अभी हाल ही में फादर डे ज़ोर शोर से मनाया गया। यह एक विदेशी अवधारणा है, जहां फादर लोग अक्सर ओल्ड एज़ होम में रहते हैं या फिर एक शाश्वत नैराश्य में जीते हैं और सरकारी डोल/बेनीफिट पर जी रहे होते हैं। हमारे यहाँ प्रत्येक दिन फादर लोगों का डे होता है। जगह जगह अमुक वल्द /पुत्र श्री अमुक लिखा जाता रहा है। पिता का नाम अपने नाम के आगे लगाया ही जाता है। जब तक मुमकिन होता है फादर लोग आपको भूलने नहीं देते या तो अपने ‘झापड़’ कौशल से अथवा टोका-टोकी से। डांटना/पिटाई करना फादर लोग का जन्म सिद्ध अधिकार होता है। वो फादर ही क्या जो अपने बच्चों से भुनभुनाए नहीं। हर पल यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि बच्चू मैं तुम्हारा बाप हूँ बोले तो तुमसे ज्यादा जानता हूँ, अतः तुमसे कहीं अधिक बेहतर हूँ। जब एक बेटे ने शादी के समय अपने पिता से कहा “पिताजी मैं अपनी शादी में दहेज नहीं लूँगा” पिता ने कहा “नालायक ! तू दहेज मना करने वाला कौन होता है? तू जब अपने बेटे की शादी करे तब मत लेना”
हम पाँच भाई बहन हैं। जब पिताजी एक को डांटते या उस पर अपने थप्पड़ स्किल आज़माते तो बाकी चार स्वतः ही अपने अपने बस्ते खोल कर ऐसे पढ़ने बैठ जाते जैसे आदिकाल से वे तो पढ़ाई में ही लगे थे। पर सीरियसली आज के दौर मैं किस बाप में ये दम है कि अपने पाँच पाँच बच्चों को ग्रेजुएशन तक पढ़ा सके। यहाँ एक-दो बच्चों को पढ़ाने में ही मकान गिरवीं रख, बेंक का लोन लेना पड़ जाता है। पिता लोग अपने विचार बहुत उच्च रखते थे। मेरी पीढ़ी की संतान के निकटस्थ 'रोल मॉडल' पिता ही होते थे। तब “यार पापा !” नहीं चलता था। ऐसा भूल से भी कहने पर पिटने का आमंत्रण देने के समान होता था। हम सब बच्चे कितनी भी दूर स्कूल पैदल चले जाते थे। स्कूल के नल का या वहाँ रखे हुए घड़े का पानी पीते थे। कभी तबियत उन्नीस भी नहीं होती थी। भाई लोग एक दूसरे के कपड़े पहनने में कोई गुरेज नहीं करते थे। बल्कि आपकी पेंट कमीज पर आपके छोटे भाईयों का नैसर्गिक अधिकार होता था। कमीज की कॉलर फट जाने पर कमीज रिटायर नहीं की जाती थी बल्कि माताएँ कॉलर उलट पलट में एक्सपर्ट होती थीं। इस प्रकार की कमीज पहनने में हमारा मुंह नहीं फूल जाता था और न ही कुछ अजीब लगता था। खूब मिठाई फल खाते थे। हाँ तब ये चॉकलेट टॉफी तो तब ही मिलते थे जब कोई निकट का रिश्तेदार या परिवार के मित्र आते। यूं ज़्यादातर वो भी केले अमरूद संतरे ही लाते थे।
अब की तरह हाय-हॅलो नहीं चलता था। हम भले चिट्ठी-पत्री में सही, पूजनीय/आदरणीय और चरण स्पर्श/प्रणाम से इतर कुछ नहीं। हो भी क्यों ना अपने सीमित साधन और बेहद कम और अनियमित आय के बावजूद हम सब लोग प्रिंस सा जीवन जीते थे। आज जहां देखो वहाँ असंतोष ही असंतोष है। क्या बेटा क्या बाप।
मिस यू मम्मी-बाबू !