतिहास में उनसे अधिक लायकमैनेजर आया ही नहीं था व कैसे वे वहाँ से नहीं निकाले जाते तो कंपनी ही डूब जाती. एक कॉन्फ्रेंस में बॉस ने कुछ रकम का टोटल करवाना चाहा तो मैनेजर साहब ने जेबी कैलकुलेटर निकाला और लगे जोड़ने. बॉस के और मैनेजर के टोटल में पाँच सौ का फर्क आ रहा था. बॉस ने लाल लाल आँखें तरेर कर पूछा हाऊ कम तुम्हारा पाँच सौ लैस आ रहा है” ? तो मैनेजर साहब के पसीने छूट गए, घिग्घी बंध गयी और कोई जवाब तो बना नहीं बोले सर मेरे कैलकुलेटर की बैटरी वीक है

आजकल की मैनेजेंट में ट्रेनिंग और सेमिनार आदि का अत्यंत महत्व है. सेमिनार यदि विदेश में हो और कंपनी के खर्चे पर हो तब तो होड़ लग जाती है. सर फुटौव्वल तक कि नौबत आ जाती है. देश में भी इस तरह के सेमिनार पर्यटन कि दृष्टि से अच्छे शहरों में ही आयोजित किए जाते हैं. स्थान तो सदैव फाइव स्टार होटल ही हुआ करते हैं.एक कंपनी में तो मैनेजरों में इसी बात को लेकर काफी रोष था कि अमुक मैनेजरों का सेमिनार तो हिल स्टेशन पर फाइव स्टार में हुआ था, हमारा इसी शहर में और वो भी इस टुच्चे से कॉन्फ्रेंस हाल में क्यों हो रहा है. ऐसे आयोजनों में सेमिनार के विषय से कहीं अधिक भाग लेने वालों के विषय-भोग का ख्याल रखा जाता है.

एक विमान कंपनी में इस ब्रीड के मैनेजरों की बहुतायत थी. वहाँ चालीस विमान प्रतिमाह बनाने का लक्ष्य रखा गया. रिव्यू मीटिंग में देखा की तीन सप्ताह गुजर गए हैं और दस ही विमान बने हैं. कुछ भी कर लें अगले एक सप्ताह में तीस विमान तो बनने से रहे. तब शुरू होती है मैनेजरों की जगलरी (जादूगरी) और सब मिल कर लक्ष्य को ही घटा कर बीस कर लेते ताकि लक्ष्य से कम भी रहे तो ज्यादा कम न लगे. मैंने अनेक बार सुझाव दिया की वे अपने लक्ष्य को क्यों नहीं 15 विमान प्रति वर्ष कर लेते इस से वे लक्ष्य से भी अधिक उत्पादन का श्रेय पा सकते हैं
यह सुझाव तकनीकी कारणों से कभी स्वीकार्य ना हो सका कारण की उनकी कर्मचारी संख्या व प्लांट क्षमता तो सौ विमान प्रति वर्ष उत्पादन की थी.

बात मैनेजरों की हो रही थी. ऐसे मैनेजर मिस्टर नो आल (सर्वज्ञाता) होते हैं होने का दम तो भरते ही हैं. गो गैटर व लाइव वायर होते हैं. थोड़ी उम्र होते ही या चार कंपनी बदलने के बाद मैनेजमेंट के पितामह की तरह बात करते हैं.विदेशी उदाहरणों और सिस्टम पर दिलोजान से निछावर होते हैं. प्रकाश व्यवस्था का उत्पादन पर प्रभावअथवा तरकारी पकाने का फ्लो चार्टदोनों पर समान अधिकार से किताब लिख सकते हैं.उनका बस चले तो घर में झाड़-बुहार का काम भी पर्ट सी.पी.एम. के माध्यम से करें.

अछे मैनेजर, अछे अभिनेता की तरह पैदायशी होता हैं. उसी तरह खराब मैनेजर भी पैदायशी होते हैं. वे कितनी ही मैनेजमेंट की किताबें पढ़ लें, सेमिनार में भाग ले लें या तरक्की पा जाएँ रहते बौड़म ही हैं. इन किसम किसम के मैनेजरों के जो टॉप टेन फंडे जाने हैं आप भी नोट कर लें क्या पता कब आपको भी मैनेजरी संभालनी पड़ जाये.

