सुनने में आया था कि एक पेरेंट टीचर्स एसोसियेशन की बैठक में पेरेंट टीचर्स की तू तू मैं मैं इस कदर बढ गयी कि टीचर्स ने स्कूल की छत पर चढ पेरेंट्स पर पत्थर बरसाने शुरु कर दिये. मॉ बाप जैसे तैसे जान बचाकर भागे. कई पेरेंटो के सिर फट गये. टीचर्स ने कहा पह्ले हमने तुम्हारी जेबे फाडी, अब खोपडी फाडी. सरदार मैंने आपका नमक खाया है. ले अब गोली खा. मैं कहुंगा टीचर्स ने बहुत अच्छा किया. ये पेरेंट हैं ही इस लायक. बच्चो को अंग्रेजी स्कूल में भी पढाना चाहते हैं मगर इंटरव्यू और फीस देने में आनाकानी.प्यार करते हो शेरी से और दूध लाते हो डेरी से.
जिस तरह झोंपडी वालो का एक ख्वाब होता है कि एक अदद पक्का मकान बन जाये. उसी तरह ‘हम लोग’ जो सर्कारी स्कूल में टाट-पट्टी पर टेंटो के नीचे बैठ कर पढे और पले बडे हैं हमारे मन में एक कसक रह जाती है कि अपना पेट काट कर भी बच्चो को अंग्रेजी स्कूल में पढाना है. व्यवस्था बदलने से कही आसान काम है व्यवस्था से बद्ला लिया जाये. कोई गुड से मरता हो तो उसे जहर क्यो दिया जाये. आप भी कुछ लेते क्यो नही.
आज की तारीख में अंग्रेजी स्कूलो के लिये ऐसे भगदड मची हुई है जैसे पिछ्ले दिनो शहर के एक अस्पताल में देखने को मिली थी. हुआ यूं कि शाम को जब मरीजो से मिलने का समय था और मरीज लोग आं..आं..हाय मरा...हाय...कराह रहे थे और उन से मिलने वाले उन्हें मौसमी, सेब और सांत्वना दे रहे थे तभी अचानक किसी ने खबर उड़आ दी कि अस्पताल में बम है. बस फिर क्या था आनन-फानन में सब दौड़ पड़े. मरीज पलस्तर लगाये ही भाग छूटे. कई ग्लुकोज की शीशी समेत दौड़े जा रहे थे. कई मरीजों के तो मिलने वाले भी पीछे छूट गये और मरीज लोग ये जा वो जा.घर जा कर ही दम लिया. जान सलामत रहे अस्पतालों की क्या कमी है. जान है तो जहान है.बस इसी तरह हम लोग अंग्रेजी स्कूलों पर टूट पड़े हैं.अंग्रेजों से दो सौ साल की गुलामी और अत्याचारों का बदला ले रहे हैं. तुम अंग्रेज अंग्रेजी और गोरी चमड़ी के बल पर हमारे माई बाप बने रहे. अब हम ब्राउन माई बाप अपनी पीडियों को अंग्रेजी पढाते है ताकि दे केन टाक इंग्लिश..वाक इंग्लिश..एंड लाफ इंग्लिश.
अभी पीछे मैंने किसी किताब में पढा था कि सिकन्दर अपनी सेना ले कर भारत से क्यों चला गया. कह्ते हैं कि यहां की महंगाई देख कर उस के सिपाहियों के होश उड़ गये. वे भागे भागे सिकंदर के पास गये कि हम इन्हें लूटने आये थे ये तो हमें ही लूटे ले रहे हैं और कुछ दिन रहे तो यहाँ के दुकानदार हमें कंगाल ही कर देंगे. सिकंदर भी समझ गया कि इस से पह्ले कि सैनिक बगावत कर दें यहाँ से भाग जाने में ही समझदारी है. है.इस तरह समय रह्ते अप्ने सैनिकों की जान-माल कओ बचा ले जाने के कारण ही उस्का नाम सिकंदर महान पड़ गया. बाद में इतिहासकारों ने इस में पोरस के डायलॉग जोड़ के लीपापोती कर दी. सच तो ये है कि सिकंदर को योद्धाओं ने नहीं बल्कि दुकानदारों ने हरा दिया.
