Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Sunday, April 30, 2023

व्यंग्य : कोविड इंस्पेक्टर जिग्नेश शाह इंग्लैंड में

 

(पूछा जाएगा, कोविड इंस्पेक्टर जिग्नेश शाह इंग्लैंड के दौरे पर क्यों गए थे? टूरिस्ट की हैसियत से, या कोई बैंक लोन का चक्कर है या किसी नई वेक्सीन की तलाश में। नहीं वे भारत की तरफ से चिकित्सकीय आदान-प्रदान के अंतर्गत गए थे ।भारत सरकार ने वसुधैव कुटुंबकम की पॉलिसी को 70 साल में पहली बार लागू किया है अन्यथा अभी तक तो हाकिम फिजूल में सेकुलर-सेकुलर खेल रहा था। हमारी सरकार ने 70 साल में पहली बार दुनियाँ का आव्हान किया  'वन वर्ल्ड वन कोरोना' है तो 'वन वर्ल्ड वन वेक्सीन' और 'वन वर्ल्ड वन हैल्थ' भी तो होनी चाहिये।  अधिकृत घोषणा कर दी गई है दुनियाँ में किसी भी देश को हमारी एक्सपर्टीज़ चाहिए तो बोलो जिसको भी हमारा फायदा उठाना है तो उठा लो, पीछे अपने को सुनने को नहीं मांगता। यह सुन बरतानिया सरकार ने भारत सरकार को लिखा , अब वाकई लिखा या झूठ-मूठ ये फैलाया गया या जबरदस्ती हमारे राजदूत को ई डी सी बी आई भेज कहलवाया गया (आखिर अगले को भी अपनी नौकरी बचानी है।) कहते हैं बरतानिया सरकार ने लिखा:

“यों हमारी सभ्यता बहुत आगे बढ़ी है. पर हमारी वेक्सीन पर्याप्त सक्षम नहीं है कि वह कोविड पर काबू पा सके। उसे खत्म करने में अक्सर सफल नहीं होती. सुना है, आपके यहाँ रामराज है. मेहरबानी करके किसी कोविड-अफसर को भेजें जो हमारी मेडिकल की एम.डी., एफ. आर. सी. एस. टीम और  उच्चअफसरों को प्रशिक्षित कर सके)

 

                    वैज्ञानिक कहते हैं इंग्लैंड के पास कायदे की वेक्सीन नहीं है है भी तो वेक्सीन लगाने की कोई तर्कसंगत पॉलिसी नहीं है। सीनियर कोविड इंस्पेक्टर जिग्नेश शाह (प्यार से जिग्नेश भाई) का कहना है वैज्ञानिक झूठ बोलते हैं वेक्सीन तो है पर लगाने की पॉलिसी नहीं होनी है !  पॉलिसी होगी तो  भाषा नहीं और भाषा होगी तो हमारे जैसे भाषण नहीं होंगे।

 

विज्ञान ने हमेशा जिग्नेश भाई से मात खाई है। कोई भी कहता रहे वेक्सीन खत्म, जिग्नेश भाई मानते ही नहीं तुरंत जिग्नेश भाई दस चैनलों से 48 घंटे तक लगातार वेक्सीन लगाने के सीन चलाते रहते हैं और इंटरव्यू में लोग कहते हैं इतनी उम्र हो गई इतने अच्छी वेक्सीन न देखी, न सुनी और न लगवाई। दर्द ही नहीं होता, उल्टा हल्की सी गुदगुदी होती है।

 

जिग्नेश भाई कहते हैं ये अंग्रेज़ लोग केस का पूरा इन्वेस्टिगेशन तो करते नहीं, वेक्सीन मिलते ही गाल बजा दिये:

 

सब को लगेगी !

फ्री लगेगी !

कोई पार्टी पॉलिटिक्स नहीं ! कोई उम्र का लिहाज नहीं !  कोई छोटे-बड़े का ख्याल नहीं।

कोई ये नही कि आयरिश को बाद में वेल्स और स्कॉटलैंड को पहले।

पहले कंजरवेटिव को लगेगी बाद में लेबर पार्टी का नम्बर लगेगा

कौन काउंटी पहले, कौन बाद में, पहले रूलिंग पार्टी वालों को लगेगी, बच गई तो विपक्षियों को ऐसी कोई तर्कसंगत पाॅलिसी नहीं थी अत: जो थी सो फेल होनी ही थी। पूरा का पूरा प्रोग्राम चौपट।

गृह मंत्री ने सचिव से कहा- किसी डॉक्टर-फाॅक्टर को भेज दो। आखिर उन पर हेलीकाॅप्टर से फूल किस दिन के लिए गिरवाये थे ? कोई है अपना बंदा ?