फंडा नंबर 1.
मातहत हमेशा गलत होता है. यह पुरानी अवधारणा है कि     बॉस हमेशा सही होता है. दोनों के सूक्ष्म अन्तर को पहचानें.
फंडा नंबर 2.
विनम्रता त्यागें. विनम्रता कमजोरी की निशानी है .
फंडा नंबर 3.
एक दो ऐसे तेज अंतरंग सहायक रखें जो आपको सरल भाषा और संदेश में प्रोब्लम/नियम-कायदे समझा सकें.
फंडा नंबर 4.
फ़ाइलें जल्दी न निपटाएं इस से ऐसा लगेगा कि आप बिना पढ़े ही निपटा देते हैं या फिर आप पर और कोई कार्य ही नहीं है
फंडा नंबर 5.
कभी किसी को टेक अप करना ही पड़े तो निचले से निचले कर्मचारी को पकड़ें.
फंडा नंबर 6.
जाँच समिति कि रिपोर्ट क्या होगी यह तय करने के बाद ही जाँच समिति के गठन कि घोषणा करें.
फंडा नंबर 7.
यदि आपको चर्चा पल्ले न पड़ रही हो तो विषय बदलें. यथा बात अगर सहारा रेगिस्तान की हो रही हो तो आप अंटार्कटिका की बात करने लगें.
फंडा नंबर 8.
वर्मा, शर्मा, अस्थाना, कोहली, सिंह, पिल्लई और प्रसाद को आवश्यकतानुसार उठाते-बैठाते रहें. हो सके तो उन्हें आपस में भिड़वाते रहें (बंदर,बिल्ली और रोटी की कहानी याद करें)
फंडा नंबर 9.
समझ ना आए, टालना हो अथवा इशू को किल करना हो तो निम्नलिखित का सहारा लें :
1.     कृपया चर्चा करें
2.     कृपया नियम लिंक करें
3.     कृपया प्रेक्टिस बतायें
4.     कृपया मीटिंग बुलाएँ

फंडा नंबर 10.
जब बात कैसे भी न संभले तो राष्ट्र,राष्ट्रीय चरित्र और मॉरल की बातें करनी चाहिये. ऐसी बातों से सभी की सिट्टी पिट्टी गुम हो जायेगी और सब निरुत्तर हो चुप्पी साध लेंगे.

अपने ये टॉप टेन फंडे क्लियर रखें तो आपको हमेशा तरक्की की लाइन क्लियर मिलती जायेगी 

(व्यंग्य संग्रह मिस रिश्वत1995 से )

Thursday, March 11, 2010

पार्टी,प्लॉट और प्रॉपर्टी डीलर

(प्रॉपर्टी डीलरों के काले सफ़ेद पराक्रम के किस्से अनगिनत हैं... ये ही असली भूमि पुत्र हैं व भूमि और आपके बीच की कड़ी हैं, मुझे तो लगता है कि आदम और ईव से 'ईडन-गार्डन' खाली करवाने में इनकी भूमिका की अगर सूक्ष्म जाँच की जाए तो किसी न किसी प्रॉपर्टी डीलर का हाथ निकलेगा.)






एक कहावत है कि मूर्ख लोग मकान बनाते हैं और बुद्धिमान उसमें रहते हैं. हमारे यहाँ एक मशहूर शेर है :


कटी उम्र होटलों में


मरे अस्पताल जाकर


अब कोयल को ही लें. वो आर्टिस्ट है. उसे कहाँ यह टाइम कि घर बनाये. भाई या तो संगीत की सेवा करा लीजिये या घोंसले की फजीहत. घर कौवे बनाते हैं सो बना रहे हैं. मेरी इन सब दलीलों का मेरी अन्य बातों की तरह हे मेरी पत्नी पर कोई असर नहीं पड़ता. वह किंचित भी प्रभावित नहीं हो पाती और ज़िद किए रही कि दुनिया मकान बना रही है अतः हमें भी मकान बनाना चाहिए. अब मकान कोई घोंसला तो है नहीं कि नज़दीकी नीम के पेड़ पर जा बैठे. इसके लिए चाहिये एक अदद प्लॉट या फिर ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी कि सदस्यता. चारों तरफ हाथ-पाँव मारने शुरू किए. यह मुहावरा ठीक नहीं है. दरअसल इस प्रक्रिया में हम खुद ही हाथ पाँव में मार खाते रहे. एक ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी तो डूब गयी. उसके अवैतनिक सचिव सारा पैसे लेकर अपनी सचिव के साथ सिंगापुर भाग गए.दूसरी सोसाइटी में बात बात पर इतनी धड़ेबाजी थी कि पता ही नहीं लगता था कि मकान बनेंगे या नहीं,बनेंगे तो कहाँ बनेंगे और कब बनेंगे. धीरे धीरे सब समझदार लोगों ने पैसे निकाल लिए. अंततः यह तय पाया गया कि दिल्ली में अब न तो ज़मीन बची है और न ऑक्सिजन तो क्यों न दिल्ली से थोड़ी दूर हट कर प्लॉट खरीदा जाए. बस फिर क्या था. चारों तरफ खबर भिजवा दी गयी. रविवार कि सुबह सुबह अख़बार ले कर विज्ञापनों पर निशान लगाये जाते. विज्ञापनों को देख कर लगता था कि पूरी दिल्ली बिकाऊ है, शायद झूठ भी नहीं. हम लोग रविवार को निकल जाते. कभी महरौली, कभी छतरपुर, कभी नोएडा, कभी नरेला, कभी गाजियाबाद, कभी फरीदाबाद तो कभी गुड़गाँव.


