Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Thursday, October 27, 2011

व्यंग्य : सार्स मुक्त देश

ऐ जी... ओ जी...लो जी..सुनो जी ! हमारा देश सार्स मुक्त हो गया जी. अखबार में बड़ी बड़ी हेड लाईन्स छपी हैं. देश में सार्स का एक भी मरीज नहीं. पढ़ कर तबियत खुश हो गयी. दिल बल्लियों उछलने लगा. ये चीन, हॉंगकॉंग सिंगापुर वाले बडा अपने आप को समझते थे. हम फ्री पोर्ट हैं, हम अमीर हैं, प्रति व्यक्ति आय जबरदस्त है. नाइट लाइफ है. पर्यटन का केद्र है. देख लिया नतीजा. एक सार्स ने सबको चारों खाने चित्त कर दिया. मुझे तो ऐसा लग रहा है मैं नाचूं गाऊं पार्टी दूं. हमारा देश सार्स मुक्त हो गया. तुमने क्या समझा था हिंदुस्तान को. ठीक है हम गरीब हैं, हमारी हर राज्य-सरकार उधार ले कर घी पी रही है. हम कामचोर हैं.हम भ्रष्ट हैं. रिश्वत लेते हैं. मगर इस से क्या ? सार्स से तो मुक्त हैं.







हम में हज़ारों ऐब सही, तुम से तो बेहतर हैं. तुम्हारे देश में लोग सार्स से लदर-पदर मर रहे हैं. मेरे देश में कोई मरा ? जो भी मरा वो या तो भुखमरी से मरा या पेड़ से लटका कर मुहब्बत करने की सज़ा बतौर समाज के ठेकेदारों ने मारा या फिर आतंकवादियों की गोली का शिकार हुआ.






माना कि मेरे भारत महान में लोग  भूख से मरते हैं. भूख से भी कहाँ वे तो कुपोषण के चलते मरते हैं. अब बेलेंस डाइट लेते नहीं हैं अतः कुपोषण का शिकार हो जाते हैं और इन मीडिया वालों को तो बस मौका मिलना चाहिये. दरअसल ये सब मीडिया की चाल है. पिछ्ले दिनों माननीया मुख्यमंत्री जी ने कहा ही था “ ये अखबार वाले ना जाने क्या क्या मनगढ़ंत छपते रह्ते हैं. इतना भव्य सचिवालय है, राजधानी में हर चौराहे पर म्युजिक बजाते रंगीन फुव्वारे हैं. कारें, सड़्कें, बार-डिस्को हैं, पर इन्हें कुछ नहीं दिखता सिवाय भुखमरी के. कितना गलत और ‘बायस्ड’ आकलन करते हैं.






देश सार्स मुक्त हो गया है. मैं चाहता हूँ इसी खुशी में सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया जाये. सार्स मुक्ति दिवस. जब देश में तरह तरह के दिवस मनते हैं तो एक ये भी सही. आप क्या सोचते हो. इस से हमारी उत्पादकता कम हो जायेगी. आप हमारी अन्य किसी भी क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं मगर उत्पादकता पर नहीं. हमारा लेटेस्ट स्कोर ये लेख लिखे जाने तक एक सौ दो करोड़ सत्तर लाख पंद्रह हज़ार दो सौ सेनतालीस नॉट आउट है. मेरा दिल कर रहा है कि मैं अमिताभ की तरह सबको कहूं “ चलो हो जाओ बे शुरु “ और “..शाबा.. शाबा “ कह के नाचने लगूं.






सरकार को चाहिये कि ऐसे मैं मध्यविधि चुनाव घोषित कर दे. सार्स के चलते बहुमत से जीतेगी. मेरा दावा है. “ गरीबी हटाओ” ने एक चुनाव जिताया ही था. आपको याद होगा वह भी मध्यविधि चुनाव ही था. एक चुनाव सार्स मुक्ति के नाम से भी सही. हमने सारे तथाकथित विकसित देशों को ठेंगा दिखा दिया है. बच्चू रोते रहो रोना. हम तो सार्स मुक्त हो गये. दहेज प्रथा, जातिवाद, बे-रोज़गारी, बाल-मज़दूरी इन सब से तो बाद में भी निपट लेंगे. फर्स्ट थिंग फर्स्ट. सार्स को ऐसी पटखनी दी कि सार्स सीमा छोड़ के ये जा वो जा.






