Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Tuesday, September 28, 2010

व्यंग्य -- खुला पत्र श्री श्री कलमाड़ी के नाम

परम श्रद्धेय पुरुषोत्तम धीर वीर कुशाग्र बुद्धि अत्यंत बलशाली पराक्रमी क्रीडा रत्न पौरुष विभूषण साहस शिरोमणि आपको सतत्तर हज़ार करोड़ बार नमस्कार.


हे तेजोमय ! मैं ये क्या देख-सुन रहा हूँ . ये क्षुद्र भारतीय आप पर नाहक ही लांछन लगाना चाहते हैं. मूर्ख कहीं के. भला कोई आसमान पर थूक पाया है.


हे दैदीप्यमान ! इन नादानों को ये नहीं पता ये तो आपका ही दिल-जिगर-गुर्दा था जो गेम्स को इंडिया में लाने का ख्वाब देखा और अब उस ख्वाब की तामीर देख रहे हैं. यह अल्प बुद्धि, कमज़ोर दिलवालों का काम नहीं.


ये इश्क नहीं आसां.. आग का दरिया है और डूब के जाना है


हे रिपुदमन कुमार ! ये है आपकी क्षमा. धन्य है. आपने अपने आलोचकों को महज़ एक मुस्कराहट से नेस्तोनाबूद कर दिया. सच ही है. क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात. ये जो छोटे लोग और लाभान्वित होने से छूटे लोग गाल बजा रहे हैं इनको उत्तर देना आप जैसी महान हस्ती को शोभा नहीं देता इनके लिए तो आपके शिष्यों के शिष्यों के शिष्य ही काफी हैं.


हे करुणानिधान ! भारत जीव मात्र से प्रेम करने वाला देश है. इसी के अनुरूप आपने दो ढाई सौ कुत्ते खेलगांव में छोड़े हुए थे. किन्तु बैरियों को ये कहाँ पसंद की आप जीव मात्र पर दया करें. सारे के सारे कुत्ते भगा दिए. मैं समझ सकता हूँ आपका कितना दिल दुखा होगा. एक अदद सांप क्या निकल आया. लोगों ने इतना शोर मचा दिया.


हे समदर्शी ! भारत की एक छवि है. ‘स्नेक चार्मर’ की. हम साँपों के ब्रांड अम्बेसडर हैं. हमारे यहाँ सांप सांप नहीं, नाग-देवता हैं. उनको देखना, उनका हमें देखना,उनका दिखना सब शुभ लक्षण हैं. इसका अर्थ है हमारा काम जरूर बनेगा, मगर अब जब कि नाग-देवता को इस तरह अपमानित कर के खेलगांव से निकाल दिया है तो भारत के खिलाडियों का क्या होगा ? हमें क्या ? आपने तो भारत को जिताने की पूरी-पूरी कोशिश की ही थी. ये नासमझ नहीं समझे तो आपका भी क्या दोष. चाहिए तो यह था कि खेलों के शुभारंभ से पहले नाग-देवता कि पूजा की जाती. उन पर चढावा चढ़ाया जाता. तनिक सोचिये प्रभु इसमें कितनी असीम सम्भावनाये हैं. दूध,नैवेद्य ( कामन वेल्थ स्नेक्स ) करोड़ों –अरबों का ‘खेल’ है ये भी . खैर अगली बार सही.
हे आर्य पुत्र ! एक पुलिया क्या टूट गयी लोग त्राहि माम त्राहि माम कर उठे. अरे ओ अभागो ! कब सुधरोगे. कब तुम्हें ये ज्ञान होगा कि ये चराचर जगत मिथ्या है. पेड़-पहाड़, जड़-चेतन सब नश्वर है. ये पुलिया जानबूझ कर तुडवा कर आप भारतीय सभ्यता का शाश्वत सन्देश— अहं ब्रह्मास्मि जगत मिथ्या मानव मात्र को देना चाहते हैं. अब कोई लेना ही न चाहे तो आप भी क्या करें.


