जिस प्रकार मौत की घड़ी तय है उसी तरह रिटायरमेंट का दिन तय है. मौत कब होगी यह जानने के लिए आपको बाबा बंगाली,ज्योतिष और नजूमी की ज़रूरत पड़ सकती है मगर रिटायरमेंट जानने के लिए बस जन्म तिथि पता होना ही काफी है. सरकारी नौकरी में रिटायरमेंट ध्रुव सत्य है यद्यपि बहुत से लोग समितियों, स्टडी ग्रुप में कंसल्टेंट और एड्वाइजर बनने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देते हैं. उनका कहना है कि रिटायरमेंट के बाद वे ‘वाइजर’ बन गए हैं अतः अब आप सब लोग उनको एड्वाइजर बना दें और उनकी एड्वाइज़ लें. रिटायरमेंट के बाद उन्हें कोई काम छोटा नहीं लगता वो ‘सेवा’ करना चाहते हैं अब वो देश सेवा हो या मोहल्ला सुधार समिति की सेवा हो या फिर मानव अधिकार के लिए धरना-प्रदर्शन.
एक उच्च अधिकारी तो रिटायरमेंट के बाद इतने ‘मिलनसार’ हो गए थे कि ऑफिस के चपरासियों को ‘मेरा बच्चा’ कहते नहीं थकते थे. उन्हें देख कर लोग रास्ता बदल लेते थे. ऑफिस के पेन, स्टैपलर एकत्रित करना उनके हॉबी थी. ऑफिस में किसी के भी खाली केबिन में वो घुस जाते और सोफे पर अपना दफ़्तर खोल लेते थे. बैंक के चेक, बिजली पानी फोन के बिल, सब काम सोफे पर अपने ब्रांच ऑफिस से ही वे सम्पन्न करते.
आपने देखा होगा बड़े-बड़े अफसर जब तक अफसर बने रहते हैं उनकी नज़र और याददाश्त दोनों कमजोर रहती हैं. आपको देख के अनदेखा करना, आपके साथ बिताये हुए सभी दिन (जब वे इतने बड़े अफसर नहीं बने थे) वे भूल चुके होते हैं. एक तरह से वो टेम्पररी स्मृति लोप का शिकार होते हैं. अफ़सरी जाते ही उनकी याददाश्त वापस आ जाती है. ‘अफ़सरी आउट - मेमोरी इन’. एक बड़े अफसर तो रिटायरमेंट के बाद इतनी गर्मजोशी से मिले कि मुझे दिल ही दिल में उनसे डर लगा. मेरे पूरे खानदान का हालचाल तो पूछा ही साथ ही कविता और साहित्य डिस्कस करने की ‘माई एमबीशन इन लाइफ’ भी जताने लगे.
एक बड़े अफसर तो अपने विदाई समारोह में लगभग रूठ ही गए कारण कि उन्हें दूसरे की अपेक्षा छोटा सूटकेस क्यों भेंट किया जा रहा है और वो इतने ‘इमोशनल’ हो गए कि अपने भाषण में उन्होने कह ही तो दिया “इतने हार और बूके आपने दिये हैं इसके बदले पैसे दे देते या फिर बड़ा सूटकेस”
वर्जित फल अधिक मीठे होते हैं. अधिकारी आपके अधिकारों की रक्षा करता है या रक्षा करने का ढोंग भर करता है. दरअसल वह अपने अधिकारों की रक्षा ही अपना प्रथम और अंतिम कर्तव्य समझता है. वह ढूँढता रहता है कि आपके अधिकारों पर कैसे कुठाराघात करे. जो सबसे ज्यादा पावर डेलीगेट और सत्ता के विकेंद्रीकरण की ‘बात’ करे समझिए वह और सत्ता चाहता है. इधर एक रिवाज सा चल पड़ा है कि बड़े-बड़े अधिकारी रिटायरमेंट से पहले अपना एक अदद एन.जी.ओ. जो कि उनकी ‘आलटर ईगो’ का प्रतिरूप होता है या यूँ कह लीजिये कि उनके हेतु साधने का यह उनका पाकेट बुक एडिशन होता है, खोल लेता है. इस एन.जी.ओ. के सौजन्य से सरकार से धन-धान्य, विदेश यात्रा और अपना ही बंगला एन.जी.ओ. को किराए पर देने का सुभीता रहता है. अतः जिन अधिकारियों ने सर्विस में रहते आदमी को आदमी नहीं समझा या कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं माना और उन पर खूब अन्याय किया अब वो ‘न्याय’ की बात करते हैं. निर्बल को न्याय दिलाने और मानव अधिकारों की बात करते हैं. सुनते हैं गौतम बुद्ध को बोधिसत्व की प्राप्ति महल से निकल कर बोधि वृक्ष के नीचे हुई थी. इन नौकरशाहों को ‘ज्ञान’ की प्राप्ति ऑफिस से निकल जाने के बाद पेंशन-ग्रेच्युटी रूपी घने सायेदार वृक्ष के नीचे होती है. उनके अंदर का देशभक्त जो अब तक फ़ाईलों के नीचे कहीं दबा था अंगड़ाईयाँ लेने लगता है और कल तक के ‘यथास्थिति’ के पोषक या टी-कप में तूफ़ान लाने वाले अफसर सरकार के (फिर चाहे वो किसी की हो) ख़िलाफ़ धरना-अनशन करने लगते हैं. विदेश में सेमिनार और कॉकटेल अटेण्ड करते हैं.
