Ravi ki duniya
Tuesday, September 28, 2010
ओ कैंसर ! मैं भी विजेता हूँ
“आपको कैंसर है “डॉक्टर ने एकदम डंडा सा दे मारा. “कैंसर “ सफदरजंग अस्पताल में डॉक्टर के ये तीन शब्द किसी को भी दहला देने के लिए काफी हैं. जब मुझे डॉक्टर ने यह कहा तो मुझ पर क्या गुजरी आप अंदाज़ ही लगा सकते हैं. क्योंकि मेरे लिए इसे शब्दों में बांधना संभव नहीं. सुन कर मैं स्तब्ध रह गया. दिल-दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. और मैं भरभरा कर वहीं बैठ गया. क्यों ! मुझे ही क्यों ! मैंने तुरंत अपने बड़े बेटे रवि को फोन लगाया. उसका ऑफिस नज़दीक ही आर.के. पुरम में था. लड़खड़ाती और भर्राई आवाज में मैंने उसे यह न्यूज़ दी.
लगभग एक माह से मेरा गला बैठ गया था. मेरी आवाज जो कि एक शेर गर्जना से कम नहीं थी पतली होते होते फट गयी थी. जैसे कि मैं फुसफुसा के बात कर रहा हूँ क्या.
इससे पूर्व मैंने दिल्ली के आधा दर्जन डॉक्टर को दिखाया था. किसी ने कफ सीरप दिया तो किसी ने रंग-बिरंगी गोलियाँ. या तो वो पता नहीं लगा पाये थे या मुझे पता नहीं लगने देना चाहते थे. अगले सप्ताह मुझे अपने छोटे बेटे के पास बैंग्लोर जाना था मैं नहीं चाहता था कि यात्रा के दौरान मेरे गले में और तकलीफ हो अतः किसी बड़े अस्पताल में दिखाने का तय पाया गया.डॉक्टर ने बिना किसी लाग-लपेट और भूमिका के बम फोड़ दिया कि आपको गले का कैंसर है. रवि ने तुरंत अस्पताल पहुँच कर मेरा ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास किया. वह कहता रहा कि सफदरजंग अस्पताल सरकारी अस्पताल है और मुझे डॉक्टर पर यकायक यकीन नहीं करना चाहिये.
मैं कभी पान-तंबाकू नहीं खाता था. हाँ मैंने सिगरेट बहुत पी है . चेन स्मोकर था. लेकिन सिगरेट छोड़े हुए भी मुझे 10 वर्ष हो गए थे. अगले दिन मैंने अपने फॅमिली डॉक्टर डॉक्टर लूथरिया को दिखाया. उसने मुझे अपने एक डॉक्टर दोस्त के पास मूलचंद अस्पताल जाने की सलाह दी. मैं अगले ही दिन मूलचंद अस्पताल जा पहुँचा. डॉक्टर नरोत्तम पुरी जो क्रिकेट के विख्यात कमेंटेटर के साथ साथ एक ई.एन.टी. विशेषज्ञ भी हैं ने मेरी पूरी जाँच की और मुझे बाहर बैठने को कहा. उसके बाद मेरी पत्नी तथा बेटे को बुला कर कहा “शक तो कैंसर का ही है मगर पूरी तौर पर बायोप्सी और टेस्ट के बाद ही पता चलेगा ( यह सब मुझे बाद में बताया गया ) अगले एक सप्ताह में सभी टेस्ट तथा बायोप्सी की रिपोर्ट आ गयी और जिस बात का डर था वही हुआ. डॉक्टर पुरी और उनके सहयोगी डॉक्टर जसूजा ने मेरी पत्नी व बेटे के साथ मेरी पीठ पीछे पूरी मंत्रणा की.
“आप ऑपरेशन चाहते हैं?” “क्या हमारे पास कोई विकल्प है?”
“हाँ”
“उनको इंच इंच मरता देखना. असहनीय दर्द से कराहते चिल्लाते देखो. एक स्टेज ऐसी आयेगी आप चाहोगे कि इतना दर्द सहने से तो इनका मरना ही बेहतर है. आप लोगों से तीमारदारी तो दूर उनकी हालत देखी भी न जाएगी”
“ऑपरेशन का क्या अर्थ है?”
सबसे भयावह यह वाक्य था.
“ऑपरेशन का अर्थ है ‘नो वॉइस ‘हम वॉइस बॉक्स निकाल देंगे “
अब सोचिए यह भी क्या विकल्प में विकल्प हुआ.
“या तो बिना आवाज का पिता या नो पिता” (मेरे बेटे ने बाद में मुझे बताया)
मेरे बेटे ने जगह जगह अन्य डॉक्टर से पूछताछ की. मेरी भी अन्य डॉक्टर से ऊपर ऊपर ऑपरेशन कराना चाहिये या नहीं इस पर बात करा दी. मैं जो की ऑपरेशन के नाम से ही घबराता था ऑपरेशन को तैयार हो गया. खासकर जयपुर के एक रेल्वे डॉक्टर, डॉक्टर पी.पी. खंडेलवाल जी से बात करने के बाद. डॉक्टर खंडेलवाल ने मुझे प्रेरित किया कि मैं ऑपरेशन करा लूँ. मेरे बेटे और उसके दोस्त हुलास सिंह ने रक्तदान किया था.