हे अरिमर्दन ! आपके शिष्यों ने ‘बीफिटिंग’ जवाब दिया है कि उनके हाइजीन के स्टेंडर्ड अलग हैं हमारे अलग हैं. कहाँ हम दिन में रोज दो बार नहाने वाला देश कहाँ वो दो साम में एक बार नहाने वाले. दांत तक तो साफ़ करते नहीं माउथ वाश से काम चलाते हैं. शौचालय में तो, कागज का चक्का घुमाते हैं . हम से बात करते हैं. जगत को सभ्यता सफाई का पाठ किसने पढाया ? हमने. आज ये उल्टा हमीं को बता रहे हैं कि सफाई क्या होती है.


हे दूरदर्शी ! पलंग टूट गया - पलंग टूट गया. ये लोग बावले बैल की तरह चिल्ला रहे हैं. इन्हें आपकी योजना की तनिक भी भनक नहीं.ये जाहिल नहीं जानते कि ये गेम्स महज़ गेम्स नहीं ये एक साय्कोलोजिकल वारफेयर है. यह अन्य प्रतिद्वंदियों पर प्रभाव डालने की सोची-समझी रणनीति है. दुश्मन का ‘मुराल’ डाउन करना है. एवरी थिंग इज फेयर इन लव एंड वार. हिंदुस्तान के शूरमा ऐसे हैं कि जिनके बैठने मात्र से पलंग घबड़ाकर भरभरा के टूट जाता है. तुम क्या खा के मुकाबला करोगे. जान बचानी है तो भागो. देखिये यहाँ की हाइजीन .. सुरक्षा..डेंगू आदि को ले कर पहले ही कितनी टीम नहीं आ रही हैं. सभी वे खिलाड़ी जिनसे भारत को तनिक भी ख़तरा हो सकता था नहीं आ रही हैं. अतः हमारी टॉप पोजीशन तय है.


हे पराक्रमी ! अपनी मातृभूमि के लिए आप अकेले और क्या क्या करेंगे. एक पल को चैन नहीं है जब से ये गेम्स आपके गले मढे हैं. आपने भी बहादुरी से इनका सामना किया है. आराम हराम है. आज इस देश कल उस देश.


हे गगनबिहारी ! दुनिया का ऐसा कौन सा देश है जहाँ आपने मेरे भारत महान के लिए धक्के नहीं खाए. एक ये भारतीय हैं कि टॉयलेट पेपर चार हज़ार का है जैसी छोटी छोटी बातें पकड़ के बैठे हैं. अपनी अपनी सोच है. छोटे लोगों की सोच भी छोटी होती है.ये महंगाई के मारे. एक डी.ऐ. से दूसरे डी.ऐ. की किश्त पर जीने वाले क्या जानें सतत्तर हज़ार करोड़ क्या होता है. इन मूर्खों को ये रकम लिखने को कहोगे तो ठीक से लिख भी न पायेंगे. दो-एक जीरो छोड़ देंगे. जीरो कहीं के.


हे त्रिकाल दर्शी ! आपने ठीक कहा ‘आई विल गिव यू गुड गेम्स’ अब ऐसी चीजों में पैसा-धेला क्या देखना. शौक बड़ी चीज है. आप इन्हें ऐसे गेम्स दे रहे हैं कि इनकी पीढियां याद रखेंगी और प्रेरणा लेंगी. आपने अनायास ही इतने मानक, इतने बेंचमार्क स्थापित कर दिए हैं कि आने वाले आयोजकों और इवेंट्स को इसी से आँका जाया करेगा. सन २०१० में टॉयलेट पेपर चार हज़ार का था अब कितने का लगाएं ? तब ए.सी. डेढ़ लाख के किराये पर लिया था अब कम का लिया तो कहीं विजिलेंस न पकड़ ले.


हे मानव श्रेष्ठ ! धन्य हैं आप ! कितनी दूर कि सोची है इसे कहते हैं विजनरी. चाहे टॉयलेट पेपर हो, गुब्बारे हों, एयरकंडीशन हों, कुत्ते हों, सांप हों, पान के दाग हों, पलंग हों या पुलिया हो या फिर कारें और ट्रेडमिल किराए पर लेने की बात हों, आई.एस.आई मार्क पुराना हो गया नया मार्क है के.एस.आई.