 

 

सचिव ने कहा- नहीं सर डॉक्टर को नहीं भेजा जा सकता, कोई जाने को तैयार नहीं होगा, महीनों से उन्हे वेतन नहीं मिला है। भले इंग्लैंड ने हमारे ऊपर बरसों राज किया, अब और नहीं। ये पुरानी सरकार नहीं। किसी सीनियर इंस्पेक्टर को भेज देता हूँ। तय किया गया हजारों मामलों के इन्वैस्टिगेशन ऑफिसर और सैकड़ों केसों को दबाने वाले कोविड इंस्पेक्टर जिग्नेश शाह को भेज दिया जाये

 

 

इंग्लैंड की सरकार को लिख दिया गया कि आप जिग्नेश भाई को लेने के लिए यान भेज दो या हम दो विमान खरीद ही रहे हैं उसी ऑर्डर को तीन कर देते हैं पैसे आप दे देना हमारे स्केयर फंड में। डरें नहीं, स्केयर बोले तो सीक्रेट केयर फंड, इसलिये शाॅर्ट में स्केयर फंड।

मंत्री जी ने जिग्नेश भाई को कहा- तुम भारतीय कोविड–19 की उज्जवल परंपरा के दूत की हैसियत से जा रहे हो ऐसा काम करना कि सारी दुनियाँ में हमारी इतनी जय-जयकार हो कि नोबल प्राइज़ कमेटी को भी सुनाई दे जाये और इस शोर शराबे के घने बादलों का हम बेनीफिट ले सकें।

 

 

जिग्नेश भाई की यात्रा का दिन आ गया. वे धीरे-धीरे कहते जा रहे थे, ‘प्रविसि नगर कीजै सब काजा, ह्रदय राखि कौसलपुर राजा.’...होय है वही जो राम रचि राखा

 

 

       यान के पास पहुँच जिग्नेश भाई  ने मुंशी जयेश भाई को पुकारा- ‘मुंशी!’

  जयेश भाई ने जय श्री कृष्णा कहा और पूछा – सू छे ?

 

    फोटो लगे वेक्सीन सेर्टिफिकेट के सेंपल रख दिये है?

 

      जी , जिग्नेश भाई.

 

      और वैक्सीन लगवाने को रजिस्ट्रेशन कराने का नमूना?

 

     जी, भाई !

 

माइक्रोस्कोप ?

 

वो क्यूं ?

अरे इससे रौब पड़ता है। यदा-कदा उससे भी देखना चाहिये, आदमी पढ़ा-लिखा और साइंटिफिक टैम्पर वाला लगता है।

 

      वे यान में बैठने लगे. कंपाउंडर नानूभाई को बुलाकर कहा- हमारे हर अस्पताल में बड़ी बड़ी मूर्ति लगाने के काम में तेजी लानी है।

          नानूभाई ने कहा- जी, जिग्नेश भाई

           जयेश भाई ने कहा – आप बेफिक्र रहें ! मैं अखबार और चैनलों में 48  घंटे इस न्यूज को चलवा दूंगा कि इंग्लैंड ने 70 साल में पहली बार हमसे मदद मांगी है। अखबारों में इस बात के पूरे के पूरे पेज के विज्ञापन भी डलवा दूंगा।

         जिग्नेश ने यान के चालक से पूछा – तेरे को कोरोना तो नहीं है?

 नहीं है साहब !

 और टीका-वीका लगवा रखा है?

 जी हां.

 कौन सा ? मेरा वाला न! रूसी-फूसी तो नहीं लगवा लिया

            जिग्नेश भाई ने कहा, सब ठीकठाक होना चाहिए, वरना हरामखोर ! बीच आसमान में देशद्रोह के आरोप में अंदर करा दूँगा.

           इंग्लैंड से आये चालक ने कहा- हमारे यहाँ आदमी से इस तरह नहीं बोलते.

            जिग्नेश ने कहा- जानता हूँ बे ! तुम्हारी पूरी की पूरी चिकित्सा प्रणाली ही कमज़ोर है. अभी मैं उसे ठीक करता हूँ

             वे यान में बैठे और यान उड़ चला. उन्होंने चालक से कहा- अबे, सायरन क्यों नहीं बजाता?