इस दौरान मेरा भूगोल का ज्ञान इतना विस्तृत हो गया कि मैं खुद हैरान था. आप कोई सा विहार बोलो मैं फौरन बता सकता था कि वह कहाँ है. कनाट प्लेस. आई.टी.ओ. या इन्दिरा गांधी एयरपोर्ट से कितने किलोमीटर है. अब मैं जानता था कि दिल्ली में तीन तीन आनंद विहार हैं. किसी नगर के पास बनने वाली कॉलोनी का नाम उस नगर के प्रथम नाम के बाद विहार लगा देने से बनता है, जैसे तिलक नगर के पास है तो तिलक विहार. मयूर विहार के आसपास जितनी भी नयी कालोनियाँ बनेंगी सब मयूर विहार फ़ेज तीन,चार, छ्ह आठ के नाम से जानी जाएँगी.सोसाइटी का नाम जितना साहित्यिक या लुभावना होगा वह शहर से उतनी ही दूर और गंदे इलाक़े में होगी. मुझे पता लगा कि सैनिक विहार में सैनिक नहीं रहते. मुझे पता चला कि अलकनंदा और नर्मदा विहार में पानी की खूब किल्लत है और विद्युत विहार में इतनी बिजली जाती है कि सबके घर में जनरेटर तथा इनवर्टर लगे हुए हैं. पार्टी,प्लॉट और प्रॉपर्टी डीलर के त्रिकोण में प्रॉपर्टी डीलर एक महत्वपूर्ण कोण है. उसकी भाषा, कोड वर्ड अलग किस्म के होते हैं. वो मोबाइल फोन पर बात करते हैं. शाम होते ही उनका जबाड़ा हिलाने लगता है. नहीं समझे. सूरज अस्त, मजदूर मस्त. अर्थात आग को पी जाते हैं पानी करके. हरियाणा में प्रॉपर्टी डीलर परेशान क्यूँ,प्रॉपर्टी के दाम गिरे क्यूँ ? शराब जो न थी. प्रॉपर्टी डीलर से मैं जब भी मिलने गया वो मुझे मक्खी मारते तन्हा तन्हा मिले. लेकिन पार्टी को देख कर उनके चेहरे पर रौनक आ जाती है. फौरन आपसे आपका बजट पूछ कर आपको शीशे में उतारने की हरचंद कोशिश शुरू. " ओ जी ! पिलौट ही पिलौट हैं, टू साइड ओपन, थ्री साइड ओपन, मीठा पानी, सन फेसिंग, सामने 24 फीट की रोड. मार्किट, स्कूल, मेन रोड" सब उन्हें रटा रहता है. बताते जाते हैं और आपके चेहरे के भाव पढ़ते जाते हैं. एक प्रॉपर्टी डीलर सज्जन मुझे गाड़ी में बैठा कर शहर से इतनी दूर पिलौट दिखाने ले गए कि मैं दिल ही दिल में डर रहा था कि कहीं मुझे किडनेप तो नहीं कर रहे. भगवान से सारे रास्ते दुआ माँगता रहा. वो जो भी दिखा रहे थे मुझे कुछ नहीं दीख रहा था. मैं तो जल्द से जल्द उनके चंगुल से बाहर निकलना चाहता था. वो अपनी समझ से मेरे से बड़े प्रेम से पेश आ रहे थे लेकिन वो जितना मीठा बोल रहे थे मैं उतना ही अधिक घबरा रहा था.


