Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Monday, October 30, 2023

व्यंग्य: स्टार प्रचारक

 जी हाँ मुझे बतौर प्रचारक आगामी चुनाव में  बुलाया नहीं जा रहा. यूं इस बार बड़ों बड़ों का नाम स्टार प्रचारक सूची में नहीं है। वे बड़े लोग हैं।  हिमालय-विमालय जा सकते हैं।  मैं हिमालय तो नहीं जा सकता। अलबत्ता बाल-बच्चों को लेकर ग़म गलत करने पड़ोस के ‘हिमालय-मॉल’ में पिज्जा खाने चला गया। पार्टी में वरिष्ठों (बूढ़े नहीं) की अनदेखी नहीं करनी चाहिये। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मुझे मार्गदर्शन मण्डल में डाल दिया गया हो। यूं मैंने कई बार इत्तिला भिजवाई कि इन दिनों मैं खाली हूं, देश के अन्य नौजवानों की तरह बेरोजगार हूं। पार्टी चाहे तो चुनाव प्रचार के लिये, प्रचार सभाओं में मेरी ओज़मयी वाणी और लटकों-झटकों का इस्तेमाल कर सकती है। दरअसल पहले पार्टी में एक नेता बाकी सब स्वंयसेवक होते थे। अब तो बहुत कैटेगरी होगईं हैं। उसी में से एक है स्टार प्रचारक। सो साब हाई कमांड के  न रेंगनी थी, न रेंगी कान पर जूँ। अब देखना नतीज़ा। मैंने बहुतेरा कहा था मैं पिछली बार की तरह आप की शान में कवितायें सुनाऊंगा. प्रतिद्वंदी की हास्य रस की चुटकियों से ऐसी-तैसी कर छोड़ूंगा, पर नहीं, पता नहीं क्यों किसी को इस बार ये आइडिया भाया नहीं और बात–बात में मेरा ही मखौल उड़ा दिया यह कह-कह कर कि “वाट एन आइडिया ?”

 

                   हमने तो यहाँ तक कह दिया है कि आप को कविता-कहानी का शौक़ नहीं? कोई  बात नहीं! हम ‘विरोधी’ खेमें में जा के अपनी चुनिन्दा कविताएं और जोक्स सुना आता हूं।दोनों में आजकल वैसे भी फर्क कहां रह गया है। जोक को लय में सुना दो हास्य रस की कविता बना दो।  अपने वोट नहीं पड़ते न पड़ते ससुर विरोधियों के वोट तो कटते। वो क्या कहते हैं ‘अटैक इज़ द बेस्ट डिफेंस’. जब हमें पक्का हो गया कि इस बार यहाँ दाल नहीं गलेगी तब हम भी ‘अंडर ग्राऊंड’ हो गये. कनसुआ लेते रहे कि कोई अब आये ! कोई अब पुकारे ! हमें बूझता हुआ आए “चलिये हाई कमांड ने अरजेंट बुलाया है” मगर न जी ! न कोई आना था, ना आया। अब करते रहना चिंतन-शिविर में अपनी हार पर मनन-चिंतन। दाल से याद आया आपने दाल का ये कीया क्या ? दाल को ड्राई फ्रूट बना दिया।

 

       आरक्षण पर आपको कहना चाहिये 100% आरक्षण होगा, आप उल्टा बोल दिये कि इसकी समीक्षा करेंगे। सब जानते हैं  समीक्षा आप बढ़ाने को तो करेंगे नहीं ज़रूर से ज़रूर घटाने को ही करेंगे। आप को कहना चाहिये था 100% का 100% भारतीयों के लिये आरक्षण रहेगा। भारत तो पूरा का पूरा गरीब, पिछड़ा हुआ है. इसमें सब ही तो पिछड़े, दलित और महादलित हैं. अत: अब कोई दलित रहेगा न महा-दलित सब भारतीय हैं. पॉपुलेशन की गिनती दुबारा से कराई जाएगी. तब तक न कोई क्रीमी-लेयर न कोई नॉन-क्रीमी लेयर. सब सपरेटा है.

