Ravi ki duniya

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Friday, December 19, 2014

व्यंग्य: मैं जासूस ....


जब से मैंने होश सम्भाला तभी से मैं जासूस बनना चाहता था. किस्मत देखिये कि बन गया रेलवे में बाबू. यूँ जासूसों वाले सारे गुण मुझमे भगवान ने रिवॉल्वर के बट से कूट कूट कर भरे हुए थे. जब मैंने जासूस बनने का निश्चय किया तो सबसे पहले ये परेशानी पेश आई कि मैं किस किस्म का जासूस बनना चाहता हूं. कैप्टन हमीद टाइप, कर्नल विनोद टाइप, कर्नल रंजीत टाइप या फिर जेम्स बॉन्ड टाइप. क्यों कि जेम्स बॉन्ड की सारी की सारी फिल्में एडल्ट होती थीं और तब गेट मैन ईमानदार होते थे चुनाँचे मेरा थियेटर में घुसना मुश्किल ही नहीं नामुमक़िन था. अत: सालों साल मुझे पता ही न चला कि जेम्स बॉन्ड किस किस्मका जासूस है अलबत्ता पोस्टर से लगता था कि वह ट्रिग़र हैपी हमेशा रिवॉल्वर और हसीनाओं से घिरा रहने वाला था. हसीनायें भी ऐसी वैसी नहीं. सब की सब सदैव टू पीस बिकनी में होती थीं. अब इंडिया जैसे देश में तब ऐसी हसीनायें कहाँ से मुहय्या होतीं ? अत: मेरा जेम्सबॉन्ड बनना मुलतवी होता रहा. सवाल देश की सेफ्टी का था अत: ज्यादा दिन मेरा जासूस बनना टालना नेशनल इंटरेस्ट में नहीं था. इस बीच मैंने जितने भी मार्किट में जासूसी नॉवल थे सब कोर्स की किताब से भी ज्यादा सीरियसनैस के साथ पढ़ डाले थे. ऑफ कोर्स हिंदी वाले.


अब मैं मन ही मन अपने को जासूसों के साथ हर केस में पाता था. मुझे उनकी रिवॉल्वर के ब्रांड से लेकर उनकी कारों के ब्रांड यहां तक कि उनके पाइप पीने या कौन सी सिगरेट वो पीते हैं सब आदतें पता थीं. उन दिनों अगर कोई मेरा एक्जाम ले लेता जासूसों के बारे में तो मेरा कैम्पस सलेक्शन में फर्स्ट आना तय था. मगर ऐसा हो न सका और मैं जानता हूं मेरे जॉयन न करने का नुकसान आज तक देश की एजेंसी उठा रहीं हैं. इस लॉस से रॉ और सी.बी.आई आज तक नहीं उबर पाईं हैं.


अब आप जानना चाहेंगे कि मैं एक सफल जासूस क्यों नहीं बन सका ?. नहीं नहीं जैसा आप सोच रहे हैं ऐसा कुछ नहीं.. सी.आई.ए. या के.जी.बी. मेरे पीछे नहीं पड़ी थी. न ही उन्होंने भारत सरकार पर कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दबाव डाला कि इस शख्स को इंटैलीजेंस एजेंसी में न लिया जाये इससे दो देशों के फॉरेन रिलेशंस पर प्रतिकूल असर पडे‌गा
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कहते हैं कि दुश्मन घर में ही छिपा रहता है. बस तो भाई साहब सबसे पहले तो मुझे अपने एक आने, दो आने के जेब खर्च से जासूसी के सारे उपकरण जुटाने थे. सोफिस्टिकेटड उपकरणों की बारी तो बहुत बाद में आनी थी. पहले तो जो अनिवार्य वस्तुएं थीं उन्हीं को जुटाने में पसीने छूट गये. इतने सारे जासूसी नॉवल का गहन अध्ययन करके मैंने एक लिस्ट तैयार की थी.