एक बात बताइये ये प्रॉपर्टी डीलर सुकोमल,सहृदय और सामान्य कद काठी के क्यों नहीं होते हैं. क्यों ये फिल्मों के माफिया जैसे होते हैं. क्यों ये इतने हट्टे-कट्टे और पहलवान किस्म के होते हैं "या तो पिलौट खरीद नहीं तो अभी करते हैं चाकू आर-पार"


एक प्लॉट मुझे ऐसा दिखाया गया जो की बाद में पता चला मेरे जैसे 8-10 लोगों को दिखाया जा चुका था. 4-5 लोगों से उसका बयाना लेकर प्रॉपर्टी डीलर ये जा वो जा. मुझे अब ज्ञात हुआ कि अपराध वाले अपने प्लान को प्लॉट क्यों कहते हैं. ये प्रॉपर्टी डीलर बड़े ही स्मार्ट होते हैं. एक प्लॉट कितनों को ही बेच सकते हैं. ये चाहें तो ताजमहल भी बेच दें.सुनसान रेगिस्तान को भी ऐसे प्रोजेक्ट करते हैं जैसे 'स्वर्गधाम' आपके सपनों का घर,हरियाली ही हरियाली, लिफ्ट स्कूल, कॉलेज स्विमिंग पूल, शॉपिंग सेंटर, फुल सेक्युर्टी, कनाट प्लेस से केवल 35 मिनट की ड्राइव आदि आदि.बाद में पता चलता है कि हरियाली के लिए उन्होने पौधे लगा दिये हैं. जब वे बड़े हो जायेंगे तो नेचुरली हरियाली हो जाएगी. स्विमिंग पूल के नाम पर एक बंबा है. शॉपिंग सेंटर के नाम पर प्रॉपर्टी डीलरों की ही दो दुकाने हैं.सेक्युर्टी इतनी कि दिन-दहाड़े मार जायें तो पता भी तीन दिन बाद चले वह भी बदबू से. कनाट प्लेस के कौन से कोने से नापते हैं कौन सी गाड़ी ड्राइव कर रहे हैं और किस रफ़्तार से कौन से रूट से जायेंगे. मैंने तो यह पाया है कि 1 घंट 35 मिनट से भी ज्यादा वक्त लगता है. वे कह सकते हैं कि ट्रेफिक जाम और रेड लाइट बचाते-घटाते हुए 100 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से ड्राइव करनी है. मैं समझ गया कि प्रॉपर्टी डीलर ने ठीक ही स्वर्गधाम नाम रखा है वे आपके लिए स्वर्ग पृथ्वी पर ही उतार लाये हैं. किसी भी शहर के आवासीय,व्यापारिक,आर्थिक व राजनीतिक विकास में प्रॉपर्टी डीलर्स का बहुत योगदान है. वे इंच इंच ज़मीन महंगे दाम बेच सकते हैं. वे कोलोनियाँ की कोलोनियाँ बसाते हैं. उन्हें अनाधिकृत घोषित कराते हैं.उनमें आग लगवाते हैं फिर उन्हें अधिकृत(रेगुलराइज़) कराते हैं. इसे कहते हैं झूम हाउसिंग. सभी झूम रहे हैं. प्रॉपर्टी डीलर,नेताजी,बिजली-पानी वाले, कार्पोरेशन के कर्मचारी. वे प्रतिकूल कर्मचारियों का ट्रांसफर चुटकी बजाते करा सकते हैं. सरकार की पॉलिसियां निर्धारित कराते हैं. आपके काले धन को सफ़ेद करा सकते हैं. जंगल में मंगल.बुध,वीर मना सकते हैं. वो बता सकते हैं कि दो मंज़िल की चार मंज़िलें कैसे बनाई जाती हैं. सड़क कैसे घेरी जाती है आदि आदि.


प्रॉपर्टी डीलर के बिना विकास की कल्पना करना संभव नहीं है.रेगिस्तान को चमन बनाने और चमन को जंगल बनाने का श्रेय उनको जाता है.




