Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Friday, December 19, 2014

व्यंग्य: मैं जासूस ....


जब से मैंने होश सम्भाला तभी से मैं जासूस बनना चाहता था. किस्मत देखिये कि बन गया रेलवे में बाबू. यूँ जासूसों वाले सारे गुण मुझमे भगवान ने रिवॉल्वर के बट से कूट कूट कर भरे हुए थे. जब मैंने जासूस बनने का निश्चय किया तो सबसे पहले ये परेशानी पेश आई कि मैं किस किस्म का जासूस बनना चाहता हूं. कैप्टन हमीद टाइप, कर्नल विनोद टाइप, कर्नल रंजीत टाइप या फिर जेम्स बॉन्ड टाइप. क्यों कि जेम्स बॉन्ड की सारी की सारी फिल्में एडल्ट होती थीं और तब गेट मैन ईमानदार होते थे चुनाँचे मेरा थियेटर में घुसना मुश्किल ही नहीं नामुमक़िन था. अत: सालों साल मुझे पता ही न चला कि जेम्स बॉन्ड किस किस्मका जासूस है अलबत्ता पोस्टर से लगता था कि वह ट्रिग़र हैपी हमेशा रिवॉल्वर और हसीनाओं से घिरा रहने वाला था. हसीनायें भी ऐसी वैसी नहीं. सब की सब सदैव टू पीस बिकनी में होती थीं. अब इंडिया जैसे देश में तब ऐसी हसीनायें कहाँ से मुहय्या होतीं ? अत: मेरा जेम्सबॉन्ड बनना मुलतवी होता रहा. सवाल देश की सेफ्टी का था अत: ज्यादा दिन मेरा जासूस बनना टालना नेशनल इंटरेस्ट में नहीं था. इस बीच मैंने जितने भी मार्किट में जासूसी नॉवल थे सब कोर्स की किताब से भी ज्यादा सीरियसनैस के साथ पढ़ डाले थे. ऑफ कोर्स हिंदी वाले.


अब मैं मन ही मन अपने को जासूसों के साथ हर केस में पाता था. मुझे उनकी रिवॉल्वर के ब्रांड से लेकर उनकी कारों के ब्रांड यहां तक कि उनके पाइप पीने या कौन सी सिगरेट वो पीते हैं सब आदतें पता थीं. उन दिनों अगर कोई मेरा एक्जाम ले लेता जासूसों के बारे में तो मेरा कैम्पस सलेक्शन में फर्स्ट आना तय था. मगर ऐसा हो न सका और मैं जानता हूं मेरे जॉयन न करने का नुकसान आज तक देश की एजेंसी उठा रहीं हैं. इस लॉस से रॉ और सी.बी.आई आज तक नहीं उबर पाईं हैं.


अब आप जानना चाहेंगे कि मैं एक सफल जासूस क्यों नहीं बन सका ?. नहीं नहीं जैसा आप सोच रहे हैं ऐसा कुछ नहीं.. सी.आई.ए. या के.जी.बी. मेरे पीछे नहीं पड़ी थी. न ही उन्होंने भारत सरकार पर कोई प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दबाव डाला कि इस शख्स को इंटैलीजेंस एजेंसी में न लिया जाये इससे दो देशों के फॉरेन रिलेशंस पर प्रतिकूल असर पडे‌गा
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कहते हैं कि दुश्मन घर में ही छिपा रहता है. बस तो भाई साहब सबसे पहले तो मुझे अपने एक आने, दो आने के जेब खर्च से जासूसी के सारे उपकरण जुटाने थे. सोफिस्टिकेटड उपकरणों की बारी तो बहुत बाद में आनी थी. पहले तो जो अनिवार्य वस्तुएं थीं उन्हीं को जुटाने में पसीने छूट गये. इतने सारे जासूसी नॉवल का गहन अध्ययन करके मैंने एक लिस्ट तैयार की थी.