हे ऋषिवर ! शेरा की किस्मत पर सभी रश्क कर रहे हैं. रश्क तो सब आपकी किस्मत पर भी कर रहे हैं और इसके अलावा बेचारे कर भी क्या सकते हैं. हम पीढ़ी दर पीढ़ी आपका ‘खेल’ देखने और ताली बजाने को बहिष्कृत हैं.





ओ कैंसर ! मैं भी विजेता हूँ


“आपको कैंसर है “डॉक्टर ने एकदम डंडा सा दे मारा. “कैंसर “ सफदरजंग अस्पताल में डॉक्टर के ये तीन शब्द किसी को भी दहला देने के लिए काफी हैं. जब मुझे डॉक्टर ने यह कहा तो मुझ पर क्या गुजरी आप अंदाज़ ही लगा सकते हैं. क्योंकि मेरे लिए इसे शब्दों में बांधना संभव नहीं. सुन कर मैं स्तब्ध रह गया. दिल-दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. और मैं भरभरा कर वहीं बैठ गया. क्यों ! मुझे ही क्यों ! मैंने तुरंत अपने बड़े बेटे रवि को फोन लगाया. उसका ऑफिस नज़दीक ही आर.के. पुरम में था. लड़खड़ाती और भर्राई आवाज में मैंने उसे यह न्यूज़ दी.
लगभग एक माह से मेरा गला बैठ गया था. मेरी आवाज जो कि एक शेर गर्जना से कम नहीं थी पतली होते होते फट गयी थी. जैसे कि मैं फुसफुसा के बात कर रहा हूँ क्या.
इससे पूर्व मैंने दिल्ली के आधा दर्जन डॉक्टर को दिखाया था. किसी ने कफ सीरप दिया तो किसी ने रंग-बिरंगी गोलियाँ. या तो वो पता नहीं लगा पाये थे या मुझे पता नहीं लगने देना चाहते थे. अगले सप्ताह मुझे अपने छोटे बेटे के पास बैंग्लोर जाना था मैं नहीं चाहता था कि यात्रा के दौरान मेरे गले में और तकलीफ हो अतः किसी बड़े अस्पताल में दिखाने का तय पाया गया.डॉक्टर ने बिना किसी लाग-लपेट और भूमिका के बम फोड़ दिया कि आपको गले का कैंसर है. रवि ने तुरंत अस्पताल पहुँच कर मेरा ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास किया. वह कहता रहा कि सफदरजंग अस्पताल सरकारी अस्पताल है और मुझे डॉक्टर पर यकायक यकीन नहीं करना चाहिये.
मैं कभी पान-तंबाकू नहीं खाता था. हाँ मैंने सिगरेट बहुत पी है . चेन स्मोकर था. लेकिन सिगरेट छोड़े हुए भी मुझे 10 वर्ष हो गए थे. अगले दिन मैंने अपने फॅमिली डॉक्टर डॉक्टर लूथरिया को दिखाया. उसने मुझे अपने एक डॉक्टर दोस्त के पास मूलचंद अस्पताल जाने की सलाह दी. मैं अगले ही दिन मूलचंद अस्पताल जा पहुँचा. डॉक्टर नरोत्तम पुरी जो क्रिकेट के विख्यात कमेंटेटर के साथ साथ एक ई.एन.टी. विशेषज्ञ भी हैं ने मेरी पूरी जाँच की और मुझे बाहर बैठने को कहा. उसके बाद मेरी पत्नी तथा बेटे को बुला कर कहा “शक तो कैंसर का ही है मगर पूरी तौर पर बायोप्सी और टेस्ट के बाद ही पता चलेगा ( यह सब मुझे बाद में बताया गया ) अगले एक सप्ताह में सभी टेस्ट तथा बायोप्सी की रिपोर्ट आ गयी और जिस बात का डर था वही हुआ. डॉक्टर पुरी और उनके सहयोगी डॉक्टर जसूजा ने मेरी पत्नी व बेटे के साथ मेरी पीठ पीछे पूरी मंत्रणा की.
“आप ऑपरेशन चाहते हैं?” “क्या हमारे पास कोई विकल्प है?”
“हाँ”
“उनको इंच इंच मरता देखना. असहनीय दर्द से कराहते चिल्लाते देखो. एक स्टेज ऐसी आयेगी आप चाहोगे कि इतना दर्द सहने से तो इनका मरना ही बेहतर है. आप लोगों से तीमारदारी तो दूर उनकी हालत देखी भी न जाएगी”
“ऑपरेशन का क्या अर्थ है?”
सबसे भयावह यह वाक्य था.
“ऑपरेशन का अर्थ है ‘नो वॉइस ‘हम वॉइस बॉक्स निकाल देंगे “
अब सोचिए यह भी क्या विकल्प में विकल्प हुआ.
“या तो बिना आवाज का पिता या नो पिता” (मेरे बेटे ने बाद में मुझे बताया)
मेरे बेटे ने जगह जगह अन्य डॉक्टर से पूछताछ की. मेरी भी अन्य डॉक्टर से ऊपर ऊपर ऑपरेशन कराना चाहिये या नहीं इस पर बात करा दी. मैं जो की ऑपरेशन के नाम से ही घबराता था ऑपरेशन को तैयार हो गया. खासकर जयपुर के एक रेल्वे डॉक्टर, डॉक्टर पी.पी. खंडेलवाल जी से बात करने के बाद. डॉक्टर खंडेलवाल ने मुझे प्रेरित किया कि मैं ऑपरेशन करा लूँ. मेरे बेटे और उसके दोस्त हुलास सिंह ने रक्तदान किया था.