 

           और अंत में ये गाय-चीता से ऊपर उठिये. ये गाय-बैल में कुछ नहीं रखा है सिवाय फज़ीहत के।  कॉन्ग्रेस क्या पागल है जो अपना चुनाव चिन्ह गाय-बछड़ा से बदल कर ‘हाथ’ रखी। जिनको बीफ खाना है खाएं और जिसे पालना है पाले। ‘नॉन इशू’ को ‘इशू’ बना दिया। आपके जितने छुटभैय्ये नेता लोग ‘लूज़ टॉक’ करते हैं सबको बुलाकर कह दीजिये “खामोश....जली को आग ..बुझी को राख कहते हैं...” वगैरा वगैरा।

 

           आप सहयोगी दल भी तो ऐसे ऐसे रखे हैं कि लोग बाग हँसते हैं। अब क्या बताया जाये। गलती तो आप कर दिये। अपने साथ कुछ पढ़े-लिखे लोग रखिये, जानकार लोग रखिये, समझदार लोग रखिये. अब क्या हमारे मुँह से ही कहलवाएंगे कि हमें रखिये।

 

Sunday, October 29, 2023

ऊंट

 

🐪🐪🐪
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ऊंट रे ऊंट तेरी कौन सी कल सीधी, ऊंट के मुंह में जीरा, पूरी ऊंटनी हो रही है, वक़्त खराब हो तो ऊंट पर बैठे आदमी को कुत्ता काट लेता है, ऊंट की चोरी और छुप-छुप के आदि कितने ही मुहावरे और कहावतों से हम सब परिचित हैं। रेगिस्तान के इस जहाज का भारत में आगमन सच में रेगिस्तान से ही हुआ था। ऊंट हिंदुस्तान का मूल निवासी नहीं है। क्या आपको पता है इसकी आँखों में पलकों की तीन परत होती हैं बोले तो तीन पलक होती हैं और पलकों के बालों की परत के भी दो सेट होते हैं। ये सब इसे रेगिस्तान की रेत से बचाता है।
ऊंटनी का दूध स्वास्थ्य के लिए बहुत मुफीद बताया जाता है। यह एंटी-ऑक्सीडेंट होता है और आपके बॉडी-सेल्स को नुकसान से बचाता है। विटामिन और मिनरल से भरपूर यह बहुत रिच होता है। आधा लीटर 100/- की दर से बिकता है अमूल इसे 100/- लीटर बेचता है.

खाने वालों ने इसे भी नहीं छोड़ा इसका मीट (कबसा) बहुत रिच होता है। अरब देशों मे विशेष अवसरों पर इसको पूरा का पूरा रोस्ट करके मेहमानों की आवभगत की जाती है। यह लो-क्लोस्ट्रल और लौह तत्व से भरपूर होता है। इसकी खाल को सजावट के काम में लिया जाता है। इसकी हड्डी से आभूषण भी बनाए जाते हैं। इसके मूत्र में मेडिसनल क्वालिटी बताई जाती हैं। पुष्कर में (अजमेर के करीब) पशु मेला अक्तूबर-नवंबर में इनका मेला लगता है। इसकी कीमत 75 हज़ार से एक लाख तक होती है। यह 6 से 7 महीने तक बिना पानी पिये रह सकता है। यह एक बार में 200 लीटर पानी पी सकता है, वह भी बस तीन मिनट में। इसका गर्भकाल 12 से 14 महीने तक होता है। जन्म के समय बहुधा यह एकदम सफ़ेद रंग का होता है, अरबी ज़ुबान मे ऊंट के 160 नाम हैं।

हिंदुस्तान में यह एक कूबड़ व दो कूबड़ वाले होते है, पायी जाने वाली ऊंट की कुछ प्रमुख नस्लें हैं मालवी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, बीकानेरी, जैसलमेरी, जलोरी, कच्छी, खरारी लगभा एक दर्जन नस्लें हैं मगर प्रमुख चार हैं बीकानेरी, जैसलमेरी, कच्छी और मेवाड़ी। बीकानेरी ऊंट की नस्ल उम्दा मानी जाती है।

हिंदुस्तान के 80% ऊंट राजस्थान में पाये जाते हैं, ये सवारी के काम आते है और सामान इधर से उधर ले जाने में काम आते हैं। ये 500 किलो तक वज़न उठा सकते हैं। यह गुस्सा होने/लड़ाई होने पर जिससे गुस्सा है/ दुश्मन पर बहुत दूर तक थूक सकते हैं। ऊंटनी बहुत ईर्ष्यालु होती हैं। ऊंट मूलतः इमोशनल होता है। इनकी संख्या तेजी से घट रही है अब लगभग ढाई-तीन लाख ऊंट भारत में रह गए हैं। जिसमें अधिकतर राजस्थान में हैं और बाकी गुजरात में। हिंदुस्तान में ऊंट अरब आक्रमणकारियों के काफिले के साथ आए 8वीं सदी में आए थे। ऊंट की औसत आयु 40 से 50 साल होती है। इसकी रफ्तार औसतन 40 किलोमीटर प्रति घंटा होती है यद्यपि यह 65 किलोमीटर प्रति घंटा तक जा सकता है। संसार में सोमालिया में 60 लाख से ऊपर ऊंट हैं। दूसरे नंबर पर सूडान आता है जहां 30 लाख से ऊपर ऊंट हैं।

