Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Saturday, August 10, 2013

Civilised Vs Selfish



In a city like Mumbai I found it perplexing that somebody should be pressing my residence’s door bell without pre appointment at 5 AM. I saw from the peep hole and spotted two ladies two gentlemen and a kid plus luggage. Simultaneously, my cell rang the party outside was on phone inside…”me Hukam Chand bol raha hun… Lal saab (my father-in-law) ka aadmi “ I was amused at this Ajeet style code word dialogue-cum-introduction. I opened the door he announced “ ab kya Karen train ne subah 4 baje hi chhod diya I rang u last week that we ( family) are coming to Shirdi “ I meekly protested “ But you never said you would come to Mumbai (much less the contingent of five) and you should have clearly told me if u had any program of Mumbai” 


He was staring at me in disbelief (despite declaring himself to be Lal saab ka aadmi I was not appearing to be suitably impressed and not indulging in any PDA ) 


Frantically, a room in adjacent rest house was arranged, later in the day shifted them and arranged for their transport to drop them at a Holiday Home 


Kept thinking instead of feeling happy, true to ‘athiti devo bhav’ we now get irritated…..the warmth with which they crash landed i did not show any warmth. To me it arrival unannounced was more of a botheration….( notwithstanding the prasadam they brought for us from Shirdi ) was recalling grandparents coming un announced or endless cousins arriving even at unearthly  hours used to be such a joyous, thrilling and happy happy event just few decades back and today ?


Have we become CIVILISED or plain n simple SELFISH?

Monday, August 5, 2013

बोरीबंदर से विक्टोरिया टर्मिनस से छत्रपति शिवाजी टर्मिनस














. विश्व की पहली रेल 1825 में इंग्लैंड में स्टाक्टन और डार्लिंग्टन के मध्य चली थी और इसके 28 साल बाद भारत में, 16 अप्रैल 1853 बोरीबंदर और थाणे के बीच चली भारत में इस रेल की परिकल्पना 1843 में मुम्बई के मुख्य इंजीनियर जॉर्ज क्लार्क ने अपने भांडुप विजिट के दौरान की थी. 13 जुलाई 1844 को बम्बई शहर के महत्वपूर्ण लोगों की मीटिंग बुलाई गई. इस सभा की अध्य्क्षता सर ऐरिस्कीन पैरी, चीफ जस्टिस ने की थी.  17 अगस्त 1849 को इंग्लैंड में ग्रेट इंडियन पैनिनसुला ( जी.आई.पी.) रेलवे कम्पनी की इंग्लैंड की संसद के अधिनियम से स्थापना हुई.. सर जमशेतजी  ज़ीज़ाभाई भी एकमात्र भारतीय डाइरेक्टर थे. ब्रिटिश लोकोमोटिव के आविष्कारक जॉर्ज स्टीफेंसन ( 1781-1848 )  इस कम्पनी के एक डाइरेक्टर थे. इनके पुत्र रॉबर्ट स्टीफेंसन ( 1803-59) को कंसल्टिंग इंजीनियर नियुक्त किया गया  जी.आई.पी. रेलवे कम्पनी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ 17 अगस्त 1849 को एक समझौता किया जिसके अनुसार रेलवे कम्पनी को 5 लाख पौंड पूँजी जुटानी थी. 14 नवम्बर 1849 को जे.जे. बर्कले को चीफ रैजीडेंट इंजीनियर नियुक्त किया गया. बर्कले ने फरबरी 1850 में बम्बई आ कर अपना सर्वे का काम शुरू कर दिया. बायकला में आज भी एक रेलवे कॉलोनी बर्कले प्लेस के नाम से  है यहां कभी बर्कले का दफ्तर हुआ करता था. मुम्बई से  कल्याण तक की लाईन का निर्माण कार्य 31 अक्तूबर 1850 को आरम्भ किया गया. यह लाईन यातायात के लिये थाणे तक 16 अप्रैल 1853 को शुरू की गई.14 डिब्बों में 400 अतिथियों को लेकर 3.30 दोपहर को 21 तोपों की सलामी के बीच यह ट्रेन चली. गवर्नर बैंड ने धुन बजाई. यह दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया था. तत्कालीन गवर्नर लॉर्ड फॉकलैंड तथा कमांडर-इन-चीफ लॉर्ड फ्रेडरिक फिट्ज़ क्लैरेंस, बिशप रैवरेंड जॉन हार्डिंग एक दिन पहले ही हिल्स को जा चुके थे और इस ऐतहासिक एवं यादगार अवसर पर  उपस्थित नहीं थे . 400 की पार्टी 4.45 सायं थाणे पहुंची. टैंट में जलपान की व्यव्स्था की गई थी. मेजर स्वानसन ने नवीन कम्पनी और चीफ इंजीनियर बर्कले को शुभकामनायें दीं. पार्टी शाम को 7 बजे वापस आ गई. अगले ही दिन 17 अप्रैल 1853 को  कम्पनी के भारतीय डाइरेक्टर सर जमशेतजी ज़ीज़ाभाई  ने पूरी की पूरी  ट्रेन अपने मित्र और परिवार के लिये बुक की और थाणे जा पहुंचे. यह लाइन कल्याण तक 1 मई 1854 को चालू की गई. ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे का संचालन सरकार ने 1 जुलाई 1925 को अपने हाथों में ले लिया.

