Ravi ki duniya

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Tuesday, December 25, 2018

व्यंग्य: जय हनुमान तेरा ही आसरा

“भूत पिशाच निकट न आवे महावीर जब नाम सुनावे” पर देख रहा हूं कि भूत पिशाच निकट तो नहीं आ रहे पर वो सब अपने-अपने खेमे में ही महावीर को ले आने का दम भर रहे हैं. लेटेस्ट बताते हैं कि हनुमान गुसाई, गुसाईं-फुसाईं कुछ नहीं थे बल्कि दलित थे. अधिकारिक घोषणा की जा चुकी है. कास्ट सार्टिफिकेट बन गया है, चुनाव आ रहे हैं,
यहां तक तो ग़नीमत थी, बुक्कल नवाब फरमा रहे हैं कि हनुमान मुस्लिम थे. अपनी बात की सपोर्ट में उन्होने तर्क भी दिये हैं कि ऐसे नाम सलमान, रहमान रमज़ान, फरमान इस्लाम में ही रखे जाते हैं. सही भी है. नामकरण से तो यही लगता है. पहले एक जोक चला करता था उम्मीद न थी कि वो इतनी जल्द सच भी हो जायेगा. आपने सुन लिया होगा कि सिख भी कह रहे हैं कि हनुमान सिख थे, कारण कि इतना बल-शौर्य और कहीं देखा है आपने ? आपने देखा है किसी और क़ौम में ? उन्होने भी तर्क दिया है कि ऐसे नाम हमारे में ही होते हैं जैसे चंदर भान, गुरदास मान, 
अमेरिका वाले कहां पीछे रहने वाले थे मौका देख कर उन्होने भी दावा ठोक दिया है क्या पता इसी बहाने श्रीलंका वगैरा में घुसने का सुभीता हो जाये. अमेरिका वाले कह रहे हैं कि न केवल ऐसे नाम बल्कि ऐसे गुण वाले लोग केवल उनके यहां  ही होते हैं जैसे सुपरमैन, स्पाइडरमैन, बैटमैन आदि. उनका कहना है कि हनुमान नाम इसी श्रंखला में है और ‘मान’ जो है सो मैन का ही भारतीयकरण है अथवा बिगड़ा रूप है. तो भाईयो बहनों !  हनुमान जी गाँव-खेड़ा की सीमा लांघकर शहर, सूबे की सीमाओं का बॉर्डर कूदते-फ़ाँदते इंटरनेशनल हो गयेले हैं. (हनुमान जी तो वैसे भी हाई जम्प, लॉन्ग जम्प के चैम्पियन हैं)  जो काम पिछले 70 साल में नहीं हो पाया वो हो गया है. 
अब ईसाई लोग की बारी है अपना क्लेम डालने की. 
उधर कम्युनिस्टों ने अपनी पॉलिट ब्यूरो में प्रस्ताव पास कर लिया है कि हनुमान जी कार्ड-होल्डर क्म्युनिस्ट थे. यक़ीन नहीं तो उनका लिबास देख लो. पूरी ज़िंदगी फकत एक लंगोटी में काट दी. और कोई नहीं दिल से एक कम्युनिस्ट कॉमरेड ही ऐसा कर सकता है. 
कश्मीरी कह रहे हैं कि हनुमान जी कश्मीरी थे, जब पंडितों पर घाटी में ज़ुल्म बड़े थे उस दौर में वो माइग्रेट कर गये थे. उनको तभी तो सभी जड़ी-बूटियों का पता था. जब श्री राम ने संजीवनी लेने भेजा तो हनुमान जी को ही क्यों भेजा ? इसलिये कि ये बंदा जानता है कौन सी जड़ी-बूटी कहां मिलेगी, इसकी वाक़फियत भी है वहां तो कोई पंगा नहीं होगा नहीं तो बॉर्डर पर बहुतमच-मच रहती है. जड़ी-बूटी की खेती करने वाले कहीं नकली माल पकड़ा न दें ? आपको क्या पता नहीं है असली केसर और शिलाजीत के नाम पर कितना चूना लगाते हैं वो.  