आप को तो पता ही है कि आजकल लोग नॉन रेजिडेंट इंडियन बनने की चाह में भाग भाग कर दूसरे देशों में सेटल हो रहे हैं. क्यों कि उनका कह्ना है कि ये स्कूल वाले ब्राउन साब हमें लूटें इस से तो अच्छा है कि गोरों के हाथों लुटें. इस में भी एक स्टेटस सिम्बल होता है. जो आधुनिकता से करते प्यार वो अंग्रेजी से कैसे करें इंकार. गोरे रंग का ज़माना कभि होगा ना पुराना. वैसे भी हम लोग इंडियन तो कभी रहे ही नहीं. हम हिंदु हैं, मुसलमान हैं, राजस्थानी हैं, बंगाली हैं, ब्राह्म्ण हैं, क्षत्रिय हैं, थोडे और पढ लिख गये तो साऊथ इंडियन – नॉर्थ इंडियन हो गये. जब कुछ ना बचा और हाथ में पैसा आ गया तो नॉन रेजीडेंट इंडियन हो गये. अब सामान्य इंडियंस को कौन पूछ्ता है. टके में सौ मिलते हैं. किसी भी गली, चौराहे, झौपड़ पट्टी और एम्प्लोय्मेंट एक्स्चेंज में उपलब्ध हैं.
हम लोग हवा महल और बिनाका गीत माला सुन कर बडे हुए हैं आज की पीढी मोबायल फोन और इंटर नेट के माध्यम से डिस्को और पब में पल-बढ रही हैं. इनके चलते मार्किट में इतने ड्रेस डिजायनर हैं किंतु कपडे हैं कि छोटे से छोटे होते जा रहे हैं. डिजायनर लोग ड्रेस डिजाइन नहीं करते बल्कि नई डिजाइन से शरीर को दिखाने का इंतजाम कर रहे हैं. जितने ज्यादा ड्रेस डिजाइनर उतने छोटे कपड़े. मुझे डर है कि कहीं ये कच्छा बनियान गिरोह वाले पेंट कमीज को आउट ऑफ फैशन ही ना करा दे. फिर सोचिये हम सब लोग कच्छे बनियान में ऑफिस में बैठे कैसे लगेंगे इस्मेन एक फायदा है जब लोगो की जेबे ही नही होंगी तो बस में रेल में जेबे कटेंगी भी नही . गांधी जी का सपना साकार हो जायेगा कि जब तक प्रत्येक भारतीय को तन ढॉपने को पर्याप्त वस्त्र ना हो वे लंगोटी ही पह्नेंगे. उन्हे अच्छा लगेगा कि सारा देश अब जल्द ही डिजाइनर्स लंगोटी पह्नेगा. आप सोचेंगे इस्मेन क्या अंतर है. अंतर यह है कि पह्ले आदमी ईमांनदार हुआ करते थे अब कमीजे ईमानदार होती हैं. सोचिये बेईमान बनियान, गुंडा पजामा कैसा लगेगा.
