Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Sunday, October 31, 2010

सास... सी एम... और साज़िश



यह घोटालों का आदर्श है या फिर आदर्शों का घोटाला है ? फैसला आपके हाथ है. मुझे तो यह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप का अनोखा और आदर्श मेल लगता है. नेताओं और अफसरों की पार्टनरशिप का खेल है यह. कारगिल के शहीदों की शहादत को कितनी जल्दी भुला दिया. कहने का नजरिया है. आदर्श सोसाइटी के मेम्बर्स यह भी कह सकते हैं कि ये शहीदों को याद करने का उनका तरीका है. भोलेपन की हद तो तब हो गयी जब सेना के बड़े बड़े अफसर यह कहने लगे कि हमें पता ही नहीं था कि यह सोसाइटी हमारे कारगिल के शहीदों की विधवाओं के लिए हैं.



नेताजी कह रहे हैं कि मुझे पता ही नहीं कि मेरे रिश्तेदारों सासू माँ, साला-साली का आदर्श सोसाइटी से कोई लेना - देना है. इसकी कोई भी सूचना मेरे को नहीं. फ़र्ज़ करो कि उनका कोई लेना - देना है भी तो इसमें मेरा क्या लेना देना है ? ये मेरा परिवार थोड़े ही है. मेरा परिवार तो महज़ मेरी पत्नी और बच्चे हैं. ना कि सास, साला-साली. ठीक भी है आदमी सफल हुआ नहीं कि  सब लोग उसे  “दाजिबा.... .दाजिबा” कहने लगते हैं. वो देखते देखते पूरे गाँव का दामाद बन जाता है.




अयिय्यो ! आप तो सचमुच बहुत भोले निकले साहब जी. ये कैसी बर्थडे गिफ्ट आपको मिली है. प्रेस कांफेरेंस में सब आपको ही ‘प्रेस’ करते रहे. आपने क्या बुरा किया जो इमारत की ऊँचाई छह मंजिल से इकत्तीस मंजिल कर दी. महीने में इकत्तीस दिन होते हैं. डवलपमेंट आपकी प्रथम प्राथमिकता है. इकत्तीसवीं नहीं. आखिर छह छह मंजिल की इमारतें बनाने से तो मुंबई न जाने कब जा कर शंघाई बनेगा. ये लोग कभी शंघाई गए तो हैं नहीं, यहाँ बैठे बैठे ही गाल बजाते रहते हैं. वहां जा कर देखें कैसी कैसी गगनचुम्बी इमारतें हैं वहां. ये मुंबई के लोग रेंगनेवाले हैं, ये शंघाई में रहना ‘डिजर्व’ ही नहीं करते हैं.



लोग रोजगार करते हैं मकान खरीदने के लिए यहाँ रिश्तेदारों के मकान खरीदने से आपके बेरोजगार होने की नौबत आ गयी. किसी ने सही कहा है कि इन दूर के रिश्तेदारों से सम्मानजनक दूरी बनाये रखनी चाहिए. ये कौड़ी काम के नहीं. आप भी क्या करें शाम को आपको घर भी तो जाना होता है. भाभी जी के हाथों की गरम चाय भी पीनी होती है. कहते हैं कि प्रिंस एडवर्ड ने अपनी पत्नी के लिए इंग्लेंड के तख़्त को लात मार दी थी.
आपका बलिदान कहीं ऊंचा है. आप तो सास और साली की खातिर तख्ते पर ही लटक गए.मगर आपको उन्हें इस तरह ‘डिसओन’ नहीं करना चाहिए था.अब देखिये न, ना खुदा ही मिला ना विसाल-ए-सनम.




इस सोसाइटी ने अनजाने ही ना जाने कितने ‘आदर्श’ भावी बिल्डर्स, नेताओं और अफसरों को दिए हैं. इस सोसाइटी ने निश्चित ही पब्लिक लाइफ में अनेक ‘आदर्श’ स्थापित किये हैं. सोसाइटी की मेम्बरशिप ऐसी हो कि जिसमें नेता, सैनिक, नौकरशाह सभी हों. सैय्याँ भये कोतवाल अब डर काहे का. एक सरकारी पर्यटन विकास निगम को पर्यटन विकास के सिलसिले में इंडियन फ़ूड पवेलियन विदेश में लगाना था.जब कूपन क्लर्क के नामांकन के लिए फाइल बॉस लोगों के पास गयी तो सबने सूची में अपना अपना नाम जुड़वा दिया. नतीजा ये निकला कि इतने कूपन भी नहीं बिके, जितने बेचने वाले गए थे. जहाँ जहाँ पड़े संतन के पाँव...



इस जगह पहले खुखरी ईको पार्क था. नाम के अनुकूल सबने मिल कर देख लीजिए कैसी खुखरी घोंपी है. जहाँ शहादत की कोई कीमत नहीं और उनके नाम पर बन्दर बाँट (बन्दर कृपया माफ करें ) होगी तो उस मुल्क का भविष्य कितना उज्जवल है आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं.






शहीदों के नाम पर होते रहेंगे हर कदम घोटाले...
वतन पर मरने वालों का यही हश्र ...





Friday, October 29, 2010

बो की इंडिया यात्रा


जिन्हें पता न हो उनकी मालूमात के लिए बता दूँ कि ‘बो’ अमरीकी राष्ट्रपति के कुत्ता आई एम् सॉरी श्वान श्री का नाम है. पुलिस के कुत्तों को कुत्ता कहना बैड मैनर्स में आता है. उन्हें श्वान कहा जाता है. फिर अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क के कुत्ते को क्या कहेंगे. मित्र लोग जब तक इस पर सेमीनार और पेनल डिस्कसन करें अपन अपनी सुविधा के लिए मिस्टर बो से काम चला लेते हैं

बहुत दिनों से यह खबर मीडिया में गर्म थी कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय वार्तालाप के लिए मि. बो हिन्दुस्तान आएंगे. उन्होंने अखबार में पढ़ा था कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में कुत्ताधिकारों का बहुत हनन हो रहा था. यहाँ कुत्ता अधिकारों के हित में काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं और नेताओं का मखौल उडाया जाता है. कैबिनेट रेंक तो दूर,अत्याचार यहाँ तक है कि उन्हें टी.वी. के विभिन्न चैनलों पर प्राइम टाइम में कुत्ता अधिकारों पर बोलने के लिए समय भी नहीं दिया जाता है. इन सब बातों से अमेरिका को चिंता होना स्वाभाविक थी. अतः यह निर्णय लिया गया कि हिंदुस्तान में एक शिखर वार्ता का आयोजन किया जाये. एशिया के कुत्तों में शांति और समृद्धि के लिए आसान ऋण,अनुदान तथा अन्य सहायता योजनाओं की शुरुआत की जाये. मि. बो को बहुत दुःख हुआ जब उन्हें पता लगा कि क्लब,पार्लर और डिस्को तो दूर,हिंदुस्तान में कुत्तों के लिए बेसिक सुविधाएँ यथा एयर कंडीशन घर ,कार, दूध, फल, बिस्कुट,पिजा, बर्गर, मटन, विटामिन, टॉनिक आदि का नितांत अभाव है . कुपोषण के शिकार ये कुत्ते एडल्ट होने से पहले ही स्किन डिजीज जैसी मामूली बीमारियों से ही दम तोड़ देते हैं. उन्हें जीवन रक्षक दवाइयां भी मुहैय्या नहीं हैं. मि. बो को यह जानकार गहरा आघात लगा और ताज्जुब हुआ कि हिंदुस्तान में सब लोग आदमियों का डॉक्टर ही क्यों बनना चाहते हैं. उस में दाखिला न मिले तो वे दांतों का डॉक्टर बनना पसंद करते हैं वो भी आदमियों के दांतों का. इसके बाद कहीं जाकर कुत्तों के डॉक्टर बनने की सोचते हैं. 


 
आनन फानन में कार्यक्रम तय करके वाशिंगटन डी.सी. में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की गयी.मि. बो के हिंदुस्तान में रह रहे ‘पुअर ब्रदर्स’ की कंडीशन फर्स्ट हेंड जानने की मंशा सार्वजनिक कर दी गयी. तमाम पत्रकारों और टी.वी. चेनलों ने इसे बड़ी बड़ी हेड लाइनों में जगह दी. सेवानिवृत राजनयिकों ने इस बारे में अपने दृष्टिकोण दिए. सिवाय विपक्ष के सभी ने इसका गर्मजोशी से स्वागत किया व अमेरिकन तथा हिन्दुस्तानी कुत्तों के बीच एक नए युग का सूत्रपात बताया. रूस के प्रवक्ता ने कहा कि इससे विश्वशांति में एक नया अध्याय जुडेगा. उन्होंने कहा कि विश्वशांति और विकास में कुत्तों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता और कैसे रूस ने अंतरिक्ष में सबसे पहले कुत्ते ‘लायका’ को भेज कर अंतरिक्ष अनुसंधान को एक नयी दिशा दी थी.



मि.बो की यात्रा से पहले खोजी कुत्तों का एक दल अमेरिका से इंडिया आ पहुंचा था. यह दल सूंघ-सूंघ कर मि.बो के कार्यक्रम स्थलों और रास्तों में सुरक्षा के पुख्ता इंतजामों से आश्वस्त हो रहा था.भारत सरकर अलग कन्फ्यूज थी कि मि.बो को एयर पोर्ट पर रिसीव कौन करेगा. जिन कुत्तों की अंग्रेजी अच्छी थी वे खालिस इंडियन न थे. एक-दो पीढ़ी पहले ही इंडिया की सिटीजनशिप लिए थे.अतः अलसेसियन,बुलडौग, शैपर्ड, पूडल, टेरियर और डॉबरमैन रूल आउट करने पड़े. यह तय हुआ कि इन सभी को शाम को ‘स्टेट बैंक्वट में बुला लिया जायेगा. देसी कुत्तों को ढूँढने चले तो राजधानी में एक भी न मिला पता लगा सब खदेड़ कर ‘कंट्री साइड’ भेज दिए गए हैं. जहाँ वे तथा उनकी अगली पिछली पीढ़ी बंधुआ मजदूरों की तरह भूखे मरने को विवश थी. आखिर दिल्ली की एक गन्दी स्लम बस्ती में एक देसी कुत्ता ‘मोती’ मिल ही गया. उसे ही सॉना बाथ दिला कर पार्लर से फेशियल आदि कराकर ए.सी. कार में एअरपोर्ट ले जाया गया. उसे यह ताकीद कर दी गयी थी कि वह बेकार की भों भों न करे. यह पूरे मुल्क की इज्ज़त का सवाल है. मोती उस वर्ग का कुत्ता था जो आज भी मुल्क के नाम से इमोशनल हो जाया करते हैं.