            चालक ने जवाब दिया- आसपास सैकड़ों मील में कुछ नही

 

 

 

 

विकास फ़रोश

 

जी हां हुजूर मैं विकास बेचता हूं

मैं तरह तरह के विकास बेचता हूं

मैं किसिम किसिम के विकास बेचता हूं

हां जी हां मैं विकास बेचता हूं

जी माल देखिये दाम बताऊंगा

बेकाम नहीं हैं काम बताऊंगा

कुछ विकास किया है मस्ती में मैंने

कुछ विकास किया है पस्ती में मैंने

यह विकास फ्री मोबाइल लायेगा

ये विकास पिया को बुलेट ट्रेन से बुलायेगा

जी पहले ही दिन से नहीं शर्म लगी मुझको

बाद में और भी अक्ल जगी मुझको

जी लोगों ने तो बेच दिये अपने ईमान

आप न हों सुनकर हैरान

मैं सोच समझ कर आखिर विकास बेचता हूं

यह 'विकास माॅडल' गुजरात का है आकर देखें

यह विकास गोरखपुर हाॅस्पीटल का है बच्चा दाखिल कर देखें

यह विकास कुकिंग गैस का है पका कर देखें

यह विकास डीजल-पेट्रोल का है चला कर देखें

यह विकास LED बल्ब का है जला कर देखें

यह विकास हिन्दू को मुस्लिम से लड़ाता है

यह विकास गोबर से सोना बनाने का तरीका बताता है

यह विकास गोमूत को अमृत बनाता है

ध्यान से देखिये श्रीमान

ये विकास बीफ के एक्सपोर्ट का है

ये विकास ट्रिपल तलाक के कोर्ट का है

ये विकास, प्लानिंग कमीशन को रातोंरात नीति आयोग कर देगा

ये विकास रेसकोर्स का लोक-कल्याण कर देगा

ये विकास एक के बदले दस सर लायेगा

ये विकास किसान को जवानी में स्वर्ग ले जायेगा

ये विकास विरोधी को अदालत ले जाता है

ये विकास शहर में दंगे कराता है

ये विकास दलित के साथ पंगे कराता है

ये विकास लव जिहाद के बंदे का है

ये विकास आज के नेता, कल तलक के गुंडे का है

जी विकास देवताओं की सर्जरी का लिखूं

जी विकास पुष्पक विमानों की साॅर्टी का लिखूं

ये विकास रेल में बच्चे को

दवाई-दूध पिलायेगा

ये विकास पड़ोसी बच्चे को मेडीकल वीज़ा को हैडलाइन्स बनायेगा

ये विकास एंटी रोमियो बनाता है

ये विकास आपके शहर को स्मार्ट सिटी बनाता है

ये विकास नये नये नोटों का है

ये विकास 'अच्छे दिन' कह वोटों का है

ये विकास मार्गदर्शन मंडल को मार्ग भुलायेगा

ये विकास 2022 के झूले में झुलायेगा

मैं विकास ही तो करता रहता हूं दिन रात

तरह तरह का बन जाता है विकास

रूठ रूठ कर मन जाता है विकास

जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूं

आपकी मर्जी और दिखाता हूं

मैं बिल्कुल अंतिम और दिखाता हूं

या 'भीतर' जाकर पूछ आईये आप

है विकास बेचना वैसे बिल्कुल पाप

क्या करूं मगर हूं आदत से लाचार

मुझे 'कुर्सी' से है बेइन्तिहा प्यार

इसलिये हुजूर मैं विकास बेचता हूं

(स्व.भवानी प्रसाद मिश्र से क्षमा याचना के साथ)

 

Saturday, April 15, 2023

दिशाहीन दलित रिनेसां

 


 