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Monday, October 16, 2023

व्यंग्य पुलिस पुलिस होती है

 


 

          यह आगरा में गत सप्ताह चल रही रामलीला की घटना है। यूं आगरा में क्या कुछ नहीं हो सकता और होता भी है।  वहाँ प्रेम की अमर निशानी ताजमहल है। मुग़लों ने कुछ सोच-समझ कर ही न आगरा को अपनी राजधानी बनाया होगा। अलबत्ता वो अलग बात है कि वहाँ का पागलखाना भी खूब ही मशहूर है। पर अब तो इतने पागल जगह-जगह शहर- शहर हो गए हैं और उनके लिए कोई पागलखाना भी नहीं।   

 

          तो जी रामलीला चल रही थी। रामलीला वालों ने स्थानीय विधायक महोदय को चीफ-गेस्टी में बुला रखा था। अब विधायक हैं उनका यह कर्तव्य है कि अपने निर्वाचन  क्षेत्र के समारोहों की शोभा बढ़ाएँ। और फिर चुनाव भी तो नज़दीक ही हैं। दृश्य सीता के अपहरण का चल रहा था। यकायक बंदोबस्त में लगा एक सिपाही स्टेज पर चढ़ गया और उसने पुलिसिया अंदाज़ में डंडा लहरा के रावण को ललकारा “मैं सीता माता को नहीं ले जाने दूंगा” रावण सिपाही को जानता था। उसे सुन कर पसीने आ गए। वह बेचारा अपने डायलॉग ही भूल गया। इधर हमारे सिपाही महोदय तो डट गए और ज़िद पकड़ ली कि वह हनुमान भक्त है और उसके रहते, उसकी आँखों के सामने कोई सीता माता का अपहरण कर ले जाये ये उसे कतई मंजूर नहीं। “धिक्कार है ऐसी भक्ति पर और ऐसी सिपाहीगिरी पर अगर मैं सीता माता का अपहरण अपनी आंखों के सामने होता हुआ देखता रहूँ”। विधायक महोदय ने उस सिपाही को समझाने की कोशिश की। इस इलाके में उनके अच्छे खासे वोट हैं। लेकिन सिपाही टस से मस न हुआ और मरने-मारने पर उतारू हो गया। ऐसे में रावण ने पतली गली से कट लेने में ही भलाई समझी नहीं तो राम ने तो नाभि में तीर बाद में मारना है  इस पुलिस वाले ने तो यहीं मार-मार के नाभि को पहचानने लायक नहीं छोड़ना। रावण नकली है, पुलिस वाला असली। वो भी खालिस हनुमान भक्त। एक गदा प्रहार और दस के दस सिर स्टेज पर इधर-उधर लुढ़कते डोलेंगे। सिपाही के ऑफिसर को तलब किया गया तो उन्होने भी उसे समझाने की कोशिश की लेकिन सिपाही तो अड़ गया था बोला “साब ! आप हमेशा बोलते हो पुलिस लेट पहुँचती है। आज वारदात से पहले मैं यहाँ घटना स्थल पर ही हूँ, बल्कि पूरी वारदात का चश्मदीद गवाह हूँ तो मैं कैसे ये सब हो जाने दूँ। प्रोमोशन के वक़्त आप कह देते हो हरीशचंद कुछ कर के दिखाओ ! कई बड़ा केस सुलझाओ ! आज इतना बड़ा केस हाथ आया है और आप आ गए भांजि मारने।

         सीता माता का रोल कर रहा लड़का अलग नर्वस था। वह आज कहाँ फंस गया। उसे वैसे ही पुलिस-कचहरी से डर लगता है।

 