मंत्री जी का काफिला कितना मनमोहक लग रहा था. सब नक़ाबपोश वेताल की तरह लग रहे थे.जिस तरह जब वेताल गोली छोड़ता है तो आंखें देख नहीं पातीं (पुरानी जंगली कहावत) सार्स भी वेताल की गोली कि तरह पलक झपकते ही देश छोड गया. कुछ लोग जो हवाई अड्डों और अस्पताल में पडे थे सार्स मुक्त होने से बड़े मायूस हुए. इतने दिनों से टी.वी पर दिख रहे थे. वी. आई.पी. बने हुए थे. अब कोई कौडियों के मोल भी नहीं पूछ रहा है. यही बाज़ारवाद है. अब वे खबर नहीं. खबर ये है कि देश सार्स मुक्त हो गया.










मुझे इंतजार है उस दिन का जब अखबार की हेड लाईंस कहेंगी देश आतंकवाद से मुक्त हो गया, देश साम्प्र्दायिकतावाद से मुक्त हो गया. राम जन्म भूमि विवाद से मुक्त हो गया. भुखमरी-बेरोज़गारी से मुक्त हो गया. बाल मज़दूरी से मुक्त हो गया.






जब अखबार वाला इन हेड लाईंस का अखबार मेरे घर डाल के जायेगा वो सुबह कब आयेगी ?

Monday, October 24, 2011

कांटा लगा ....



कांटा लगा.. कांटा लगा... करके एक गाना बहुत देख-सुना जाता रहा है. देखा ज्यादा गया सुना कम. इस में एक भारतीय नाबालिग सी बाला बार बार कांटा लगा..कांटा लगा चिल्ला रही है. मटक रही है और सिसकारियां भर रही है. इस से दो बातें निकल के आती हैं. एक, मैंने कभी किसी कांटे लगे इंसान को ऐसे नाचते-गाते, मटकते और सिसकारियां भरते नहीं देखा है. या तो अगला रो रहा होता है या फिर डॉक्टर के पास ले जाया जा रहा होता है. दूसरे, लड़की गा रही है कांटा लगा. कांटे अक्सर पांव में लगते हैं. मजे की बात यह है कि पूरे गाने में सिवाय पांव के उस्ने अप्ने लगभग सभी अंग दिखा दिये हैं. हैं भई ! ये ससुरा कांटा लगा आखिर लगा कहाँ है ? और अगर पैर में नहीं लगा है तो जहाँ लगा है वहां ये पहुंचा कैसे ? शोध का मुद्दा है. या फिर कहें कि अगले री-मिक्स का मसाला है. ये री-मिक्स का ज़माना है. पिछ्ले दिनों पदमश्री नीरज की एक कैसट मार्किट में पूछी तो सेल्समैन ने पलट कर पूछा “ नया री-मिक्स है क्या ?” अब वो दिन दूर नहीं कि पुराने वे सभी जिन पर कभी जनाब नौशाद और साहिर को नाज़ रहा हो, उनके री-मिक्स मार्किट में उतरेंगे. गीतों की ऐसी भद्द पिटेगी कि नौशाद और साहिर क़ब्र में करवटें बदलेंगे. लता दीदी त्रस्त हैं कि उनके सीधे-सादे गाने की क्या गत बना दी है. “ओम जय जगदीस हरे” से लेकर “अल्ला तेरो नाम..ईश्वर तेरो नाम..” सभी गानों,भजनों कव्वालियों के रीमिक्स हमारा बॉलीवुड दे सकता है. कौन कहता है कि बॉलीवुड में मौलिक प्रतिभा और रचनात्मकता की कमी है. हां तो बात कांटे की हो रही थी. नायिका के पांव में आखिर कांटा लगता ही क्यों है. क्या बात है वो चप्पल नहीं पहनती या फिर चप्पल इतनी नाज़ुक है कि कांटा चप्पल चीर के पांव में आन घुसता है और उसे नाचने गाने पर विवश कर देता है. 