मि. बो जब एअरपोर्ट पर उतरे तो मोती ने बड़ी ही गर्मजोशी से पूंछ हिला हिला कर उनका स्वागत किया और प्रोटोकोल की परवाह किये बिना इधर-उधर मुंह मारना,सूंघना शुरू कर दिया. सारे रास्ते मि. बो की बातचीत में मोती पहले रटवाये गए शब्द ही बोलता रहा “ याह.. याह ..., आई सी...., यू नो....एक्सक्यूज मी...” मि. बो न कहा “इट्स वैरी वार्म आउट हीयर “ मोती खींसे निपोरते हुए बोला “ओ याह...याह “ मि. बो ने कहा “ आई लव इंडिया “ मोती ने कहा “ थेंक यू ..थेंक यू “



रात को स्टेट बैंक्वट से पहले कई समझौतों पर हस्ताक्षर होने थे जिनके विषय में मोती को न तो तकनीकी जानकारी थी और ना उसे यह सामान्यज्ञान था कि किस सौदे में कितनी ‘किकबैक’ कमीशन होती है. ये सब काम विशेषज्ञों पर छोड़ दिया गया था. मोती को अपनी हालत पर तब और रोना आया जब उसे ‘स्टेट बैंक्वट में नहीं बुलाया गया. कारण वही, न उसे अंग्रेजी बोलनी आती है न उसे पश्चिमी सभ्यता के अन्य रंग ढंग आते हैं. यहाँ तक कि छुरी-काँटे से खाना भी नहीं आता. ‘मुंसिपालटी’ की एक गाडी मोती को उसकी गन्दी बस्ती में चुपचाप छोड़ आई थी. मि. बो को कह दिया गया कि श्री मोती अचानक ‘इनडिस्पोज्ड” हो गए हैं.उनकी जगह भारत की ओर से मिस्टर अल्सेशियन जो दिखने में हिदुस्तान की तरह बड़े हैं, अंग्रजों की तरह अंग्रेजी बोलते हैं, चाल-ढाल में भी अंग्रेजी तबियत के हैं वार्ता जारी रखेंगे. मि. बो ने कहा “ ओह आई एम् सो सॉरी टू हियर दिस”



बस, तब से मेरे भारत महान और उसके तमाम मोतियों के फैसले मि. अल्सेशियन ही कर रहे हैं



Thursday, October 28, 2010

सावधान ! तैयारी सिविल सर्विस जारी है

पहले कहावत थी कि जिसने सिविल सर्विस पास नहीं कि उसका जीवन समझो व्यर्थ ही गया. कहाँ कलेक्ट्री,कहाँ ये टुच्ची-मुच्ची नौकरियां. लोग कंप्यूटर का कितना ही बखान कर लें या फिर डॉक्टर, इंजीनीयर बन जाएँ मगर जो बात सिविल सर्विस में है आर.ए.एस., पी.सी.एस. में है वह इनमें कहाँ, तभी तो डॉक्टर,इंजीनीयर भी सिविल सर्विस की ओर भाग रहे हैं. उन्हें पता है कि सारी उम्र सीमेंट में रेत मिलाते रहें या मरीजों के बे-फ़ालतू के टेस्ट कर आते रहें तो भी इतना रौब-दाब और धन न कमा पाएंगे जितना सिविल सर्विस वाले एक पोस्टिंग में पीट लेते हैं. ससुराल में,सोसायटी में दबदबा अलग.

 
जैसे पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं वैसे ही अपने राम की हायर सेकंडरी में दो बार फेल होने पर उज्जवल भविष्य की तस्वीर साफ़ हो गयी थी.मैंने गाना शुरू कर दिया था, “पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा” . . इधर शहर के एक थके हुए कॉलेज से बी.ए. पास उधर मैंने घर में डिक्लेयर कर दिया “मैं तो आई.ए.एस. बनूँगा “ सुनते ही मेरे पिता ने मुझे गले से लगा लिया, बेटा किसका है ? माँ भाव विभोर होकर मुझ से लिपट गयीं और उन्होंने तुरंत सवा पांच रुपये प्रसाद को दिए . भाई बहन मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं दूसरे ग्रह से उतरा हूँ. मैंने एक दर्जन खाली रजिस्टरों की फरमायश करी जो पिताजी अगले दिन ही दफ्तर से उठा लाए. रजिस्टरों पर सुन्दर कवर चढ़ाये गए और रंग-बिरंगे पैनों से उन पर सब्जेक्ट, इंडेक्स, पेज नंबर वगैरा लिखे गए. उधर माताजी पिताजी ने दूध वाले से एक किलो दूध और बढ़ा दिया था.क्योंकि अब दिमाग की कसरत चालू हो रही थी. कुश्ती हो या आई.ए.एस, दूध की खपत कॉमन है. धोबी,दुकानदार, सब्जीवाले,डाकिये आदि सबको ओफिसियली बता दिया गया था कि हमारा रवि आई.ए.एस. दे रहा है, वे ज़रा उसके कपड़ों पर अच्छी इस्त्री किया करें. बेहतर सौदा दें, हरी सब्जियां दें, चिट्ठी ज़रा जल्दी लाया करें, बार बार कॉल बेल न बजाया करें बच्चे को डिस्टर्ब होता है, रिश्तेदारों में सभी को लिस्ट बना कर खबर करा दी गयी थी ताकि कोई छूट न जाये. पिताजी को एक साथ पचास लिफ़ाफ़े डाक में डालने जाता देख एक दिन मैंने पूछा तो माताजी ने पुलकित होकर बताया कि अपने दोस्तों को, रिश्तेदारों को,और कुछ उन रिश्तेदारों को जो अपने आगे हमें कुछ समझते ही न थे और हमारे घर झांकते भी न थे को खबर की गयी है कि हमारा लड़का आई.ए.एस. दे रहा है. इसलिए दिल्ली आकार उसका ध्यान न बंटाएं.



मैंने अपने छोटे भाई को ताकीद कर दी थी कि आई.ए.एस. का विज्ञापन आने पर मुझे इत्तिला कर दे, कारण कि एक तो मुझे अपनी राजभाषा से इतना प्रेम है कि अंग्रेजी के अखबार में मैं सिवाय फोटो के और कुछ ज्यादा देखना-पढ़ना पसंद नहीं करता हूँ. दूसरे मैं तो तैयारी में वैसे भी इतना व्यस्त हो जाऊंगा कि मुझे दीन-दुनिया की फिर खबर कहाँ होगी. ऐसा सुना है कि मैच फिक्सिंग से पहले दिमागी कंसंट्रेशन के लिए क्रिकेटर च्युइंगम चबाते थे. मैंने भी ट्राई की मगर कोई मज़ा नहीं आया. फिर किसी ने मुझे समझाया, आई.ए.एस. का क्रिकेटरों से क्या मुकाबला, ये सब तो दसवीं फेल या ड्रॉप आउट टाइप होते हैं. बस मीडिया और मॉडर्न बेवकूफ लड़कियों के चलते ये स्टार बन जाते हैं. उस दिन से मैंने क्रिकेट मैच देखना भी बंद कर दिया हालांकि मुझे बहुत पसंद था.



ज़र्दे वाला पान और पान मसाले पर बात ठहरी. मैंने दोनों का खूब सेवन करना शुरू कर दिया. रात-बिरात में अपने पिताजी को भी पान लाने भेज देता. मुझे भला फुर्सत कहाँ, जिंदगी और मौत का सवाल था. मेरी माँ रात में उठ उठ कर मुझे चाय बना के पिलाती. घर में सभी दबे पाँव चलते,धीमी आवाज में बात करते. कुछ सस्ती किस्म की फ़िल्मी पत्रिकाएं जिनको पढ़ने पर पिताजी ने कई बार मेरी ठुकाई की थी,अब नियमित आने लगीं थीं. उसके दो कारण एक तो आई.ए.एस. वालों का कोई भरोसा नहीं कहाँ से क्या पूछ लें. दूसरे, बेहद पढ़ाई के बाद लाइट रीडिंग भी मस्तिष्क के लिए जरूरी है, ये बात पिताजी अपने ऑफिस में कहीं सुन कर आये थे. अब मेरी फरमायश की चीज़ें घर पर बनने लगीं थीं. माँ पूछतीं, बेटे आज क्या खाने को मन कर रहा है. मैंने जी भर कर अपनी मनपसंद भिन्डी खायी और बाकी घर वालों की नाक में दम कर दिया. घर में दूध,दही,मक्खन,फल,पान-मसाला, बॉर्नवीटा, च्यवनप्राश, बादाम आदि सब पर्याप्त रूप से स्टॉक कर दिया गए थे और ताला लगा दिया गया था. जिसकी एक चाबी मेरे पास और एक माताजी के पास थी. माताजी दूध की सारी मलाई निकाल कर मेरे लिए रख देती. मेरे भाई-बहन टापते रह जाते. थोड़े दिनों में उन्हें आदत हो गयी और किसी के गिलास में अगर गलती से भी मलाई चली जाती तो वह माताजी को रिफंड कर देता. चैन की छन रही थी. कल तक का नाकारा, नालायक जिसके भविष्य के बारे में पिताजी आश्वस्त थे कि यह जूता पॉलिश करेगा या सायकल का पंक्चर लगायेगा. वह वी.आई.पी. हो गया था. साला मैं तो साहब बन गया.



और फिर जिसका डर था वही बात हो गयी. आई.ए.एस का विज्ञापन निकल गया. मेरा छोटा भाई जिसे मैंने सिर्फ विज्ञापन देखने की ड्यूटी दी थी वह जोश जोश में फॉर्म भी ले आया. फॉर्म पढ़ कर मुझे चक्कर आने लगे. फॉर्म समझ में नहीं आता था. जितना पढता उतना कन्फ्यूज हो जाता. कहने को फॉर्म द्विभाषीथा मगर इसकी हिंदी कौन अंग्रेजी से कम थी. कहाँ से लाते हैं ये हिंदी के शब्द, ये कौन प्रदेश की भाषा है जी. जो अंग्रजी से भी अधिक कठिन है.



जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो इंसान ईश्वर की शरण में जाता है. मैंने भी माता-पिता को अपना फैसला सुना दिया कि मैं फॉर्म भरने से पहले माता के दर्शन करना चाहता हूँ. सब गदगद हो गए. अब किस में दम है को मना करे और पाप का भागीदार बने.बस फिर क्या था, हम सब दोस्त-यार प्क्निक कम दशन पर निकल पड़े.बड़ा मजा आया. माताजी ने हाथ खोल कर पैसे दिए थे. इसके बाद तो जब मेरा मं उचटता, मैं कहता, ‘माता के जाना है, माता ने बुलाया है’ . बस दूसरे दिन रवानगी हो जाती.



