Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Tuesday, February 25, 2014

व्यंग्य : खो गया है मेरा (साब का) सांड



                                               

लो जी ! जिसका डर था वही बात हो गयी. भैंसे, कुत्ते आदमी, बच्चे गुम होते और चोरी होते सुने थे पर यहां तो हमारे साब का सांड ही खो गया. भगवान जाने खोया या चोरी हो गया. यूं तो बहुत से गाय भैंस वालों की उस सांड से जाती दुश्मनी थी. अब साब के दफ्तर-बाहर का दो-चार सौ का अमला उसे खोजने में क्या लगा, बुरा हो इन प्रेस, टी.वी. वालन का पूरा दिन उसी पर प्रोग्राम दिखाते रहे. मन तो करता है इन सब को उसी सांड के आगे डाल देवें. फिर देखें कैसे खिसर खिसर करते हैं सारी कचर कचर भूल जायेंगे हां !.  उहां हमारे साब ने जब से सांड खोया है अन्न का दाना मुंह में नहीं रखा और हियां ये मीडिया वाले नाक में दम किये हैं. उसका नाम साब बड़े प्यार से प्लेबॉय रखे थे. अब गाँव-देहात के आदमी प्लेबॉय तो क्या आता कहना सब प्ले भाई... प्ले भाई कह कर पुकारते रहे उसे, जो है सो. पूरे के पूरे कस्बे में हाहाकार मचा हुआ है. साब को पता चला तो कोठी के तमाम दस-बीस नौकरों को वो गरियाये.. वो गरियाये सब याद रखेंगे. काम धाम कोऊ है नहीं सारा दिन सांड की तरह... सॉरी गधे की तरह हाँडते रहते हैं. इलाके के थानेदार एस.पी., डी.एस.पी. सभी आये रहे, हाथ बांधे खड़े रहे. साब तो खरी खरी सुना दिये हैं बिटवा बिना सांड लौटे तो सबकी ट्रांसफर...सब के सब लाइन हाज़िर...नालायक नाकारा कहीं के. एक प्ले भाई नहीं ढूंढ सकत नागरिकन की देखभाल क्या खाक़ करेंगे.

काहे कि सांड हमारे बड़े साब का रहिन सो तुरत फुरत वायरलैस मैसेज कराया गया. पूरा ज़िला भर को मुस्तैद रहने का हुक़्मनामा जारी कर दिया गया है, ऐसिन समझो कर्फ्यू से बेसी हालत हुई गई है शहर भर में. आसेपासे के चारों डिस्ट्रिक्ट की पुलिस सब काम छोड़ इसी में बिज़ी है. बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स सी.आर.पी.एफ., जी.आर.पी. खुफिया पुलिस सब इसी काम में लगे हैं. दनादन मैसेज पर मैसेज  आये जा रहे हैं वहां साइट किया गया... फलां जगह निशान, फलां जगह गोबर, फलां जगह पग मार्क मिलते हैं वगैरह वगैरह. कोई कहे स्टेशन की तरफ देखा गया, कोई कहे सब्ज़ीमंडी की तरफ जाते देखा गया था.

साब के लाख मना करने पर भी किसी के मुंह से टेलीफोन पर निकल ही तो गया “अभी साब से बात नहीं हो सकत है..... साब का सांड खो गया है... कि राम जाने चोरी अपहरण का केस है”. बस आनन फानन में टी.वी.वालन की आधा दर्ज़न ओ.बी. वैन आकर बंगले के चारों ओर खड़ी न हो गयीं और लगे... छोरा छोरी चिल्लाने  “यही है वो आलीशान बँगला जिसके एयर कंडीशन बाड़े में सांड प्ले भाई का रेजीडेंस  है ..... अब ये हैं गया प्रसाद जो सांड जी की सेवा में दो साल से तैनात थे उनसे बात करते हैं. आपके चैनल पर अपने प्यारे दर्शकों के लिये ब्रेकिंग न्यूज गया प्रसाद जी आपको प्लेभाई के जाने से कैसा लग रहा है ? क्या प्ले भाई एक दो दिन से उदास चल रहे थे. किसी चिंता डिप्रेशन में थे क्या ? उनकी किसी गतिविधि पर आपको कभी संदेह हुआ क्या ?” गया प्रसाद रो रो कर रुंधे गले से कुछ बोल नहीं सका. “ देखिये गया प्रसाद ने दो दिन से रो रो कर अपना चेहरा सांड कर लिया है.... सॉरी.... आई मीन चेहरा सुजा लिया है”