तयशुदा दिन मुझे ओ.टी. में ले जया गया. यह कह कर कि एक मामूली सी गाँठ है.( ट्यूमर शब्द का भी प्रयोग नहीं किया ) मुझे यह भी न बताया कि मैं अपनी आवाज हमेशा हमेशा को खोने जा रहा हूँ. उल्टा वो सब यही कहते रहे ऑपरेशन के बाद सब ठीक हो जाएगा. ऑपरेशन सफल रहा था. मेरे गले के चारों ओर पट्टी बंधी थी. शुरू में तो मैंने सोचा नया नया ऑपरेशन है, पट्टी बंधी है इसलिये डॉक्टर ने बोलने से मना किया है. मुझे क्या पता था कि अब मैं कभी न बोल पाऊँगा. मैं लिख लिख कर अपनी बात कह रहा था या फिर इशारों में. मुझे बाद में बताया गया कि मेरा निकाला हुआ वॉइस बॉक्स जब डॉक्टर ने दिखाया तो मेरी पत्नी तो लगभग बेहोश होते होते बची. पता नहीं डॉक्टर लोग ऑपरेशन के बाद मरीज़ के रिश्तेदारों को काटा गया अथवा निकाला हुआ मांस क्यों दिखाते हैं. पर मुझे बताया गया कि यही चलन है. जैसे कि किसी का आवाज खो देना ही पर्याप्त नहीं है सो उसके कटे-फटे अंग दिखा कर और आतंकित कर दो.