पारसी कह रहे हैं कि वे खालिस पारसी थे. हम लोग भी शादी ब्याह नहीं करते हैं अलमस्त रहते हैं वैसे ही ‘आपरो बावा हनुमान’ 
नॉर्थ ईस्ट वाले उन्हें अपना बता रहे हैं वे कह रहे हैं कि अंग्रेजी में लोग-बाग हनुमान जी को  मंकी गॉड बताते हैं हमें भी लोग चिंकी-चिंकी कहते हैं, ‘इट इज ए केस ऑफ प्लास्टिक सर्जरी गॉन रॉंग’ 
चीन वाले आप सोचते हैं पीछे रहने वाले थे. वे हम सबसे तेज़ हैं. उनका कहना है कि हनुमान जी चीन अधिकृत तिब्बत के रहने वाले थे. उनका असली नाम हन-यू-मॉन था, जो हिंदुस्तान वालों ने हिंदी-चीनी भाई-भाई की आड़ में हनुमान कर लिया. वैसे भी हिंदुस्तान में नाम बिगाड़ने की प्रथा सी ही है. अच्छे भले कृष्ण को किसन, किसना कुछ भी कर लेते हैं 
इसी बीच ब्रेकिंग न्यूज आई है कि जाट भाई-लोग कह रहे हैं कि तन्नै बेरा भी सै वे हमारे थे, वे जाट थे. तन्नै डाउट हुआ तो हुआ क्यों कर मन्नै भी बता ताऊ ? अरे लय्यो मेरा लट्ठ कितै सै ? वही खिलंदड़पना, वही खाटी हास्य, वही दूसरों के फटे में कूदने की आदत और कहीं देखने-सुनने में आई है तन्नै बावड़ी बूच ?  
पिक्चर अभी बाकी है दोस्त. एक प्रमुख खिलाड़ी ने कह ही तो दिया कि हनुमान जी एक स्पोर्ट्स मैन थे. बस ! फाइनल डिसीजन. वही अदम्य साहस, वही बहादुरी, वही चैलेंज स्वीकारने को लपक पड़ने की तत्परता. खैरियत ये है कि खिलाड़ी ने यह नहीं बताया कि हनुमान जी क्रिकेटर थे, नहीं तो बाकी खिलाड़ियों ने भी मैदान में कूद पड़ना था, वाह जी वाह ये क्रिकेट वालों ने तो धांधली ही मचा रखी है. जहां देखो वहां मैच फिक्स करते डोलते हैं. हनुमान जी दरअसल हॉकी के खिलाड़ी थे, हॉकी की दुर्दशा से दुखी होकर उन्होने न केवल हॉकी से बल्कि सांसारिक ड्रिब्लिंग से ही सन्यास ले लिया था. मगर जब वक़्त आया तो ड्रिबल करते करते श्रीलंका तक आनन-फानन में जा पहुंचे थे. खो-खो और मल्ल खम्भ वाले उन्हें अपना बता रहे हैं. इस सब रेल-पेल में आप पहलवानी को मत भूल जाना जो आज भी अखाड़े में उनकी तस्वीर लगाते हैं और अपने खेल की शुरूआत ही हनुमान जी को नमन करने से करते हैं.  
प्रश्न ये है कि यदि हनुमान जी हिंदु थे तो उनकी जाति, उपजाति, गोत्र क्या था ? यदि वे मुस्लिम थे तो शिया थे या सुन्नी? वोहरा थे या इस्माइली / खोजा ? वे गुर्जर थे या मीणा ? फिर ये कि वे चौकीदार मीणा थे या ज़मींदार मीणा ? अभी तो मेरे भारत महान में असंख्य वर्ग/वर्ण/जाति/उपजाति/गोत्र हैं. सारांश ये है कि यार वोट हमें गिरवा दो चाहे हनुमान को किसी धम/जाति का सार्टीफिकेट हमसे ले जाओ. अपुन का तो एक हीच धर्म है-- कुर्सी  