लम्बी कार : कनवर्टिबल हो तो बेहतर. मैंने कोई माई का लाल जासूस आज तक ऐसा नही देखा, सुना या पढ़ा जो डी.टी.सी. की बस या ऑटो से जासूसी करता हो. दुश्मन फाइल, माइक्रो फिल्म या डायरी जिसमें दुश्मन के सभी ठिकानों के पते होते हैं, ले कर ये जा वो जा और आप टापते ही रहें कि 327 नम्बर की बस कब आयेगी या तीव्र मुद्रिका कब आयेगी अथवा स्कूटर वाला पीछा करने को तैयार होगा भी कि नहीं वो कह सकता है कि वो उस साइड जा ही नहीं रहा जिस साइड देश के दुश्मन माइक्रो फिल्म लेकर भागे जा रहे हैं. मेरे जानने वाले सभी जासूस मर्सीडीज़, शैवरलैट, ब्यूक, सेडान, इम्पाला से कम में दुश्मन का पीछा नहीं करते थे. फियेट और अम्बैसडर वाले जासूस नहीं थे वे. अब समस्या ये थी कि जब तक कार आये क्या जासूसी का काम मुल्तवी रखा जाये और देश के दुश्मनों को यूँ ही छुट्टा छोड़ दिया जाये. नहीं कभी नहीं. अब अपने पास ले देकर मामा की एक साइकिल थी जो नज़र बचा कर कभी कभी मैं भी चला लेता था. पर साइकिल पर देश के दुश्मन का पीछा ..बात कुछ जमी नहीं, और मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि जब तक अपने पास एक अदद लम्बी सी विदेशी कार नहीं होगी, जासूसी में कोई कैरीयर नहीं

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काला बड़ा चश्मा : चश्मा ऐसा होना चाहिये था जिससे कि मेरा पूरा नहीं तो आधा चेहरा ढँप जाता. लेकिन पिताजी को ये कतई पसंद नहीं था कि ‘पढ़ने वाले’ बच्चे इस तरह के चश्मे का ख्याल भी मन में लायें. खरीदना पहनना तो दूर की बात है. यहां तक कि जब डॉक्टर ने मुझे नज़र कमज़ोर होने का चश्मा बताया तो पिताजी ने माता जी के साथ षडयंत्र करके मेरे को इतना घी बूरा खिलाया.. इतना घी बूरा खिलाया वो भी काली मिर्च डाल डाल कर कि मुझे इन दोनों चीजों से नफरत सी हो गई और मैं सोचता था कि जासूस बनने के बाद सबसे पहले ये घी बूरे वाले को ही साइलेंसर लगी लम्बी रिवॉल्वर से गोली मारनी है.ऐसे में ही एक चचा और हमारे यहां आन टपके जो पिता जी को कह गये कि सुबह सुबह घास की ओस पर नंगे पाँव चलने से अच्छों अच्छों के लगे हुए चश्मे उतर गये. वैसे मैंने आज तक ऐसा कोई आदमी नहीं देखा जिसका घास पर चलने से चश्मा उतरा हो या फिर घी बूरा खाने से चश्मा न लगा हो. आपने देखा हो तो इत्तिला करना. बहरहाल न काला बड़ा चश्मा आया न भारत को मेरे जैसा होनहार जासूस मिला

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हैट : कोई ऐसी फिल्म नहीं कोई ऐसा नॉवल नहीं जिसमें जासूस ने हैट न लगाया हो. बल्कि यूँ कहिये जासूस पर दस बीस हैट होते ही थे. कईयों के नाम तो मुझे अब तक याद हैं. फैल्ट हैट, पनामा हैट, जंगल हैट, पी कैप, बैरेट


ओवरकोट : अब लो यहाँ पिताजी के पुराने कोट अथवा जामा मस्जिद के कोट के अलावा मेरे पास केवल माता जी के बुने हुए स्कूल यूनिफॉर्म के अंगूर के डिजाइन वाले नीले स्वैटर ही थे. मैंने पिताजी को एक अदद ओवरकोट की कहा तो उन्होने मुझे ऐसे खा जाने वाली नज़रों से देखा कि मैंने फिर कभी ओवरकोट का इशू उनके सामने नहीं उठाया. अब आप ही बताईये जब ओवरकोट ही नहीं होगा तो उसकी कॉलर को खड़ा करके जासूसी कैसे होगी. बल्कि ये कहिये कि ओवरकोट नहीं तो कोई क्या खाक जासूस बनेगा ? तो अब आप सोच सकते हो भारत में दुश्मन से तो आप बाद में निपटोगे पहले तो अपनों ही से निबटने में कितने मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा.