15 अगस्त 1947 को देश विभाजन से तत्कालीन दो रेलवे क्षेत्र उत्तर पश्चिम रेलवे, तथा पूर्व में बंगाल आसाम रेलवे जो दोनों देशों में पड़ती थी विभाजित की गई. साथ ही रियासतों के स्वामित्व वाली रेलवे को केद्रीय सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया और बाद में वे निकट्वर्ती क्षेत्र ( ज़ोन) के साथ मिला दी गई.



मध्य रेलवे 5 नवम्बर 1951 को स्थापित की गई, यह ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे, सिंधिया स्टेट रेलवे, निज़ाम  स्टेट रेलवे, वर्धा कोल स्टेट रेलवे, धौलपुर स्टेट रेलवे को मिला कर बनाई गई.

रेलवे की प्रशासनिक तथा वित्तीय प्राधिकारों का केंद्र बिंदु रेलवे बोर्ड है. इसकी स्थापना बोर्ड अधिनियम 1905 के अंतर्गत की गई. आरम्भ में बोर्ड में 4 सदस्य होते थे तथा एक सदस्य को पर्सनल का कार्यभार भी दे दिया जाता था. शुरू में सदस्य ट्रैफिक पर यह भार था. 1925-26 में एक पृथक सदस्य स्टाफ का पद स्थापित हुआ. सन 1925 में एकवर्थ समिति की रिपोर्ट के फलस्वरूप निदेशक स्थापना का पद स्थापित हुआ. 1920 के दशक में ही रेलवे में एक कार्मिक विभाग स्थापित हो चुका था. सन 1937 में सर आर.एल वैजवुड समिति ने यह रिपोर्ट दी कि वेतन, पदोन्नति, अवकाश, अनुशासनात्मक कार्यवाही के  विषय में नये नये नियमों की जानकारी तथा उन्हे लागू करना एजेंट ( बाद में इसे जी.एम. कहा जाने लगा ) के लिये भारी काम है अत: डिप्टी एजेंट (पर्सनल) नियुक्त किये जाने चाहिये जो कि स्टाफ तथा लेबर के मामले देखेगा.डिप्टी एजेंट को रेलवे बोर्ड में मेम्बर स्टाफ के साथ समन्वय रखना होता था. कालांतर में यह पद डिप्टी जनरल मैंनेजर (पर्सनल) तथा कुछ अर्से बाद चीफ पर्सनल ऑफीसर हो गया





शुरुआती दौर का और वास्तु शिल्प के अद्भुत निर्माण का नाम है विक्टोरिया टर्मिनस. इसका नाम विक्टोरिया टर्मिनस इसलिये पड़ा कि यह इमारत क्वीन विक्टोरिया के जुबिली दिवस पर 1887 में औपचारिक तौर पर खोली गयी थी. 1852 तक जब इस भव्य इमारत का पहला स्तम्भ पड़ा था तब तक यह स्थान केवल देसी नौकाओं का स्थानक हुआ करता था. शुरुआत में बोरीबंदर मात्र एक लकड़ी का ढांचा था. सम्भ्रांत यात्री अधिकतर बायकुला ( भायखला) से रेल पकड़ना ज्यादा पसंद करते थे कारण कि वहां पर ठीक-ठाक सा शेड और प्लेटफॉर्म जैसा कुछ मंच उपलब्ध था. प्रारम्भ में विक्टोरिया टर्मिनस में मात्र ऑफिस तथा मेन स्टेशन की परिकल्पना की गयी थी. 1887 से आसपास के भवनों का निर्माण आरम्भ हुआ. 