वहीं दूसरा चैनल कहीं और से उड़ान भर रहा था “ ब्रेकिंग न्यूज.... प्रत्यक्ष दर्शियों का कहना है कि उन्होने साब के सांड को खेतों में चरते देखा था. वो फसल चर कम रहा था, तहस-नहस ज्यादा कर रहा था, बिल्कुल साब की तरह. सांड हू ब हू  साब पर गया है वही चाल-ढाल, वही खाने का तरीका, वही फुंकार-हुंकार 

दिल्ली से डिजास्टर मैंनेजमेंट की टीम हैलीकॉप्टर से आ गयी थी. तमाम तरह के गैजेट्स, बेहोश करने वाली हारपून टाइप बंदूकों से लैस और नाइट विजन के बायनाकुलर्स के साथ. बैठकों के दौर जारी थे. समाचार लिखे जाने तक सांड जी पकड़े न जा सके थे. अलबत्ता लोगों ने विभिन्न स्थानों पर सांड को देखने की पुष्टि ज़रूर की. किंतु गौरतलब बात ये है कि एक  सांड एक ही समय पर विभिन्न स्थानों पर कैसे दिख सकता है. लोगों का मानना है कि वह कोई मामूली सांड नहीं है. उसमें दैवी शक्ति है. साब का सांड है साब की तरह उसकी मर्ज़ी कहां दिखे कहां न दिखे और अपनी पर आये तो एक ही वक़्त में जगह जगह दिखे.

जनसाधारण से अपील की जाती है कि सांड के बारे में सूचना देने वाले को साब की तरफ से भरपूर ईनाम दिया जायेगा. राज्य सरकार भी उसे सांडश्री  नामक पुरस्कार से नवाजेगी. 

                ढूंढो ढूंढो रे साजना ..ओ..
                मेरे साब का सांड लाड़ला     

Monday, February 24, 2014

व्यंग्य: रिटायरमेंट की उम्र 100 बरस हो गई


बहुत दिनों से न्यूज पेपर और टी.वी. में न्यूज आ रही है. अब न्यूज है, पेड न्यूज है या कि बस कोरी अफवाह है कि सरकार रिटायरमेंट की उम्र बढ़ा रही है. 60 वर्ष से 62 वर्ष कर देगी. कोई कोई कह रहा है कि 65 वर्ष होने वाली है. जहाँ तक मुझे याद पड़ता है रिटायरमेंट की उम्र पहले 55 बरस थी. फिर 58 हुई और उसके बाद 60 वर्ष हो गयी. सच तो यह है कि आदमी को किसी भी उमर में रिटायर किया जा सकता है. आप पहले आंकड़ा तय कर लें तर्क फिर उसी प्रकार के ढूंढे जा सकते हैं. वो सब तो लफ्फाजी है. आयु जो भी आप डिसाइड करें बड़े बड़े धुरंधर बैठे हैं जो हज़ार दो हज़ार पेज की रपट उठते- बैठते चुटकियों में बना देंगे. हमारे सरकारी दफ्तरों में ये कहावत है कि आप डिसाइड तो करो क्या करना है अंग्रेजी तो वैसे ही बन जायेगी. ऐसे ही चुनाव से पहले की एक शाम सरकार ने रिटायरमेंट की उम्र 100 वर्ष कर दी और तर्क दिया कि

