Ravi ki duniya

Ravi ki duniya

Wednesday, November 23, 2011

व्यंग्य : मेरे अंगने में ....

अमरनाथ उर्फ आशा देवी की अमर बनने की आशाओं पर उस वक़्त तुषारापात हो गया जब अदालत ने उन्हें मर्द घोषित कर दिया और उनसे महापौर का पद छीन लिया जो उन्होनें हिजड़ा बन कर हासिल किया था. पॉलिटिक्स में पुरुषत्व का महत्व है और पुरुषों का अधिपत्य है. यह नामर्दों का काम नहीं. खासकर उन मर्दों का तो बिल्कुल ही नहीं जो पॉलिटिक्स के लिये नामर्द तक कहलाने को तैयार हों, ये माना लोग देश सेवा के लिये बडे‌ से बड़ा त्याग करने को तत्पर रहते हैं. मगर 1857 से लेकर आज तक ऐसा कोई उदाहरण देखने में नहीं आया जबकि किसी ने अपनी मर्दानगी ही त्याग दी हो.
वैसे देखने में यह आया है कि अक्सर अच्छे खासे मर्द पॉलिटिक्स में जाने के बाद नामर्द बन जाते हैं. मगर वो अलग किस्सा है. कभी टिकट के लिये रोना, कभी पार्टी फंड के लिये रोन, कभी पार्टी प्रेसिडेंट के आगे घुटने टेकन, कभी सी.बी.आई. के आगे रोना, गिड़गिडाना. अच्छे भले घर से मर्द निकले थे बेचारे नपुंसक बन के रह जाते हैं.
यह अदालत का ऐथासिक फैसला है. कारण कि हिज़डे‌ खुश थे चलो अब उनकी भी भारत की राजनीति और सत्ता के गलियारों में सुनवाई हुई. अब ‘जैनुइन’ नपुंसक भी चुने जायेंगे. मगर देखते हैं कि इस क्षेत्र में भी घुसपैठ हो गई और मिलावट आ गई. समाज का कोई हलका बचा नहीं है जिसमें मिलावट न हो गई हो. अब आप ही बताइये ऐसे में हिजड़े कहां जायें. बच्चों के पैदा होने पर आपने पह्ले ही बंदिशें लगा दी हैं. हिजड़े बेचारे कभी राज़ा महाराज़ाओं के हरम के पहरेदार थे अब ट्रैफिक सिगनलों पर भीख मांगते फिरते हैं. मगर उसमें भी सुनते हैं बेरोज़गार लड़के हिजड़े बन उनके बीच आ घुसते हैं.
लव के लिये कुछ भी करेगा. वैसे ही पॉवर के लिये कुछ भी करेगा. आप बोलेगा हिजड़ा ? हम बोलेगा “ जी हज़ूर” आप पूछेंगे नपुंसक ? हमारा उत्तर “ बिलकुल ज़नाब ! हम तो खानदानी नपुंसक हैं, हमारा बाप भी नपुंसक था”
जब मध्य प्रदेश में पहला हिजड़ा एम.एल.ए बना था तो एक सुरसुरी सी छा गई थी देश के राजनैतिक क्षितिज़ पर. कमला सभी विरोधियों की मर्दानगी को रौंदती हुई जीती थी. पार्टी बॉसस के मुंह खुले के खुले रह गये. ये क्या हुआ ? अब हम क्या करेंगे ? मर्द लोग नामर्दों से हार गये. जनता ने अपना फैसला सुना दिया था. एक किन्नर ने बाकी सबको किनारे लगा दिया था.


अब न्यायालय ने आशा देवी को मर्द बता कर उसकी नामर्दी पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. नामर्द बनना कोई हंसी ठठ्ठा नही है. ये हर एक के बस की बात नहीं. ये इश्क़ नहीं आसां. आशा देवी अब अपील में जायेंगे या जायेंगी और अपने आप को ‘नामर्द’ घोषित कराने के भरसक प्रयास करेंगी या करेंगे. ठाकुर यह नामर्दी मुझे दे दे ...दे दे .. आखिर महापौरी का सवाल है. नही तो फिर और क्या रह जायेगा. वही ताली पीट पीट कर जचगी में नाचना गाना.

एक बार फिर नेताओं ने साबित कर दिया कि नामर्दों की उनकी दुनियां में मर्दों का कोई काम नहीं. वे नकली नामर्दों को ढूंढ ही निकालेंगे और फिर उनसे पूछेंगे “ मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है..?”