एक ही युनीफॉर्म पूरे देश के स्कूलो में लागू करेंगे तो क्या विश्व बैंक प्रतिबंध लगा देगा. हम जैसे ट्रांसफर वाले लोगों की बहुत बचत होगी नहीं तो पूरा वेतन युनिफॉर्म, टाई जूते मोजे बैल्ट आदि खरीदने में ही निकल जाता है उसी तरह फीस सिलेबस और किताबों में एकरूपता लाई जा सकती है. कस्बे के एक स्कूल में बच्चों से अचानक कम्प्यूटर फीस ली जाने लगी. जानकारी मिली कि एक साफ सुथरे कमरे में सफेद चादर से ढके हुए कम्प्यूटर जी विराजमान हैं. उस कमरे में बच्चों को जाने की सख्त मनाही थी. वे कम्यूटर को कांच की खिड़्की से ही स्ट्डी कर सकते थे. उन्हें समझा दिया गया था कि अगली सदी कम्प्यूटर की सदी होगी तब वे छू सकेंगे. हां तब तक वे मोबाईल और एम टी.वी. से काम चलायें यह भी भव सागर को पार कराने में सहायक हैं
जिस तरह झोंपडी वालो का एक ख्वाब होता है कि एक अदद पक्का मकान बन जाये. उसी तरह ‘हम लोग’ जो सर्कारी स्कूल में टाट-पट्टी पर टेंटो के नीचे बैठ कर पढे और पले बडे हैं हमारे मन में एक कसक रह जाती है कि अपना पेट काट कर भी बच्चो को अंग्रेजी स्कूल में पढाना है. व्यवस्था बदलने से कही आसान काम है व्यवस्था से बद्ला लिया जाये. कोई गुड से मरता हो तो उसे जहर क्यो दिया जाये. आप भी कुछ लेते क्यो नही.
आज की तारीख में अंग्रेजी स्कूलो के लिये ऐसे भगदड मची हुई है जैसे पिछ्ले दिनो शहर के एक अस्पताल में देखने को मिली थी. हुआ यूं कि शाम को जब मरीजो से मिलने का समय था और मरीज लोग आं..आं..हाय मरा...हाय...कराह रहे थे और उन से मिलने वाले उन्हें मौसमी, सेब और सांत्वना दे रहे थे तभी अचानक किसी ने खबर उड़आ दी कि अस्पताल में बम है. बस फिर क्या था आनन-फानन में सब दौड़ पड़े. मरीज पलस्तर लगाये ही भाग छूटे. कई ग्लुकोज की शीशी समेत दौड़े जा रहे थे. कई मरीजों के तो मिलने वाले भी पीछे छूट गये और मरीज लोग ये जा वो जा.घर जा कर ही दम लिया. जान सलामत रहे अस्पतालों की क्या कमी है. जान है तो जहान है.बस इसी तरह हम लोग अंग्रेजी स्कूलों पर टूट पड़े हैं.अंग्रेजों से दो सौ साल की गुलामी और अत्याचारों का बदला ले रहे हैं. तुम अंग्रेज अंग्रेजी और गोरी चमड़ी के बल पर हमारे माई बाप बने रहे. अब हम ब्राउन माई बाप अपनी पीडियों को अंग्रेजी पढाते है ताकि दे केन टाक इंग्लिश..वाक इंग्लिश..एंड लाफ इंग्लिश.
अभी पीछे मैंने किसी किताब में पढा था कि सिकन्दर अपनी सेना ले कर भारत से क्यों चला गया. कह्ते हैं कि यहां की महंगाई देख कर उस के सिपाहियों के होश उड़ गये. वे भागे भागे सिकंदर के पास गये कि हम इन्हें लूटने आये थे ये तो हमें ही लूटे ले रहे हैं और कुछ दिन रहे तो यहाँ के दुकानदार हमें कंगाल ही कर देंगे. सिकंदर भी समझ गया कि इस से पह्ले कि सैनिक बगावत कर दें यहाँ से भाग जाने में ही समझदारी है. है.इस तरह समय रह्ते अप्ने सैनिकों की जान-माल कओ बचा ले जाने के कारण ही उस्का नाम सिकंदर महान पड़ गया. बाद में इतिहासकारों ने इस में पोरस के डायलॉग जोड़ के लीपापोती कर दी. सच तो ये है कि सिकंदर को योद्धाओं ने नहीं बल्कि दुकानदारों ने हरा दिया.