दस्ताने/ ग्लव्ज : कुंडी खोलनी हो, तिजोरी खोलनी हो, दरवाजे का हैंडिल हो या फिर रिवॉल्वर ही चलाना हो सबके लिये एक जोडी दस्ताने तो चाहिये ही चाहिये. अब ज़िद कर कर के पिताजी ऊनी दस्ताने ले आये. अब भला ऐसे दस्ताने कहीं से भी तो जासूसी वाले नहीं लग रहे थे. बिल्कुल बचकाने, बच्चों जैसे दस्ताने थे वो. मुझे पहनने में भी शर्म आ रही थी. कहाँ देश का एक होनहार जासूस और कहां ये टुच्चे से दस्ताने. मैंने फिर भी ये बात दिल से नहीं लगाई कारण कि मैं नहीं चाहता था कि कल को कोई ये कहता कि दस्ताने के अभाव में देश के दुश्मनों को जाने दिया.

इसी तरह और भी आइटम थे जिनकी दरकार मुझे थी और उनके बिना जासूसी की परिकल्पना भी करना मुमक़िन नहीं था. आप जोकर बन सकते थे जासूस नहीं. जासूसी सीरियस काम है. कदम कदम पर जान का खतरा. कब गोली आपकी कनपटी को छूती हुई निकल जाये. हरदम जान हथेली पर लेकर चलना पड़ता है.

इसी से याद आया कि जब इन सब चीजों के ही लाले पड़े हुए थे तो रिवॉलवर की कौन बात करे. कहाँ की वैल्वीस्कॉट, स्मिथ वैसन, कहां का माऊजर, कहां का पिस्टल, और कहां का लम्बे हत्थे का साइलैंसर. .. मन की मन में ही रह गई कि सेकन्ड में सेफ्टी क्लच खोल कर दनादन छ: की छ: गोली दुश्मन के सिर में उतार देता.

इसी तरह रबर सोल के जूते जो कि वक़्त ज़रूरत दबे पाँव दुश्मन के अड्डे पर बहुत काम आते, कोठरी में बंद होते तो रोशनदान की जाली जिसमें हमेशा बिजली के करंट होता था को तोड़ने के काम आती ..नहीं मिल पाये, उनकी जगह पिताजी इतने भारी भरकम स्टार लगे जूते लाते कि मील भर दूर से ही खबर हो जाये कि हम आ रहे हैं. आप सोच सकते हैं कि ये जूते मेरी मदद तो कम करते दुश्मन की ज्यादा.

फेहरिस्त बहुत लम्बी है. दूरबीन नहीं थी. सिगार भी नहीं पी पाया. अच्छे आइडिया कैसे आते ? दोहरे रंग की जर्सी नहीं थी कि किसी रेस्टॉरेंट में घुसे एक रंग की जर्सी पहन कर और दुश्मन के सामने से ही दूसरे रंग की वर्दी पहन कर आराम से टहलते हुए निकल आये. मेकप का माकूल सामान नहीं था कि मिनटों में भेष बदल लेता.

लास्ट बट नॉट द लीस्ट, अपने पास एक ठौ प्रेमिका भी नहीं थी. जबकि आज तक मैंने ऐसा एक भी जवां बांकाँ मर्द जासूस नहीं देखा था जिसकी कोई प्रेमिका- कम- सेकरेटरी न हो. इसका इल्ज़ाम भी माता- पिता पर जाता है. जब प्रेमिका बनाने की उम्र थी तो वो नाई को घर पर ही बुला लाते और अपने सामने ही मेरे बाल इस बेढंगे तरीके से कटवाते, ऐसे कटवाते कि कोई ऐसे बाल देख कर मुझ पर दया- रहम तो कर सकता था. प्यार ? प्यार कतई नहीं. मैंने सुना था और पिताजी के बाल कटवाने की ज़िद के आगे मुझे पूरा यक़ीन हो गया था कि बाल बढ़ाने और प्रेमिका में कुछ तो गहरा सम्बंध है. लेकिन नाई भी दुश्मनों के दल में शामिल था. वह मेरी एक न सुनता और घास काटने की जैसी मशीन दन्न से चला देता.

तो भाईयो और बहनों आप सोच सकते हो कि कदम कदम पर कितनी अड़चनों के बाद भी मैंने जासूसी के इस पाक ज़ज्बे को दिल में रहने दिया और इसे एक ख्वाब की तरह सँजोये रहा. कितने ही ऐसे छोटे बड़े ख्वाब हम सब के सीने में दफन हैं. दोस्तो ! हम सबके दिल किसी छोटे मोटे क़ब्रिस्तान से कम तो नहीं.