        लास्ट रिपोर्ट आने तक सुना है किसी ने पूरी वीडियो बना कर बड़े अफसरों की सेवा में किसी दूत के हाथों वायु-गति से पठा दी। सिपाही महोदय सस्पेंड कर दिये गए हैं पर उन्हें यह परम-संतोष है कि उन्होने सीता माता का अपहरण नहीं होने दिया। पवन-पुत्र कितने प्रसन्न होंगे यह वही जानता है। यह भक्त और भगवान के बीच की बात है।  इसमें नौकरी क्या ? और भला सस्पेंशन क्या ?  ये वही लोग हैं जिनके चलते मीरा हँसते-हँसते विष-प्याला पी गई थी। क्या वह थोड़े दिनों का सस्पेंशन नहीं काट सकता। इस पुलिस की श्रंखला में कोई तो उसके जैसा हनुमान भक्त होगा जो उसकी भक्ति की लाज रखेगा। नहीं तो गिरिवर तो उसे गिरि लंघवा ही देंगे।

        भूत पिशाच निकट नहीं आवे

        महावीर जब नाम सुनावे

        नासे रोग हरे सब पीरा

        जपत निरंतर हनुमत वीरा    

Sunday, October 15, 2023

व्यंग्य: माई एम्बिशन इन लाइफ

 


पहले मैंने सोचा हिन्दी का लेख है तो इंगलिश शीर्षक क्यों? फिर लगा कि स्कूल में भी तो इसी टाइटल से निबंध लिखते थे कारण कि हिन्दी में तो ऐसे किसी निबंध का अभ्यास कराया नहीं गया। वहाँ तो चलता था कर्म किए जा फल की चिंता मत कर या फिर रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पी वो भी घड़े का, फ्रिज/कूलर का नहीं।  ये एम्बीशन हिन्दी वालों के साथ चलता नहीं है।  जहां “संतोष धन” के आगे बकिया धन धूरि समान बताए गए हैं। 

 

     देखिये हम सब की एम्बिशन वक़्त बेवक्त अदलती बदलती रहती है। अब मुझे ही देख लो कभी आइसक्रीम वाला बनाना चाहता था तो कभी इंजन-ड्राईवर, कभी जासूस तो कभी एक्टर। कभी लेखक तो कभी एम.पी.।


एम.पी. बनने के लिए दरकार है कि मेरी इलाके में धाक हो, चार लोग मुझे भली-भांति जानते हों।  वैसा वाला जानते हों जिसमें उन्हे खुद ही पता हो कि मेरा बाप कौन है ? मैं कौन हूँ ?  शरम से या डर से जिधर से निकाल जाऊँ उधर से लोग “भैया जी नमस्ते !, भैया जी प्रणाम, भैया जी पैरी पैना पूरे रूट पर चलता रहे। विधायक बनूँ तो ऐसा कि पक्ष हो या  विपक्ष दोनों के हाई कमान टिकिट लिए पीछू-पीछू फिरें। नित नई उपाधियाँ मिलती रहें, युवा-नेता’, युवा-हृदय सम्राट’, युवकों की आशा आदि आदि। अगर एम.पी. बनूँ तो कैसा बनूँ ? इस पर मैंने बहुत विचारा। सब देख-भाल कर, स्टडी  कर के मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि यदि एम.पी. बनूँ तो रमेश जी जैसा। संसद के अंदर-बाहर दोनों जगह अपनी फुल फुल बकैती चले। किसी को भी गरियाऊँ मेरे मर्ज़ी। हाई- कमान का वरद हस्त मेरे ऊपर सदैव बना रहे। श्री लक्ष्मीजी सदैव सहाय टाइप।  मैं गरियाते-गरियाते नित नई जिम्मेवारी नए-नए ऊंचे-ऊंचे पद से नवाजा जाऊँ।  तुम इंकवारी बिठाओ मैं कहूँ “अभी फुरसत नहीं”। मेरा कोई कुछ भी बिगाड़ न पाये। रातों-रात मेरी पूछ बढ़ जाए। हाई कमान की परीक्षा में मेरी डिसटिंकसन आए। आउट ऑफ टर्न प्रमोशन पाता जाऊँ। एक स्टेज ऐसी आ जाये जहां सिर्फ नाम ही काफी हो और अच्छे-अच्छे दानिश्वर लोग मेरे ताप से रोने लग पड़ जाएँ। रमेश नाम है मेरा ....   