भारत ऋषि मुनियों की धरती है हमारे यहां च्यवनप्राश और वियाग्रा के संगम से जो पीढ़ी पैदा हुई है वो 100 बरस से ऊपर जीने वाली है तो क्यों न उनकी प्रोडक्टिविटी का उपयोग राष्ट्र निर्माण में किया जाये. राष्ट्रनिर्माण के नाम पर तरह तरह के विध्वंस आप दिल खोल कर कर सकते हैं. कोई कुछ नहीं कहेगा. उल्टे हो सकता है आप पदमश्री जैसा कुछ झटकने में क़ामयाब हो जायें

आखिर उम्र क्या है ? है क्या ये उम्र ? सिर्फ एक नम्बर. महज़ एक आंकड़ा. जैसे गरीबी एक ‘स्टेटऑफ माइंड’ है उसी तरह बूढ़ा होना भी एक स्टेट ऑफ माइंड है. आप उस स्टेट ऑफ माइंड से बाहर निकलिये. फिर देखिये. एक बार निकल कर तो आईये. आप आये दिन अखबारों में डर्टी ओल्ड मैंनों के किस्से सुनते-पढ़ते रहते हैं. ज्यादा कहना उचित नहीं. 


सरकारी दफ्तरों में काम होता कब है. आपने केस उलझाना ही तो है. आपके मुंह में कुछ जुमले फिट होने चाहिये जैसे इम्प्लांट करवा लिये हों जैसे कि  ‘नहीं हो सकता’ ‘कल आईये’ ‘परसों आईये’ ‘ट्रिपलीकेट में लाईये’ ‘ आज बाबू छुट्टी पर है’ 'आज डीलिंग बबुआइन चाइल्ड केयर पर हैं'. उनका लड़का 17 का हो गया है 18 का होते ही चाइल्ड केयर मिलती नहीं सो अभी से सेंत ली है. दफ्तर में 100 बरस तक काम करने के लिये मुंह में दांत, सर पर बाल और पेट में आंत चाहिये ये कहां लिखा है ?. भारतीय नौकरशाही एक बहुत बड़ा सफेद हाथी है. इसे ये वरदान प्राप्त है कि ये दिन दूनी रात आठ गुनी रफ्तार से आकार में बढ़ रहा है. दफ्तरों में जा कर देखें लोग बारी बारी से बैठते हैं. जब तक एक बैठता है दूसरा लॉन में ताश खेलता है. या फिर चाय पी पी कर पॉलिटिक्स पर चर्चा करता है.बेचारे और करें भी क्या ?

इस स्टेज और एज तक आते आते वो अपने घरवालों के लिये एक विलासिता की वस्तु बन जाते हैं जिसे घरवाले एफोर्ड नहीं करना चाहते हैं. पुराने मॉडल की कार के माफिक जो शोर बहुत करती है और खाली पीली दर रोज़ मेंटिनेंस भी भारी मांगती है. बाबू लोगों के साथ आजकल कुछ मर्ज़ तो रविवार शनिवार के सफिक्स की तरह जुड़ गये हैं जैसे बी.पी., हार्ट, किडनी, कैटरेक्ट कहां तक गिनाऊं. कभी कभी लगता है ऑफिस की केंटीन के साथ ही अस्पताल की सुविधा होनी चाहिये जहां गठिया बाय के तेल मालिश से लेकर ऑक्सीजन सिलेंडर तक का पूरा पूरा इंतज़ाम हो. लोग बाग खास कर बड़े अधिकारी जो लाल बत्ती वाली कारों में ऑफिस आने जाने के आदी हैं मैंने उनके लिये भी उपाय सोच लिया है अब वो लाल बत्ती वाली गाड़ी की जगह लाल बत्ती वाली एम्बूलेंस से ऑफिस आया करेंगे. इस से उनका रुतबा भी बना रहेगा और स्पेशल मेडिकल अटेंशन भी मिलती रहेगी.