ये नायिका को क्या पडी है जो नंगे पांव ही दौडे‌ जाती है. अगलों ने भी ना जाने कितने गाने पांव पर ही लिख मारे हैं. “पांव छू लेने दो ..” से लेकर ‘सैय्यां पडू‌ पैय्यां...” तक गाडी आन पहुंची है. आगे आप समझदार हैं. कल्पना कर सकते हैं. यूं आगे आगे आपकी कल्पना के लिये अगलों ने कुछ छोड‌ना नहीं है. सब कुछ उघाड़ देना है.






सुश्री एश्वर्य राय के पांव में जब हेयर लाइन फ्रेक्चर हुआ था तो लाखों चाहने वाले अपने अपने हेयर नोंच रहे थे और एश्वर्य राय को अपनी अपनी राय देना चाहते थे. चूंकि मिस राय उनकी ताल से ताल नहीं मिला रही थीं चुनांचे वे एश्वर्य के लिये ईश्वर से दुआ कर रहे थे कि वो जल्दी से जल्दी ठीक हो कर डोला रे डोला पर नाचने लगें. जल्द ही जेम्स बॉन्ड भी बच्चू अपनी सारी जासूसी भूल कर ऐश्वर्य के इर्द गिर्द पेडो के आगे पीछे अगली फिल्म में दौड़्ता नज़र आयेगा. 







पांव का हमारे देश में महत्वपूर्ण स्थान है. नायिका के नख-शिख वर्णन से लेकर पांव गलत पडे‌ नहीं कि भारी हुए नहीं. सर पर पांव रख कर भागना. अब आप ही बताइये जब पांव सर पर ही रख लेंगे तो भागेंगे काय से ? जाके पांव ना फटी बिवाई ... पूत के पांव आदि ना जाने क्या क्या.क्या.पांव पूजे जाते हैं. पांव बिछुए, मेहंदी महावर से रचाये-सजाये जाते हैं. पांव के महत्व को स्वीकारते हुए ही बाटा ने ये जिम्मेवारी अपने सर पर ली थी कि पूरे विश्व को चप्पल- जूते हम ही पहनायेंगे. बाटा को टाटा कह्ने की पूरी तैयारी के साथ अब बहुत सी कम्पनियां भी इस मैदान में आ कूदी हैं. करोडो‌ अरबो‌ का व्यवसाय है ये. पर कांटा है कि फिर भी लग जाता है और नायिका को नाचने पर विवश कर देता है.ये कांटा है...पैसा है...या फिर मश्हूर होने की अनबुझ प्यास है.पह्ले कहते थे कि ये कुछ नहीं जनरेशन गैप है या पिछ्ली पीढी का रोना है. मुझे तो लगता है कि हम लोग एलबम टू एलबम बूढे होते जा रहे हैं और बच्चे एलबम टू एलबम एडल्ट.

Saturday, October 22, 2011

मेरा भारत महान ओ याह

सुनने में आया था कि एक पेरेंट टीचर्स एसोसियेशन की बैठक में पेरेंट टीचर्स की तू तू मैं मैं इस कदर बढ गयी कि टीचर्स ने स्कूल की छत पर चढ पेरेंट्स पर पत्थर बरसाने शुरु कर दिये. मॉ बाप जैसे तैसे जान बचाकर भागे. कई पेरेंटो के सिर फट गये. टीचर्स ने कहा पह्ले हमने तुम्हारी जेबे फाडी, अब खोपडी फाडी. सरदार मैंने आपका नमक खाया है. ले अब गोली खा. मैं कहुंगा टीचर्स ने बहुत अच्छा किया. ये पेरेंट हैं ही इस लायक. बच्चो को अंग्रेजी स्कूल में भी पढाना चाहते हैं मगर इंटरव्यू और फीस देने में आनाकानी.प्यार करते हो शेरी से और दूध लाते हो डेरी से.