Friday, October 13, 2023

दुनियाँ रंग-रंगीली

 


 

         रेलवे में आने से पहले मैं टूरिज़्म क्षेत्र से जुड़ा हुआ था। तब बहुत खुशी हुई जब पता चला कि रेलवे भी टूरिज़म के क्षेत्र में एक कार्पोरेशन खोलने जा रही है। मैंने इधर-उधर पता लगाया और एक सज्जन जो इस काम को उच्च स्तर पर देख रहे थे उनसे मिला वे बहुत खुश हुए और बहुत आशावादी साउंड कर रहे थे। मोटा-मोटा अखबार से पता चल रहा था कि रेलवे स्टेशनों के ऊपर इतनी जगह हैं वहाँ होटल खोले  जाएँगे। केटरिंग तो रेलवे पहले से कर ही रही है, बस लोकल टूरिज़्म देखना है। और स्टेशन के ऊपर होटल के कमरे बनाने हैं। आखिर रिटायरिंग रूम और गेस्ट हाउस तो रेलवे प्रचुर मात्रा में पहले से ही सुचारू चला रही है।

           जब बहुत दिनों तक  कोई आहट नहीं हुई तो पता चला कि जो सज्जन इस प्रोजेक्ट को देख रहे थे (जिनसे मैं मिला था) वो अपनी एक्सटैन्शन का कार्यक्रम चला रहे थे वो मिली नहीं। सो प्रोजेक्ट जहां था वहीं ठप्प होकर रह गया। मंत्री महोदय ने, सुनने में आया कि यह कह कर प्रेजेंटेशन में ही अपनी अस्वीकृति दे दी  “पहले रेल तो ठीक से चला लो”।

 

              कुछ समय बाद फिर सुगबुगाहट होनी शुरू हुई। एक उच्च अधिकारी से चर्चा हुई वह आँख खोल देने वाली थी। पता चला कि इसमें रेलवे कुछ नहीं करेगी सब काम ठेके पर दे दिया जाएगा।  आप तो बस थानेदार बन कर पैसे उगाही करते रहिए। उस चक्कर में जगह-जगह रेलवे स्टेशन पर फेन्सी रेस्टोरेन्ट खुल गए। रेलवे से हर बड़े स्टेशन पर कोहनी मरोड़ कर मौके की जगह कबाड़ ली गईं। भगवान जाने कौन आबंटन कर रहा था हमें तो पता तब चलता जब किसी रेस्टोरेन्ट के उदघाटन में हमें बुलाया जाता। होटल-वोटल तो क्या खुलने थे। हाँ मगर नई दिल्ली स्टेशन अजमेरी गेट साइड पर एक होटल खुला तो उम्मीद जगी। फिर यकायक पता चला कि वो ठेके पर दे दिया गया और अब रेलवे का उस से कुछ लेना देना नहीं। फिर बारी आई मण्डल और ज़ोन पर चलने वाले रिटायरिंग रूम और गेस्ट हाउस की उन सबको प्राइवेट को दे दिया गया। अब काउंटर पर कोई विनम्र, गंभीर, कायदे की ड्रेस पहने, रेलवे कर्मचारी नहीं बल्कि एक अर्ध-शिक्षित बेरोजगार छोकरा (डेली वेज वाला), पान मसाला खाते हुए आप से मुखातिब होता।

जब इतने से बात नहीं बनी तो टिकिटिंग भी अपने हाथ में ले ली और सॉफ्टवेयर लगा कर बुकिंग हम करेंगे।

 

           अब खुद कुछ करना धरना नहीं है बस नाल खानी है। प्लेटफॉर्म पर स्टाल कबाड़ लिए कि हम आबंटित करेंगे। अब वहाँ भी मल्टी नेशनल और हाई एंड ब्रांड ही दिखते हैं। वो पहले जैसे ठेले पर, खोमचे पर चीजें बेचने वाले नहीं हैं।  जहां हैं भी वो अपने पेरेंट कंपनी की वस्तुएँ घूम-घूम कर बेच रहे हैं। खाने की क्वालिटी और लिनन की बात ना ही करें तो बेहतर है।

 

     एक बार यात्रा में भोजन इतना खराब था कि मैंने कंपलेंट-बुक मांगी तो वो डेली-वेज टाइप लड़का बोला “आपने पहले क्यों नहीं बताया कि आप रेलवे से हैं, मैं ताज़ा बना देता”। गोया कि यह खराब भोजन मेरी अपनी गलती है। इस सारे प्रकरण का पटाक्षेप भी कम रोचक ना था, इंचार्ज़ अधिकारी ने मुझ से सहानुभूति रखते हुए तुरंत एक्शन लेनी की बात कही और लिखित में शिकायत मांगी। मैंने तुरंत भेज दी।

 

         शिकायत का निवारण तो खैर क्या होना था मगर बाद में पता चला कि मेरी शिकायत दिखा-दिखा ठेकेदार को डरा-धमका कर उन्होने महीनों खूब अपनी सेवा कराई। बस यही है सारांश इस सारी केटरिंग और टूरिज़्म बैताल पच्चीसी की कथा का।