आजकल दफ्तरों में सैक्सुअल हरेसमेंट के केसों को देखते हुए मैं सोच रहा था कि रिटायरमेंट की उम्र 100 बरस होने से किस तरह के केस आया करेंगे. मसलन एक 88 साल के दादा जी पर 86 साला दादीनुमा भद्र महिला आरोप लगायेगी कि ये बुड्डा मुझे देख कर सीटी बजाता है और खांसता है. दादा जी सफाई में अपने एक छोड़ के एक टूटे हुए दांतों की श्रंखला दिखायेंगे कि कैसे बत्तीसी जो अब महज़ सत्ती रह गयी है इसलिये इनमें से हवा अपने आप निकल जाती है और लोग सोचते हैं वे सीटी बजा रहे थे. वे अपनी पुरानी खांसी के पुराने नुस्खे दिखायेंगे “जी मैं तो 65 साल की उम्र से खांस रहा हूं इसका तभी से इलाज भी चल रहा है. डॉक्टर के सार्टिफिकेट देख लो”. और इस तरह दादा जी बाल-बाल बाइज़्ज़त बरी हो पायेंगे .

आप लोगों ने इलेक्शन के समय मतदान के दिन एक फोटो ज़रूर देखा होगा जिसमें किसी एक बेहद बूढ़े व्यक्ति को पीठ पर लाद कर वोट डालने को लाया जाता है. बस ऐसा ही कुछ नज़ारा रोज़ सुबह शाम हर दफ्तर हर मंत्रालय के बाहर रहा करेगा. घर से दफ्तर, दफ्तर से घर. घरवाले भी चुपचाप सहेंगे ये सोच कर कि कमाऊ बुढऊ है. इससे वृद्धों के प्रति समाज का रवैया बदलेगा. ओल्ड एज होम नहीं बनेंगे. वे सम्मान के साथ अपने अपने सन्युक्त परिवार में रह सकेंगे. इस से उनके हार्ड कौर और यो यो हनी सिंह को अपना फॉस्टर पेरेंट्स समझने वाले नाती पोतों को अपने दादा-दादी की गाइडेंस सतत मिलती रहेगी जिससे नई पीढ़ी में संस्कारों का उदय होगा.

बड़े बूढ़ों को घर पर अक्सर पसंद नहीं किया जाता अत: मुंह अंधेरे ही वे ऑफिस आ जाया करेंगे. रात को नींद तो उन्हें वैसे भी नहीं आती. तो सोचो मुमक़िन है बहुत से बूढ़े तो घर ही न जायें. ये सोच कर कि कौन ये रोज रोज आने जाने की किल्लत मोल ले अत: वो ऑफिस की बेंच पर ही अपने अपने आशियां बना लेंगे. जैसे मुम्बई के टैक्सी वाले. वे टैक्सी में ही रहते, सोते-खाते हैं. सोचो इस से मैन पॉवर सदैव उपलब्ध रहेगी. और उत्पादकता का ग्राफ कहां से कहां पहुच जायेगा. बूढ़ों को आप फिज़ूल न समझें न उनको ये कह कर चिढ़ायें कि वे चले हुए कारतूस हैं. सोच समझ कर बोलना बच्चू अब वो दिन दूर नहीं जब आप क्या आपके पिताजी भी दादा जी से जेब खर्च लेने लाइन में खड़े होंगे.

Saturday, February 15, 2014



AAP  यहां आये ! किस लिये ?