Tuesday, November 18, 2014

व्यंग्य संतन को का क़ानून ते काम




मैं इन दिनों ये सोच सोच कर परेशान हूं कि सरकार जब संतन को ही नहीं पकड़ पा रही तो भला अपराधी, डॉन और स्मगलर तथा काला धन वालों को कैसे पकड़ पायेगी. इधर संत इतने करुणामय कृपालु हैं कि उन्होंने अपने आपको क़ानून के आगे पेश होने के लिये महज़ छोटी छोटी या यूँ कहें सूक्ष्मतम तीन शर्ते रखी हैं पहली, ये कि वे वीडियो कॉनफ्रेसिंग के ज़रिये पेश होंगे. दूसरे, ये कि वे जब तक अस्वस्थ्य हैं पेश नहीं होंगे. तीसरे, उनके केस की जांच सी.बी. आई. से कराई जाये.

अब लो ये बातें मुझे पहले पता होतीं तो मैं नकल करने के बचकाने आरोप में बचपन में यूं पिटता नहीं. आज सोचता हूं तो मन भर आता है. क्या है ? क्या है ये ? मुझे भी तभी शर्त रख देनी चाहिये थी कि यूँ तो मेरा न्याय पालिका में पूरा पूरा विश्वास है मगर इस पालिका स्कूल के इस मास्टर पर तनिक भी नहीं जो ट्यूशन न पढ़ने का मुझ से बदला इस तरह से ले रहा था.

मैं भी कह देता मैं तो थ्री-डी टेकनीक से पेश होऊंगा. (ये वही टेकनीक है जिससे मोदी जी एक ही समय में जगह जगह चुनाव के दौरान प्रकट हुए थे) इस टेकनीक से क्या है कि मैं लक्षद्वीप में हूं या होनोलूलू में हूं या बोरा-बोरा द्वीप पर पता ही नहीं चलेगा. यूँ भला पता चल भी जाये तो क्या उखाड़ लेना है मेरा. जिनका पता है उनका ही क्या कर लिया आपने ?. सौ-पाँच सौ की भीड़ जुटा लीजिये और अपने आस-पास बिठा लीजिये कृपा बरसते देर कहां लगनी है. कहते हैं सद्दाम हुसैन के कई हमशक्ल थे मैंने भी अपने कुछ हमशक्ल भर्ती कर लेने हैं दिहाड़ी पर. जब एक्टिव हैं तो एक्टिव हैं नहीं तो बिठला देना है उन्हें आजकल के नौजवानों की तरह बेंच पर.

दूसरे, मैंने कहना है कि जब तक मैं स्वस्थ्य न हो जाऊं मैं पेश नहीं होऊंगा. न हैड मास्टर के आगे न कहीं और. अब स्वस्थ्य--अस्वस्थ्य अपने हाथ कहां ? सब प्रभु के हाथ है. जैसे रेलवे का स्वास्थ्य इन दिनों प्रभु के हाथ है. वैसे भी अब इस उम्र में सर्दी-ज़ुकाम, खाँसी-खुर्रा लगा ही रहता है.

तीसरे, एक अदद छोटी सी शर्त मैंने ये रख देनी है कि जैसे मेरा इस पालिका स्कूल की व्यवस्था पर तनिक भी भरोसा नहीं वैसे ही मेरा भारत की पुलिस पर भरोसा नहीं है. अत: नेचुरल जस्टिस का तकाज़ा है कि मेरी जांच के.जी.बी. मोसाद या सी.आई.ए. से कराई जाये. जब तक मेरी ये मांगें मान ली नहीं जाती मुझे परेशान न किया जाये और ये जो मैंने भक्तों को भवसागर पार कराने का पुनीत काम हाथ में लिया हुआ है उसे शांति से सम्पन्न कराने दिया जाये. यूँ भी इस क्षण भंगुर जीवन का क्या भरोसा... क्या तेरा ? क्या मेरा ?. आत्मा तो इस शरीर की क़ैदी पहले से ही है..हम सब क़ैदी हैं अपनी वासनाओं के..अपनी तृष्णा के. क्या जेल ? क्या जेल से बाहर ?.


