दो मित्र बाहर-गाँव से शहर घूमने आए. शाम तक बेहाल हो गए. किसी ने पूछा ऐसे कैसे अधमरे से हो गए. वे बोले “ क्या करें जहाँ जाते हैं डिब्बा-पेटी पर लिखा है ‘कृपया यहाँ थूकें’ ‘कृपया यहाँ थूकें’ सवेरे से इतनी सारी जगहें थूक-थूक कर हमारा तो गला ही दुखने लगा है. हम तो रात की गाड़ी से जाने की सोच रहे थे. रोज इतना कैसे थूक पाएंगे हम”
दरअसल भारत एक थूक प्रधान देश है. कहते हैं कि विदेशियों के
लिये भले हम एशियन या ब्लैक हों लेकिन वहां भी हमने अपनी इस थूकने की आदत से अलग
पहचान बनाई है और इसी आदत की वजह से धर लिये जाते हैं कि हो न हो ये हिंदुस्तानी
है. मैंने इस पर बहुत विचार किया कि हम भारतीयों की ज़िंदगी में इतनी थू-थू
क्यों है. इसके क्या ऐतहासिक और सामाजिक कारण हैं. हम ही क्यों घर-बाहर इतना
थूकते-थुकवाते फिरते हैं और हमारी ही क्यों देश-विदेश में इतनी थू-थू होती
है.
एक मित्र सिंगापुर गये थे. लौट कर आ कर बहुत कलप रहे थे.
कसम पर कसम खाये जा रहे थे कि दुबारा सिंगापुर नहीं जायेंगे. कारण पूछने पर बोले “
क्या कंट्री है मैं तो थूकने को तरस गया, किसी से पूछा तो बोले यहां थूकना मना
है. लो बताओ अब ! ये भी कोई बात हुई, थूकने क्या इंडिया आयेंगे. सुना है थूकने
पर हैवी फाइन है और जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है. लो कर लो बात ! और पता चला कि
साला जेल में भी थूकना मना है, तब फिर कहां जायेंगे ?
अब
तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
इसका एक कारण तो यह है कि हमारे लोक-साहित्य में थूक को
विशेष महत्व दिया गया है. लार टपकाना, थूक कर चाटना
आदि न जाने कितनी कहावतों से हिंदी साहित्य समृद्ध है. आसमान पर थूकना अब
देखिये कितने मर्म की बात कही है. सिंगापुर वाले ऐसी बात कभी कर ही नहीं सकते.
क्या खा के थूकेंगे आई मीन करेंगे.
थूक कर चाटना मुझे नहीं पता ऐसी या इससे मिलती-जुलती
कोई कहावत का उदाहरण विश्व साहित्य में दूसरा है. कहीं ऐसा तो नहीं हम ही थूक कर
चाटने में महारथ रखते हों, इसलिये हमारे देश में ही है.
आपने सुना होगा लोगों को कहते मैं फलां चीज पर या फलां जगह
पर या ऐसे पैसे पर थूकता भी नहीं. यहां थूक एक नये अभिप्राय में सामने आया
है. गर्वोक्ति के रूप में, ईमानदारी के दम्भ भरे विज्ञापन के रूप में. हम लोग
परोपकारी जीव है. लेकिन हम लोग एक गलती करते हैं कि सामने वाले को भी परोपकारी मान
कर चलते हैं जो कि होता नहीं. अगला आपकी तरह बौड़म तो है नहीं. तब से कहावत चल पड़ी मीठा
मीठा गड़प, कड़वा कड़वा थू. कहते हैं ह्युनसांग जब भारत आया तो यहां
के लोगों को पान की पीक थूकते देख उसे कुछ समझ नहीं आया और उसने लिखा कि
हिदुस्तानियों की हैल्थ भई वाह ! कितना खून थूकते हैं दिन भर फिर भी ज़िंदा हैं.
सिंगापुर वालों ने भले थूकना निषेध कर रखा हो मगर फिर वो हमारी तरह थूक लगाना भी
नहीं जानते होंगे. टूरिस्ट हो, ग्राहक हो, सह-यात्री हो, खुद के
मां-बाप हों यहां तक कि अपनी ही वधु पक्ष को थूक लगाने में हमें
एक्स्पर्टीज हासिल है. आखिर दहेज क्या है ? पैसा दुगना
करना, गहने पॉलिश करना, बेहोश कर देने वाली चाय पिलाना. मां-बाप को इमोशनल ड्रामा
करके जायदाद और उनके फंड के पैसे का घपला, सब थूक लगाने
के हमारी नेशनल हॉबी का हिस्सा हैं.
‘बाप न दादा खाये पान, थूकत थूकत
कढ़े प्रान’ अर्थात अपनी हैसियत अपने सामर्थ्य से बढ़-चढ कर कार्य हाथ
में लेने का परिणाम. अब भला इंडिया को क्या ज़रूरत है मंगल ग्रह पर या अंकार्टिका
जाने की? हिंदुस्तान में धारावी, दरियागंज की फुटपाथ पर ठंड में ठिठुरते लोग, कालाहांडी और
मुजफ्फरपुर के लोग दिखाई नहीं देते. उन्हें और कुछ नहीं तो मंगल ग्रह वासी समझ कर
ही उनके लिये कुछ कर दें. बस ऐसी बातें करते ही नेताओं को फिट्स आने लगते हैं और
अनाप-शनाप अपनी उपलब्धियां और विपक्ष की खामियां गिनाने लगते हैं. ज्यादा कॉर्नर
करो तो थूक निगलने लगते हैं.
तो देखा हुज़ूर आपने ! इस थूक में थुक्का फज़ीहत की
कितनी अपार सम्भावनायें हैं. अरे ! अरे! आप कहां चले ? थूकने ?