                                  डॉ. भीमराव अंबेडकर, अपने लाखों अनुयायियों के लिए बाबा साहब’, सामाजिक-राजनीतिक क्षितिज पर एक ऐसे समय में आए थे, जब सामान्यतः समाज और देश को और विशेष रूप से दलितों को उनकी सबसे अधिक आवश्यकता थी। यह वह समय था जब एक नया राष्ट्र अपनी भ्रूण अवस्था में था। दलितों के साथ दैनिक जीवन मेँ रूटीन में होने वाले अत्याचार और भेदभाव से उत्पन्न दुखों का निवारण एक ऐसा क्षेत्र था जिसके लिए उन्होंने संघर्ष करने का मार्ग चुना। वजह हमारी तलाश से दूर नहीं,  वे खुद तमाम मुश्किलों को झेलते हुए बड़े हुए थे । वे मूक साक्षी बने नहीं रह सकते थे, वे उन सभी अपमानों से खुद गुजरे थे जिन पर उन्हें कदम-कदम पर बेइज़्ज़त होना पड़ा था और वह तब भी जारी रहा जब उन्होने शिक्षा के सर्वोच मापदंडो को अपनी अथक मेहनत से प्राप्त किया था। उनके और उस युग के लगभग सभी नेताओं के बीच मुख्य अंतर यही था, स्वतंत्रता संग्राम के ज़्यादातर नेता संपन्न कुलक वर्ग से आते थे। अगर उस ज़माने का कोई एक ऐसा नेता था जिसे 'सेल्फ मेड' कहा जा सकता था तो वह वे बाबासाब ही थे। जब दलितों के उत्थान की बात आई तो उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा और उग्र जुनून के साथ अपना रास्ता चुन लिया। उनके लिए राजनैतिक शक्ति असहाय जनता के उत्थान में मदद करने का एक साधन मात्र थी, जिसका वे प्रतिनिधित्व करते थे, जबकि दूसरों के लिए शक्ति एक फाइनल ट्रॉफी की तरह थी और दलित आंदोलन केवल उस शक्ति को हथियाने का एक सुविधाजनक बहाना या रास्ता था। अफसोस यह खेल कमोबेश सभी राजनैतिक दलों मे आज भी जारी है

 

 

                               कोई आश्चर्य नहीं कि 1956 मेँ उनके निधन के बाद दलित आंदोलन को गहरा झटका लगा। उनसे कमान संभालने वाला कोई अखिल भारतीय स्तर का बड़ा नेता राजनैतिक पटल पर था ही नहीं। हमारे पास कौन बचा था ? जो थे वे सीमित ऊर्जा, संकुचित विज़न और निस:प्रभावी और क्षेत्रीय थे। यह वैक्यूम अचानक नहीं बना था। वास्तव में, बाबासाब की स्थापित रिपब्लिकन पार्टी दूसरी संसद में सर्वाधिक दस सदस्यों को भेज पाने मेँ समर्थ/  सफल रही थी। बुर्जुआ वर्ग के पास सभी साधन थे जिससे वे लंबी दूरी के लक्ष्य रख सकते थे। वे 'सहानुभूति रखने' का ड्रामा बड़े ही लाव-लश्कर के साथ खेल सकते थे। वे आवश्यक साधन और धैर्य दोनों से लैस थे। दोनों मिलकर दलित आंदोलन की रीढ़ तोड़ सकते थे। साठ के दशक में दलित नेताओं को समझ आ गया कि सत्ता बहुत जरूरी है यदि आंदोलन को कहीं ठोस जगह पहुंचाना है। अतः सत्ता के साथ बेरोकटोक गल-बहियाँ और मेल-जोल देखा गया।  यद्यपि तब के देश के शीर्ष नेतृत्व ने दलित आंदोलन और  दलित नताओं खासकर जो सुर में सुर नही मिलाते थे उनका आकार और कद दोनों में कमी की। बंगाल में जोगिंदरनाथ मंडल थे तो बिहार में बाबू जगजीवन राम जिन्हे कांग्रेस सत्तर के दशक के अंत में उनके सी. एफ. डी. (कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी) बनाने के लिए अलग होने तक शो केस में प्रदर्शित करती रही। यद्यपि वे एक कुशाग्र प्रशासक और विलक्षण प्रतिभावान नेता थे। हमारे पास दक्षिण में पेरियार के बाद राय बहादुर एन. शिवराज थे,  जो अपने अनुयायियों के बीच 'डैडी' के नाम से लोकप्रिय थे लेकिन अफसोस! वह भी लंबे समय तक न रहे।  उनका प्रभाव क्षेत्र दक्षिण तक सीमित था। उत्तर भारत  में प्रोफेसर बी.पी. मौर्य एक भावुक वक्ता और दलित हितों के प्रखर चैंपियन के रूप में उभरे। अफसोस की बात है कि तत्कालीन सत्ता के साथ उनके घनिष्ठ मेल-जोल ने उन्हें सरकार में मंत्री पद तो दिला दिया पर यही उनके राजनैतिक जीवन का दुखद अंत था और वे एक तरह से अज्ञातवास में चले गए और फिर प्रकट हुए भी तो बी.जे.पी के कारिंदे के तौर पर जहां उनके एक लेफ्टिनेंट संघ प्रिय गौतम पहले ही अलग-थलग यूज़ एंड थ्रो नीति के तहत गुमनामी में जी रहे थे।

 