Wednesday, October 29, 2014

Railway Administration in India





Member of Supreme Council of the Government of India (In charge of Railways)



1.     Sir John Prescott Hewett      Member Commerce & Industry  1904-06

2.     Sir Charles Lewis Tupper                      “                                         1906

3.     Mr. James Fairbairn Finlay                  “                                          1907-08

4.     Mr. William Leathem Harvey             “                                           1908-10

5.     Sir Benjamin Robertson                      “                                           1910

6.     Sir William Henry Clark                       “                                            1910-16

7.     Sir Robert Woodburn Gillan               “                                           1914

8.     Sir George Stapylton Barnes              “                                            1916-21

9.     Sir Thomas Henry Holland                  “                                            1919; 21

10.                        Sir Charles Alexander Innes    Member, Commerce                    1921-27

11.                        Sir David Thomas Chadwick               “                                             1923

12.                        Sir George Rainy                                   “                                             1927-32

13.                        Sir Joseph William Bhore                    “                                             1932-35

14.                        Sir CP Ramaswamy Aiyar                    “                                              1932

15.                        Sir Mohd. Zafrulla Khan                            “                                             1935-38

16.                        Sir Saiyad Sultan Ahmed                           “                                             1937

17.                        Sir Thomas Alexander Stewart     Member Communication       1937-39

18.                        Sir Andrew Gourlay Clow                     “                                            1939-42

19.                        Sir Satyendra Nath Roy                        “                                             1942

20.                        Sir Edward Benthall             Member War Transport & Rlys             1942-46

21.                        Mr Asaf Ali                            Member Transport & Rlys                   1946-47

22.                        Dr John Mathai                                     “                                                1947


Saturday, October 18, 2014

व्यंग्य : मेरा स्विस खाता



मैं भगवान से मना रहा हूं कि हे भगवान ! कैसे भी एक अदद खाता मेरा भी स्विस बैंक में खुलवा दे. वैसे आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि मेरा खाता किसी ग्रामीण सहकारी बैंक में भी नहीं है. मगर स्विस बैंक में खाते के नाम से ही बदन में फुरफुरी सी आ जाती है. पुराने वक़्त में 5 रुपये में खाता खुल जाता था. पता नहीं स्विस बैंक वाले कितने रुपये में खोलेंगे ? चलो मैं कोई न कोई बहाना करके पी.एफ. से पैसे उधार लेकर खाता खुलवा ही लूंगा.


खाता खुलते ही आप क्या सोच रहे हो मैं आपसे बात करूंगा ? कतई नहीं. मेरा लैवल ही अलग होगा. मेरी चिंतायें, मेरे सरोकार कुछ हट के होंगे. मैं इंडिया और जर्मनी के बीच हुई ट्रीटी का कट्टर समर्थक हो जाऊंगा. राईट टू प्राइवेसी की बात करूंगा. इंडिया के पॉलिटीकल सिस्टम को कोसूंगा. और तो और खुद स्विट्जरर्लैंड में सैटल होने की बात उठते-बैठते करूंगा. भले लोग मुझे झक्की समझने लगें. मगर मैं जानता हूं कितने ही ऐसे होंगे और मैं उन पर डिपेंड भी कर रहा हूं, वो इधर-उधर नाते-रिश्तेदारी में शहर–शहर लोगों को शेखी मारते हुए बोलेंगे “ अरे हमारे मामा का भी स्विस बैंक में खाता निकला है ” ज्यादातर यार दोस्त और रिश्तेदार यह भी कहते फिरेंगे “देखो कैसा चुप्पा था ! बिल्कुल घुन्ना था घुन्ना. मैं तो पहले से ही जानता था देखने में कैसा झल्ला सा लगता था ? खूब पैसा बनाये हैं रिश्वत लेता था फुल फुल” 