Thursday, February 13, 2014

व्यंग्य खुला पत्र मंत्री, राजस्थान के नाम (टीचरों के भरोसे न रहें )



 श्री युत मंत्री जी 
राजस्थान सरकार                                     

खबर है कि आप टहलते टहलते एक स्कूल में जा घुसे और 12 वीं के बच्चों की क्लास लेने लगे . राजस्थान में कितने ज़िले हैं ? यह आपका पहला सवाल था. सबने अपने अपने कयास, अंदाज़, गैस और तुक्के लगाये मगर कोई सही जवाब न दे पाया. मजेदार बात यह है कि उनके टीचर महोदय भी सही जवाब न दे पाये. दूसरा रैपिड फायर प्रश्न था राजस्थान में आने वाले ज़िलों के नाम बताओ ? भावी नागरिक दिल्ली और अमृतसर भी घसीट कर राजस्थान में ले गए. तब आपने यह ऐलान कर दिया कि बच्चे  टीचरों के भरोसे न रहें और खुद पढ़ें.



एक बात बताइये मंत्री महोदय आप जल मंत्री हैं न कि एजूकेशन मिनिस्टर. आपको क्या पड़ी स्कूल में घुसपैठ करने की. अपने काम से काम रखिए. कुआँ, नहर, नदी, नाले देखिये. स्कूल में कहाँ घुस गए. स्कूल आपका सबजेक्ट नहीं. ये आपके सिलेबस में ही नहीं है. अगर एजूकेशन मिनिस्टर तालाब-तलैया में घुस कर नुक्स निकालने लगें तो आपको कैसा लगेगा. आप जल मंत्री हैं तो जल-मल की बातें करिये. अब कोई नाव खेने वाले से प्रश्न पूछने लग जाये नदी में कितने क्यूसेक पानी है ? कितने क्यूसेक पानी रोज़ छोड़ा जा रहा है ? कितने पानी का गरमी में और कितने पानी का सर्दी में वाष्पीकरण होता है ? तब वो क्या जवाब देगा ? मुझे भी बताना. कोई नहर वाले भैया से पूछने लग पड़े इस पानी में साल्ट और बाकी मिनरल का रेशो-प्रेपोशन क्या है ? इसकी बायोन्सी कितनी है ? वो आपको ऐसे देखेगा जैसे आप किसी और ग्रह से यहाँ रास्ता भूल कर आए हैं. बहुत मुमकिन है वो आपके मुँह पर हँस भी  पड़े.



मेरा मानना है कि राजस्थान में कितने ज़िले हैं यह सवाल ही आपने गलत पूछा है. ये क्या नंबर गेम आपने लगा रखा है. रोज़ रोज़ तो आप नए नए ज़िले बनाते बिगाड़ते रहते हैं. उनके नाम अदला-बदली का खेल खेलते रहते हैं. बच्चे बेचारे क्या क्या याद रखें. बच्चों की मुसीबत, आपका शगल मेला ठहरा. अब आपसे कोई पूछ ले भारत में कितने राज्य और कितने केंद्र शाषित प्रदेश हैं ? आप भी बगलें झाँकने लगेंगे.



बच्चों ने अगर कह भी दिया कि अमृतसर और दिल्ली राजस्थान में हैं तो इस में  इतना बुरा मानने की क्या बात हो गयी. ये भारतीय बच्चों की नई पीढ़ी की सोच को दिखाता है. इस ग्लोबलाइजेशन के टाइम में ये मेरा-तेरा क्या लगा रखी है. आपने सुना नहीं वसुधैव कुटुंबकम अमृतसरी हों या देहलवी सब उसी एक रब दे बंदे हैं. ये तो आप ही अपनी इस संकुचित प्रादेशिक सोच के बल बूते अपनी राजनीति चमका रहे हो. बच्चे नहीं. इसकी भी अगर तह में जाओगे तो आप जैसे कोई न कोई महान नेता का ही हाथ निकलेगा जिसकी सिफारिश पर उस टीचर और प्रिंसिपल का सलेकशन और पोस्टिंग हुई होगी. फिर किसे पकड़ोगे आप.