Friday, December 7, 2018

व्यंग्य: मैं 2019 का चुनाव नहीं लड़ूंगा



            मैंने बहुत सोचा-विचारा है, और मेरे इस तथाकथित चिंतन के बाद मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि मैं अगला चुनाव नहीं लड़ूंगा. यूँ कहने को मैंने आज तक एम.पी., एम.एल.ए क्या अपनी रेज़ीडेंट वैलफेयर सोसायटी की कार्यकारिणी का चुनाव तक नहीं लड़ा है. दरसल उसके दो कारण हैं एक तो मैं अहिंसावादी जीव हूं अत: इस लड़ने-भिड़ने से उतना ही दूर ही रहता हूं जितना एक सरकारी बाबू ऑफिस के काम से रहता है. दूसरा मुझे इस बात का अंदेशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि मैं चुनाव हार जाऊंगा. घर में अपनी खुद की बीवी तक तो बात मानती नहीं है. मतदाताओं का सामना किस मुंह से करूंगा. मेरी जमानत जब्त होना तय है.

दूसरी बात ये है कि मैं मतदाताओं से क्या नया वादा करूंगा जो हमारे नेता लोग पहले नहीं कर चुके. मैं दिन-रात देखता हूं बेचारे नेताओं को दिन में कितनी बार पल्टी मारनी पड़ती है. धर्मेंद्र जी वाली स्टाइल में “मैंने ऐसा तो नही कहा था”. नेताओं की मानें तो हम सब बस अब स्वर्ग में जीने की प्रेक्टिस कर लें, कारण 2019 में नेता लोग हमारे वास्ते स्वर्ग यहीं भारत में ला रहे हैं. दिल्ली वालों को छोड कर...वे सब तो प्रदूषण के चलते डाइरेक्ट स्वर्ग में जायेंगे. थोडे दिन की ही बात और है.

अब आप से क्या छुपाना सच बात तो ये है मैंने अपने विश्वासपात्रों को इस काम में लगा रखा है जो जल्द ही देशव्यापी आंदोलन छेड़ेंगे उन्हें ये स्क्रिप्ट भी लिख कर दी है न केवल लिख कर दी है बल्कि कई कई बार रटा भी दी है:  “..नहीं नहीं आपको चुनाव लड़ना पड़ेगा, इस देश का क्या होगा ?. समाज का क्या होगा ?. आप ऐसे हमें मझदार में नहीं छोड़ सकते. प्लीज प्लीज कुछ तो हम पर रहम करो आप चुनाव नहीं लड़ोगे ?. ये कैसा बेतुका जानलेवा फैसला है. इसे सुनने से पहले, हमारे कान क्यों न फूट गये, ये दिन देखने से पहले हमारी आँखें क्यों न फूट गयीं. ये धरती क्यों न फट गयी....हम इसमें समा क्यों न गये. हे देवा रे देवा ..इस दो दिन की ज़िंदगी में ये दिन भी देखना था कि गरीबों का मसीहा, दीन दुनियां के दुख से दुखियारा ये कहेगा कि अब वह चुनाव नहीं लड़ेगा...नहींई..ई.. कह दो कि ये झूठ है. ये एक भद्दा मज़ाक है.”


मगर देख रहा हूं कि सारी की सारी स्क्रिप्ट इन नालायकों को लिख कर देने के बावज़ूद 48 घंटे होने को आये कोई बयान नहीं आया है न कोई प्रेस कॉन्फरेंस हुई है. सारे के सारे न जाने कहां जा कर मर गये हैं. कहीं विरोधी दल उन्हे न बहला फुसलाकर ले गया हो. इसी बात का खटका लगा है. 

सोचता हूं मैं खुद ही कह दूं  कि जनता की पुकार पर और अपने निर्वाचन क्षेत्र के गरीब-गुरबा की मदद को ये हाथ जो बड़े हैं उनको अब मैं वापस नहीं खींच सकता. अंडरवर्ड की तरह ही है ये पॉलिटिक्स का खेल भी. वन वे है. आप घुस तो सकते हैं निकल नहीं सकते. आप इतने ग़ैर जिम्मेवार कैसे हो सकते हैं. मेरे से इनका दुख नही देखा जायेगा. इन्हें मेरी ज़रूरत है. मैं इनके आंसूओं को देख कर अनदेखा नही कर सकता. मैं इनकी खातिर चुनाव लड़ूंगा और ज़रूर लड़ूंगा. हाई कमांड टिकट नहीं भी देगा तो निर्दलीय लड़ूंगा. आप मुझे मेरी प्यारी जनता से दूर नहीं रख सकते. आप मुझे देश सेवा से विमुख नहीं कर सकते मुझे चुनाव लड़ने से कोई नहीं रोक सकता. मेरी प्यारी जनता मैं आ रहा हूं.... अब आपकी लाज मेरे हाथ है. सॉरी..सॉरी मेरी लाज आपके हाथ है बल्कि हाथ भी कहां आपकी उंगली में है...या कहना चाहिये कि तर्जनी के नाखून में छुपी है..प्लीज आपको मेरी कसम मैं आपकी उंगली में नीली स्याही, आँखों में इंगलिश बॉट्ली का लाल डोरा, और जेब में गुलाबी नोट देखना चाहता हूं.