तयशुदा दिन मुझे ओ.टी. में ले जया गया. यह कह कर कि एक मामूली सी गाँठ है.( ट्यूमर शब्द का भी प्रयोग नहीं किया ) मुझे यह भी न बताया कि मैं अपनी आवाज हमेशा हमेशा को खोने जा रहा हूँ. उल्टा वो सब यही कहते रहे ऑपरेशन के बाद सब ठीक हो जाएगा. ऑपरेशन सफल रहा था. मेरे गले के चारों ओर पट्टी बंधी थी. शुरू में तो मैंने सोचा नया नया ऑपरेशन है, पट्टी बंधी है इसलिये डॉक्टर ने बोलने से मना किया है. मुझे क्या पता था कि अब मैं कभी न बोल पाऊँगा. मैं लिख लिख कर अपनी बात कह रहा था या फिर इशारों में. मुझे बाद में बताया गया कि मेरा निकाला हुआ वॉइस बॉक्स जब डॉक्टर ने दिखाया तो मेरी पत्नी तो लगभग बेहोश होते होते बची. पता नहीं डॉक्टर लोग ऑपरेशन के बाद मरीज़ के रिश्तेदारों को काटा गया अथवा निकाला हुआ मांस क्यों दिखाते हैं. पर मुझे बताया गया कि यही चलन है. जैसे कि किसी का आवाज खो देना ही पर्याप्त नहीं है सो उसके कटे-फटे अंग दिखा कर और आतंकित कर दो.
अस्पताल में एक सप्ताह बिताने के बाद जब मैं घर आया तो देखा कि मेरे सभी दूर के,पास के रिश्तेदार और पड़ोसी वहाँ जमा थे. उन्हें मुझे देख कर कौतूहल था और मुझे उन्हें देख कर. मैं यह सोच कर ही डिप्रैस था कि ये इतने सारे लोग आखिर क्यों आए हैं. मैं उन्हें आश्चर्य से देख रहा था वो मुझे. मुझे यह भी अजीब लग रहा था कि सभी क्यों मेरी दबंग आवाज की बात कर रहे हैं. यह सुन सुन कर मैं और कन्फ्युज हो रहा था.
एलेक्ट्रोनिक लेरिंक्स .. यह टर्म मैंने जीवन में पहले कभी नहीं सुना था. हमें पता लगा कि पालम गाँव में एक दूध बेचने वाला इसका प्रयोग करता है. हम सब बिना समय गँवाये उसके पास जा पहुँचे. वह एक सीधा-सादा ग्रामीण दूध विक्रेता था. हमें उसे और उसके लेरिंक्स को देख कर कोई खास उत्साह नहीं हुआ. मुझे तो उसे देख कर उल्टे उस पर दया आ रही थी. आवश्यक जानकारी हासिल कर हम हरी नगर में एक गोयल साब के घर गए. गोयल साब का भी मेरा जैसा ऑपरेशन हो चुका था. वे अपने परिवार के साथ एलेक्ट्रोनिक लेरिंक्स बेचते थे. हमने एक लेरिंक्स खरीदा, उसके माध्यम से बात करना सीखा और धीरे धीरे मैं इसमे काफी पारंगत हो गया.
अब मैं न केवल अपने दिन-प्रतिदिन के घर बाहर के काम कर लेता हूँ बल्कि डॉक्टर लोग अपने पेशंट मेरे पास भेजते हैं ताकि वो मुझे देख सकें और लेरिंक्स की सहायता से बात करना सीख सकें और उनमें कुछ आशा,प्रेरणा और उत्साह का संचार हो सके. डॉक्टर ने मेरे परिवार को बताया था कि ऑपरेशन के बाद यदि पेशंट पाँच वर्ष जीवित रहे तो हम इसे सफल ऑपरेशन मानते हैं. मेरी ग्रांड डॉटर की सहेलियों के फोन आते हैं तो वे अक्सर खिलखिला कर उस से पूछती हैं “शिखा तुम्हारे घर फोन करो तो रोबोट की आवाज में कौन बोलता है ?” मैंने न केवल अपनी स्थिति से समझौता किया बल्कि उसे अपनी शक्ति बना लिया. मैं हमेशा से फाइटर रहा हूँ और कैसी भी विपरीत से विपरीत स्थिति से विजेता बन के ही बाहर निकला हूँ. इस सबका श्रेय मेरी विल पावर, पॉज़िटिव थिंकिंग और जीने की अदम्य लालसा को जाता है. थ्री चीयर्स टू लाइफ.
पुनश्च : ऑपरेशन को 15 वर्ष हो चुके हैं और 1 अगस्त 2010 को 85
वर्ष का हो गया हूँ मैं.
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कोई भी टिप्पणी करने क साहस नही हो पा रहा ...सही मायने मे इतनी इच्छा शक्ति नौजवान मे भी नही है जिसका जीता जागता उदाहरण आप है..........बहुत ही सटीक वर्नण किया है एक कैन्सर रोगी की मनोस्थिति का..........ईश्वर आपकी आयु लम्बी करे और आप यो ही हस्ते लिखते रहे.............
ReplyDeleteजी हाँ इस लेख में मैंने अपने पूज्य पिता की मनोस्थिति को जुबान दी है
ReplyDeletevyang lekh to aapke kai padhe, lekin is tarah ki sachchi, woh bhi apno pe biti ghatna ko shabdon me pirona vakai aasan nahi hai,sachmuch yeh lekh dusron ki bhi kafi honsala afjai karega....
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