अस्पताल में एक सप्ताह बिताने के बाद जब मैं घर आया तो देखा कि मेरे सभी दूर के,पास के रिश्तेदार और पड़ोसी वहाँ जमा थे. उन्हें मुझे देख कर कौतूहल था और मुझे उन्हें देख कर. मैं यह सोच कर ही डिप्रैस था कि ये इतने सारे लोग आखिर क्यों आए हैं. मैं उन्हें आश्चर्य से देख रहा था वो मुझे. मुझे यह भी अजीब लग रहा था कि सभी क्यों मेरी दबंग आवाज की बात कर रहे हैं. यह सुन सुन कर मैं और कन्फ्युज हो रहा था.
एलेक्ट्रोनिक लेरिंक्स .. यह टर्म मैंने जीवन में पहले कभी नहीं सुना था. हमें पता लगा कि पालम गाँव में एक दूध बेचने वाला इसका प्रयोग करता है. हम सब बिना समय गँवाये उसके पास जा पहुँचे. वह एक सीधा-सादा ग्रामीण दूध विक्रेता था. हमें उसे और उसके लेरिंक्स को देख कर कोई खास उत्साह नहीं हुआ. मुझे तो उसे देख कर उल्टे उस पर दया आ रही थी. आवश्यक जानकारी हासिल कर हम हरी नगर में एक गोयल साब के घर गए. गोयल साब का भी मेरा जैसा ऑपरेशन हो चुका था. वे अपने परिवार के साथ एलेक्ट्रोनिक लेरिंक्स बेचते थे. हमने एक लेरिंक्स खरीदा, उसके माध्यम से बात करना सीखा और धीरे धीरे मैं इसमे काफी पारंगत हो गया.
अब मैं न केवल अपने दिन-प्रतिदिन के घर बाहर के काम कर लेता हूँ बल्कि डॉक्टर लोग अपने पेशंट मेरे पास भेजते हैं ताकि वो मुझे देख सकें और लेरिंक्स की सहायता से बात करना सीख सकें और उनमें कुछ आशा,प्रेरणा और उत्साह का संचार हो सके. डॉक्टर ने मेरे परिवार को बताया था कि ऑपरेशन के बाद यदि पेशंट पाँच वर्ष जीवित रहे तो हम इसे सफल ऑपरेशन मानते हैं. मेरी ग्रांड डॉटर की सहेलियों के फोन आते हैं तो वे अक्सर खिलखिला कर उस से पूछती हैं “शिखा तुम्हारे घर फोन करो तो रोबोट की आवाज में कौन बोलता है ?” मैंने न केवल अपनी स्थिति से समझौता किया बल्कि उसे अपनी शक्ति बना लिया. मैं हमेशा से फाइटर रहा हूँ और कैसी भी विपरीत से विपरीत स्थिति से विजेता बन के ही बाहर निकला हूँ. इस सबका श्रेय मेरी विल पावर, पॉज़िटिव थिंकिंग और जीने की अदम्य लालसा को जाता है. थ्री चीयर्स टू लाइफ.


पुनश्च : ऑपरेशन को 15 वर्ष हो चुके हैं और 1 अगस्त 2010 को 85
वर्ष का हो गया हूँ मैं.





Monday, September 6, 2010

Sattu V KISNA….KISHAN…KISHAN LAL

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      There is a popular folklore in northern part of India --- “Money! Thou have three names Parsu, Parsa...Paras Ram’. It indicates progressive riches of a man called Paras Ram, symbolizing how the society treats one when one is penniless pauper. The same Parsu becomes respectable Paras Ram when he acquires wealth. I grew up with a similar legend. In this case money had three names Kisna, Kishan...Kishan lal.

     He was real tall, fair and handsome. He bore striking similarity with cine star Feroz Khan, he could effortlessly pass as his twin. Yes ! He was the eldest of Sattu brothers. He had a modern and spacious four storeyed house in Aligarh. He was a rich man and like majority of them fond of all good things life offered – drinks, latest electrical gadgets, motorbikes and pretty women. Not necessarily in that order. I always noticed him in expensive yet elegant kurta-payjama, gold buttons hanging loosely together on a gold (not golden) chain. He was blessed with a deep over bearing and over powering voice. His wife was an extremely warm and noble person did more charity than was considered normal. Hardly anybody left empty handed from her threshold be it beggar, borrower or a relative. He had a large family of three beautiful daughters and three handsome sons. In Aligarh if I feared anyone it was him. Like me half of Aligarh was kind of overawed by his sheer towering personality.

     Though his eldest daughter was my age,I was paly with his son. We would indulge in those boys things, including smoking cigarettes once in a while just to get that ‘kick’ and experience what it was to be ‘adult’. Part of our nay every teenager’s growing up, I believe. He would chew pan listen to finest music and owned latest radiogram. One, I particularly remember for its massive size. He would proudly announce eight band radio together with record player as latest in series. It had that contracting and dilating radium polished eye which would shine in dark and flicker with every sound modulation. Come evening and his drinks session will begin with his favorite music in attendance. He was friendly to all. It was difficult to determine whether people feared him more or respected him more. I think they loved and respected him out of fear. He was known for helping poor and doling out loans to all those who cared to knock at his doors.

