Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Friday, January 31, 2014

व्यंग्य : कृपया यहाँ थूकें



   
                             


दो मित्र बाहर-गाँव से शहर घूमने आए. शाम तक बेहाल हो गए. किसी ने पूछा ऐसे कैसे अधमरे से हो गए. वे बोले क्या करें जहाँ जाते हैं डिब्बा-पेटी पर लिखा है कृपया यहाँ थूकें’ ‘कृपया यहाँ थूकें सवेरे से इतनी सारी जगहें थूक-थूक कर हमारा तो गला ही दुखने लगा है. हम तो रात की गाड़ी से जाने की सोच रहे थे. रोज इतना कैसे थूक पाएंगे हम” 



दरअसल भारत एक थूक प्रधान देश है. कहते हैं कि विदेशियों के लिये भले हम एशियन या ब्लैक हों लेकिन वहां भी हमने अपनी इस थूकने की आदत से अलग पहचान बनाई है और इसी आदत की वजह से धर लिये जाते हैं कि हो न हो ये हिंदुस्तानी है. मैंने इस पर बहुत विचार किया कि हम भारतीयों की ज़िंदगी में इतनी थू-थू क्यों है. इसके क्या ऐतहासिक और सामाजिक कारण हैं. हम ही क्यों घर-बाहर इतना थूकते-थुकवाते फिरते हैं और हमारी ही क्यों देश-विदेश में इतनी थू-थू होती है. 




एक मित्र सिंगापुर गये थे. लौट कर आ कर बहुत कलप रहे थे. कसम पर कसम खाये जा रहे थे कि दुबारा सिंगापुर नहीं जायेंगे. कारण पूछने पर बोले “ क्या कंट्री है मैं तो थूकने को तरस गया, किसी से पूछा तो बोले यहां थूकना मना है. लो बताओ अब ! ये भी कोई बात हुई, थूकने क्या इंडिया आयेंगे. सुना है थूकने पर हैवी फाइन है और जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है. लो कर लो बात ! और पता चला कि साला जेल में भी थूकना मना है, तब फिर कहां जायेंगे ?

               

     अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे

     मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे 



इसका एक कारण तो यह है कि हमारे लोक-साहित्य में थूक को विशेष  महत्व दिया गया है. लार टपकाना, थूक कर चाटना आदि न जाने कितनी कहावतों से हिंदी साहित्य समृद्ध है. आसमान पर थूकना अब देखिये कितने मर्म की बात कही है. सिंगापुर वाले ऐसी बात कभी कर ही नहीं सकते. क्या खा के थूकेंगे आई मीन करेंगे.

थूक कर चाटना मुझे नहीं पता ऐसी या इससे मिलती-जुलती कोई कहावत का उदाहरण विश्व साहित्य में दूसरा है. कहीं ऐसा तो नहीं हम ही थूक कर चाटने में महारथ रखते हों, इसलिये हमारे देश में ही है. 



आपने सुना होगा लोगों को कहते मैं फलां चीज पर या फलां जगह पर या ऐसे पैसे पर थूकता भी नहीं. यहां थूक एक नये अभिप्राय में सामने आया है. गर्वोक्ति के रूप में, ईमानदारी के दम्भ भरे विज्ञापन के रूप में. हम लोग परोपकारी जीव है. लेकिन हम लोग एक गलती करते हैं कि सामने वाले को भी परोपकारी मान कर चलते हैं जो कि होता नहीं. अगला आपकी तरह बौड़म तो है नहीं. तब से कहावत चल पड़ी मीठा मीठा गड़प, कड़वा कड़वा थू. कहते हैं ह्युनसांग जब भारत आया तो यहां के लोगों को पान की पीक थूकते देख उसे कुछ समझ नहीं आया और उसने लिखा कि हिदुस्तानियों की हैल्थ भई वाह ! कितना खून थूकते हैं दिन भर फिर भी ज़िंदा हैं. सिंगापुर वालों ने भले थूकना निषेध कर रखा हो मगर फिर वो हमारी तरह थूक लगाना भी नहीं जानते होंगे. टूरिस्ट हो, ग्राहक हो, सह-यात्री हो, खुद के मां-बाप हों यहां तक कि अपनी ही वधु पक्ष को थूक लगाने में हमें एक्स्पर्टीज हासिल है. आखिर दहेज क्या है ? पैसा दुगना करना, गहने पॉलिश करना, बेहोश कर देने वाली चाय पिलाना. मां-बाप को इमोशनल ड्रामा करके जायदाद और उनके फंड के पैसे का घपला, सब थूक लगाने के हमारी नेशनल हॉबी का हिस्सा हैं.