लम्बी कार : कनवर्टिबल हो तो बेहतर. मैंने कोई माई का लाल जासूस आज तक ऐसा नही देखा, सुना या पढ़ा जो डी.टी.सी. की बस या ऑटो से जासूसी करता हो. दुश्मन फाइल, माइक्रो फिल्म या डायरी जिसमें दुश्मन के सभी ठिकानों के पते होते हैं, ले कर ये जा वो जा और आप टापते ही रहें कि 327 नम्बर की बस कब आयेगी या तीव्र मुद्रिका कब आयेगी अथवा स्कूटर वाला पीछा करने को तैयार होगा भी कि नहीं वो कह सकता है कि वो उस साइड जा ही नहीं रहा जिस साइड देश के दुश्मन माइक्रो फिल्म लेकर भागे जा रहे हैं. मेरे जानने वाले सभी जासूस मर्सीडीज़, शैवरलैट, ब्यूक, सेडान, इम्पाला से कम में दुश्मन का पीछा नहीं करते थे. फियेट और अम्बैसडर वाले जासूस नहीं थे वे. अब समस्या ये थी कि जब तक कार आये क्या जासूसी का काम मुल्तवी रखा जाये और देश के दुश्मनों को यूँ ही छुट्टा छोड़ दिया जाये. नहीं कभी नहीं. अब अपने पास ले देकर मामा की एक साइकिल थी जो नज़र बचा कर कभी कभी मैं भी चला लेता था. पर साइकिल पर देश के दुश्मन का पीछा ..बात कुछ जमी नहीं, और मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि जब तक अपने पास एक अदद लम्बी सी विदेशी कार नहीं होगी, जासूसी में कोई कैरीयर नहीं

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काला बड़ा चश्मा : चश्मा ऐसा होना चाहिये था जिससे कि मेरा पूरा नहीं तो आधा चेहरा ढँप जाता. लेकिन पिताजी को ये कतई पसंद नहीं था कि ‘पढ़ने वाले’ बच्चे इस तरह के चश्मे का ख्याल भी मन में लायें. खरीदना पहनना तो दूर की बात है. यहां तक कि जब डॉक्टर ने मुझे नज़र कमज़ोर होने का चश्मा बताया तो पिताजी ने माता जी के साथ षडयंत्र करके मेरे को इतना घी बूरा खिलाया.. इतना घी बूरा खिलाया वो भी काली मिर्च डाल डाल कर कि मुझे इन दोनों चीजों से नफरत सी हो गई और मैं सोचता था कि जासूस बनने के बाद सबसे पहले ये घी बूरे वाले को ही साइलेंसर लगी लम्बी रिवॉल्वर से गोली मारनी है.ऐसे में ही एक चचा और हमारे यहां आन टपके जो पिता जी को कह गये कि सुबह सुबह घास की ओस पर नंगे पाँव चलने से अच्छों अच्छों के लगे हुए चश्मे उतर गये. वैसे मैंने आज तक ऐसा कोई आदमी नहीं देखा जिसका घास पर चलने से चश्मा उतरा हो या फिर घी बूरा खाने से चश्मा न लगा हो. आपने देखा हो तो इत्तिला करना. बहरहाल न काला बड़ा चश्मा आया न भारत को मेरे जैसा होनहार जासूस मिला

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हैट : कोई ऐसी फिल्म नहीं कोई ऐसा नॉवल नहीं जिसमें जासूस ने हैट न लगाया हो. बल्कि यूँ कहिये जासूस पर दस बीस हैट होते ही थे. कईयों के नाम तो मुझे अब तक याद हैं. फैल्ट हैट, पनामा हैट, जंगल हैट, पी कैप, बैरेट


ओवरकोट : अब लो यहाँ पिताजी के पुराने कोट अथवा जामा मस्जिद के कोट के अलावा मेरे पास केवल माता जी के बुने हुए स्कूल यूनिफॉर्म के अंगूर के डिजाइन वाले नीले स्वैटर ही थे. मैंने पिताजी को एक अदद ओवरकोट की कहा तो उन्होने मुझे ऐसे खा जाने वाली नज़रों से देखा कि मैंने फिर कभी ओवरकोट का इशू उनके सामने नहीं उठाया. अब आप ही बताईये जब ओवरकोट ही नहीं होगा तो उसकी कॉलर को खड़ा करके जासूसी कैसे होगी. बल्कि ये कहिये कि ओवरकोट नहीं तो कोई क्या खाक जासूस बनेगा ? तो अब आप सोच सकते हो भारत में दुश्मन से तो आप बाद में निपटोगे पहले तो अपनों ही से निबटने में कितने मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा.

