नेताजी चिंतित थे भारतीय
नेता की ये ड्यूटी है की वो यदाकदा चिंतित दिखे। ठीक से सो भी नहीं पा रहे हैं।
पहले ही मुश्किल से दो घंटे सोते हैं अब वो भी नहीं। अब उनकी चिंता इस बात को लेकर
है कि लोग बाग जुराब पहनें या ना पहनें। घर में पहनें या बाहर भी पहनें। स्कूल में
पहनें या कॉलेज मे पहनें। जे एन यू में पहनें या ए एम यू में पहनें। रैली में पहनें या न पहनें। पहनें तो किस
डिजाइन और रंग की पहनें। नए भारत में
जुराब का क्या स्थान होगा। न॰॰ न॰॰ स्थान तो पैर ही होगा मतलब अब काली रंग की
जुराब ही न पहन कर रैली में आजाएँ और विरोध जताने को काली जुराब झंडे की तरह
लहराने लगें लोग कहेंगे हा॰॰ हा॰॰ नेता जी को काले झंडे दिखाए गए वगैरा वगैरा। यह
महत्ती प्रश्न तय करना है कि कौन से रंग की जुराब देशभक्ति वाली कहलाएगी और कौन सी
वाली देशद्रोही वाली। मुद्दा ये है कि एक अदद एस॰ ओ॰ पी॰ जुराब पर बनाना मांगता
है। जुराब का एक फुल प्रोटोकॉल होगा। उल्लंघन करने वालों को सख्त सज़ा का प्रावधान
भी रखना है। यूं तो और्डीनेन्स भी जारी कराया जा सकता है मगर पीछे बहुत हो गए हैं,
बैठे बिठाये विपक्ष को बक-बक करने का एक पॉइंट
मिल जाएगा। नेता जी उन्हें कोई मुद्दा देने के सख्त खिलाफ हैं। वो तो उन्ही के
मुद्दे हाइजेक कर लेते हैं। उनके आइकॉन, उनके सिंबल सब समेट लो। उन्हे टोटल डिसक्रेडिट कर दो। यहाँ तक कि लोग उन्हें
अपना दुश्मन समझने लगें और अपने सब दुखों का कारण पिछले जन्म की तरह,पिछली सरकारों को मानने लगें।
हाँ तो बात जुराब की हो
रही थी। जुराब भी तरह तरह की किसिम किसिम की होती हैं। पहले लाल रंग की जुराब खूब
चलती थी। आप ठीक समझे वो कम्युनिज्म का दौर था अतः जुराब भी सर्वहारा वर्ग की
प्रोलेटेरियट थी। तब हिन्दी फिल्म का खाटी देहाती हीरो लाल रंग की जुराब जरूर पहनता
था। फिर धारीदार ज़ेबरा की तरह के डिजाइन वाली चलीं। पहले जुराब की इलास्टिक बहुत
जल्दी खराब हो जाती थी अतः इलास्टिक बैंड अलग से बिकते थे। जैसे पहले चुनाव टिकट
बिकते हैं और चुन जाने के बाद नेता बिकते हैं। मोटी ऊनी जुराब, स्कूल यूनिफ़ोर्म की जुराब, लंबी घुटने को छूती जुराब और आजकल की सिर्फ
पंजे को ढंकती जुराब। स्किन कलर की जुराब। इन जुराब के बहुत फायदे हैं। पता ही
नहीं चलता पहनी भी है या नहीं। एकदम स्किन सी मोटी। रैली में आए टूटी चप्पल पहने,
टूटे हुए लोगों को नेता जी को ऐसा बताने का
सुभीता रहता है कि भाईयो बहनों मैं भी आपके जैसा हूँ गरीब गुरबा। देखो जुराब तक भी
नहीं। बस ले दे कर ये (‘गुच्ची’ के) जूते हैं वो भी अब 70 साल में पहली बार।
समाज के लिए जुराब खतरनाक
है। छात्र परीक्षा के दौरान इनमें चिट (फर्रे) छुपा कर लाते हैं। इसीलिए
स्कूल-कॉलेज में तो जुराब कतई निषेध होनी
ही चाहिए। जासूस लोग जुराब में मिनी पिस्टल या छुरी जैसा हथियार छुपा सकते हैं।
ऐसे में कोई भी कैसे जुराब पहनने की इजाजत दे दे। बच्चों को तो बिलकुल नहीं। देखते
नहीं बच्चों की आड़ में कैसे-कैसे कारोबार चल रहे हैं। अतः बच्चों का जुराब पहनना
एकदम मना। स्कूल में पढ़ने आते हो या जुराब की नुमायश करने। बहुत शौक है तो घर में
खूब जुराब पहनो।
पर एक बात बताइये जुराब
पहनने की ज़रूरत क्या है खजुराहो से कोणार्क तक किसी भी मूर्ति ने जुराब नहीं पहने
हुए। जुराब हमारी संस्कृति ही नहीं। यह पश्चिम का दुष्प्रभाव है वो ही चर्च से
लेकर चारपाई तक जुराब क्या जूते भी पहने रहते हैं।
जुराब में जुए और शराब का
सा उच्चारण आता है। जुराब में जुर्रत, ज़ोर-जबरदस्ती का फील आता है। और हमारी संस्कृति ज़ोर जबरदस्ती की नहीं। जब
जुराब हमारी संस्कृति में ही नहीं है तो हम कैसे होने दें। हमें हर कीमत पर अपनी
संस्कृति बचानी है।
सो सौ बातों की एक बात
‘इस देश में रहना होगा तो जुराब को न कहना होगा’