जैसे तैसे फॉर्म भरने के बाद मेरी ऐश का दूसरा फेज चालू हुआ. मैंने दिखाने को अब तो एक पुरानी जनरल नॉलेज की किताब भी खरीद ली थी.बाकी विषयों के लिए मैंने कह दिया था आई.ए.एस. की किताबें कोई खेल-खिलौना या मखौल नहीं हती हैं. अव्वल तो मिलती ही नहीं हैं, मिलती हैं तो बहुत महंगी. अतः मैं उन्हें लाइब्रेरी में जा कर ही पढूंगा. माता-पिता फिर निहाल हो गए कि मुझे उनका और उनके खर्चे का कितना ख्याल है. सब को बताते फिरते कि रवि जी लाइब्रेरी गए हैं. कलेक्टर साब के इज्ज़त से बुलाना चाहिए. फिर अगर घर वाले ही इज्ज़त नहीं करेंगे तो बाहर वाले क्या ख़ाक करेंगे. रोज शाम को मित्र लोगों की टोली निकल पड़ती कभी फिल्म,कभी मटरगश्ती,कभी इश्क बढ़ा मजा आ रहा था. मैं सोचता था जिस सर्विस की तैयारी में ही इतना मजा है सर्विस मिलने का बाद क्या होगा.? हमारे घर में पहले ही कोई आता-जाता ना था, अब तो खबर और करा दी गयी थी साथ ही माता-पिता जब भी पास-पड़ोस या किसी समारोह में जाते तो कोई मेरे लिए पूछता या न पूछता वे सबको सुनाते हुए यह कहना नहीं भूलते, “ ज़रा जल्दी जाना है, रवि जी को आई.ए.एस. की करता छोड़ आये हैं. रवि जी तो लाइब्रेरी गए हैं आई.ए.एस के सिलसिले में”



हमारा एक दोस्त मेरठ के पास रहता था. उसका वहां फ़ार्म हाउस था. उसने बताया कि वहां ऐशो-आराम की सभी सुविधाएँ हैं. बस मैंने घर वालों से कह दिया कि मैं मेरठ सेंटर से फॉर्म भरूँगा, कारण कि सरकार ने डिसाइड किया है कि मेरठ से आई.ए.एस. बहुत कम हैं इसलिए अबकी बार मेरठ सेंटर से लोगों को ज्यादा से ज्यादा लेना है. मेरे माता-पिता तो सुन कर खुशी से पागल हो गए और उन्होंने अपने एक परिचित के यहाँ मेरठ में मेरा इंतज़ाम कर दिया. वह परिचित बड़े ही धार्मिक और वेजिटेरियन थे. मेरा मन मुर्गा खाने को कर रहा था. मैंने तुरंत माता-पिता को दिल्ली फोन लगाया और उनकी शिकायत कर दी जैसे वेजिटेरियन न हों कोई कच्छा-बनियान गिरोह वाले हों. सुनते ही मेरे बड़े भाई दिल्ली से स्कूटर पर पका-पकाया मुर्गा मुझे मेरठ देने ए. वे नहीं चाहते थे कि इम्तहान से ठीक पहले मेरा मन चिकन जैसी टुच्ची चीज के चलते विचलित हो जाये. कुछ वो ये भी नहीं चाहते थे कि मैं कैसे भी अपने फेल होने का इलज़ाम उनके या मुर्गे के सर लगा पाऊँ. इतना बड़ा इलज़ाम लेकर वो नरक में न जाना चाहते थे. एक बार क्लर्की के इम्तहान में अपने फेल होने का इलज़ाम मैं बिजली पर लगाया आया था और साफ़ बच निकला था. क्या करता, बिजली नहीं थी. बिजली नहीं थी तो लिफ्ट नहीं चल रही थी. लिफ्ट नहीं चल रही थी तो मैं टाइपराईटर सीढ़ियों से उठाये उठाये सेकेण्ड फ्लोर पर ले गया. बस बांह जाम हो गयी. हाथ अकड गए. उंगलियां सुन्न पड़ गयीं. टाइप कर ही नहीं पाया. और मैं क्या कोई भी नहीं कर पाया.



राम-राम करके इम्तहान का दिन भी आ गया. सुबह सुबह फ्रेश हो कर मैं स्कूटर पर इम्तहान देने निकला. स्कूटर मैंने बड़े भैया से जब मुर्गा देने आये थे तो झटक लिया था. मन बिलकुल शांत और साफ़ था. कोई तैयारी नहीं थी. कुछ याद किया ही ना था जिसे भूलने की टेंशन होती. प्रीलिमनरी इम्तहान की एक और विशेषता है, ना तो वे प्रश्न पत्र आपको देते हैं ताकि कोई बाद में आपसे पूछ कर क्रॉस चैक ना कर पाए. दूसरे, सारे सवाल ऑब्जेक्टिव टाइप होते हैं. बस राईट का निशान लगाते जाओ. दिमाग पर कोई जोर नहीं पड़ता. दरअसल सवाल पढ़ने की जहमत किये बिना ही मैं राईट का निशान जहाँ-तहां लगा कर निकल आया. सवाल पढ़ कर ही कौन सा तीर मार लेना था. अपना रिजल्ट तो बखूबी मालूम था.फिर भी माता-पिता को घर जाकर “मैं कैसे मरते-मरते बचा . . .” की कहानी पूरे इफेक्ट के साथ सुना दी. “मैं सेंटर जा रहा था, स्कूटर मैं बहुत ठीक ठीक और धीरे धीरे चला रहा था कि अचानक एक बुढिया सड़क के बीचों-बीच न जाने कहाँ से आकर खड़ी हो गयी. लाख बचाते बचाते भी मेरे स्कूटर से टकरा गयी. मैं गिर गया. बुढिया गायब हो गयी. अब तुम्ही बताओ मम्मी ऐसी मनोदशा में मैं कितना नर्वस हो गया. इम्तहान क्या ख़ाक देता, फिर भी दे आया हूँ. पर्चा अच्छा हुआ है. देखिये क्या होता है. रिजल्ट तो साल के आखिर में आयेगा लेकिन मेन की तैयारी तो अभी से करनी है”. माताजी मेरी कहानी सुन कर रुआंसी हो उठीं और उन्होंने मुझे गोद में छुपा लिया. उस बुढिया को हज़ार हज़ार बार कोसते हुए वे मेरे लिए हल्दी मिला दूध लेने चलीं गयीं.मुझे यह डर था कि कोई यह ना टोक दे कि भैया ‘नॉलिज’ क्या डोलची में दूध की तरह ले जा रहे थे जो कि बुढिया के टकराने से सड़क पर फ़ैल गयी. मगर हमारी कहानी के आगे बड़े बड़े भूतनाथ फेल हैं.



मैं सोचता हूँ अगली बार इलज़ाम किस पर डालूं. बिजली..बुढिया...बारिश...बॉलीवुड... अभी तो ज़ैड तक बाकी है.














Sunday, October 24, 2010

अनिवासी मंत्री की पहली गाँव यात्रा

मेरी पहली रेल यात्रा जैसे पिटे पिटाए विषयों पर आपने बहुत से निबंध स्कूल में पढ़े लिखे होंगे. मगर ये अनूठी यात्रा विदेश में पले बढे मंत्री जी की है जो कि बस नाम के ही इंडियन हैं. वो निकटतम एअरपोर्ट तक बाई एयर गए. जहाँ बूके और बूफे का शानदार इंतज़ाम था. उन्हें पता न था, चमचा लोग बूके और बूफे दोनों दिल्ली के फाइव स्टार से साथ ही ले गए थे. प्रेस कान्फरेंस की गयी कि कैसे इस स्टेट को डवलप करना उनकी प्रियारिटी है आदि आदि. वहां से वे कसबे के लिए हेलिकोप्टर से आये. जहाँ कलेक्टर ने उन्हें बहुत सी स्टेटिक्स बताई कि कैसे वहां दशमलव के तीन स्थानों तक लोग गरीबी रेखा से ऊपर आये हैं. गाँव में जल-निकास सिस्टम फ़्रांस की तर्ज़  पर  लगाने की प्रोजेक्ट रिपोर्ट फाइनल स्टेज पर है. वो बात अलग है कि अभी जल सप्लाई की समस्या है. इलिट्रेसी के चलते फूहढ गाँव वाले पेयजल और पशुओं के नहाने के जल में डिफ़रेंस ही नहीं कर पाते हैं. इसलिए अगले बरस अमरीकी संयत्र से इन्हें मिनरल वाटर दिया जायेगा. घड़े-कलसे के बजाय बड़े बड़े जार में देने की महत्वकांक्षी योजना को पिछले माह ही कैबिनेट की स्वीकृति मिली है. अब सारी परेशानी बिजली की है. एक बार जापान से बिजली आते ही गाँव जगमग-जगमग हो जायेगा.गाँव वाले केबल टी.वी., जीरो इंटरेस्ट पर लोन ले कर फ्रिज, माइक्रोवेव, म्यूजिक सिस्टम लेने वाले हैं. देखते देखते इलेक्ट्रोनिक आइटम की बड़ी मार्केट यहाँ खड़ी हो जायेगी. ‘बाई वन गेट वन फ्री’ के अंतर्गत हर जगह वाकमैन, कम्पयूटर, डी.वी.डी. चल निकलेंगे. मंत्री जी प्रगति से संतुष्ट दिखे. उन्होंने कलेक्टर को कहा “वैल डन”. कलेक्टर गदगद हुआ और अपनी अगली पोस्टिंग राजधानी में किसी अच्छे विभाग में कराने की जुगत में भिड गया.






मंत्री  गाँव पहुँचे. बहुत चहल पहल थी. सब लोग हाथ जोड़े खड़े थे. आशा भरी नज़रों से मंत्री जी को,उनकी कारों के काफिले को,उनके जूते, उनकी घड़ी को देख रहे थे. मंत्री जी ए.सी. में से उतरे थे. पसीने से तार-बतर रुमाल गीले हो रहे थे. उन्होंने “यंग लेडीज” से मुखातिब होते हुए कहा “ अब तुमको वाटर प्रॉब्लम तो नहीं “ वो पागलों की तरह एक-दूसरे का मुंह ताकते हुए ही-ही करने लगीं. मंत्री जी ने फिर पूछा “ पानी का समसिया तो नहीं” वो बोली “ नहीं दस कोस पर नदी है वहां से लाती हैं. नहीं तो गाँव के तालाब से ले आती हैं. इसमें एक ही परेशानी है कि गाँव में लोगों को आत्महत्या करनी हो या गाय-भैंस का नहाना हो, दोनों को एक ही तालाब है “


मंत्री जी ने सेक्रेटरी को इशारा किया, उसने तुरंत नोट कर लिया कि एक वाटर पौंड होना चाहिए. मंत्री जी मन ही मन सोचने लगे कि ये लोग एक्वागार्ड क्यों नहीं इस्तेमाल करते. उन्हें अचानक याद आया कि गाँव में बिजली नहीं है. उन्होंने सोचा चलो किसी मल्टी-नेशनल को ‘स्टेट ऑफ आर्ट’ का पौंड बनाने का टर्न की प्रोजेक्ट दे दिया जायेगा

मंत्री जी ने फिर पूछा, तुम लोग प्रोटीन रिच फ़ूड लेते हो ? बेलेंस डायट बहुत इम्पोर्टेंट है .वे बोली , साहब अभी तो पुदीने की चटनी भी हफ्ते में एक बार लेते हैं. हम तो अधिकतर मिर्ची और नमक से ही खाते हैं. सुनते ही मंत्री जी बोले “ नहीं नहीं, हम स्टार्टर की बात नहीं कर रहे हैं “ लोकल एम्.एल.ए. ने उन्हें समझाया साब ! ये मेन कोर्स ही बता रही हैं. ओ . . ओ ये सब वेट कांशस हैं, ब्रावो ! आई एम् इम्प्रेस्ड. उन्होंने फिर पूछा मिर्ची हरा वाले खाते या रैड ? जवाब आया लाल मिर्च. ये प्यूरी या पेस्ट क्यों नहीं लेते. सेक्रेटरी नोट करो. कितना मैन आवर्स चटनी बनाने में वेस्ट होता है. वीक एंड पर पिजा, नूडल्स और हॉट डॉग के कंजम्शन की क्या फिगर है ? उन्हें बाते गया कि उनका फास्ट फ़ूड तो सत्तू है. वो तिलमिलाए ओह हाऊ अनहाईजीनिक ! कंट्री इज गोइंग तो डॉग्स” ये सब अपना प्रेशियस टाइम इसी में वेस्ट करते हैं. हाउ द हैल दे कैन प्रोग्रेस” उनका मूड ऑफ हो गया. वे राजधानी की और लौट आये.


