Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Saturday, April 18, 2015

व्यंग्य : मेरा पिया घर आया...... .


अब तक छप्पन. हाँ छप्पन ! पता भी है तुम्हें ? छप्पन दिन और छप्पन रातें गुजर गयीं. कहाँ चले गये थे तुम ? तुम्हें जरा भी ख्याल नहीं आया मेरा ? सखी सहेलियां सच ही कहती थीं. तुम से दिल लगाना ही नहीं चाहिये था. कितनी पीड़ा कितना दुख देते हो. विपक्ष अलग ताने मार मार के मेरा जीना दूभर किये है. तुम्हें तनिक भी ख्याल नहीं आया मेरा. गाँव मोहल्ले में मेरा निकलना कितना दुष्कर हो गया था तुम्हें खबर भी है. किसी उत्सव किसी समारोह में जा भी न सकी मुझे ज्ञात है वहाँ भी शादी ब्याह छोड़ सब तेरा नाम ले कर मुझे छेड़ेंगे. वैसे छलिया ! ये तो बताओ चले कहाँ गये थे ? कोई चिट्ठी नहीं, कोई पत्री नहीं. न कोई संदेशा. कहां चले गये तुम्हारे वो हरकारे जो सदैव तुम्हें घेरे रहते थे. सुना वो अलग बौराये बौराये मुंह छुपाये छुपाये रात्रि में वन-वन डिस्को-डिस्को क्लब- क्लब, गो कार्टिंग कहां कहां नहीं तुम्हें पुकारा करते थे. हरज़ाई ! तुम्हें तनिक भी स्मृति नहीं हो आई इस विरहन की. मैंने भी न किस पत्थर दिल से दिल को लगाया.


तुम्हें पता है न जग की रीति ही यह है ..इधर तुम गये उधर सब ने न जाने क्या क्या अनर्गल प्रलाप प्रारम्भ कर दिया. कोई कहता तुम तपस्या कर रहे हो, कोई कहता तुम शुद्धि कर रहे हो. मुझे पता था मेरे नाथ मेरे रहते सन्यास का, तपस्या, साधना का कैसे सोच सकते हैं. क्या नाथ ! मुझसे उकता गये हैं. क्या कोई सौतन हमारे तुम्हारे बीच में आ गयी है. मुझे जरा भी भनक भी लगी तो मैंने शहर के सब बंगाली बाबाओं को बुला लेना है. वे नित्य प्रति समाचार पत्रों के माध्यम से मुझे आश्वस्त करते रहते हैं कि वे मुझे सभी दुखों से उबार लेंगे और कदापि खून के आँसू न रोने देंगे. तुम दो-चार दिन और नहीं आते तो मैंने उनकी शरण में चले जाना था ये जानने को कि हे निर्दयी ! तुम किस खोह, किस गुफा, किस पर्वत पर जा बैठे हो. हे युवा हृदय सम्राट ! तुम्हें मेरी कसम है सच सच बताना मुझ से कोई त्रुटि हुई क्या ? फिर ऐसे कैसे मुझ से विमुख हो बैरागी से हो गये. अब तुम आ गये हो तो मैं कल निर्मल बाबा के यहाँ धन्यवाद करने जरूर जाऊंगी. वैसे चमत्कार देख लो मैं निर्मल बाबा के दरबार में एक बार गयी कि तुम आन मिले. निर्मल बाबा को कोटि कोटि प्रणाम ! आज ही उनकी बताई मैकरोनी और पिज़्ज़ा बनाने हैं मैंने.


खाने-पीने का ख्याल रखा था तुमने ? . कौन बनाता था तुम्हारा खाना.? और कौन अपने नर्म ओ नाज़ुक हाथों से खिलाता था.? क्या वह मुझ से भी ज्यादा मान-मनौव्वल के साथ खिलाता या खिलाती थी ? मेरा मरा मुंह देखो अगर झूठ बोला तो...तुम्हें मेरे सर की कसम है.


अच्छा मज़ाक छोड़ो और ये बताओ कितने बिल फाड़े तुमने अपने अज्ञातवास में ? कोई नहीं, संसद के बिल नहीं तो होटल रेस्टॉरेंट के बिल ही बता दो. हे पाषाण हृदय ! तुम्हारे बिन सब महफिलें सूनी सूनी थीं. मैं तो जैसे सन्निपात से गुजर रही थी. मुझे अपना तनिक भी तो होश नहीं था. ऐसे ही दिनों दिन, हफ्ते दर हफ्ते अस्त व्यस्त पड़ी रहती थी. कितनी बार कोई कोई आकर देखता मैं ज़िंदा भी हूं या नहीं. तुम भी न ये किस जनम का बदला ले रहे थे जो मुझे इन वृद्धों की संगत में छोड़ गये. कहने को इनके पाँव क़ब्र में लटके हैं मगर ये सब कपटी, लम्पट कहीं के. सब अपनी अपनी बयान बाजी में लगे रहते और येन प्रकरेण मेरे निकट आने के उपक्रम करते रहते. तुम्हारे बारे में भी प्रेस में न जाने कितनी कितनी भ्रांतियां फैलाते रहते थे. पर मुझे विश्वास था मेरा खेवनहार ज़रूर आयेगा.


मैंने इनकी हर बात को एक कान से सुन दूसरे से निकाल दिया. कोई कहता तुम अवकाश पर हो. कोई कहता तुम आत्म चिंतन कर रहे हो. कोई कहता तुम सौतन के पास गये हो. कोई कहता तुम इतने प्रचार और सभाओं को सम्बोधित करते करते विश्रांति के चलते तनिक थकान उतारने को आमोद-प्रमोद में आकंठ डूबे हो. कोई कहता अब हृदय सम्राट क्या ? तुम युवा ही नहीं रहे. ये मूर्ख हैं ! जानते ही नहीं तुम तो चिर युवा हो .....और मैं तुम्हारी चिर तरुणी.

तुम्हारी अपनी
कांग्रेस