बहरहाल मैं आपकी एक बात से सोलह आने सहमत हूँ आपने जो कहा न कि टीचर के भरोसे न रहें खुद पढ़ें. यही मूल मंत्र है. यह विकास का, उन्नति का बीज मंत्र है. इस से उनमें जिज्ञासा बढ़ेगी. स्वावलंबन की भावना का विकास होगा. साथ ही ट्यूशन और कोचिंग के कुटीर उद्योग की प्रगति होगी. टीचरों को इन कोचिंग सेंटर में पार्ट टाइम काम मिलेगा. इस से उन्हे बच्चों और उनके माँ- बाप से अगली क्लास में चढ़ाने के लिए चढ़ावा नहीं लेना पड़ेगा. जिस से टीचर में आत्म सम्मान की भावना का विकास होगा.  



मैं चाहता हूँ यह मूल मंत्र आप बस्ती बस्ती शहर शहर जगाएँ ( मुझे तो बेरा कोई नी कितनेक गाँव और गाँव जैसे शहर हैं राजस्थान में ) हर महकमे को इस प्रेरणा वाक्य की दरकार है. मसलन आप मरीजों से कह सकते हैं कि आप डॉक्टर के भरोसे न रहें खुद इलाज़ करें. समझो किसी के घर चोरी डकैती हो गई. वो बिसूरते बिसूरते थाने जाय ( ज़िंदगी में पहली और अंतिम बार) वहाँ उसे यह स्लोगन लिखा मिले चोर डकैतों से अपनी रक्षा स्वयं करें, पुलिस के भरोसे न रहें ऐसे ही रेल-बस वाले कहने लगें 'जयपुर से बीकानेर अपनी यात्रा का इंतज़ाम खुद करें'. हमारे भरोसे मत रहिए. फिर देखिये ऊँट गाड़ी वाले और बैल गाड़ी  वाले कैसे आपका जयकारा लगाते हैं. आपने जाने अनजाने ही कितना बड़ा तरक्की का सूत्र इन बच्चों को दे दिया है. जीवन में किसी के भरोसे न रहो. अप्पो दीपो भव. अपने दीपक स्वयं बनो. स्वावलम्बी होना आत्म सम्मान का प्रथम सोपान है. इसी से आप सुखी और समृद्ध बनोगे और खूब धन-धान्य की बारिश होगी. वो दिन दूर नहीं जब भारत फिर से सोने की चिड़िया कहलाएगा. मुझे खुशी है कि इसकी शुरूआत राजस्थान से होगी जहाँ किसान बरस भर बारिश के भरोसे रहता है.

Saturday, February 8, 2014

WHERE YOU LEAST EXPECTED IT



Long long ago, on a certain day, suddenly I realized I have lost my spectacle case. Though it had my favorite pen and my visiting card inside, I had very dim hope that anyone who finds it would be a good Samaritan to inform/return. I rewound the day’s events /movements to pin point the likely location of the loss. Beside few cab rides the major outing was the assignment to procure beer for a friend’s party. I must have left the case carelessly either in one of the cabs or at the beer shop. I was feeling annoyed with myself for being so very casual. 


There is this beer shop, the only wine shop in the basement/sub-way of Churchgate, leading to suburban Railway Station. Few weeks later, while passing by that shop I could not resist going to the counter. I asked the man behind the counter “ last week I had left my spectacle case in your shop”, to make myself sound the rightful owner, I hurriedly added to convince him “ it had my pen also inside”.


The guy did not care to even look at me but coolly said “yes we have it” He just handed over the case to me from the shelf and shared “yahan se kahan jaayega” (where will it go from here). I was feeling particularly satisfied for I had lost hope of finding it and almost forgotten about it.  