अगले दिन अखबारों में फ्रंट पेज पर उनके फोटो थे. किसी में गाँव वालों से हार-माला पहनते हुए. किसी में गंदे ग्रामीण बालक को गोद में उठाये हुए. उन्होंने आधा दर्जन परियोजनाओं का उद्घाटन किया. एक दर्जन नयी योजनाओं की घोषणा की. अख़बारों के संपादकीयों में लिखा था – कैसे उन्होंने गाँव वालों को हैल्थ इज वेल्थ, एड्स, इन्टरनेट, ग्लोब्लाईजेशन, इंटरनेशनल टेरररिज्म और सार्स के बारे में बताया. वो गाँव की हालत देख कर बहुत मूव हुए और उन्होंने गाँव को एडौप्ट ही कर लिया .


उधर गाँव वाले बहुत खुश थे. देर रात तक गाते-बजाते रहे. महीनों इस बात की चर्चा होती रही. सभा में आने के लिए सभी को पांच पांच रुपये मिले थे. महिलाओं को एक रंग-बिरंगी ओढनी मुफ्त में मिली थी. जिन लोगों को स्वागत गान गाना था और फूल माला पहनानी थी वे लोग तो और भी खुश थे. कारण उन्हें एक एक खुशबू वाला साबुन भी फ्री मिला था. वो भी विदेशी साबुन. टूर बहुत ही सक्सेस गया था.













Friday, October 22, 2010

हैपी फादर्स डे

अभी पिछले दिनों ८ जून को क्या दिन था. मंगलवार,शुक्रवार,नहीं बल्कि क्या महत्वपूर्ण था यह बताएं. नहीं पता. भाई साहब ८ जून को ‘फ्रेंडशिप डे’ था फिर जुलाई ‘डॉक्टर्स डे’ था. मेरा भारत महान कितनी तरक्की कर गया है, आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते. कहते हैं हिंदू धर्म में तेंतीस करोड़ देवी-देवता हैं. अतः रोजाना कोई न कोई पूजा,त्यौहार,व्रत होता है. इसी तर्ज़ पर साल के ३६५ दिन के ३६५ दिन अब कोई न कोई ‘डे’ हुआ करेगा. बाज़ार ऐसे ही चलेगा.ऐसे में बताइए तीन नेशनल होली डे का क्या अर्थ रह गया जबकि इंटरनेशनल होली डे ज्यादा धूमधाम से मनाये जाने लगे हैं. अभी तो हमारे पास केवल वेलेंटाइन डे इम्पोर्ट हो कर आया है और हमने उसे दिलोजान से अपना लिया है. बिलकुल उसी तरह जैसे हमने इतने सारे चैनल अपना लिए,पिज्जा अपना लिया, आई लव यू, हैव फन और ओह शिट अपना लिया है. मेरा भारत महान महान कोई ऐसे ही थोड़े बन गया है. गाँधी जयंती ? व्हाट ‘गेंडी जेंटी’, व्हाट इज दैट ? ओह कम ऑन. हाउ वैरी ओल्ड फैशन. किसी फाइव स्टार होटल में फादर्स डे होना चाहिए और फिर एक फैशन शो या ब्यूटी कंटेस्ट होना चाहिए. बाल दिवस ? वो क्या होता है ? इसे चेंज करो. लेट्स हेव ‘डिस्को डे’ राखी ? व्हाट राखी ? आज से हम सिस्टर्स डे मनाएंगे. नो नारियल,स्वीट्स,रोली टीका. सिस्टर लोग को महंगा कार्ड देना मांगता है. फिर सिस भैया लोग की कलाई पर बैंड बंधना मांगता है. हाउ स्वीट. सो भैय्या अब रक्षा बंधन भूल जाओ. भारत इक्कीसवीं सदी में में कोई पैदल नहीं गया है बलिक फास्ट इम्पोर्टड कर में गया है. इसलिए तो पलक झपकते ही इतना दूर निकल गया है कि डर है कहीं जल्दी ही बाईसवीं या चौबीसवीं में न घुस जाये. ब्रेक फेल हैं.






वेलेंटाइन डे के अलावा अब मल्टी नेशनल कंपनियों के चक्कर में हैं कि कैसे इस जाहिल हिंदुस्तानियों को करवा चौथ की जगह हसबेंड डे मनाने को मजबूर किया जाये. नो फास्ट प्लीज. फास्ट से बाज़ार नहीं चला करते. उस दिन वाइफ तथा वुड बी वाइफ लोग किचन में नहीं जायेंगी. घर की बनाई कोई चीज नहीं खायी-पी जायेगी. इससे पाप लगेगा. यू नो सिन. बल्कि फास्ट है इसलिए सब बाहर फास्ट फ़ूड खायेंगे.जो महिलाएं हसबेंड डे नहीं मनाएंगी उन्हें कैसे धिक्कारा जाये, इस पर रिसर्च चल रही है. क्विज,टी.वी.चर्चा,फेट, जैम सैशन, रेन डांस, कृत्रिम बर्फ खेल आयोजित किये जायेंगे और यदि आप वहां नहीं जायेंगे तो समझिए कि आप बेकार बेकाम के हसबेंड हैं या यूँ कहिये आपको सरे आम बे-इज्ज़त कर कहा जायेगा कि आप हसबेंड होना डिजर्व ही नहीं करते. आपको हसबेंड किसने बनाया.छोडिये ऐसे हसबेंड को और नया ‘कन्वरटी’ हसबेंड ले आइये.






मल्टी-नेशनल कंपनियों को मैं आमंत्रित करना चाहूँगा कि मेरे सौ करोड़ की आबादी वाले देश में फर्स्ट फेज में कम से कम सौ दिन तो ऐसे चला ही दें. सेकेण्ड फेज में दूसरे सौ दिन और तीसरे तथा अंतिम फेज में इन सभी सौ करोड़ को नानी याद दिला दी जाये.इस पर याद आया कि एक नानी या अंग्रेजी में कहें तो ग्रानी डे जरूर होना चाहिए. तो पहले फैमिली से शुरू करते हैं. फादर्स डे, मदर्स डे, ग्रांड पा डे, ग्रांड माँ डे, अंकल डे, आंटी डे, नैफ्यु डे, नीस डे, डॉटर डे, सन डे, स्टेप फादर डे, स्टेप मदर डे, स्टेप सन डे, और जबकि फॉस्टर सन डॉटर चलने लगे हैं तो जाहिर है फॉस्टर सन डे, फॉस्टर डॉटर


डे भी मनाया जाना चाहिए. ऐसे में आप रामू काका और कमला बाई को कहाँ भूले जा रहे हैं. अतः सर्वेंट डे, आया डे, सेक्रेटरी डे, बॉस डे, ऑफिसर डे, क्लर्क डे, टीचर डे, टीचर्स में भी फिर नर्सरी, प्राइमरी, सेकेंडरी, कॉलेजे के टीचर्स के लिए अलग अलग दिन निर्धारित होंगे और ट्यूशन वाले टीचर के लिए एक्सक्लुजिव ट्यूटर डे .






लायर्स डे, दूध वाले छोकरे का डे, सब्जी वाले भय्या का डे, आइसक्रीम वाले अंकल का डे, पडोसी दिवस जिस दिन सब अपने-अपने पड़ोसियों को लंच किसी मल्टी-नेशनल रेस्टौरेंट में कराएँगे. बदले में पडोसी उन्हें डिनर किसी और मल्टी-नेशनल रेस्तरां में कराएँ तथा महंगे-महंगे विदेशी उपहार और कार्ड लिए दिए जायेंगे. नो देसी प्लीज. इंडियन गुड्स तो रेड इंडियन की तरह लुप्त प्रजाति हैं. अब जबकि हर साल भारत की ही ब्यूटी क्वीन मिस वर्ल्ड बन रही हैं. अतः ब्यूटी डे भी मनाया जायेगा. कैसा सुखद आश्चर्य और संयोग है कि इधर मल्टी-नेशनल हिंदुस्तान में घुसी उधर उन्होंने देखा-परखा और विश्व में मुनादी करा दी कि अगले कुछ बरसों तक जब तक बाज़ार अच्छी तरह सेट न हो जाये सभी विश्व सुंदरियाँ भारत से ही आयात की जाएँ. भारतीय सुंदरियां और सौंदर्य प्रतियोगिताओ के आयोजक ये कहते नहीं थकते कि ऐसा नहीं है. सौ करोड़ की ऐसी मार्केट पृथ्वी पर और कहीं उपलब्ध नहीं है.१९८० के बाद की पैदावार ये बालाएं वाकई हैं ही इतनी सुन्दर कि सभी विश्व सुंदरी बनाई जाने लायक हैं और बनाई भी जाएँगी बशर्ते वे हमारे शीतल पेय, साबुन,सौंदर्य प्रसाधन और ड्रेस इस्तेमाल के विज्ञापन करती रहें.हमारे टी.वी. प्रोग्राम चलाती रहें डोंट वरी, एक ब्यूटी पार्लर डे भी होगा. आंटी डे, माली बाबा डे, पुलिस ताऊ डे, फादर-इन-ला, मदर-इन-ला, ब्रदर-इन-ला तथा सिस्टर-इन-ला डे भी मनाया जाये, नहीं तो ससुराल वाले बुरा मान जायेंगे, नहीं तो वाइफ लोग बुरा मान जाएँगी और वो भी न बुरा मानी तो हमने जिन देशों से कर्जा ले रखा है वो बुरा मान जायेंगे और वो बुरा मान गए तो बच्चू आपको फन पार्क में चुल्लू भर पानी में डुबो कर मार देंगे. न्यू ईयर डे, बर्थ डे, होली,दीवाली, ईद आदि तो पुराने पड़ गए हैं. इसलिए अब कलर्स डे,(होली) लाइट्स एंड बम्ब डे (दीवाली), हग ईच अदर डे (ईद) आदि मनाया जाये. एन्वायरनमेंट डे, एड्स डे, ब्लड डोनेशन डे तो हैं ही अब हार्ट,आईज डे तथा गुर्दा डे भी मनाया जायेगा.






पाठकों से अनुरोध है कि और अधिक से अधिक सुझाव भेजें ताकि मेरा भारत महान और ढेर सारे “ डे “ मनाये कि इसकी “नाईट” खत्म हो और यह जाग जाये. आखिर ११९४७ से सो रहा है, क्या अभी नींद पूरी हुई.