दस्ताने/ ग्लव्ज : कुंडी खोलनी हो, तिजोरी खोलनी हो, दरवाजे का हैंडिल हो या फिर रिवॉल्वर ही चलाना हो सबके लिये एक जोडी दस्ताने तो चाहिये ही चाहिये. अब ज़िद कर कर के पिताजी ऊनी दस्ताने ले आये. अब भला ऐसे दस्ताने कहीं से भी तो जासूसी वाले नहीं लग रहे थे. बिल्कुल बचकाने, बच्चों जैसे दस्ताने थे वो. मुझे पहनने में भी शर्म आ रही थी. कहाँ देश का एक होनहार जासूस और कहां ये टुच्चे से दस्ताने. मैंने फिर भी ये बात दिल से नहीं लगाई कारण कि मैं नहीं चाहता था कि कल को कोई ये कहता कि दस्ताने के अभाव में देश के दुश्मनों को जाने दिया.

इसी तरह और भी आइटम थे जिनकी दरकार मुझे थी और उनके बिना जासूसी की परिकल्पना भी करना मुमक़िन नहीं था. आप जोकर बन सकते थे जासूस नहीं. जासूसी सीरियस काम है. कदम कदम पर जान का खतरा. कब गोली आपकी कनपटी को छूती हुई निकल जाये. हरदम जान हथेली पर लेकर चलना पड़ता है.

इसी से याद आया कि जब इन सब चीजों के ही लाले पड़े हुए थे तो रिवॉलवर की कौन बात करे. कहाँ की वैल्वीस्कॉट, स्मिथ वैसन, कहां का माऊजर, कहां का पिस्टल, और कहां का लम्बे हत्थे का साइलैंसर. .. मन की मन में ही रह गई कि सेकन्ड में सेफ्टी क्लच खोल कर दनादन छ: की छ: गोली दुश्मन के सिर में उतार देता.

इसी तरह रबर सोल के जूते जो कि वक़्त ज़रूरत दबे पाँव दुश्मन के अड्डे पर बहुत काम आते, कोठरी में बंद होते तो रोशनदान की जाली जिसमें हमेशा बिजली के करंट होता था को तोड़ने के काम आती ..नहीं मिल पाये, उनकी जगह पिताजी इतने भारी भरकम स्टार लगे जूते लाते कि मील भर दूर से ही खबर हो जाये कि हम आ रहे हैं. आप सोच सकते हैं कि ये जूते मेरी मदद तो कम करते दुश्मन की ज्यादा.

फेहरिस्त बहुत लम्बी है. दूरबीन नहीं थी. सिगार भी नहीं पी पाया. अच्छे आइडिया कैसे आते ? दोहरे रंग की जर्सी नहीं थी कि किसी रेस्टॉरेंट में घुसे एक रंग की जर्सी पहन कर और दुश्मन के सामने से ही दूसरे रंग की वर्दी पहन कर आराम से टहलते हुए निकल आये. मेकप का माकूल सामान नहीं था कि मिनटों में भेष बदल लेता.

लास्ट बट नॉट द लीस्ट, अपने पास एक ठौ प्रेमिका भी नहीं थी. जबकि आज तक मैंने ऐसा एक भी जवां बांकाँ मर्द जासूस नहीं देखा था जिसकी कोई प्रेमिका- कम- सेकरेटरी न हो. इसका इल्ज़ाम भी माता- पिता पर जाता है. जब प्रेमिका बनाने की उम्र थी तो वो नाई को घर पर ही बुला लाते और अपने सामने ही मेरे बाल इस बेढंगे तरीके से कटवाते, ऐसे कटवाते कि कोई ऐसे बाल देख कर मुझ पर दया- रहम तो कर सकता था. प्यार ? प्यार कतई नहीं. मैंने सुना था और पिताजी के बाल कटवाने की ज़िद के आगे मुझे पूरा यक़ीन हो गया था कि बाल बढ़ाने और प्रेमिका में कुछ तो गहरा सम्बंध है. लेकिन नाई भी दुश्मनों के दल में शामिल था. वह मेरी एक न सुनता और घास काटने की जैसी मशीन दन्न से चला देता.

तो भाईयो और बहनों आप सोच सकते हो कि कदम कदम पर कितनी अड़चनों के बाद भी मैंने जासूसी के इस पाक ज़ज्बे को दिल में रहने दिया और इसे एक ख्वाब की तरह सँजोये रहा. कितने ही ऐसे छोटे बड़े ख्वाब हम सब के सीने में दफन हैं. दोस्तो ! हम सबके दिल किसी छोटे मोटे क़ब्रिस्तान से कम तो नहीं.