तभी दलित पैंथर्स महाराष्ट्र की सरजमीं से एक बड़े धूमकेतु की तरह उठ खड़ा हुआ था। गरीब असहाय जनता की ढेर सारी उम्मीदें और अपेक्षाएं लेकर। आंदोलन को आगे ले जाने के लिए उनके पास बौद्धिक समर्थन के साथ-साथ एक मजबूत और अनुशासित 'बॉडी' भी थी। परंतु यह बहुत समय तक नाही टिक सका और देखते-देखते बिना कुछ करिश्मा या सार्थक किए फुस्स हो गया। कोई भी दलित आन्दोलन जब तक सरकारी समर्थन की बैसाखियों पर टिका रहता है, तब तक सामान्य रूप से गरीब जनता के लिए कुछ भी सार्थक दावा नहीं कर सकता। दलित नेतृत्व को देर-सबेर यह महसूस करना होगा कि धारा के अनुकूल तैरने से उन्हें व्यक्तिगत पहचान तो मिल सकती है, लेकिन नहीं मिल सकता है तो वह है जनाधार, लोकप्रियता और अपने लोगों' के लिए कुछ भी सार्थक कर पाने की आज़ादी।

 

 

दलित आंदोलन की सबसे बुरी गत  महाराष्ट्र में हुई वह महाराष्ट्र जहां इसकी जड़ें थीं। भक्ति आंदोलन के उदय और उसके बाद से दलित उत्थान का उद्गम स्थल होने का दम भरने वाली  भूमि में अचानक नेताओं की कमी हो गई। अब तक उपेक्षित समाज में नवजागरण लाने के उदात्त कार्य के लिए प्रतिबद्ध और अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की मंडली दुनिया में सबसे अच्छा उदाहरण थी कि कैसे एक आंदोलन को विभिन्न रूपों में जनता के लिए जनता को साथ लेकर आगे बढ़ाया जाता है, चाहे वह रंगमंच हो महाराष्ट्र की तमाशा शैली में नाटक,  मंदिर में प्रवेश, तालाब से पानी लेना या अन्य बौद्धिक विचार विमर्श।  महाराष्ट्र में,  भैय्या साहब यशवंत राव अम्बेडकर, (बाबासाब के इकलौते सुपुत्र)  इस अवसर का सदुपयोग करने और  जनता को  नेतृत्व देने में विफल रहे। उनके पास  कोई दीर्घकालीन अजेंडा नही था। कार्यक्रम नहीं था। तब तक सत्ता पहले ही आंदोलन को दबोच चुकी थी। काबू कर चुकी थी। हमारे पास नासिक के कर्मवीर दादासाहब बी. के. गायकवाड़ एकमात्र मशाल वाहक थे लेकिन उन्हें भी लोकसभा या राज्यसभा में प्रवेश  के लिए कांग्रेस के समर्थन की आवश्यकता थी। अन्य सभी दलित नेतागण राष्ट्रीय नेतृत्व की गिनती में ही नहीं थे, चाहे वह बी सी कांबले हों। बैरिस्टर बी.डी. खोब्रागड़े, अन्ना साहब पाटिल या आर.एस. गवई। उनकी दूर दृष्टि यदि कोई थी भी तो बहुत सीमित थी और वे छोटी-मोटी  उपलब्धि से खुश हो जाने वाले थे और अक्सर जो मिल जाये उसी में खुशी पाते थे।

 

 

स्वतंत्रता आंदोलन के युग की यह पीढ़ी जो आज़ादी के महान आंदोलन से प्रेरित थी और भारत की आज़ादी मे शामिल थी जब एक बार फीकी पडने लगी तो , हम उन स्वयंभू नेताओं के साथ रह गए जो खुद ही 'नेतृत्व' की खोज कर रहे थे और कैसे भी सत्ता की गुड बुक्स में आना और रहना चाहते थे मंत्रिपरिषद की एक अदद सीट मिल जाये इतना सा अरमान था। हमारे पास बहुत सारे 'युवा' नेता थे जो स्थानीय निकायों की सदस्यता/अध्यक्षता के रूप में बहुत अल्प की अभिलाषा रखते थे। उनके लिए यह स्वयं की सेवा, मान्यता और धन प्राप्ति का एक आसान माध्यम मात्र था। कैरियर राजनयिकों की तरह,  हमारे पास कैरियर राजनेताओं की एक छुटभैया नई नस्ल थी, किसी भी आंदोलन के लिए यह बुरी स्थिति है। ऐसे ही यह, दलित आंदोलन के लिए खराब साबित हुई। रामविलास पासवान,  कभी सबसे अधिक मार्जिन के साथ लोकसभा चुनाव जीतने के लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में प्रवेश पाने वाले नेता थे , एक के बाद एक सरकार में मंत्री पद के लिए होड़ ने उनकी  लीडरशिप क्षीण कर दी।