Thursday, October 21, 2010

सब ‘फिक्स’ है

पिछले दिनों बहुत बावेला मचा था कि क्रिकेट मैच फिक्स होते हैं. ये पब्लिक भी अजीब है जब खूब मोल-भाव होते थे कहते थे रेट फिक्स होने चाहिए. रेट फिक्स हो गए तो उन्हें वो स्थिति भी नहीं भाई. सुपरबाज़ार में रेट फिक्स होते थे.मित्र लोगों ने उसकी वो गत बनाई कि सुपरबाज़ार में लूट-खसोट और घोटाले ही सुपर रह गए. आपातकाल के दौरान दुकानदारों ने अपने माल के रेट फिक्स किये और सरकार ने बच्चे फिक्स कराने चाहे तो मित्र मतदाताओं ने आपातकाल की माता कांग्रेस की वो हालत की कि सत्ता से उसकी नसबंदी ही कर दी. दुकानदारो ने ग्राहकों की नब्ज़ पहचान ली है अतः भाई लोगों ने पूरे बारहमासी ‘सेल’ के इंतजाम कर दिए हैं और ‘सेल’ के पक्के बोर्ड ही बना कर टांग दिए हैं. ग्राहक खासकर ग्राहिकाएं उसे देख कर वैसे ही खिँची चली आती हैं जैसे मछली काँटे में फंसे चारे को देखकर.






एक क्रिकेट मैच फिक्स होने पर इतना बवाल क्यों ? . समझ से परे है. हमारे मुल्क में क्या फिक्स नहीं है. गर्भावस्था से ही क्या लिंग परीक्षण से ‘बेबी बॉय’ फिक्स नहीं हो जाते. क्या नर्सिंग होम और उसमें होने वाले बेफालतू के टेस्ट और सीजेरियन फिक्स नहीं हैं. अस्पतालों के केमिस्ट और टेस्ट केन्द्र फिक्स नहीं हैं. हद तो तब हुई जब पता चला कि कुछ लिंग परीक्षण केन्द्र तो अब गर्भ में लड़का होते हुए भी लड़की बता कर ऑपरेशन की फीस झाड लेते हैं. बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र प्राप्त करने की मशक्कत आपने की है कभी ? स्कूल में नर्सरी में दाखिला दिलाने ले जाएँ तो पूरी तैयारी के साथ ग्वाटेमाला की राजधानी से लेकर व्हेल मछली के दांतों की संख्या आपको पता हो तो भी दाखिला नहीं मिलने के पूरे-पूरे चांस होते हैं. हाँ, अगर सीट फिक्स हो गयी है तो बात और है. फिर तो इतना होनहार क्यूट और ब्रिलिएंट बच्चा प्रिंसिपल के जीवनकाल में पहला और अंतिम आपका ही है.






स्कूल वालों के बुक सेलर्स से लेकर यूनीफॉर्म वाले तक फिक्स होते हैं जो कि अपने लकी नंबर से कीमतों को गुणा करके वस्तुएँ आपको बेचते हैं. हमने पूरा स्कूली जीवन एक ही यूनिफार्म में काट दिया. आज बच्चों की जूनियर की अलग यूनिफार्म है, सीनियर की अलग. सोमवार की अलग है, शुक्रवार की अलग. मुझे डर है कहीं एक अटैची में बच्चे अब स्कूल बैग के साथ यूनिफार्म न ले जाने लगें कि आधी छुट्टी से पहले की एक यूनिफार्म और आधी छुट्टी के बाद की दूसरी यूनिफार्म है.






मेरी सोसाइटी में ज्यादातर घरों में पति-पत्नी दोनों ऑफिस जाते हैं और बच्चे क्रश या आया के भरोसे पलते हैं. ये बच्चे सब्जी वाले और आइस क्रीम वाले को अंकल कहते हैं. मम्मी पापा के अलावा सारी दुनियां इनके लिए बस अंकल आंटी हैं. सोसाइटी में सबके रेट फिक्स हैं. टेलीफोन बिल,बिजली का बिल,हाउस टैक्स जमा कराने से लेकर बाज़ार से सामान लाने का भी एक रेट फिक्स है.






अब तो आशीर्वाद भी इंटरनेट के माध्यम से आप तक एक फिक्स दक्षिणा के तहत पहुँच जाता है. जय हो गुरुदेव. विज्ञान,धर्म और व्यापर की कैसी अदभुत त्रिवेणी है.तारणहार चाहिए, जनता तो तारने को सदैव तत्पर रहती है. टी.वी. चैनलों पर इतने ‘गुरु’ हो गए हैं कि ऐसा न हो कि चेलों का अकाल पड़ जाये. ये रामराज नहीं तो और क्या है. सुबह-सुबह टी.वी. खोलें सभी आपको भव-सागर पार कराने को “ मेरी नाव में बैठो .. हे साहब ..हे भाई...हे माई ...इधर आओ. “






कहाँ जा रहे हो, किधर ध्यान है


बैकुंठ में सीट दिलाने की यही दूकान है






तो भाई लोगों ने आपके आगे का इंतज़ाम भी फिक्स करा दिया है. एक आप हैं बजाय आभार मानने के ज़रा सी मैच फिक्सिंग का रोना रोये जा रहे हैं. कितने सारे हेंडसम ही मैंन हीरोज की अप्पने पोल खोल दी. त्वाडा जवाब नहीं. अब दिल है तो धड़केगा भी.धडकने को सांस चाहिए. कहीं जूते भी सांस लेते हैं.






दुसरे को सफल देख आपको चिढ होती है.आप ये जान लीजिए कि इस संसार में सब वस्तुएँ ‘फिक्स’ हैं. क्या आपको अपने कसबे के मेले का ‘लोक-परलोक’ या ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ पवेलियन याद नहीं. याद करिये कैसे आपके यहाँ के कर्मों की सज़ा वहां फिक्स है खौलते तेल के कढाहे में जलाना, आरे से काटना, आग में भूनना इत्यादि इत्यादि.आप ज्योतिष में, वास्तु में, फेंग शुई में रूचि क्यों लेते हैं. अपना लोक-परलोक फिक्स कराने को ही तो. आप शादी-ब्याह, दहेज सब तो फिक्स कराना चाहते हैं मगर ऊँगली दूसरे पर उठाते हैं. नौकरी हो या पदोन्नति सब ‘फिक्स’ चाहते हैं और इसके लिए लाखों देने को तत्पर हैं.






तो महाराज इस नश्वर संसार में जन्म और मृत्यु फिक्स है. कब भूकंप आएगा, कब ग्रहण लगेगा, कब पूर्णमासी होगी, कब अमावस, कब चुनाव होंगे, कब बूथ कैपचरिंग. क्या हर बजट में पेट्रोल, सिगरेट के दाम और रेल किराये में बढ़ोतरी फिक्स नहीं. क्या हिंदी फिल्मों में कुम्भ के मेले में दो जुड़वां भाईयों का बिछुडना फिक्स नहीं. एक का अपराधी दूसरे का पुलिसवाला बनना फिक्स नहीं. क्या हीरोइन का बोल्ड सीन देना और उसका दोष ‘डबल’ के मत्थे मढ देना फिक्स नहीं. ये संसार माया है. इस माया में सबका फँसना फिक्स है और जो इस माया से निकल उसका महान महामानव बनना फिक्स है.













Wednesday, October 20, 2010

मुहावरे इक्कीसवीं सदी के

अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता :- सच ही है. मगर एक बार सोचो तो पता लगेगा कि अकेला क्या सारे चने मिल कर भी भाड़ न तब फोड़ सकते थे न आज. आजकल तो भाड़ होते नहीं. इसका आधुनिकीकरण यह हो सकता है कि अकेला पॉपकॉर्न मशीन नहीं तोड़ सकता है और न सारे पॉपकॉर्न मशीन तोड़ सकते हैं. यह जान लीजिए. मगर कल्पना कीजिये एक गर्म-गर्म अदद चना यदि भाड़ में से उछल कर भडभूजे की आँख भी फोड़ सकता है. आँख फूटी नहीं कि भाड़ फूटा. इसी तरह एक पॉपकॉर्न अगर मशीन में फंस जाये तो मशीन खराब. दूसरी और देख लीजिए १०० करोड़ मिल कर भी सरकार नहीं बदल सकते. एक बार कुर्सी मिल जाये तो सरकार आपकी ‘सेवा’ किये बिना हटती नहीं है. तभी तो बुजुर्गों ने कहा है कि सेवा करोगे तो मेवा मिलेगी और मेवा किसे प्यारी नहीं.


एकता में शक्ति :- बचपन में कहानी सुनी थी कि कैसे एक वृद्ध मृत्यु शैय्या पर था तो उसने अपने सभी बच्चों को बुलवा भेजा.पहले एक लकड़ी तुडवाई और फिर लकड़ी का गठ्ठर तोड़ने को कहा. वे तोड़ नहीं पाए और समझ गए कि एकता में शक्ति है. आज के टाइम में जब किसी वृद्ध ने अपने बच्चों को ऐसे ही समझाने के लिए लकड़ी मंगवाई तो मिली ही नहीं. सब जगह गैस-चूल्हे, हॉट प्लेट, माइक्रोवेव ओवन थे. वे जैसे तैसे खरीद कर लाए. एक-एक लकड़ी तुडवाई तो उन्होंने अनमने भाव से तोड़ दी. सोचा इनकी ग्रेच्युटी से काट लेंगे. इनकी आखिरी इच्छा पूरी कर दो. मगर जब पिताजी ने कहा कि गठ्ठर बाँध कर तोडो तो उनका सब्र जवाब दे गया. वो वैसे ही बूढ़े के मेडिकल बिल्स से तंग आ चुके थे. बडबडाने लगे. बूढा सठिया गया है. पागल हो गया है. हमारा टाइम खराब करता है. आव देखा न ताव और वो गठ्ठर बूढ़े के सर पे दे मारा. बूढा चल बसा.बच्चे जान गए कि एकता में शक्ति है. एक एक लकड़ी मारते तो बूढा मरता क्या ?






नाच न जाने आँगन टेढा:- ये तब की बात है जब डिस्को आदि नहीं थे. न कॉलेज थे न उनमें फेट- फेस्टिवल होते थे. न वेलेंटाइन डे होते थे और न डांस कम्पीटिशन. आज जब नुक्कड़ नुक्कड़ डांस कोचिंग चालू है. टी.वी. चेनलों पर अंकल-आंटी,बच्चे-बूढ़े सभी नाच रहे है तो यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि किसी को नाच न आता होगा. हो न हो जो नाच नहीं पा रहा है तो महज़ इसलिए कि आँगन टेढा है. नहीं तो आजकल के नचकैय्या तो बदन को ऐसे तोड़ मरोड़ के नाचते हैं कि उन्हें न ज्यादा जगह दरकार है न कपडे.






आज नकद कल उधार:- आज के क्रेडिट कार्ड और जेरो परसेंट ब्याज और आसान किश्तों के टाइम पर तो न आज नकद न कल नकद. आज भी उधार, कल भी उधार, परसों किसने देखा है. पहले बड़े-बूढ़े कहते थे कि भूखे सो रहो उधार मत खाओ. आज सब होटलों और रेस्टोरेंटों में क्रेडिट कार्ड चलते हैं. क्रेडिट कार्ड कहाँ कहाँ नहीं चलता. क्रेडिट कार्ड से आप क्या क्या नहीं खरीद सकते. क्या क्या नहीं कर सते. बस शमशान का विज्ञापन आना बाकी है ‘डाई टुडे पे लेटर’.