जिस तरह झोंपडी वालो का एक ख्वाब होता है कि एक अदद पक्का मकान बन जाये. उसी तरह ‘हम लोग’ जो सर्कारी स्कूल में टाट-पट्टी पर टेंटो के नीचे बैठ कर पढे और पले बडे हैं हमारे मन में एक कसक रह जाती है कि अपना पेट काट कर भी बच्चो को अंग्रेजी स्कूल में पढाना है. व्यवस्था बदलने से कही‌ आसान काम है व्यवस्था से बद्ला लिया जाये. कोई गुड से मरता हो तो उसे जहर क्यो दिया जाये. आप भी कुछ लेते क्यो नही.






आज की तारीख में अंग्रेजी स्कूलो के लिये ऐसे भगदड मची हुई है जैसे पिछ्ले दिनो शहर के एक अस्पताल में देखने को मिली थी. हुआ यूं कि शाम को जब मरीजो से मिलने का समय था और मरीज लोग आं..आं..हाय मरा...हाय...कराह रहे थे और उन से मिलने वाले उन्हें मौसमी, सेब और सांत्वना दे रहे थे तभी अचानक किसी ने खबर उड़आ दी कि अस्पताल में बम है. बस फिर क्या था आनन-फानन में सब दौड़ पड़े. मरीज पलस्तर लगाये ही भाग छूटे. कई ग्लुकोज की शीशी समेत दौड़े जा रहे थे. कई मरीजों के तो मिलने वाले भी पीछे छूट गये और मरीज लोग ये जा वो जा.घर जा कर ही दम लिया. जान सलामत रहे अस्पतालों की क्या कमी है. जान है तो जहान है.बस इसी तरह हम लोग अंग्रेजी स्कूलों पर टूट पड़े हैं.अंग्रेजों से दो सौ साल की गुलामी और अत्याचारों का बदला ले रहे हैं. तुम अंग्रेज अंग्रेजी और गोरी चमड़ी के बल पर हमारे माई बाप बने रहे. अब हम ब्राउन माई बाप अपनी पीडियों को अंग्रेजी पढाते है ताकि दे केन टाक इंग्लिश..वाक इंग्लिश..एंड लाफ इंग्लिश.






अभी पीछे मैंने किसी किताब में पढा था कि सिकन्दर अपनी सेना ले कर भारत से क्यों चला गया. कह्ते हैं कि यहां की महंगाई देख कर उस के सिपाहियों के होश उड़ गये. वे भागे भागे सिकंदर के पास गये कि हम इन्हें लूटने आये थे ये तो हमें ही लूटे ले रहे हैं और कुछ दिन रहे तो यहाँ के दुकानदार हमें कंगाल ही कर देंगे. सिकंदर भी समझ गया कि इस से पह्ले कि सैनिक बगावत कर दें यहाँ से भाग जाने में ही समझदारी है. है.इस तरह समय रह्ते अप्ने सैनिकों की जान-माल कओ बचा ले जाने के कारण ही उस्का नाम सिकंदर महान पड़ गया. बाद में इतिहासकारों ने इस में पोरस के डायलॉग जोड़ के लीपापोती कर दी. सच तो ये है कि सिकंदर को योद्धाओं ने नहीं बल्कि दुकानदारों ने हरा दिया.