आप को तो पता ही है कि आजकल लोग नॉन रेजिडेंट इंडियन बनने की चाह में भाग भाग कर दूसरे देशों में सेटल हो रहे हैं. क्यों कि उनका कह्ना है कि ये स्कूल वाले ब्राउन साब हमें लूटें इस से तो अच्छा है कि गोरों के हाथों लुटें. इस में भी एक स्टेटस सिम्बल होता है. जो आधुनिकता से करते प्यार वो अंग्रेजी से कैसे करें इंकार. गोरे रंग का ज़माना कभि होगा ना पुराना. वैसे भी हम लोग इंडियन तो कभी रहे ही नहीं. हम हिंदु हैं, मुसलमान हैं, राजस्थानी हैं, बंगाली हैं, ब्राह्म्ण हैं, क्षत्रिय हैं, थोडे और पढ लिख गये तो साऊथ इंडियन – नॉर्थ इंडियन हो गये. जब कुछ ना बचा और हाथ में पैसा आ गया तो नॉन रेजीडेंट इंडियन हो गये. अब सामान्य इंडियंस को कौन पूछ्ता है. टके में सौ मिलते हैं. किसी भी गली, चौराहे, झौपड़ पट्टी और एम्प्लोय्मेंट एक्स्चेंज में उपलब्ध हैं.
हम लोग हवा महल और बिनाका गीत माला सुन कर बडे हुए हैं आज की पीढी मोबायल फोन और इंटर नेट के माध्यम से डिस्को और पब में पल-बढ रही हैं. इनके चलते मार्किट में इतने ड्रेस डिजायनर हैं किंतु कपडे हैं कि छोटे से छोटे होते जा रहे हैं. डिजायनर लोग ड्रेस डिजाइन नहीं करते बल्कि नई डिजाइन से शरीर को दिखाने का इंतजाम कर रहे हैं. जितने ज्यादा ड्रेस डिजाइनर उतने छोटे कपड़े. मुझे डर है कि कहीं ये कच्छा बनियान गिरोह वाले पेंट कमीज को आउट ऑफ फैशन ही ना करा दे. फिर सोचिये हम सब लोग कच्छे बनियान में ऑफिस में बैठे कैसे लगेंगे इस्मेन एक फायदा है जब लोगो की जेबे ही नही होंगी तो बस में रेल में जेबे कटेंगी भी नही . गांधी जी का सपना साकार हो जायेगा कि जब तक प्रत्येक भारतीय को तन ढॉपने को पर्याप्त वस्त्र ना हो वे लंगोटी ही पह्नेंगे. उन्हे अच्छा लगेगा कि सारा देश अब जल्द ही डिजाइनर्स लंगोटी पह्नेगा. आप सोचेंगे इस्मेन क्या अंतर है. अंतर यह है कि पह्ले आदमी ईमांनदार हुआ करते थे अब कमीजे ईमानदार होती हैं. सोचिये बेईमान बनियान, गुंडा पजामा कैसा लगेगा.
एक ही युनीफॉर्म पूरे देश के स्कूलो में लागू करेंगे तो क्या विश्व बैंक प्रतिबंध लगा देगा. हम जैसे ट्रांसफर वाले लोगों की बहुत बचत होगी नहीं तो पूरा वेतन युनिफॉर्म, टाई जूते मोजे बैल्ट आदि खरीदने में ही निकल जाता है उसी तरह फीस सिलेबस और किताबों में एकरूपता लाई जा सकती है. कस्बे के एक स्कूल में बच्चों से अचानक कम्प्यूटर फीस ली जाने लगी. जानकारी मिली कि एक साफ सुथरे कमरे में सफेद चादर से ढके हुए कम्प्यूटर जी विराजमान हैं. उस कमरे में बच्चों को जाने की सख्त मनाही थी. वे कम्यूटर को कांच की खिड़्की से ही स्ट्डी कर सकते थे. उन्हें समझा दिया गया था कि अगली सदी कम्प्यूटर की सदी होगी तब वे छू सकेंगे. हां तब तक वे मोबाईल और एम टी.वी. से काम चलायें यह भी भव सागर को पार कराने में सहायक हैं
याह ..सच है मेरा भरत महान ... बहुत बढ़िया व्यंग ... कटु पर सत्य ... हर मुद्दा सटीक ..डिजानर कपडे वाला तो सशक्त ..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार
धन्यवाद् संगीता जी..आप को पसंद आया .. मुझे खुशी है
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