सस्ता रोये बार-बार महंगा एक बार :- आप ऐसा नहीं कह सकते. क्या आपने सर्दियों में जगह जगह पुराने गर्म कोट,पतलून और जर्सियों का अम्बार नहीं देखा. भला हो उन विदेशियों का जो आपकी दोहरी सेवा कर रहे हैं. न केवल सर्दियों में आपका तन ढांपते हैं बल्कि आपको इम्पोर्टेड फैशनेबल वस्त्र भी सस्ते दाम मुहैय्या करा रहे हैं. ताकि आप सदा हँसते-मुस्कराते, इठलाते रहें. वो इम्पोर्टेड सामान के लिए आपकी दीवानगी जानते हैं. इसलिए आज भी आपकी देख-भाल कर रहे हैं. अंग्रेजों ने यूँ ही नहीं भारतीयों को ‘व्हाईटमेंज बर्डन’ कहा था. फैशन स्ट्रीट हो या जनपथ, पूरे घर के वस्त्र खुले आम ‘थ्रो-अवे’ दाम पर मिल रहे हैं. आपको तकलीफ न हो इसलिए आपकी सुविधा के लिए सब वस्त्र केवल एक-दो को छोड़ कर ऐसे बना दिए हैं कि जनाना-मर्दाना का फर्क ही न रहे. ‘बाई वन गेट वन फ्री’ की सब और पुकार है तो कोई पागल ही सामान महंगा खरीदेगा. दरअसल सस्ता हँसे बार बार महंगा हँसे एक बार.






नेकी कर कुँए में डाल : आजकल कुँए तो रहे नहीं इसलिए शायद लोगों ने नेकी करना ही बंद कर दिया क्योंकि उन्हें समझ ही नहीं आता कि नेकी कर के कहाँ डालें. एक आध बार वाश-बेसिन या फ्लश में डाली तो सीवर लाइन ही चोक हो गयी. पहले नेकी बड़ी होती थी इसलिए कुँए में डालनी पड़ती थी.अब नेकी सूक्ष्म हो गयी है मगर फिर भी फंस जाती है. नेकी करनेवालों की भी मजबूरी है. इसलिए नया मुहावरा चला दिया. नेकी कर जूते खा. ऐसा हो ही नहीं सकता कि आपने किसी के साथ नेकी की हो और उसने आपकी खाट न खड़ी की हो. वक्त पड़ने पर गधे को बाप बनाने की सनातन परम्परा तो सुनी थी. मगर काम निकल जाने पर बाप को भी गधा समझने की परम्परा मेरे भारत महान में ही है.

Tuesday, October 19, 2010

मेरा प्रिय त्यौहार – दीवाली


 दीवाली हिंदुओं का प्रसिद्ध त्यौहार है किन्तु अब ये सभी हिंदुस्तानियों का एक लोकप्रिय त्यौहार हो गया है कारण कि हिंदुस्तान एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है. इस दिन सब लोग नए-नए डिजायनर्स कपडे पहनते हैं. कुछ लोग सजीले रेडीमेड कुर्ते पजामे भी पहनते हैं. दीवाली के एक महीने पहले से ही बाज़ार में भारी सेल लगती है. कुछ इसे क्लीयरेंस सेल भी कहते हैं बहुतों ने तो परमानेंट सेल के बोर्ड ही दुकानों में टंगवा दिए हैं. लोग सेल की चीज़ें खरीदने का वर्ष भर इंतज़ार करते हैं. कुछ व्यापारी तो सेल के चक्कर में अपनी मिल ही बंद करा देते हैं या दिवाला ही निकलवा लेते हैं. कमसेकम विज्ञापनों में तो वे ये ही बयान देते हैं. गृहणियां ये सुन कर द्रवित हो जाती हैं और ‘दया-भाव’ से कई कई साडियां खरीद लाती हैं.


दीवाली मेरा प्रिय त्यौहार है. दीवाली रिश्वत लेने और देने का ऑफिसियल त्यौहार है. आप किसी को भी बेखटके (जाहिर है जिस से काम अटका है ) ऑफिसियली रिश्वत दे सकते हैं शर्त ये है कि उसे दीवाली की गिफ्ट कहा जाये. लोग हीरों के सैट से लेकर कार तक गिफ्ट देने लगे हैं. अब कार बेकार व्यक्ति को तो दी नहीं जायेगी. आप दिल खोल कर और बिना अपने ज़मीर पर (यदि बाकी है तो ) खरोंच लगे दीवाली पर रिश्वत .. सॉरी .. गिफ्ट ले-दे सकते हैं. बस देने वाले को थेंक यू भर कह दें. बाकी सब वह आपके थेंक यू कहने के अंदाज़ से ही समझ जायेगा. पहले दीवाली पर खील बताशे और शक्कर के हाथी-घोड़े दिए जाते थे. अब ऐसा नहीं है. डायबिटीज़ का ज़माना है.इसलिए मिठाई भी नहीं चलती. अतः कमसेकम ड्राई फ्रूट तो चाहिए.


यह त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन जगह जगह किटी पार्टी होती हैं. जम कर ताश खेली जाती है और बड़े बड़े होटल फैशन शो आयोजित करते हैं. घरों को खूब सजाया जाता है. लाइटिंग की जाती है. जोर जोर से म्यूजिक बजाया जाता है. बच्चे और बच्चे जैसे लोग पटाखे और बम भी फोड़ते हैं. लेकिन इधर आतंकवाद के चलते अक्सर ही बम फूटते रहते हैं. दीवाली से आतंकवादियों ने अच्छी प्रेरणा ली है. शहर में खूब प्रदूषण फैलता है. जिससे मच्छर बिना डॉक्टरी सहायता के परलोक सिधार जाते हैं और मनुष्य बीमार हो जाते हैं. इन दिनों डॉक्टरों के क्लिनिक पर खूब भीड़-भाड रहती है. दीवाली के बाद इनकी दीवाली मनती है.
इस दिन धन की देवी लक्ष्मी जी का पूजन भी होता है. वैसे तो हमारे देश में अब लक्ष्मी जी की बारहों महीने चौबीसों घंटे पूजा की जाती है और लोग अपना मान-सम्मान, ईमान सब लक्ष्मी जी पर चढाने को तत्पर रहते हैं. हमारे देश में इनकी इतनी पूजा होने लगी है कि अन्य देवियाँ ईर्ष्याग्रस्त हो गयीं हैं और उनके पूजक अपने भाग्य को कोसते रहते हैं. देखने में आया है कि कुछ लोग तो अपने घरों को इसलिए रोशन करते हैं और रात भर दरवाजा खुला रखते हैं कि कहीं लक्ष्मी जी उनके घर का रूट न भटक जाएँ. मगर यह भी देखने में आया है कि अक्सर इस चक्कर में घरवाले चोर-डकैतों के सौजन्य से,अपनी बची-खुची लक्ष्मी से भी हाथ धो बैठते हैं.
दीवाली पर लोग शराब भी पीते हैं. सब अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक़ ब्रांड पीते हैं. महँगी स्कॉच से लेकर सस्ती छिपकली ब्रांड अर्क भी. इसके बड़े फायदे हैं. ये जहरीली शराब पीकर काफी संख्या में लोग अपना बलिदान देते हैं. इसके दोहरे लाभ हैं. एक तो ये सभी तरह के आवागमन के चक्र से मुक्ति पा जाते हैं. दूसरे वे देश की जनसँख्या कम कर पुण्य के भागीदार बनते हैं. जो बच रहते हैं वे अंधे हो जाते हैं. उन्हें बुरा देखने से मुक्ति मिल जाती है. वैसे भी इस नश्वर जगत में फिर और बच ही क्या रह जाता है देखने को.


दीवाली मेरा प्रिय त्यौहार है. मैं क्योंकि धर्म-निरपेक्ष हूँ. अतः मैं इफ्तार की दावत भी उड़ाता हूँ. खासकर अगर यह किसी बड़े नेता के घर पर हो जिसमें तरह तरह के पकवान हों. वी.आई.पी. गैस्ट, फिल्म स्टार्स और फोटोग्राफर्स भी आये हों. मेरी तरह वहां और भी धर्म निरपेक्ष लोग आते हैं जो रोज़े तो रखते नहीं और इफ्तारी छोड़ते नहीं. इसके चलते मेरा पी.आर. इन दिनों अच्छा हो चला है. दीवाली पर हम ‘फ्री होम डिलीवरी’ पिजा मंगा कर खाते हैं. ‘बाई वन, गेट वन फ्री’ स्कीम में.


दीवाली मेरा प्रिय त्यौहार है.

















Monday, October 18, 2010

मिस रिश्वत

रिश्वत यूँ तो चार अक्षर का शब्द है मगर यह ‘फोर लैटर वर्ड’ नहीं रह गया है. यह एक सम्मानीय शब्द है और हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है. इसके इतने पर्यायवाची आपको अपने आसपास मिल जायेंगे जो इसके आलजाल को तथा इसकी खट्टी मीठी विभिन्नता को इंगित करते हैं. गौर कीजिये घूस, नज़र, दारु, भेंट, दस्तूरी, डाली, मिठाई, गिफ्ट, कमीशन, आदि आदि एक बात और गौर की आपने ये रिश्वत स्वयं व इसके सभी पर्याय स्त्रीलिंग ही क्यों हैं ? यह भेद शायद कबीर दस ने बहुत पहले ही जान लिया था व हलके इशारे में बताया भी था


माया महाठगिनी .... त्रिगुण फाँस लिए


आधुनिक युग पार्टी युग है चाहे वह किट्टी पार्टी ही क्यों न हो. जिसमे केवल वह महिलाएं जाती हैं जिन्हें करने को और कुछ नहीं होता व समय काटे नहीं कटता है. इनके पति बड़ी राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने हेतु जूझ रहे होते हैं ( या इस भ्रम में रहते हैं ) किटी पार्टी कि हर सदस्या को यही लगता है कि उनके पति के कन्धों पर ही देश चलता है. रक्तचाप, मानसिक दबाव, मधुमेह, ह्रदय रोग ये सब अच्छे भले न हों मगर हाई एक्ज्युकिटीव रोग हैं. इनसे सोसायटी में एक स्टेटस बनता है. इनमें से कोई रोग न जो तो आपके ‘वो’क्या ख़ाक ऑफिसर हैं. किटी पार्टी की तरह पुरुषों के पास स्टेग पार्टी हैं जिसमें वे ही होते हैं मगर उसका जिक्र फिर कभी. यहाँ इतना जानना काफी है कि ऐसी पार्टियों में बेशुमार दारू और दफ्तर की बातें होती हैं.