जय जनता जनार्दन

Friday, July 6, 2018

व्यंग्य: मच्छरों का मोटीवेशन समिट




आजकल जगह जगह लोग-बाग अपने अपने समूह बना के रह रहे हैं, ये समूह ताकत और आम चुनाव को मद्दे-नज़र रखते हुए जाति अथवा उपजाति के आधार पर बनाये जाते हैं. ऐसे मैं अगर मच्छर पृथक-पृथक रहेंगे तो कैसे चलेगा ? उनका तो अस्तित्व ही मिट जायेगा. एक तो पहले ही मच्छर उस पर ये अलगाववाद, ये छोटे-छोटे समूह में अपनी अनर्जी बरबाद करना कहाँ की समझदारी है. अत: मच्छरों में से एक लीडरशिप उभरी और उन्होंने पार्क में एक सभा करने की ठानी. सब मच्छर भाई बहनो को फेसबुक, ट्विटर, मैसेंजर और वाट्स अप के जरिये सूचित कर दिया गया था कि ये नॉव और नैवर जैसी स्थिति है वे अब भी यूनाइट नहीं हुए तो हिट, बेगॉन स्प्रे, ऑल ऑउट जैसे दुश्मन की मिसाइल उन्हे नेस्तो नाबूद कर देंगी. पहले ही उनके यहाँ एक तरह से भुखमरी की स्थिति आ गई है. अब तरह-तरह के फैशन के चलते तमाम क्रीम और लोशन चल गये हैं जो महिलाओं को भले सूट करते हों मगर मच्छरों को कतई नहीं करते फलस्वरूप मच्छर महामारी का शिकार हो तरह-तरह की रहस्यमयी बीमारियों से जान गँवा रहे हैं.

आरंभिक फूल माला के आदान-प्रदान के बाद मच्छरों के एक नेता ने माइक सम्भाला और लगभग ललकारते हुए आव्हान किया:
“मेरे प्यारे भाइयो और बहनों ! अब समय आ गया है कि हम इन मनुष्यों को बता दें कि हम कितने शक्तिशाली हैं. ये हमें हल्के में न लें. एक के बाद एक हम पर अत्याचार करना बंद करें कभी डी.डी.टी., कभी धुंआ, कभी ये कभी वो. आखिर हमें भी जीने का हक़ है. जैसे तैसे कितनी पीढ़ियां खपा के हमनें डी. डी. टी. से इम्युनिटी हासिल की थी, हमी जानते हैं. भला हो भ्रष्ट निगमकर्मियों का कि कोई भी दवा आये वो उसमें इतना पानी मिला देते है कि हम पर बेअसर साबित होती है, चाहे मोहिनी हो या  नुआन या फिर डाई ओरान. प्रॉफिट ड्रिवन मार्किट के चलते सब के सब प्रोडक्ट बस मार्किटिंग भर हैं हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकते. 

मगर सवाल ये है कि  ये हमारी समस्त प्रजाति को नष्ट करने, मॉस्क्विटोसाइड पर क्यूं तुले हैं. रोज नई नई आर.एंड डी. हो रही है. भाईयो बहनो ! तुम मुझे आज़ादी दो मैं तुम्हें खून दूंगा. खाली-पीली भिन-भिन करने से क़ौम का कुछ भला नहीं होगा. आज़ादी बलिदान माँगती है. आओ हम मिल कर कसम खाते है कि अब कोई भी मच्छर भाई, मच्छरानी बहन या नवजात बेबी मच्छर को खून की कमी से नहीं मरने देंगे. शपथ है हम को मरने से पहले मोहल्ले के मोहल्ले को अपना दम दिखा देंगे. क्या तो डेंगू, क्या मलेरिया, क्या वाइरल, क्या चिकनगुनिया सब अस्त्र-शस्त्र हमने इस्तेमाल करने हैं. प्यार और ज़ंग में सब ज़ायज है. 

तभी मुखबिर ने खबर दी कि निगम दफ्तर में किसी सरफिरे आदमी ने इतना झुंड देख,  शिकायत कर दी है और वो अश्रु गैस की फॉगिंग गन लिये यहीं आ रहे हैं. सुनते ही सभा आनन-फानन में समाप्त कर  दी गई  इस नारे के साथ

तुम मुझे आज़ादी दो मैं तुम्हें खून दूंगा...जो हमसे टकरायेगा बुखार में तप जायेगा

और बिना धन्यवाद प्रस्ताव के सभा तितर-बितर हो गई.