It seems in the huff of inquiring about different brands and in a hurry to get the booty carefully packed I left my spectacle case at the counter. And yes I liked his parting Tequila shot “andar dekh lo sab barobar  hai na”

Friday, February 7, 2014

व्यंग्य : खुला पत्र ज़मीन हड़पने वाले बंधुओं के नाम



                                          

ज़ हो ! नहीं यह जय हो फिल्म से प्रेरित नहीं बल्कि मेरे नए आंदोलन का नाम है. आजकल आम आदमी का ज़माना है सो मैंने, एक आम आदमी ने भी एक आम सा आंदोलन आपके समर्थन में चलाने की सोची है. इस ज़ हो का अर्थ है ज़मीन हड़पो. टू बिगिन विद, हमें सारी ज़मीन जो भी स्कूल और पार्क के नाम से है, हड़पनी है. हम शुक्रगुजार हैं आप जैसे आदर्श बिल्डर्स, नेताओं और पत्रकार से नेता बने प्राणियों के. जब तक मैं खुलासा नहीं करूँगा आपको खबर नहीं लगेगी कि आप लोग सचमुच मानवता की कितनी सेवा कर रहे हैं. देखिये स्कूल जाकर आजकल के बच्चे क्या सीख रहे हैं ? कुछ भी तो नहीं. और जो सीख भी रहे हैं वो उनके, आपके,समाज के या देश के किस काम का ?



अकबर इलाहाबादी बहुत पहले कह गए थे :  


हम उन किताबों को काबिले जब्ती समझते हैं

जिन्हें पढ़ कर बच्चे बाप को खब्ती समझते हैं



हमारे देश में पढ़ाई को लेकर ये सोच बहुत प्राचीन है:



ढाई आखर प्रेम का पढ़े से पंडित होय



तो देखिये आजकल के स्कूल. स्कूल क्या हैं ? स्कूल कम हैं. फ़ैक्टरी ज्यादा हैं और वहाँ से जो उत्पाद निकल रहा है आप जानते ही हो. स्कूल भी तो अड्डे बन गए हैं. मिड-डे मील का पैसा हड़पने के अड्डे. मासूमों की मौत के केंद्र. फंड और गबन के केंद्र. डोनेशन लेने और मैनेजमेंट सीट के बिक्री केंद्र. आप इन भ्रष्टाचार के अड्डों को नेस्तोनाबूद करने में हमारी मदद करें. यहाँ गगनचुंबी टावर बनायें. जिसके लिए लेबर लगेगी. अब सब टाई लगा कर पढ़ लिख जाएँगे तो हम लेबर कहाँ से लाएँगे. आजकल कन्स्ट्रकशन इंडस्ट्री की बदौलत हम बेहिसाब लेबर एक्सपोर्ट कर रहे हैं. इसमें मेसन और कार्पेंटर भी शामिल हैं. तो जो देश आजतक एक्सपोर्टर का मोस्ट फेवर्ड दर्ज़ा पाये हुए है आप चाहते हैं कि यह प्रोग्रेस की गाड़ी रिवर्स में चली जाये. और हम एक्सपोर्टर से इंपोर्टर बन जाएँ. नहीं कदापि नहीं. हिन्दुस्तान में इतने बुद्धिमान बुद्धिजीवी अफसरों और विजनरी नेताओं के चलते यह कदापि नहीं होगा. फर्ज़ करो ये पढ़-लिख भी जाते हैं तो ही क्या कर लेना है. किसी कॉल सेंटर में टाई लगा के कुलीगिरी ही करनी है. साइबर कुली या फिर लुक्कागिरी. नौकरियां हैं कहाँ ? और नौकरियां नहीं तो क्या करेंगे ? अपराध करेंगे ! अतः आप देश को अपराध से मुक्त करने में अपना जी जान एक किये हुए हैं. इसके लिए आप सबका एक अलग से सार्वजनिक अभिनन्दन करने की योजना है. 



ये पार्क शहर की सुरक्षा, समाज की सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं. रात-बिरात अपराध, दिन में चरस-गांजा, असामाजिक तत्व ही इसका प्रयोग करते पाये गए हैं.  शाम ढलते ढलते जरूर कभी कभार वृद्ध लोग और सास बहू सीरियल की सासें मजमा जमा लेती हैं. सब भूत काल की भूत जैसी बातें करते हैं. सुबह सुबह बिला वजह नेपथ्य में भूतों की तरह हास्य योग के नाम पर हँसते हैं. ये सब क्या चल रेला है. कोई काम धाम है या नहीं. भला हो आपका आपने ये पार्क घेर लिए.