1887 के पश्चात वी.टी. से सटी हुई आस-पास की इमारतों का निर्माण हुआ. एनेक्सी भवन प्रथम विश्वयुद्ध 1914-1918 में अस्पताल के बतौर उपयोग में लाया गया. नई स्टेशन इमारत 1929 में मेन लाइन ट्रैफिक के लिये खोल दी गई थी. इमारतों के शिल्प में इस बात का खास ख्याल रखा गया था कि वह मुख्य भवन की भव्यता और शिल्पकारी से मेल खाता हुआ ही हो.

बम्बई नाम मुम्बा देवी अथवा देवी महा अम्बा से निकला है. जहां  आज वी.टी. है वहां मुम्बा देवी को समर्पित मंदिर था. मुबारक शाह ने कालान्तर में यह मंदिर ध्वस्त कर दिया.1317 में यह मंदिर पुन: निर्मित किया गया. 1760 में एक बार फिर और इस बार पुर्तगालियों ने इस मंदिर को नष्ट कर दिया. इसके साथ ही लगा हुआ टैंक / तालाब 1805 तक अस्तित्व में था. बाद में पुर्तगालियों ने इसी स्थान को गिब्बट टैंक नाम दिया.



गोथिक सारसनिक स्टाइल में प्रसिद्ध आर्कीटेक्ट एफ.डब्लू.स्टीवंस ने वी.टी. को डिजायन किया था. आर्च और मेहराबों पर अत्यंत बारीक शिल्पकारी उकेरी गई है. इसे कैथेड्रल स्टाइल में बनाया गया है. वेस्ट्मिन्सटर एबै की आलीशान तर्ज़ पर इसके डोम (गुम्बद) और टॉवर्स हैं. मुख्य गुम्बद 16 फीट 6 इंच ऊंचा है. मुख्य पट्टिका पर इंजीनियरिंग, कृषि, वाणिज्य, विज्ञान और व्यापार के प्रतीक चिन्ह हैं.इसका अग्र भाग (फसाड) 1500 फीट ऊंचा है. इतालवी ग्रेनाइट का प्रचुर मात्रा उपयोग किया गया है.

पुराना स्टेशन मात्र 8 प्लेट्फॉर्म का था. जबकि नवीन मुख्य लाइन स्टेशन परिसर 18 प्लेट्फॉर्म तथा इसके अलावा एक प्लेट्फॉर्म पार्सल ऑफिस के लिये अलग से है. दोनों स्टेशन मेन लाइन व सबर्बन ( लोकल ट्रेन ) के लिये प्रतीक्षा कक्ष, स्टेशन मास्टर कार्यालय, बुकिंग ऑफिस बुक स्टॉल आदि हैं. मेन लाइन पर रिजरवेशन व इंक्वारी ऑफिस हैं. रिटायरिंग रूम तथा रेस्त्रां हैं. क्लोक रूम है. बिल्डिंग का एक हिस्सा मध्य रेल के प्रशासनिक कार्यालय बतौर उपयोग में है.

रेलकर्मी : लेबर पर रॉयल कमीशन ने 1931 में कहा था कि रेल कर्मियों की जितनी अधिक समस्याएं हैं उतनी ही भांति भांति की वे हैं.हर रेल क्षेत्र के रेल कर्मी की पृथक प्रकार की समस्या है. रेल लाइन इतने विशाल क्षेत्र से गुजरती है कि वहां की जलवायु से लेकर लोकल क्षेत्र /  रहन-सहन सम्बंधी अलग अलग समस्याएं होती हैं.सन 1880 से रेलवे में प्रॉविडेंट फंड ( भविष्य निधि ) का प्रावधान किया गया.