बात रिश्वत की हो रही थी. पार्टी, ट्रीट, केपिटेशन फीस, गुडविल मनी, वायिन्डिंग अप मनी, किकबेक मनी, (बोफोर्स याद कीजिये) सब स्त्रीलिंग हैं. ये सभी शब्द रिश्वत के बिगड़े-संवरे रूप को आगे बढाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं. ‘सुपारी’ पनवाडियो से अपराधियों तक, लंबा सफर तय करके पहुंची है. इसी प्रकार जुर्म के अंधियारों से बहुत से व्यक्ति विशेष निकल कर सत्ता के गलियारों में चहलकदमी करते नज़र आते हैं और हो भी क्यों न, क्या आपने मल्टी डिस्प्लिन स्किल या ले मैन की भाषा में ‘जेक ऑफ आल ट्रेड’ का नाम नहीं सुना है. यह हमारी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है हमें तो उलटे ऐसे नेताओं को प्राथमिकता देनी चाहिए जो हमारे व देश के भले के लिए खुद अपराध की दुनियां में रह कर आते हैं ताकि उन्हें फर्स्ट हेंड ज्ञान व अनुभव रहे और कालान्तर में हेंडल करने में परेशानी न आये. जब तक समस्या की सम्पूर्ण जानकारी नहीं रखेंगे तो हल क्या निकालेंगे.


ये ले मैन भी अजब शै है. गाँव में चैन नहीं मिला तो खेती-बाडी छोड़ डिग्री बगल में दबाए आ पहुँचे निकट के नगर में,नगर वाले दौड़े गए और बस गए महानगर में जहाँ कुर्सी मेज की तरह उनके मूल्य भी फोल्डिंग हो गए. ये तो भला हो खाड़ी के शेखों का उन्होंने दनादन हमारे डॉक्टर,नर्स, ऐक्ट्रेस, गवर्नेस सबको अपनी सेवा में ले लिया और उनका मुंह पैसे से भर दिया. ( अब पता चल आपको खाड़ी से लौट के लोग क्यों फूले फूले फिरते हैं ) उन्होंने तो हमारी गरीबी और जनसँख्या की समस्या पर तरस खा कर ऊँट दौड भी शुरू कराई थी. मगर सरकार को यह कतई मंजूर नहीं कि हमारे बच्चे दूसरे देशों में जाकर मरें और हमारी बदनामी हो.फिर यहाँ हमारे ढाबे, कालीन,माचिस उद्योग का क्या होगा, कभी सोचा है ? हमें सिखाया भी यही गया है ‘रूखा सूखा खाय के ठंडा पानी पी’


रिश्वत का स्त्रीलिंग होना कोई इत्तेफाक नहीं बल्कि इसकी पैठ गहरी करने के लिए भाषाविज्ञों की काफी सोची समझी कारगुजारी है. अगर यह महज़ इत्तेफाक है तो कितना हसीन इत्तेफाक है. आपको नहीं लगता ? पुराने समय के होस्टलों में लड़कों के कमरों में बिल्ली का घुसना भी ‘शुभ’ माना जाता था.


इसे न भगाओ ये मेरी किस्मत के पाए हैं
बड़ी मुश्किल से मेरे कमरे में ज़नाने पैर आये हैं


बस रिश्वत के ज़नाने पैर जिस घर में पड़ गए वहां ईमानदारी से इसका सौतियाडाह हो जाता है.


आज का युग विज्ञान का युग है. यह सुनते-सुनते आपके कान पक गए होंगे. समाचारपत्रों और टेलीविजन के जरिये मैन इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि आज का युग विज्ञान का नहीं विज्ञापन का युग है. बाज़ार में बेशुमार वस्तुएँ हैं जो गिफ्ट में देने के लिए बनाई गयी हैं. अब चाहे वो चॉकलेट हो, ड्राई फ्रूट का डिब्बा हो, महंगी डायरी या डॉल हो. समय के साथ चलो. काम के मुताबिक़ काम के आदमी को गिफ्ट दीजिए और ‘मेरे बिगड़े संवारो काज’ की लय ताल पर अनवरत नाचते रहिये. आपको ‘गोपाल’ कब तक बिसरायंगे. आखिर गोपाल भी जानते हैं कि जैसे ‘मन नहीं दस बीस’ वैसे ही आप जैसे काम के आदमी भी दस बीस नहीं. हों भी तो आपकी बराबरी थोड़े ही कर सकते हैं. उन्होंने ये लेख कहाँ पढ़ा है.




(व्यंग संग्रह मिस रिश्वत से )



Sunday, October 17, 2010

हमारी अशिक्षा नीति

पिछले दिनों एक विवाह समारोह में एक पुराने मित्र मिले. मैंने हाल-चाल जानने की गरज से पूछा कि क्या चल रहा है. उन्होंने बताया कि उनका बांस-बल्लियों का व्यापार बहुत अच्छा चल रहा है. आजकल हर जगह अवैध निर्माण हो रहे हैं सो बहुत डिमांड है. बड़ा लड़का सीमेंट की एजेंसी लिए है तथा ठीक-ठाक कमा रहा है . छोटा आगे पढ़ नहीं पाया तो उसे स्कूल खोल दिया है. मैं चकराया. ये स्कूल खोल दिया है उन्होंने दूकान खुलवा दी है के लहजे में कहा था. उन्होंने तफसील से बताया चार मास्टरनियां रख ली हैं. चार सौ रुपये में. १२०० पर हस्ताक्षर लेते हैं. बहुत खूबसूरत हैं और सबसे बड़ी बात है गिटपिट गिटपिट अंग्रेजी बोलती हैं. मैंने तो जगदीसा को कह दिया है बच्चों की युनिफोर्म कैसी भी हो पर टाई जरूर होनी चाहिए. इसके दोहरे लाभ हैं. माता-पिता पर तो रौब पड़ता ही है वे भी दूसरों पर रौब डाल सकते हैं.







ये है एक झांकी हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था की. हम जब भी शिक्षा की बात करते हैं कोई भी वर्तमान प्रणाली में खामियों में सुधार पर नहीं बोलता बल्कि एक नयी प्रणाली लांच करने की बात करते हैं. इस क्षेत्र में अभिनव प्रयोग होते रहते हैं. मांटेसरी सिस्टम. मॉडल स्कूल, नवयुग स्कूल, केन्द्रीय स्कूल, नवोदय प्रणाली १०+२+३, ५+३+३, ८+२+२ अचम्भे की बात तो यह है कि इन सबका योग शून्य ही हो जाता है. हर एक व्यवस्थापक अपनी प्रणाली को बेहतरीन व पिछली प्रणाली को अदूरदर्शी, संकीर्ण और मूर्खतापूर्ण बताता है.






जब मोंटेसरी प्रणाली का जोर था उन दिनों अन्य पाठशालाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था और मांटेसरी स्कूल को वही दर्ज़ा प्राप्त था जो कीचड में कमल को है. उन दिनों माता पिता को यह यकीं हो चला था कि अगर मांटेसरी में बच्चे नहीं पढते हैं तो पढते ही क्यों हैं बल्कि पैदा ही क्यों होते हैं. वाहन की टीचरें बहुत शोख,सुन्दर,चपल अंग्रेजी बोलने वाली हुआ करती थीं. बिलकुल परी मालूम होती थी. ज़माना बदल गया. मांटेसरी कि जगह आये प्रेप, नर्सरी और के.जी.(बी) क्लास. (ये सोवियत रूस से मित्रता का दौर था) पालने और गोद में से बच्चे छीन - छीन कर बालवाड़ी और बाल-मंदिर में भर्ती कराये जाने लगे. ये अधिकतर घर के पिछवाड़े या परछत्ती पर चलाये जाते हैं. बच्चे रिक्शे में बैठे ऐसे लगते हैं जैसे उन्हें पिंजरे में क़ैद करके तबेले को ले जाया जा रहा हो. भावी नागरिक यहीं से ‘ जॉनी जॉनी यस पापा, ईटिंग शुगर नो पापा’ के साथ झूठ बोलना सीखते हैं. जनसँख्या नियंत्रण को नागरिकों ने उल्टा ले लिया. परिणाम हम सबके सामने है. राजकीय स्तर पर धुआंधार प्रयासों के फलस्वरूप चुंगी के प्राथमिक माध्यमिक स्कूल तम्बू में अथवा पेड़ के नीचे और बहुधा खुले मैदान में टाट-पट्टी और टूटे ब्लैक बोर्ड के सहारे चलते रहे हैं. इन तम्बू मार्का स्कूलों में माता पिता को एक लाभ था कि इंटरव्यू नहीं, डोनेशन नहीं, और फीस भी बहुत मामूली . बच्चों को लाभ था कि रेनीडे की छुट्टी बहुत सुलभ थी. टूटा-फूटा संडास, पुराने गंदे टूटी खिड़की के फट्टे से ढंके घड़े. ताज्जुब यह है ऐसा कीटाणु सहित पानी पी कर भी बच्चे बीमार नहीं पड़ते थे. एक आजकल के बच्चे हैं नालायक. बिना फ़िल्टर वाली वाटर बॉटल न ले जाएँ तो शाम तक उनके पेट में दर्द हो जाता है, बुरी तरह खांसने लगते हैं. डॉक्टर के पास ले जाओ तो वे छूते बाद में हैं पहले पांच मुक्तलफ टेस्ट आर्डर कर देते हैं ताकि आप टेस्ट कराने की उधेड़बुन में डिप्रेस हो कर भाग भी न सकें.






इस प्रयोगवाद के बाद सरकार ने कुछ प्रगतिवाद की दिशा में सोचा. कुछ नया होना चाहिए. झट उन्होंने अपने स्कूल में ही अमुक स्कूल मॉडल स्कूल होगा की घोषणा कर दी. खाकी निकर की जगह सफ़ेद निकर हो गयी. जब मॉडल स्कूल भी लोगों को न बहला पाए तो सेंट्रल स्कूल चालू किये गए. विशेषतः सस्ती दर पर पाठ्यक्रम की अखिल भारतीय स्तर पर समानता (हिंदुस्तान में और कहीं समानता तो संविधान में समानता के अधिकार में ही पढ़ने को मिलती है) खाली बैठी पढ़ी लिखी महिलाओं को काम मिला. कुंवारियों की शादी में आसानी हुई. विवाहितों के घर टूटने के कगार पर आ खड़े हुए. (ट्रान्सफरों के कारण ) और सबसे बड़ी बात जिन मास्टरों को कोई पूछता नहीं था तथा जो अपना परिचय देने में झिझकते थे उनकी भी पूछ हो गयी और दाखिले के मौसम में वे भी मास्टर ऑफ यूनिवर्स हो गए और आई एम द पॉवर चिल्लाने लगे.






जनता बच्चों की तरह हरदम कुछ नया खिलौना चाहती है. इतने बड़े शिक्षा विभाग को भी कुछ काम चाहिए अतः बेहतर से बेहतरीन शिक्षा की दिशा में अभिनव प्रयोग होते रहते हैं. नवीनतम योजनाओं का भारीभरकम आकर्षक नामकरण किया जाता है जैसे एस.यू.पी.डब्लू . पता लगा इस से बनता है सोशली यूजफुल एंड प्रोडक्टिव वर्क. अब कोई इनसे पूछे अब तक जो आप पढ़ा रहे थे क्या वह सोशली यूजफुल नहीं था या कि अनप्रोडक्टिव था. १०+२+३ के गणित को ८+३ वाले नहीं समझ सकते. कोशिश भी करते हैं तो उन्हें पहले ही हायर मैथ कह के डरा दिया जाता है. देखते ही आपके छक्के छूट जाएँ. फिर चली ‘सबके लिए शिक्षा’ क्यों कि अचानक ज्ञात हुआ कि अब तक शिक्षा सबके लिए नहीं थी. मात्र क्लास फोर और क्लास थ्री के सफेदपोशों का उत्पादन करनेवाली फैक्टरियां थीं. वे अपने हाथ से काम करने के सिवाय और कुछ भी कर सकते हैं. इंडिया गेट के लॉन में सरकार बनाने गिराने से ले कर फाइल दबाने,गायब कराने तक.