(व्यंग्य संग्रह 'तिहाड़ क्लब' 1999 से )





चाँद की अनछुई किरण हो 
छाई हो मेरे 
दिल-ऐ-आसमां पर 
बदली की तरह .
पाता हूँ मैं अपने को 
हरदम तेरे ख्याल में 
चिंताओं में घिरे एक 
मुफलिस की तरह .
तुम मेरे दिल में 
आये सूखे गाँव में 
आई पहली 
बारिश की तरह .
खतरे में ही रही 
ताउम्र मेरी ख़ुशी 
जवान बेवा की 
आबरू की तरह . 



वक़्त तुम्हें मुझसे 
दूर ले जायेगा 
मुझे तुम्हारी नज़रों में 
अजनबी बनाएगा 
मगर सच तो यह है 
हर गुजरा लम्हा मुझे 
तुम्हारे और नज़दीक लायेगा 
मुझे यकीं है 
तुम जब भी कभी आओगे 
मेरे मरुस्थली जीवन में 
बसंत लाओगे 
और यकीं जानो 
जब भी याद करोगे 
मुझे अपने 
इंतज़ार में पाओगे

Wednesday, March 10, 2010

मेरा आज का शेर


मेरे हिस्से में तो उनकी 
बेरुखी भी न आई  
खुशकिस्मत  हैं वो 
जिनकी मुहब्बत को ठुकरा दिया तूने 



एक आंसू हमारा था, जो आँख से संभला नहीं 
एक आंसू तुम्हारा था, जो आँख से निकला नहीं
डाल दी है तोहमत, मैंने मुक़द्दर की पेशानी पे 
हकीकत ये है, मुझे तुमसे कोई गिला नहीं

Monday, March 8, 2010

ख़ुदा ये दिन भी 
दिखाए मुझको 
मैं रूठा रहूँ 
वो मनाये मुझको .

इतना आसां कहाँ 
हुनर बदले का 
हसरत ही रह गयी 
मेरी तरह वो सताए मुझको.

सब कुछ तो कहा 
बाकी क्या रहा 
अरमाँ अगर है तो 
आज वो भी सुनाये  मुझको 


बस एक तेरी चाहत में 
उम्र भर गाते रहे 
मैं क्या करूँ
दुनिया ने जो हार पहनाये मुझको.

सुना है मेरा नाम 
ना लेने का अहद उठाया है 
ये कैसी कसम है शाम-ओ-सहर 
वो गुनगुनाये मुझको 

दिल के खेल में सनम 
माहिर हो चले 
ग़ैर  की  महफ़िल में 
बेवफा बताये मुझको 


ऐ ख़ुदा दिल के हाथों 
इस क़दर मजबूर कर दे 
भले बात ना करे 
इक बार तो बुलाये मुझको 


मुझमें खामियां हज़ार 
मुझे कब इनकार 
काश वो मिटा के 
फिर से बनाए मुझको











आज नहीं तो शायद 
कल पता  चल जाए
ये मेरा इश्क है
तेरा हुस्न नहीं 
जो  ढल जाए

मुरीद हूँ इक तुम्हारा 
अपनी आँखों में जगह दो मुझको 
तेरे रहम-ओ-करम पर ज़िंदा हूँ 
मिटा दो या बना दो मुझको 
तेरी बेरुखी असर कर रही है बहुत धीरे धीरे 
इक बार में ही सारा ज़हर पिला दो मुझको 
शायद मेरी खाक ही तेरे काम आ सके 
जिन्दा लाश समझ जला दो मुझको 
साहिल तुम्हें जान ज़िन्दगी का सफीना मोड़ा था मैंने 
बोझ अगर हूँ मैं तो फिर से बहा दो मुझको 
तेरे इंतज़ार में ताउम्र जले हैं हम 
आखिरी चिंगारी हूँ अब बुझा दो या हवा दो मुझको 
लाख बुरा सही तेरी जवानी की तरह वादा-खिलाफ नहीं 
यकीं न हो तो चाहे जब बुला लो मुझको 


महिला दिवस


अंधों के शहर में आईने बेचने निकले 
यार तुम भी मेरी तरह दीवाने निकले 
किस किस के पत्थर का जवाब दोगे तुम
महबूब की बस्ती में सभी तो अपने निकले 
वो हँस कर क्या मिले, तमाम शहर में चर्चा है 
तेरी एक मुस्कान के मायने, कितने निकले 
ऐ दोस्त कैसे होते हैं वो लोग, जिनके सपने सच होते हैं 
एक हम हैं हमारे तो, सच भी सपने निकले

महिला दिवस

 

तेरी स्मृति का 
संबल ले 
मैं उन्नति के 
शिखर पर 
विजय-पताका 
लहराऊंगा.
एक तुम जो चलो 
साथ मेरे 
सच कहता हूँ 
मैं तूफानों को 
क़ैद कर लाऊंगा .
तुमसे पृथक 
मेरी स्वतंत्र 
सत्ता कुछ भी नहीं .
मैं , मैं नहीं 
हूँ भी तो मेरी 
महत्ता कुछ भी नहीं .
तुम ही तो मेरी 
सम्पन्नता हो .
मेरी प्रेरणा और 
मेरी क्षमता हो.