आप को तो पता ही है कि आजकल लोग नॉन रेजिडेंट इंडियन बनने की चाह में भाग भाग कर दूसरे देशों में सेटल हो रहे हैं. क्यों कि उनका कह्ना है कि ये स्कूल वाले ब्राउन साब हमें लूटें इस से तो अच्छा है कि गोरों के हाथों लुटें. इस में भी एक स्टेटस सिम्बल होता है. जो आधुनिकता से करते प्यार वो अंग्रेजी से कैसे करें इंकार. गोरे रंग का ज़माना कभि होगा ना पुराना. वैसे भी हम लोग इंडियन तो कभी रहे ही नहीं. हम हिंदु हैं, मुसलमान हैं, राजस्थानी हैं, बंगाली हैं, ब्राह्म्ण हैं, क्षत्रिय हैं, थोडे‌ और पढ लिख गये तो साऊथ इंडियन – नॉर्थ इंडियन हो गये. जब कुछ ना बचा और हाथ में पैसा आ गया तो नॉन रेजीडेंट इंडियन हो गये. अब सामान्य इंडियंस को कौन पूछ्ता है. टके में सौ मिलते हैं. किसी भी गली, चौराहे, झौपड़ पट्टी और एम्प्लोय्मेंट एक्स्चेंज में उपलब्ध हैं.






हम लोग हवा महल और बिनाका गीत माला सुन कर बडे‌ हुए हैं आज की पीढी मोबायल फोन और इंटर नेट के माध्यम से डिस्को और पब में पल-बढ रही हैं. इनके चलते मार्किट में इतने ड्रेस डिजायनर हैं किंतु कपडे‌ हैं कि छोटे से छोटे होते जा रहे हैं. डिजायनर लोग ड्रेस डिजाइन नहीं करते बल्कि नई डिजाइन से शरीर को दिखाने का इंतजाम कर रहे हैं. जितने ज्यादा ड्रेस डिजाइनर उतने छोटे कपड़े. मुझे डर है कि कहीं ये कच्छा‌‌ बनियान गिरोह वाले पेंट कमीज को आउट ऑफ फैशन ही ना करा दे‌. फिर सोचिये हम सब लोग कच्छे बनियान में ऑफिस में बैठे कैसे लगेंगे इस्मेन एक फायदा है जब लोगो‌ की जेबे‌ ही नही‌ होंगी तो बस में रेल में जेबे‌ कटेंगी भी नही‌ . गांधी जी का सपना साकार हो जायेगा कि जब तक प्रत्येक भारतीय को तन ढॉपने को पर्याप्त वस्त्र ना हो वे लंगोटी ही पह्नेंगे. उन्हे‌ अच्छा लगेगा कि सारा देश अब जल्द ही डिजाइनर्स लंगोटी पह्नेगा. आप सोचेंगे इस्मेन क्या अंतर है. अंतर यह है कि पह्ले आदमी ईमांनदार हुआ करते थे अब कमीजे‌ ईमानदार होती हैं. सोचिये बे‌ईमान बनियान, गुंडा पजामा कैसा लगेगा.










एक ही युनीफॉर्म पूरे देश के स्कूलो‌ में लागू करेंगे तो क्या विश्व बैंक प्रतिबंध लगा देगा. हम जैसे ट्रांसफर वाले लोगों की बहुत बचत होगी नहीं तो पूरा वेतन युनिफॉर्म, टाई जूते मोजे बैल्ट आदि खरीदने में ही निकल जाता है उसी तरह फीस सिलेबस और किताबों में एकरूपता लाई जा सकती है. कस्बे के एक स्कूल में बच्चों से अचानक कम्प्यूटर फीस ली जाने लगी. जानकारी मिली कि एक साफ सुथरे कमरे में सफेद चादर से ढके हुए कम्प्यूटर जी विराजमान हैं. उस कमरे में बच्चों को जाने की सख्त मनाही थी. वे कम्यूटर को कांच की खिड़्की से ही स्ट्डी कर सकते थे. उन्हें समझा दिया गया था कि अगली सदी कम्प्यूटर की सदी होगी तब वे छू सकेंगे. हां तब तक वे मोबाईल और एम टी.वी. से काम चलायें यह भी भव सागर को पार कराने में सहायक हैं