बचपन में
गली-मुहल्ले मे ऐसी आवाजें आम थीं:
चारपाई बुना
लो! चारपाई !
कलई करा लो!
कलई !
चूढ़ियां ले
लो ! चूढ़ियां !
अब हमने तरक्की कर ली है। हमारा विकास
इतना हो गया है कि अब हम इज़्जत घर और अटैच्ड शौचालय से बहुत ऊंचे उठ गये है। अब
हम विमान में सीट पर करते हैं। ज़मीन पर हों तो बंदों के ऊपर करते हैं और फिर उससे
ऐफीडेविट भी ले लेते हैं। "मैं शपथ पूर्वक कहता हूं मैंने ही रिक्वैस्ट की
थी। मुझे चर्म रोग है। एक वैद्य जी ने यही नुस्खा बताया था।" या फिर ऐसा कुछ है ही नहीं। यह
दृष्टिभ्रम/माॅर्फ/फोटोशाॅप है। और हमारे प्रिय युवा नेताजी को बदनाम करने की
विरोधियों की साजिश है। वो तो ये हैं ही नहीं। पूरा सीधी जिला जानता है वो कितने
सीधे हैं। शराब क्या वो सिगरेट तक को हाथ नहीं लगाते।
पर इधर मामा जी ने पैर धोने में कुछ जल्दी
मचा दी। डर था कि कहीं तब तक विरोधी दल न अगले के पैर धुला दे। सत्ता में बने रहने
के लिये हमेशा पैरों का ध्यान रखना होता है। न जाने कब उखड़ जायें।
आजकल पैर धुलाने की एक फैशन चल निकली है।
हांलाकि यह सनातन परंपरा है। माता-पिता, गुरूजन और परम स्नेहियों के पैर धोये जाते रहे हैं। सुदामा के पैर श्रीकृष्ण
ने धोये थे। हम पैर धोते-धोते और पैर उखाड़ते-उखाड़ते आज इस विश्वगुरू के आला
मुक़ाम पर पहुंचे हैं।
दलित के यहां भोजन ऑउट ऑफ फैशन हो गया।
टिफिन पार्टी में भी वो बात नहीं आई। चुनाव सिर पर है। कुछ नवीन करना है। अत: पैर
धुलवाने वालों को नेता लोग ऐसे ढूंढ रहे हैं जैसे कंजक बिठाने वाले बच्चियों को
ढूंढते फिरते हैं। पैर धुलाने की पूरी वीडियो बनानी होती है। उसे मीडिया में भेजना
होता है। वायरल कराना होता है। पैर धोना-धुलाना ही काफी नहीं। कुर्सी के चार पांव
होते हैं मगर उसका रास्ता न जाने कितने पांवों से होकर गुजरता है। आखिर उन पांवों
के साथ एक जोड़ी हाथ भी होते हैं। अपुन का टारगेट उसी हाथ की उंगली है जिस पर अगले
ने बूथ पर मेरे नाम की नीली स्याही लगवानी है। इसलिये कहीं कुर्सी से हाथ न धोना
पड़ जाये अत: जहां एक जोड़ी पांव दिख जायें बैठ जायें धोने के लिये। दूसरे मोड़ पर
विरोधी भी बाल्टी-लोटा लिये तैयार बैठे हैं।
पैर धुला लो ! पैर !