महिला दिवस


हृदय दर्पण के 
हर कण कण पे   
प्रतिबिम्ब है तुम्हारा.
मेरी हर सांस पर 
प्रिये ऋण है तुम्हारा. 
मैं कौन ? कहाँ ? 
क्या अस्तित्व मेरा ? 
सुना है जग को गति 
देता है संकेत तुम्हारा .

Sunday, March 7, 2010

मेरा आज का शेर


अपने सपनों का नायक बना लो मुझे 
अपने गीतों का गायक बना लो मुझे 
मैं तो बस ये चाहता हूँ किसी भी तरह 
अपने लायक बना लो मुझे.

Friday, March 5, 2010

मेरा आज का शेर

हसरत ही रह गयी साथ रहने की
कुछ तुम्हारी सुनने की, कुछ अपनी कहने की.
तुम मेरे सब्र का इम्तिहां न लो 
अभी नयी पड़ी है आदत ज़ख्म सहने की.
मेरे अश्क, फ़क़त मेरे हैं 
तुमने नाहक ही बात उठाई, मेरे अश्क पीने की.

THAT ENDS WELL…


                         

                                                                             
 “Dear Satish , return home immediately.... Anyone giving information about Satish will be suitably rewarded....”  Satish read this ad in newspaper and was in tears again.  Today was the fourth day since he ran away from his home.  He had stolen 50 rupees from his home before running away.  He was left with only 8 rupees.  Rest was spent in food, cigarettes and films.  A storm was building up within him.

 Satish was a student of X Std in school.  He fell in bad company.  Once fallen, he could not rise out of it, though he wanted to.  A Bully boy of the class befriended Satish.  In recess they would sit together in the school canteen, beginning with sharing tea, he offered cigarette to Satish.  Satish refused.  Bully boy insisted, persuaded.  “No one would know at home! It is not bad”.  “Ok, your father smokes, had it been bad, he’d not have been smoking, no?”  He is such a big, educated wise man. If cigarette was bad you think, he’d have been smoking?  And so many others who smoke? Are they all uneducated unwise?  Satish had no answer for such questions.  He would take a puff or two.  Soon he was smoking packets, as if he has been smoking for years. The same bully persuaded him to bunk and go for films.  Initial hesitation and soon Satish would yield.  Soon he was addicted to tea, cigarette and films.  Studies became secondary, rather disappeared from his scheme of things.  He hated school.  He had learnt to cheat his parents, his teachers and above all, himself.

 He started stealing money from home.  Once caught stealing 20 rupees, he was beaten mercilessly by his already harassed father.

 Same bully came forward to Satish.  Get some big amount from your home and let us go to Bombay.  We’ll do some job there. My Mama (uncle) is there.  We’ll do acting in films.  He will help us get a break in films.  What is this? Parents are always firing, scolding.  Why?  Our parents have done nothing for us except for giving birth to us.  If they’ve given birth, then it is their duty to bring us up, bear our expenses. Don’t we work for the whole day like an ox – bringing vegetables, running errand, procuring ration from the shop, fetching milk from dairy.  We are worst then a domestic servant.  Satish again thought. Janardhan was right.  He didn’t need any further convincing. 

 Last three nights he has spent like a fugitive urchin.  He longed for warmth of his bed.  Mummy’s affectionate kiss on forehead.  Suddenly, Satish recalled how his brothers and sister must be feeling.  He thought of mother’s despair and father’s embarrassment.  His heart was sinking, cursing him.  He hated himself for inflicting wound on so many.  He ran... and ran... And did not stop till he was standing facing the main gate of his house.  Door opened, next moment, head in his mother’s lap he was crying uncontrollably “If a person loses his way in morning but comes back well before evening he is not lost, all is well that ends well” said his father caressing   Satish on his head. Satish further hid in his mother’s lap.

(Published as ‘Subah ka bhoola’ in Nav Bharat Times 26th Aug. 1973)