बाप न दादा खाये पान, थूकत थूकत कढ़े प्रान अर्थात अपनी हैसियत अपने सामर्थ्य से बढ़-चढ कर कार्य हाथ में लेने का परिणाम. अब भला इंडिया को क्या ज़रूरत है मंगल ग्रह पर या अंकार्टिका जाने की? हिंदुस्तान में धारावी, दरियागंज की फुटपाथ पर ठंड में ठिठुरते लोग, कालाहांडी और मुजफ्फरपुर के लोग दिखाई नहीं देते. उन्हें और कुछ नहीं तो मंगल ग्रह वासी समझ कर ही उनके लिये कुछ कर दें. बस ऐसी बातें करते ही नेताओं को फिट्स आने लगते हैं और अनाप-शनाप अपनी उपलब्धियां और विपक्ष की खामियां गिनाने लगते हैं. ज्यादा कॉर्नर करो तो थूक निगलने लगते हैं.  


तो देखा हुज़ूर आपने ! इस थूक में थुक्का फज़ीहत की कितनी अपार सम्भावनायें हैं. अरे ! अरे! आप कहां चले ? थूकने ?








Wednesday, January 29, 2014

व्यंग्य : खुला पत्र लता दीदी के नाम





लता दीदी ! कसा काये ? बर आहे ? हे काय भानगढ़ चालली आहे ? आपने मोदी को कहा भाई और कॉन्ग्रेस बौखलाई’. आजकल कॉन्ग्रेस जरा जरा सी बात पर बौखला जाती है. आप उन्हें इसके लिये ब्लेम भी नहीं कर सकते. उन्हें कितने लोग बौखलवा रहे हैं आप को पता नहीं. शायद आप जानती भी हों. एक बात बताओ दीदी अब गुजरात और महाराष्ट्र में तो सबको भाई-भाऊ कहने का रिवाज है. सभी पुरुष भाई हैं और सब महिलायें बेन हैं. सच तो यह है कि अब भाई बचे ही गुजरात में या ज़ुर्म की दुनियां में हैं. पर लता दीदी एक बात बताईये जब आप सबकी दीदी हो सकती हैं तो मोदी सबके भाई क्यों नहीं हो सकते. हमारे भारत में परिवार, समाज का एक अभिन्न अंग है. हमारे यहां बापू हुए हैं. चाचा हुए हैं. ताऊ हुए हैं. दीदी हैं, बहिन जी हैं तो भाई होने में क्या बुराई है. भाई कितना आत्मीय सम्बोधन है. भले अंडरवर्ड का भाई आपको कँपकँपा दे मगर राजनीति का भाई तो स्नेहमयी, ओज़मयी, रक्षक होता है. कॉन्ग्रेस भले यह नारा दे मोदी नहीं किसी का भाई, वो तो है कसाई
 

आपको भी न नरेंद्र भाई को भाई कहने से पहले सोचना चाहिये था. उधर कॉन्ग्रेस में जो भाई बैठे हैं उन्हें कहीं बुरा तो नहीं लग जायेगा. और देख लो बुरा लग गया न. अब किसी न किसी ने यह मांग भी कर देनी है कि आप अपना भारत रत्न वापस करो. भारत रत्न ले कर आपने अपने लिये ये एक परमानेंट परेशानी खड़ी कर ली है. अब आपको भी क्या माहिति थी कि समस्त लहान-मोठी, खरी-खोटी गोष्ठी के लिये इन लोगों ने आपसे भारत रत्न वापस करने की मांग कर देनी है. वैसे आप यह कह सकती हैं कि एक बार दिया गया भारत रत्न वापस नहीं होगा और न ही एक्स्चेंज होगा. आप यह भी कह सकती हैं कि ये भारत रत्न कौन सा आपको कॉन्ग्रेस ने दिया है जो कदम-कदम पर आप पर एह्सान सा जता रही है. आपने तो सोचा था भारत रत्न आपको भारत सरकार ने दिया है यह कोई कॉन्ग्रेस रत्न नहीं है जो कॉन्ग्रेस वापस मांग रही है. अब आपने देखा ये ईनाम विनाम लेने में क्या रिस्क, कितनी फजीहत है. मैं तो इस कर के कोई ईनाम लेता ही नहीं हूं. मैने यह ऐलान कर दिया है. ये क्या आज ईनाम मिला अब कोई दस पंद्रह साल बाद कहे लाओ ईनाम वापस करो अपुन कहां से लायेगा.