प्रौढ़ शिक्षा तो और भी बेजोड शिक्षा है. जाओ मत जाओ. फर्जी रजिस्टर,नकली प्रौढ़. असली है तो बस पैसा जो इसके नाम पर लिया दिया जाता है. आये दिन के बढते हुए खर्चे यथा बिल्डिंग फंड, लाइब्रेरी फंड, गेम्स फीस और बात बात में ‘फेट’ की अंकल-आंटियों को बेचे जाने वाली रेफल टिकटें. नन्हे नन्हे बच्चे जब इसरार करके टिकट बेचते हैं तो कौन निर्दयी होगा जो ऐसे स्वीट बच्चों को मना करेगा. इन सबसे तंग आकर एक पिता ने साफ़ कह दिया ‘मेरे पास तो तुम्हें पढाने को पैसे हैं नहीं ज्यादा शौक़ है तो बड़े हो कर प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र में पढ़ लेना. वैसे पढ़ कर ही क्या तीर मार लोगे आज कल सब बड़े बड़े आदमी अनपढ़ हैं विधायक,सांसद, मंत्री यहाँ तक कि मुख्यमंत्री भी. अतः अशिक्षित बने रहने में अब अधिक संभावनाएं हैं.








Tuesday, October 5, 2010

Humor ----HIS HOLINESS SRI SRI KALMADI--- AN OPEN LETTER

                                                                          


O Exalted! King of kings, Bravest of braves, most gracious one, Savior of mankind, most shining jewel of India, kindly accept my tributes and omniscience 77 thousand crore times.

O Holiest of hollies! What on earth am I hearing? These ignoble worthless earthlings are maligning your sterling name by blaming you of embezzlement. They are imbecile downright idiots. We are a nation of not merely 'three idiots' but 1.25 billion. The world history has no example where any one could ever spit at lofty sky?

O Enlightened one! Pray! Have compassion towards them. Forgive them for they know not what they are doing. It was solely your kalmadian efforts... Imagine the hazard and peril in going around door to door to no less than 77 countries and bribing your way through so as to bring home the Glory of Games. For whom? Certainly not for your parochial interests. It was for the sheer honor of our motherland. A sport, any sports, is not the business of feeble hearts. It was indeed your valor, your love for currency...er country that an event of this magnitude could not only be conceived but almost delivered too. Remember no child birth can be without labor pains. Left to dishonest uncouth and uneducated politicians, India couldn’t have even bid for the games. We along with our coming generations will remain forever indebted to you, for future generations would scarcely believe that such a man ever walked in flesh, beard and blood on Delhi’s pot holed earth. 

O Ocean of compassion! You are so immensely forgiving. In your limitless bounty all your critics have either been bought & silenced or located & liquidated. Large hearted that you are, these minions and mannequins of men can bring no harm to you. You are divine. They are heretics and will be made to pay for this blasphemy in next flood, drought or death whichever visits them earliest. Kindly do not bother about critics, (they are not worth it) lest it distracts you from the onerous task of bringing more and more name, fame and Natashas for the nation. Let them bark. It does not augur well, His Highness! For your elated stature to respond to every Arnab, Aiyer and likes. They simply lack sportsman spirit. You see when a foot over bridge collapsed; the world press was at our door desperately begging for 'byte', adverse publicity is better than no publicity at all. You know it. The all knowledgeable one!

O Master of masters! In India we adore and worship things living or dead, two legged or four legged. In keeping with this ancient tradition you had kept hundreds of dogs in the games village. Your adversaries devoid of any kindness and compassion handed them over to dog catchers. I can understand the hurt it must have caused to you sir. Trust me sir! Every dog has his day. Who would know it better than you, the all knowledgeable one!

O Soft hearted! Just a couple of snakes and what disproportionate dust and din were raised by non-believers.
We Indians have an image, an image which is larger than life. After all we live for and more often die for the image so very meticulously created, nurtured and protected. We are a nation of 'snake charmers' we are the 'brand ambassador' of snakes in the world. For us, they are not merely viper, boa or cobra, for us they are the holy deity. To be seen by them, to see them, feed milk to them, to be blessed or bitten by them, all are pious omen indicating our desire will be fulfilled. Now the snakes have been caught and so very humiliatingly chased away from the games village, I am not sure what may befall upon sports and sports persons. None can blame you. You did whatever was in your command to see India creep through this game. More appropriate would have been to do mass worship of snakes, feeding them and to seek their blessings every morning before each event.


O Omnipotent! Just one bridge collapse and what noise these rattlers made. They are constantly in denial mode. They refuse to reform and improve. These ignorant fools know not that this entire universe is one big illusion. There is nothing permanent in this world. We are all mortals. Being immortal is a myth. You wanted to spread and carry forward our national message to humanity ‘the world is illusion; I am the Brahm' True sir! They do not deserve such pearls of wisdom. They are not yet prepared to face the ultimate Truth which we discovered centuries ago. How does it matter whether my money, my wealth is with me or with you? We are preached ages after ages, by  sages after sages ‘ if money is lost nothing is lost.... what’s money after all...its dirt of hands’. For us thankless creatures you so very cheerfully volunteered to take away all our, the taxpayers’ money  thereby protecting us from uncomfortable questions... Where to invest it....where to laundry it...where to hide it.   In one stroke you have got us Indians rid of this worry. We are grateful to you; you have brought a kind of salvation for us. No money, no worry.

O Lotus feet! Your disciples have given befitting reply that their hygiene standards are different than ours. We take bath twice a day while they bathe once in two years. They don’t even brush their teeth, instead gargle with mouthwash. Swipe toilet paper and these ‘unclean’ preach us what cleanliness is all about. India is the ancient civilization, our town planning was immaculate, and a model for the world till greed overtook us. Post greed, again we have lots of things to share with ones who value and care. ‘Make Mumbai, Shanghai’ you see this simple three word mantra has immensely helped us to create and pocket massive wealth, besides giving another term to the Govt.



O Omnipresent! What are they shouting at “cot broken... bed caved in” they have no inkling that sports is not merely about games, its kind of a psychological warfare. It is part of your tactical strategy to win. It is all for bringing down the morale of other competing teams. Everything is fair in love and war. Let the world know India has such strong sportsman who when even casually sit on the bed, the bed  can not bear their splendor and collapse by their sheer halo and body weight .You really think you can face such valiant race. I suggest you better Run for your life.  Thus, due to hygiene or security (rather lack of it) and mosquitoes, team after teams is giving India a skip. We are bound to better our position in medal tally this time.



O Omniscient! What more can you, a lone and sole do for the motherland? Awake, arise and rest not till the goal is achieved. Seventy seven thousand crore sounds little odd. How about rounding it off to the nearest hundred thousand crores.


O Divine one! Which is the country in the world, you have not taken pains to fly off to, towards what end? Look at these Indians; they are making issue out of tissue paper... Small people...Smaller thinking. What else can you expect from those who live from one DA installment to another? They have no idea what are 77 thousand crores. Stupid they are, if you ask them to write 77 thousand crores, I bet they can not write it correctly, will skip few zeroes.

O Blessed one! You rightly promised “I will give you good games" now why one should be looking into the account books. You are going to give them games, they will not forget for generations to come. You are not aware but you have established new benchmark in the areas directly and remotely linked with sports. Generations to come will look up to you for inspiration. The performance of future sports organizers, if any, will be assessed with you as the IDEAL and 2010 as the BASE YEAR. For example toilet paper cost 4000/- in the year 2010 now how much? AC was hired for one and a half lakhs for ten days in 2010 now how much would not tantamount to too much. 


 O Virtuous! You will go down in the annals of sports history of India for more things than one. You will have a prominent place in the roll of honor be it for  toilet roll, balloon, AC, dogs, snakes, pan stains, foot over bridge, cot, cars and treadmill rentals. You are indeed the true visionary sir. ISI mark is a passé, latest is KSI.

O Invincible!  We are condemned to helplessly watch your 'game', generation after generation. However, full honors to you, for CWG 2010 has given us two mascots; one a man eater and the other money eater.

Saturday, October 2, 2010

(CWG कॉमनमेंस वेल्थ गऑन )



ओह यारो ! मैंने ये इंडिया चुरा लिया
ओ भोले भारतीयो ये इंडिया चुरा लिया ..चुरा लिया

दीवानों ये जो खेल है

इसमें बड़ा घपला-घालमेल है

पुल को ज़मीन में मिला दिया ..मिला दिया

ओह ! यारो ...



ये जो खेल है

इसके पीछे बहुत बड़ा 'खेल' है

मिला दिया मिला दिया

भारत का नाम मिटटी में मिला दिया

ओह यारो !...



ओ रुकना रुकना रुकना रुकना नहीं

पुल,सड़क,विलेज जहाँ हाथ लगे छोडना नहीं

रिश्वत,मिलावट,जेब काटने में मैदान मार लो

चार हज़ार का टिशु पेपर, डेढ़ लाख का ए.सी. मुझ से सीख लो



लूट लो, लेट्स लूटो ,

लेट्स लूटो, लूट लो



ओ मच्छरो ! खाओ-पीयो,

डेंगू चारो और बिखेर दो

हाइजीन को जमुना में डुबो दो

खाट खड़ी करो या फिर खाट तोड़ दो



ओह यारो ये इंडिया चुरा लिया

दीवानों ये इंडिया चुरा लिया ..चुरा लिया



हमारे भ्रष्टाचार पर्वत से ऊंचे उठे

दुनिया सलामी दे

बाद में जांच समिति पकड़ न ले कहीं

उन को अभी से कुछ दे.



लूटो उठो बढ़ो नोंचो-खसोटो

ये तेरा ये मेरा जहाँ.. लेट्स लूटो



कैसी सजी है, सजी है देखो माटी अपनी

सांप,कुत्ते, पान की पिचकारी बनी रश्के जहाँ यारो.. हो !
कई रंग है,कई बोली है,कई देश है मगर

बेईमानी भतीजावाद घूसखोरी जग में नहीं जवाब हमारा हो !



लागी, लागी रे लागी रे अब मेरी और कमाने की लगन

जागी रे मन अगले ओलम्पिक ओर्गानायज करने की अगन

उठी रे अब पूरा इंडिया बेच खाने की तपन

तुम बकते रहो मैं बच निकलूंगा यूँ ही बन-ठन



मैंने सबको 'खाना' सिखाया... खूब 'खिलाया' है

ये मुमकिन ही नहीं तुम मेरा कुछ बिगाड़ लो !

दीवानों मैंने ये इंडिया चुरा लिया

तुम में दम नहीं जो मेरा कुछ बिगाड़ लो !

ओह यारो ! ये इंडिया चुरा लिया