अचानक मैं जेटली साब का समर्थक हो जाऊंगा. भई ऐसे थोड़े होता है स्विस बैंक है ये कोई खाला जी का घर नहीं है कि इंडिया से कोई भी बाबा, बाबू, या मंत्री-संतरी जाकर खाताधारियों के नाम ले आयें. ( मन ही मन मनाऊंगा कि कैसे भी मेरा नाम ‘लीक’हो जाये) ये तो मैंने सोच लिया है जो भी मिनिमम रकम मैं जमा करवाऊंगा उसमें ‘मिलियन’ जोड़ दूंगा. जैसे 500 रुपये से खाता खुला तो किसी को बताऊंगा भी कि 500 रुपये हैं तो अगलों ने यक़ीन तो वैसे भी नहीं करना है. सो क्यों न एक ‘रिस्पैक्टेबल’ फिगर रहे 500 मिलियन.
सोचो उसके बाद मेरे मोहल्ले में कैसे लोग मुझे डरी डरी नज़रों से कभी भय से कभी ईर्ष्या से देखेंगे. चैनल वालों ने अलग आ आ कर तंग करना है. “ आपको कैसा लग रहा है ?” मैंने तो अभी से जवाब भी सोच लिया है. सभी से एक ही जुमला कहना है “ नो कमेंट्स “ इसका मतलब है बताने को बहुत कुछ है पर अभी नहीं. मेरी रिश्तेदारों में अलग धाक जम जायेगी. वो अलग अपने दफ्तर अपने पड़ोस में बताते फिरेंगे. “हमारे सिकंदराबाद वाले चाचा जी का खाता भी निकला है स्विस बैंक में”. बहुत बिज़ी सी लाईफ हो जायेगी. इंटरव्यू. लाईव शो, बायोग्राफी, सेमीनार, की-नोट एड्रेस, हाऊ टू ओपन स्विस बैंक एकाऊंट, डूज़ एंड डोंट्स.

फिर मुझे अपने बच्चों के लिये रिश्ते ढूंढने जाने की दरकार नहीं रहेगी. वैसे ही लाईन लगी रहेगी. रिश्ते ही रिश्ते एक बार स्विस बैंक में खाता खुलवा तो लें. तुम बच्चों की बात करते हो बहुत मुमक़िन है मेरे खुद के लिये भी रिश्ते आने लगें. क्यों कि मैंने सुना है ‘ आदमी बूढ़ा होता है पैसा नहीं ‘

“...स्विस बैंक में मेरा खाता खुलवा दे
फिर मेरी चाल देख ले ..”

Tuesday, October 14, 2014

व्यंग्य स्वदेशी मिठाई की विडम्बना




दीवाली के म से मौके पर माननीय प्रधान मंत्री जी का कहना है कि हम सब म से मानुष विदेशी चीजों के इस्तेमाल से बचें और केवल देसी-स्वदेशी चीजें ही बापरने का संकल्प लें.


मैंने भी सोचा ! बहुत हो गया ये चॉकलेट ऊकलेट.  मिठाई का मज़ा ही कुछ और है. मगर ये क्या ? म से मिठाई का मावा नकली, मिल्क नकली, यहाँ तक कि गुड़ और चीनी भी मिलावटी. अब आप ही बताओ मैं दीवाली कैसे मनाऊं. अभी तक तो ये था कि 5-10 रुपये की चॉकलेट खाओ और अमिताभ बच्चन सी फीलिंग आ जाती थी. अब 5-10 रुपये में मिठाई तो आने से रही. स्वदेशी मँहगा है सर जी !. ओ.एल.एक्स पर भी नहीं बिकता. 


अब नकली मावे की मिठाई खा के आपका मतदाता स्वच्छ भारत से साफ ही न हो जाये. मैं चाहता हूं कि आप नकली मिठाई वालों की खाट खड़ी करें. हो सके तो उन्हें बॉर्डर पर भिजवा दें. फिर देखिये यहाँ लोग चॉकलेट और कुकीज की जगह बर्फी, लड्डू, पेड़ा बालूशाही, गुलाबजामुन, रबड़ी खायेंगे. वैसे एक बात है, अगले मिठाई में भी कैमीकल तो विदेशी ही मिलाते हैं इसीलिये तो आसानी से पकड़ में नहीं आते. बम-पटाखे तो हम चीन वालों के ही चला रहे हैं कितनी दीवाली से. बल्बों की रंग बिरंगी लड़ियां उन्ही की लाई लगा रहे हैं. मुझे डर है कि जिस दिन चीन वाले मिठाई के मैदान में उतरेंगे उस दिन हमारे अग्रवाल स्वीट हाउस, घंटेवाला, बंगाली स्वीट्स , नाथू स्वीट्स का क्या होगा ?


मिठाइयों के नाम जो मुझे सूझे :-



1. रसोगुल्ला = रीस गुल चीन


2. लड्डू =     लान पीन गुल


3. बर्फी =      बैन की फून


4. सोन पापड़ी = सून पो पीन


5. पेड़ा =      पीन चू डू


6. गुलाब जामुन = गूल बीन मून


7. हलवाई = हील वाई सून


8. हैपी दीवाली = हुआंग हू दी वू