अगली बार राहुल बाबा से आप मिलें तो उन्हें भी भाई कह कर बुलाना. वैसे बहुत मुमक़िन है राहुल बाबा आपके और आपके गाने के बारे में जानते ही न हों. वो तो माइकल जैकसन, रैप, हार्ड कौर और हनी सिंह वाले ग्रुप के हैं. आप भाई कहेंगी तो हो सकता है कॉन्ग्रेस इसके पोस्टर लगा दे लता दीदी ने गलती मानी..लता दीदी को बधाई...राहुल को सात बार कहा भाई... भाई...भाई. और नीचे एक दर्जन से अधिक प्रदेश, ज़िला, मुहल्ला कॉन्ग्रेसियों के नाम और अंडाकार फोटो लगे हुए हों. 
  

आप चाहें तो अमर्त्य सेन जी की तरह कह सकती हैं. उन्होंने कहा था अगर अटल बिहारी वाजपेयी भारत रत्न वापस मांगेगे तो वापस कर दूंगा. उसी तरह आप भी साफ साफ कह दें जब अटल बिहारी वाजपेयी मांगेंगे तो वापस कर देंगे. दीदी ये सब पॉलिटिकल बातों की भैरवी है. अपने को इनकी सा..रे..गा..मा.. में नहीं पड़ना है. अपुन आर्टिस्ट लोग हैं. आपको याद है न आपातकाल में किशोर दा के गाने रेडियो पर बजाने पर किसने पाबंदी लगाई थी. लेकिन तुमी घाबरू नका. आप चाहें तो अगली बार कह दें राहुल बाबा (या राहुल भाई) देश के प्रधान मंत्री बनें तो कोई वांदा नहीं. आपको खुशी होगी. अगले ने बनना तो वैसे भी नहीं है.



मिलता हूं दीदी

आपका

ग़ैर राजनैतिक भाई

Tuesday, January 28, 2014

A face that could launch...(meher tarar)






              "अच्छी सूरत भी क्या बुरी शै है
              जिस ने डाली बुरी नज़र डाली"






Monday, January 27, 2014

Carry on..and on !




Other day television was giving trivia of filmfare awards..it said Dilip Kumar and Shahrukh Khan have so far won equal and highest number of filmfare trophies.

It is sad...it is said...(AAP bhi suniye ! )

If you live by dharna






You die by dharna


Saturday, January 25, 2014

SELF-IMMOLATION (We have heard this)



Sanjay Nirupam threatens if tariff rates of electricity are not slashed he will commit self immolation before  Ambani’s house


(He knows Ambanis own Kokilaben Hospital) 

Our only request---- please don’t do it alone


Friday, January 24, 2014

The Guns of Sasan Gir



Sasan Gir in Gujarat is famous for lion safari. In Railway network it falls within the jurisdiction of Bhav Nagar division of Western Railway. I was posted on Bhav Nagar division during early nineties. Railway bungalows are known for ample space and comforts of Raj era.  By far, the best bungalow I came to occupy in my Railway service was in Bhav Nagar. Double storey imposing wooden structure, with lawns big enough to play football and those fruit bearing row of cheeku and shareefa trees complete with lotus adorning pond. Not to forget a couple of outhouses. From main gate one had to walk or drive a real long pathway before you could come any closer to press the doorbell. 


On an annual inspection trip called ‘DRM Special’ we reached Sasangir at night. The DRM saw this young officer, with air gun present to receive us. We were all amused to see him the way he was so fondly holding on to his air rifle. 


The boss (DRM) couldn’t help asking this young officer as to why he was carrying the air gun? Pat came the reply “Sir often during nights the lions astray towards railway station area” Now DRM was further amused but nevertheless inquired “For heaven's sake, what do you propose to do to a lion with this air gun of yours?”    Our young officer’s spirits were not dampened by this squib, hence, he was not discouraged a wee bit; he replied “Sir the lion won’t know it is a real gun or an air gun”