अब मेरे शहर के पार्कों को ही ले लो ! किस पार्क की हालत अच्छी है ? न घास है, न बाउंड्री है. ऊसर रेगिस्तान के माफिक पड़े हैं. कहीं झाड़ी पेड़ हैं भी तो उन पेड़ों के इर्द गिर्द और झाड़ी के पीछे अलग कहानी है. असली पुलिस वाले और नकली पुलिस वाले दोनों मिल कर प्रेमालाप कर रहे प्रेमीजनों से प्रेमपूर्वक प्रलाप कर उनके पर्स से जबरन पैसे ले लेते हैं. इस जबरन वसूली का नाम है प्रेम कर तू तो प्रेम किए जा. प्रेम कर. मगर हमें भी तो प्रेम कर दे नहीं तो हमें तो वसूलना ही पड़ेगा. हमारी ड्यूटी है कर वसूलना और समाज से अश्लीलता को भगाना. मुझे आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि आपने, कल्पनाशील नेताओं और अफसरों ने मिल कर राजस्व कमाने की कोई न कोई नायाब स्कीम ले आनी है. 



सो व्हाट कि पैसा चंद हाथों में रहेगा. अरे हाथ न देख, हाथ के पीछे कौन है वो देख. वो तेरे ही किसी भाई का, किसी राजा हिन्दुस्तानी का हाथ है. यहाँ राजा से अभिप्राय ए. राजा से नहीं है और न ही हाथ से अभिप्राय किसी राजनैतिक पार्टी से है. हमें देश का विकास करना है. पोलिटिक्स नहीं करनी है. हम गैर राजनैतिक लोग हैं. अर्थात राजनैतिक पार्टी कोई हो, देश के विकास का हमारा काम जारी रहता है. 




हे महत्वाकांक्षी बिल्डर बंधुओ ! हे सृजनहार अफसरो ! हे युगदृष्टा नेताओ ! आओ और मेरे शहर के तमाम स्कूलों और पार्कों के प्लॉट का अधिग्रहण कर लो. यू हैव नथिंग टू लूज बट योर शर्म. नैक्स्ट आपको भारत के हर भू भाग पर ऐसे तमाम स्कूलों के प्लाटों की जगह गगनचुंबी इमारतें बनानी हैं और पार्कों को नो पार्किंग करना है. ये आपके कंधों पर बहुत बड़ी राष्ट्रीय हिस्सेदारी भी है और जिम्मेवारी भी है.



तमसो मा ज्योतिर्गमय !


Thursday, February 6, 2014

AA MERE THELE PE BAITH JA



Other day at Bombay central railway station when Rajdhani Express train arrived from Delhi (Rajdhani Express train by far is the most prestigious train in the fleet of Indian Railways) a lady alighted from air conditioned coach and engaged a coolie. She inquired whether she could get a wheel chair for her co-passenger, an aged and infirm man.Coolie unruffled and cool as cucumber indicating towards his push-cart (hath-thela) suggested “sit on this itself” They were perplexed, to say the least. Man preferred to drag himself by and by towards the Exit with the help of a walking stick, he was carrying.



High time we introduced a HELP LINE so that a passenger requiring ambulance/stretcher or wheel chair could book/request for one at a fix rate. Passenger does not mind paying, he does mind the way he is treated. As in this case coolie just made him feel that he was no better than a luggage piece.



P.S. 
Railway does have wheel chair and stretcher at railway stations but less said better it is.


Support GAP (Grab a Plot) movement.




We should be grateful to builders and politicians who are grabbing land meant for schools and parks. Of what use are these schools, just aggravating the unemployment in our poor country. Of what use are these parks just encouraging crimes. Vacant plot only breeds slums.