 

अब तक दलित नेता वास्तव में एक प्रकार से 'धर्मनिरपेक्ष' हो गए थे,  उन्हें किसी भी समूह या राजनीतिक दल के साथ रहने में न कोई झिझक थी, न शर्म और न पछतावा ही था। उनकी प्राथमिकता स्पष्ट थी,  लायिलिटी संदिग्ध थी और विचारधारा मृतप्राय: थी। दलित आंदोलन अपने रसातल पर पहुँच चुका था।

 

                         प्रकृति को वैक्यूम पसंद नहीं। धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से,  स्वर्गीय श्री कांशी राम,  हालांकि थे पंजाब से लेकिन महाराष्ट्र उनकी 'कर्मभूमि' थी और वहीं से निकले डीएस-4, बामसेफ और अंत में बसपा के माध्यम से अपने मिशन में लगन से व्यस्त थे। बसपा की अपनी ताकत और कमज़ोरियाँ थीं लेकिन एक बात नेतृत्व शुरू से ही जानता था यदि अपना नाम और जलवा कायम रखना है तो हमेशा धारा के विपरीत तैरना होगा।  आंदोलन को अस्थायी और और किसी पद-लालसा की अदला-बदली के रूप में थाली में नहीं सौंपा जा सकता था। जब भी गठबंधन का समय आता था, वह बसपा की शर्तों पर होता। और जैसी कि कहावत है बसपा ने एक इतिहास बनाया। बसपा के समय दलित आन्दोलन अपने चरम पर पहुँच चुका था।

 

             बैंकों,  रेलवे और अन्य पी. एस. यू. के एस. सी. / एस. टी. कर्मचारी संघों के युवा कंधों पर धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से नेविगेट करने की एक बड़ी और ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। हालांकि विनिवेश और विलय के कारण हाल के दिनों में इसमें भारी गिरावट आई है।  यह छोटे-छोटे समूह बिग-ब्रदर--बिग-ब्रदर खेल में छोटे-बड़े राजनेताओं के एक निवाले/चारे के रूप में अधिक हो गए हैं।

 

          दलित नेतृत्व को यह बात समझनी होगी और अच्छी तरह गांठ बांधनी होगी कि आप जब-जब धारा के साथ तैरते हैं तो आप महज़ पद लोलुपता के लिए अपनी विश्वसनीयता खो देते हैं और उसके खोते ही अपनी  पहचान खो देते हैं। धारा के विरुद्ध तैरना होगा; अपने कार्ड्स को एक कुशल मंजे हुए खिलाड़ी की तरह से खेलना होगा, तभी आप दलित पुनरुत्थान के इतिहास में अपनी कोई छाप छोड़ पाएंगे। लेकिन इसके लिए आपको दृढ़ इच्छाशक्ति,  मजबूत रणनीति और सबल दूर-दृष्टि की जरूरत है और इसकी शुरुआत होती है बाबा साब के कालजयी नारे से 'शिक्षित बनो...संगठित बनो...आंदोलन करो



 

             

                                                                      लेखक भैया साब यशवंत राव अंबेडकर के साथ उनके निवास राजगृह दादर मे (1974)

Friday, April 14, 2023

व्यंग्य : नया सिलेबस ज़िंदाबाद


मुझे बेहद खुशी हुई जब पता चला कि इब्ने सफी साब के जासूसी, गुलशन नंदा जी के सामाजिक/रोमांटिक और वर्दीवाला गुंडा आदि स्कूल-काॅलेज में पढ़ाये जायेंगे। काश: ये हमारे दौर में होता तो इनको पढ़ते हुए रंगे हाथों पकड़े जाने पर हमें थर्ड डिग्री यातनाओं से नहीं गुजरना पड़ता। खुलेआम पढ़ते और कहीं-कहीं तो इसके ट्यूशन/कोचिंग सेंटर भी खुल जाते। अपने वक़्त में तो हमें ये और इसी तरह की तमाम किताबें, कोर्स की किताब में छुपा कर पढ़नी पड़ती थीं। उसमें भी हमेशा खटका लगा रहता था अब पकड़े गये-अब पकड़े गये। अब सब कितना खुला हो रहा है। खुला खेल फर्रुखाबादी