यूँ तो कहने को कोर्स पर कोर्स चला दिये गए हैं कि रिटायरमेंट के बाद जीवन कैसे व्यतीत करें. प्रभु से कैसे लौ लगाएं या फिर अपनी पेंशन कैसे खर्च करें और उसको कहाँ लगाएं आदि आदि मगर ‘ये दिल नमाज़ी हो न सका’ की तर्ज़ पर जब दिल टी.ए., डी.ए. टूर और यस-सर, यस-सर में अटका हो तो प्रभु से लौ कहाँ लगती है. लौ तो कहीं और लगी है. सो भैया जी भजन-सत्संग, गार्डनिंग या मॉर्निंग- ईवनिंग वाक किसी में भी दिल नहीं लगता. आप इश्क़-ए-हकीकी की बात करते हैं हमें अभी इश्क़-ए-मजाज़ी से ही फुर्सत नहीं है.
एक साहब ने तो रिटायरमेंट के बाद अपनी जवानी को बरास्ता शर्ट-पेंट वापस लाने का ऐसा प्रयास किया कि वे हास्यास्पद, करुणा के पात्र लगने लगे. नयी - नयी स्किन टाइट, टी शर्ट पहनते छींटदार कमीजें और जीन्स डाल कर वो भले अपने आपको देव आनंद समझने लग पड़े हों, लोग तो उन्हें देख कर हँसते हँसते लोटपोट हो जाते. लेकिन ऐसी छोटी छोटी बातों को वो दिल पर नहीं लेते थे. एक सज्जन ने तो अपने नॉर्मल रिटायरमेंट के महज 6 माह पहले इसलिये वी. आर.एस. ली ताकि वे सबको यह बता सकें कि वो कभी रिटायर हुए ही नहीं. बिल्कुल उसी तरह जैसे एक बूढ़ा आदमी बार बार सिर्फ यह सुनने के लिए शादी करता था ताकि शादी के मंडप में लोग कहें “ लड़का कहाँ है...? लड़के को बुलाओ... ! लड़का आ गया ?” मैं एक रिटायर्ड सज्जन को जानता हूँ जो ऐसे टूट कर टूरिज़म पर पिल पड़े हैं जैसे भारत कहीं भागा जा रहा है. वे अपने किसी भी दूर के रिश्तेदार और तो और दोस्तों के दूर के रिश्तेदार के यहाँ कान छेदन में भी तैयार हो कर चल पड़ते हैं. कान-छेदन वाले खुद फंक्शन की इतनी तैयारी नहीं करते जितनी ये साहब फंक्शन में जाने की करते. हफ्तों पहले से यात्रा की चर्चा..तैयारी..तैयारी की चर्चा होने लगती और तब तक होती रहती जब तक अगली यात्रा का कार्यक्रम नहीं बन जाता. 'फिर छिड़ी बात फूलों की..' तर्ज़ पर फिर नयी यात्रा की बातें होने लगती.
सो भैया जी ! ये रिटायरमेंट वालों से जरा बच के, न इनकी दोस्ती अच्छी न इनकी.. एक तो ये अपने ज़माने की बाते सुना सुना के आपको पका देते हैं ये हमेशा पास्ट टेन्स में जीते हैं. एक से एक ऐसी स्टोरी सुनाएंगे कि आपको बरबस यकीन ही न हो. हर स्टोरी में ये ही सुपरमेन और स्पाइडरमेन अर्थात विजेता बन के बाहर निकलते होते हैं.
सुखी और खुश रहने का राज़ भी यही है. सयाने कह गए हैं कि
अच्छा स्वास्थ्य + खराब याददाश्त = खुशी,
आप भी खुश रहिए, हुज़ूर टेंशन को रिटायर कर, भेज दीजिये पेंशन लेने.