प्रथम विश्वयुद्ध ( 1914-1918) के  आते आते रेलवे का ध्यान अपने रेल कर्मियों खासकर कम वेतन पाने वाले रेल कर्मियों की ओर गया. युद्ध के दिनों में रेल कर्मियों के वेतन में वृद्धि करना आवश्यक हो गया. सस्ती दर पर अनाज की दूकानें भी खोली गईं. एक बार वेतन तथा भत्ते जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बढ़े तो फिर लेबर एकजुट हो उसे घटाने के लिये राज़ी नहीं हुई.युद्ध ने उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कर दिया था.वे अब संगठित हो अपने अधिकारोंकी बात करने लगे थे.

प्रथम विश्वयुद्ध से पहले हड़ताल न के बराबर थी. कहीं कुछ होता भी था तो छुट-पुट,लोकल और छोटे ग्रुप में होता था. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद रेलकर्मी एकता का महत्व समझते हुए लामबंद होने लगे.1924 में ऑल इंडिया रेलवेमैंस फेडरेशन की स्थापना हुई. बहुत जल्दी ही इसने रेलकर्मियों में अपनी पैठ बना ली और सदस्यता 2 लाख तक जा पहुंची.  


16 मई 1948 एन.एफ.आई.आर. की स्थापना हुई. इसका शुरू का नाम इंडियन नेशनल रेलवे वर्कर्स फेडरेशन था. श्री हरिहर नाथ शास्त्री प्रथम अध्यक्ष, श्री गोवर्धन मापरा, प्रथम महासचिव तथा श्री जी. रामानुजम पहले कोषाध्यक्ष बने.थोड़े से समय में ही यह यूनियन रेल कर्मियों में बहुत अधिक लोकप्रिय हो गई.

अब धरना, प्रदर्शन होने लगे थे जो कि रेल कर्मियों में व्याप्त असंतोष का परिचायक थे. लेबर की वर्किंग कंडीशन अधिक से अधिक सुधार के लिये संघर्ष जारी था. कार्य के घंटे नियत करना. ओवरटाइम का भुगतान करना. रेल कर्मियों के यूनियन बनाने के अधिकार तथा वार्ता करने के अधिकार को मान्यता मिली. प्रोविडेंट फंड के कवर का विस्तार कर कुछ अन्य कोटियों/ पदों के लिये भी इसे लागू किया गया. सिक लीव का लाभ लोअर पदों पर भी लागू किया गया. वर्कशॉप स्टाफ के कार्यस्थल/कार्यप्रणाली और सुविधाओं में बहुत सुधार किया गया. सहकारिता को बढ़ावा देते हुए अनेक कोऑपरेटिव सोसायटी खोलीं गईं ताकि रेल कर्मियों में बचत की आदत पनप सके. हाऊसिंग तथा कॉलोनी के सुधार व रखरखाव के लिये फंड उपलब्ध कराये जाने लगे थे ताकि रेल कर्मियों की सामान्य जीवन शैली तथा वर्किंग कंडीशन में सुधार लाया जा सके. 



सन 1947 के बाद से स्वतंत्र भारत में रेल कर्मियों की दशा में उत्तरोत्तर सुधार हुआ.