सोचने वाली बात है कि ये साइन थीटा, कौस थीटा, ट्रिगनोमैट्री, कैमिस्ट्री, फिजिक्स, स्कयार रूट, रेल की रफ्तार बताओ, एक मकान इतने मजदूर इतने दिन में बनाते हैं तो...आदि आदि जब से स्कूल/काॅलेज छोड़ा ये भी वहीं छूट गये और दुबारा कभी जीवन में इनकी ज़रूरत नहीं पड़ी। बोले तो कभी काम नहीं आये। जबकि वर्दीवाला गुंडा आज भी हम सबके दैनिक जीवन में पैठ लगाये है। उसी तरह झील के उस पार, कटी पतंग, सभी तो खूब ही रिलेवेंट हैं।

साइबर क्राइम/डेटिंग एप के ज़माने में कुछ सम्मानित सांभ्रांत लेखकगण किताबों में आने से रह गये। सिलेबस में भले नहीं आ पाये मगर पढ़े जाते हैं और खूब पढ़े जाते हैं बल्कि कोर्स की किताबों से कहीं अधिक सुलभ और सस्ते हैं और कालज़यी हैं। बस अब प्रतीक्षा है कि काला जादू, सिर कटा भूत, चीखती लाशें, खज़ाने का रहस्य, देवर-भाभी विनोद, किस्सा तोता मैना, जीजा-साली चुटकुले आदि और आ जायें तो सिलेबस सही मायने में संपूर्ण समावेशी हो जायेगा। सोचो विद्यार्थी कितना मन लगा कर पढ़ेंगे।

देखिये डर, रोमांस, जासूसी-सजगता, जीवन का अहम हिस्सा है। यह 21वीं सदी है। अब शेक्सपियर, प्रेमच॔द, टाॅलस्टाॅय, चार्ल्स डिकन्स नहीं चल पाएंगे। उतनी पेशेंस किसके पास है? आज के पेगासस और जामताड़ा के युग में एक नागरिक वर्दी वाला गुंडा, कैप्टन हमीद और जेम्स बांड बनना चाहेगा। उसे बनना पड़ेगा, तो अच्छा है न स्कूल-काॅलेज से ही वह तैयार हो कर निकलें। भई अगर वो नित नये नये ढ॔ग से आपको ठगने के उपाय /युक्ति निकाल रहे हैं, सीख रहे हैं तो यह आवश्यक है कि आप भी डाल-डाल, पात-पात पर शाना-ब-शाना रहें। क्या ओ. टी.पी. क्या ऑन-लाइन फ्राॅड, सब में भीषण आर. एंड डी. चल रहा है। अत: हमें फुल्ली इक्विप रहना है खासकर हमारी नई पीढ़ी को

अत: इस नये पाठ्यक्रम का दिल से स्वागत है। जब नागरिक कर्नल विनोद की तरह सजग होंगे तो स्थानीय पुलिस, सी. बी. आई. जिन पर राष्ट्र निर्माण के अत्यंत महत्ती कार्य हैं उन्हें देखे या तुम्हारा रोना सुने। अत: ये नया सिलेबस हमें आत्म निर्भर बनाएगा। वही हमारी सरकार का सपना भी है।

नोट: इस पाठ्यक्रम पर आधारित प्रश्नपत्र भी कम रोचक न होंगे मसलन-

1. कटी पतंग, और झील के उस पार कथानक का तुलनात्मक अध्ययन।
2. उन्नतिशील सामाजिक दायित्व निभाने में गुलशन नंदा जी के उपन्यासों का योगदान
3. क़त्ल के केस सुलझाने में कैप्टन हमीद की माॅडस ऑपरेंडाई कर्नल विनोद की शैली से कितनी भिन्न है।
4. वर्तमान लाफ्टर चैलेंज और काॅमेडी शो के युग में कासिम का हास्य बोध कितना प्रासंगिक है
5. समाज को वर्दीवाले गुंडे की जरूरत आज सार्वाधिक है। अपने विचार रखें।
6. गुंडों की एक निर्धारित वर्दी होनी चाहिए ताकि कपड़ों से उनकी पहचान आसानी से हो सके आपके क्या विचार हैं सकारण लिखें।
7. एक आदर्श जासूस की सफलता में हैट, सिगार, ओवरकोट और ग्लव्ज की भूमिका
8. गुलशन नंदा जी के लेखन में नारी सशक्तिकरण और स्त्री विमर्श

मशहूर शायर तहज़ीब हाफ़ी का वो शेर इसी मौजू के लिए लिखा लगता है:

तुम्हें हुस्न पर दस्तरस है
मुहब्बत मुहब्बत बड़ा जानते हो
तो फिर ये बताओ कि तुम उसकी आँखों के बारे में क्या जानते हो
ये जुगराफिया,फलसफा, साइंस,सायकाॅलाॅजी रियाजें वगैरा
ये सब जानना भी अहम है मगर
उसके घर का पता जानते हो

Monday, April 10, 2023

व्यंग्य: फ़िराक़ तुम हो किस फ़िराक़ में

 

खबर गरम है कि मुग़लों को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है और इस तरह हमने पानीपत की 1526 ई. की पहली लड़ाई का बदला ले लिया है भले 500 साल लगे। हमारी चक्की धीरे पीसती है मगर महीन पीसती है। तो अब जब मुग़ल नहीं रहे। सुल्तान नहीं रहे। क्या गौरी, क्या क़ुतुबद्दीन, क्या खिलजी, क्या तुग़लक सब एक ही झटके में हलाल कर दिये गये हैं। तब उनकी ज़ुबां उर्दू कैसे सलामत रहती। अत: उर्दू के शायर फ़िराक़ साब कैसे महफूज रहते। 'अर्बन नक्सल' किस्म के लोग भले कहते फिरें कि उर्दू हिंदुस्तान की ज़ुबां है या कि फ़िराक़ बस फ़िराक़ भर नहीं रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी हैं। यूं इससे तो ये और भी साबित होता है कि हम हिंदू-मुसलमां में फर्क नहीं करते। अपनी पावन उर्वरा भूमि से एक झटके में हमने आक्रमणकारियों को बाहर कर दिया। अब हमें पुन: सोने की चिड़िया बनने से कोई नहीं रोक सकता। ये लोग 'ऑउट ऑफ सिलेबस' 'ऑउट ऑफ माइंड' ही नहीं हुए कहना चाहिये हिस्ट्री भी नहीं हुए। बल्कि 'ऑउट ऑफ हिस्ट्री' हो गये। इसे कहते हैं 'मास्टर स्ट्रोक'

बस एक ही भानगड़ है अब ताजमहल, लालक़िला, क़ुतुबमीनार को किसने बनाया बताएंगे। हम कहेंगे हमारे मज़दूर भाईयों ने बनाया। मुग़ल आदि आये उनसे पहले ही ये यहां थे। ऐसे अवशेष मिलते हैं। यूनेस्को वगैरा से कहलवा देंगे। जन गण मन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान घोषित करने के बाद बस ये एक छोटी सी घोषणा और कर दें हमारे फेवर में

लगे हाथों आनन-फानन में इनका नामकरण भी कर दीजिये। यथा ताजमहल तेजोमय भुवन, क़ुतुबमीनार विष्णु स्तंभ, लालक़िला इन्द्रप्रस्थ दुर्ग, इसी लाइन पर मक़बरे भी पुनर्नामकिंत किये जा सकते हैं। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु से मुग़ल काल का अंत माना जाता है मगर असल अंत तो अब हो रहा है। इसी प्रकार दो पाँच सौ साल बाद हमने अरुणाचल के अपने वो ग्यारह गाँव भी ले लेने हैं तुम देखते रहना

चलिये अब बात करते हैं फ़िराक़ साब की। मुझे लगता है फ़िराक़ साब अपने तखल्लुस (उपनाम) से गच्चा खा गये। शायद नेताजी को किसी जानकार ने बताया नहीं कि वे महज़ फ़िराक़ नहीं बलकम रघुपति सहाय हैं। गोया कि फ़िराक़ साब की इमदाद को रघुपति भी नहीं आये। फ़िराक़ साब को भी संस्कृत नहीं तो हिन्दी में रचनाएं, श्लोक, दोहे, चौपाई लिखनी चाहिये थी। भूल गये ! आपकी कर्मभूमि प्रयागराज रही है। आपको 'पुष्प-गीत' की रचना करनी चाहिये थी। पर नहीं। आपने लिक्खा ग़ुल-ए-नग्मा। ये ज्ञानपीठ वालों को भी पकड़ा जाये। क्यों भाई ये ग़ुल ए नग्मा की तुमने एंट्री ही क्यों ली ? उन्हें भी कहां पता था कालातंर में बुलडोजर का आविष्कार होगा।

खैर ! देर आयद दुरुस्त आयद। सिलेबस से सभी अवांछित तत्वों को हटाकर हम भारत को समूचा सम्मान, स्वाभिमान, स्वराज, दिलाएंगे और स्वावलंबी बनाएंगे। 'कोई शक़ ?' ओह आई मीन 'कोई संदेह ?'