     Looks can definitely kill. He was a fan of film actress Suraiyya and desire to see her in person made him run away to Bombay. Moving from studio to studio he located a studio where Suraiyya was shooting. He readily enrolled himself as a worker to hold n carry petromax lamp on his head just to have a glimpse of his dream queen. Many years after, he would recall, affirm and re-affirm to ‘all ears’ audience “these heroines don’t look half as good in films, they are as delicate and beautiful as apsaras (fairy) in person”.

     He was adventurous, splurged his money and never hesitated in making decisions big or small. He took life real cool and casual. Once he went to see some show buying the costliest ticket but he was uncomfortable as people around him were making conversation in strange language – English

     On the spur of moment rather than having to feel ill at ease through out the show he moved and sat in gallery (front stall) where he found the audience warm and talking in a language he could understand. The year was 1971; a film named Jai Bangladesh was making ripples. It was running at Sheila theater, Paharganj, near New Delhi station. He happened to be in Delhi. He persuaded me, not that I a teenager required any persuasion to ‘take’ him to ‘show’ the film. Needless to say he bought costliest ticket paying large sum as ‘black’.

     For some strange reason he wanted to marry off his daughter to a Police officer. When one such proposal came his way, I had accompanied him to Daryaganj police station where the groom-to-be was undergoing training as probationary sub-inspector of Delhi police. Everything was fixed up post haste. Policemen learn the tricks of the trade pretty fast and rather young. Just before the marriage could be solemnized the groom-to-be was caught accepting bribe. I still remember there was some Rule 5 under which his (a probationer’s) services could be summarily terminated. As the case went on for ages, I was reminded of the poem Humpty Dumpty.
     
  Humpty Dumpty sat on a wall
  Humpty Dumpty had a great fall
  All the king’s horses and all the king’s men
  Couldn’t put Humpty together again.

     So none of the judicial wranglings could save him.  All the influence and all the money of the father-in-law could not put the son-in-law together again in Police station.  Marriage did take place.  Groom had to be contended with odd job in DTC where his father worked.

     Our man once fell ill. He was admitted in the Irwin Hospital now rechristened Lok Nayak Jai Prakash Narain (LNJP) Hospital.  When I went to see him during visiting hours, he was gone on a date with the nurse looking after him.  He had taken her for a movie in the Delite theater across the Asaf Ali road, Delhi – 6.  Once his last drink got spilled. That was last of the booze left in the bottle.  He became so listless that dead in night he hired a taxi and went around half the city to find booze.  Delhi, unlike Mumbai did not have bar culture.  Shops used to close at seven thirty in the evening – a feature which has earned Delhi the epithet of being Babu City.  So our man went around and returned empty handed with a heavier heart and lighter purse. 

     During one of my visits to Aligarh I saw a vehicle covered with tarpaulin in his court yard.  On my asking, his wife informed him about my curiosity.  This was enough to provoke him to uncover his prized possession with child like eagerness – a brand new RoyalEnfield.  I was promptly offered a joyride.

     Off and on, he would be hospitalized for ailments in the course of and arising out of his unbridled drinking.  On the first sign of ‘feel good’ he will open the bottle in the hospital itself sharing it with one and all.  Two places I have witnessed ‘equality’ at its best.  One, the place of worship, other the wine shop.  Normally, the body’s organs are made to last long, hence, are very strong.  However, such gross abuse by way of indiscriminate drinking binges were sure to take its toll.  I recall his favorite brands were Highland Chief, Black knight, Imperial and Hayward.  As they say, he was not into seeing the brand or choosy about what he was drinking, he was into drinking and drinking more, be it ‘desi’ or ‘english’. 

     He was admitted for the nth time in a Delhi hospital.  He was indeed in a bad shape this time.  Less than a week’s hospitalization and he bid adieu to this world.  He was loved by all those he came in contact with.  He was really a large-hearted man.  It was difficult to decide whether his heart was larger or his pocket deeper.  He must have helped numberless people without expecting any return.  On his cremation at Nigambodh Ghat, Delhi someone commented pointing towards the rather small sized container “Put more ghee in the pyre…. More ghee than this was served daily to his dogs”.


PS:  You must be wondering I have not talked about his vocation. He was the ‘Matka King’ of Aligarh.
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