भारत सरकार ने न्यायमूर्ति राजाध्यक्ष के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया. जिसे विभिन्न विभाग/ कोटियों के रेल कर्मियों के कार्य के घंटे, विश्राम की अवधि नियत करने का काम सौंपा गया. इसी तरह न्यायमूर्ति वरदाचारी के नेतृत्व में केंद्रीय वेतन आयोग का गठन किया गया. यहां यह बताना न्यायसंगत होगा कि वेतन आयोग से पूर्व रेलवे में सैकड़ों तरह के वेतनमान थे. साथ ही समान कार्य के लिये देश के विभिन्न भागों में भिन्न भिन्न वेतनमान थे. वेतन आयोग ने सर्व प्रथमतो यह किया कि सारे वेतनमानों का तर्कपूर्ण मानकीकरण कर घटा के 30 से भी कम समूह में वर्गीकृत कर दिया. वर्गीकरण का आधारभूत तत्व यही था कि वे जॉब जिसमें एक सी शैक्षिक / तकनीकी योग्यता चाहिये वे तथा एक जैसी दक्षता (स्किल) वाले जॉब एक ही वेतनमान के अंतर्गत रहें. वेतन आयोग ने साथ ही कुछ नियत स्टेशनों पर मकान भत्ते का प्रावधान भी किया. यकायक 1946-51 की अवधि में रेलवे के वेतन बिल में आत्यधिक वृद्धि दर्ज़ की गई. कंटीन्युअस वर्कर्स के लिये काम के घंटे प्रति सप्ताह 60 से घटा कर 54 किये गये. इसी प्रकार इंटरमिटेंट वर्कर्स के लिये 84 घंटे घटा कर 75 प्रति सप्ताह किये. ओवर टाइम की दर बढ़ा कर वेतन के 1 ¼ से बढ़ा कर 1 ½ गुना की गई. उच्च ( सुपीरियर) सेवा में आमूल चूल परिवर्तन यह हुआ कि उसका बड़े पैमाने पर भारतीयकरण की प्रक्रिया चल निकली. सुपीरियर सेवा के बारे में एक्वर्थ कमिटी 1920-21 ने लिखा है 7 लाख 10 हज़ार रेल कर्मियों में से 7 लाख भारतीय थे. मात्र 7 हज़ार यूरोपियन थे. कुल सेवा का मात्र एक प्रतिशत. ये 7 हज़ार, पानी से भरे गिलास के ऊपर तेल की परत की तरह थे. ऊपर और बाकी 7 लाख से मिक्स नहीं होते थे. उच्चतम सेवा में किसी भी पद पर भारतीय नहीं थे. डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर, डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट अथवा असिस्टेंट ऑडीटर ही वे उच्च से उच्च पद थे जिन पर कभी कभार भारतीय नज़र आ जाते थे. एक मुख्य रेलवे पर 1749 उच्च पदों में से मात्र 182 भारतीयों द्वारा सुशोभित थे. इन 182 भारतीयों में 158 विभिन्न विभागों में असिसटेंट डिस्ट्रिक्ट ऑफीसर थे. इन में से मात्र 24 डिस्ट्रिक्ट ऑफीसर तक पहुंचे. 

एक्वर्थ कमिटी की रपट के आधार पर तथा जनमत और अधिकमुखर होने के कारण और विधानसभा में लगातार मांग उठने के फलस्वरूप ट्रेनिंग सुविधाओं का विस्तार किया गया और उच्च पदों पर भारतीयों के जाने का मार्ग सुगम बनाया जाने लगा. एक भारतीय को पहली बार रेलवे बोर्ड का सदस्य बनाया गया. कुछ भारतीय तो डिप्टी कमर्शियल मैंनेजर,कमर्शियल मैनेजर,डिप्टी एजेंट तथा एजेंट के पदों तक भी जा पहुंचे थे. फिर भी भारत को आज़ादी मिलने तक उच्च पदों पर यूरोपियन का ही वर्चस्व था. यूरोपियन को वेतन के अलावा ग्रेचुटी,  बोनस, लीव, होम लीव एलाऊंस और भी भिन्न भिन्न प्रकार की सुविधायें मुहैय्या थीं . ब्रिटिश का कहना था कि यह सब ब्रिटेन से सुपात्र सुयोग्य रेलकर्मियों को आकर्षित करने के लिये चाहिये ही चाहिये. जबकि भारतीय राजनेताओं का मानना था कि यह सब भारतीय रेलवे पर एक बहुत बड़ा बोझा है.लोअर सर्विसमें भी प्राथमिकता यूरोपियन और एंग्लो इंडियन को ही थी. उन्हें बेहतर वेतन तथा भत्ते दिये जाते थे. समान काम के लिये उन्हें बेहतर सुविधायें सुलभ थीं. यूरोपियन और एंग्लो इंडियंस रेलवे कॉलोनी में पृथक रूप (एक्सक्लूजिव) से रहते थे. उनके क्वाटर बेहतर सुविधायुक्त होते थे. उनकेबच्चों को बेहतर स्कूल की व्यवस्था थी. उनके क्लब, इंस्टीट्यूट पृथक थे तथा उन्ही के लिये आरक्षित थे. यहां तक कि उनके लिये मेडीकल सुविधाओं की भी अलग से व्यव्स्था थी. 1946 के बाद से यह सब चरमराने लगा था. जैसे जैसे यूरोपियन पद खाली करते गये भारतीयों से उन्हे भरा जाने लगा.