Tuesday, November 22, 2011

व्यंग्य: गोरों का बोझ

अमेरिका के जनाब रम्सफील्ड ने कहा है कि हम ईराक में जितना जरूरी है उससे एक दिन भी ज्यादा नहीं ठहरेंगे. वाह ! वाह ! क्या स्टेट्मेंट है. क्या ईमानदारी है. साफगोई तो कोई इनसे सीखे. तभी तो इन्होने इतने सारे खुशबू वाले साबुन चला दिये हैं ताकि आप सब भी साफ सफाई रखें. वे इतने सफाई पसंद हैं कि जिस बाज़ार में आप घुसे उसकी सफाई ही कर दी. कपड़ों के बाज़ार में घुसे तो तन से कपड़े साफ. नवयौवनायें अपने अंग प्रत्यंग साफ साफ दिखाने लगीं. उन्होने कह दिया है कि अगर कपड़े पहनने ज़रूरी ही हों तो हमारे अम्रीकी ब्रांड के पहनो. क्या पैंट-कमीज़ क्या कच्छे-बनियान. तुम्हारा दर्ज़ी और उसके बाल-बच्चे गये तेल लेने. कौन झिकझिक करे. नाप देने जाओ फिटिंग दो, ट्रायल दो, डिलीवरी के लिये चक्कर लगाते फिरो. हमारे शो रूम में घुसो और काऊ बॉय बनके बाहर निकलो. आप अपने आप को कितने ही फन्ने खां समझते रहो उनकी नज़र में आप बस तीन साइज़ों में मिलते हो—रेगुलर, लार्ज, एक्स्ट्रा लार्ज. चौथी कोई कैटेगरी ही नहीं. नॉट बैड.
श्री रम्सफील्ड जी वो ही रट लगाये हैं जो सौ बरस पहले तक अंग्रेज भारतीयों के लिये कहते आये थे. इन नालायक भारतीयों को इंसान बनाना हमारी ड्यूटी है. ये वाइट्मैंस बर्डन हैं. जैसे ही ये सभ्य और ठीक हो जायेंगे हम हिंदुस्तान छोड देंगे. देख लो छोड दिया. जैसे ही उन्हें लगा कि अब आम हिंदुस्तानी अंग्रेजी जानना- बोलना चाहता है व अंग्रेजी पढने के लिये भारी रकम और डोनेशन देने को तैयार है. यहां तक कि अपनी भाषा, संस्कार व साहित्य को हेय नज़र से देखने लगा है तो उनकी ड्यूटी पूरी हो गयी. बाद में सर ना उठा सकें इसलिये वो जाते जाते देश का बंटवारा भी कर गये कि बेटा अब उलझते रहो इसी में.
हिज एक्सीलेंसी रम्स्फील्ड ने वही कहा है जो उनके दादा परदादा विश्व में अपनी दादागिरी चलाने को कहते आये हैं. बेचारा अमरीका ..उस पर कितना बोझा है. कभी वियतनाम, कभी ईराक़. आराम नही है. पूरी दुनियां की जिम्मेदारी उसके ऊपर है. सब के ठीक करना है. सब को सभ्य बनाना है ताकि सभी पिज़ा, हाट डॉग और पेप्सी का सेवन करते रहें. निसंदेह अमरीकी अपने वायदे के मुताबिक ईराक़ छोड़ देंगे.बस जरा ये तेल के कुंओं और ठेकों की बंदरबांट हो जाये. आखिर ईराक़ का पुनर्निर्माण उन्ही का तो सिर दर्द है. तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना. मैं चला जाऊंगा ...दो अश्क़ बहा लूं तो चलूं ...सड़कें चिकनी हो जायें जिन पर आयतित कारें दौड़ सकें. शॉपिंग मॉल. कम्प्लेक्स, ओल्ड एज होम, अनाथालय, स्टेट ऑफ आर्ट तकनीक के अस्पताल बन जायें. केंटकी चिकन और पिज़ा होम बन जायें. डिस्को और मायकल जैक्सन चल जायें. जिस दिन आम ईराक़ी अपनी भाषा, साहित्य और संस्कारों और कुछ भी ईराक़ी से हेट करने लग जायेगा वो चले जायेंगे. वे इंतज़ार में हैं कि कब आदाबअर्ज़ की जगह आम अमरीकी हाय कहने लग जाये. खुदा हाफिज़ की जगह ‘कैच यू लेटर’ कहने लगे. बस ! लो कट टॉप और जींस जरा चल निकलें. रीबॉक और नाइक (या कि नाइकी) लोग बाग अपना लें.अरबी, फारसी बोलने वालों को ज़ाहिल तथा अंग्रेजी बोलने वालों को ज़हीन समझा जानेलगे.फिर उनकी ज़रूरत ही नहीं रहेगी. वो कह ही रहे हैं कि जितना ज़रूरी होगा उससे एक दिन भी बेसी वो ईराक़ में नहीं रहेंगे. वो वायदे के पक्के हैं. देखिये डेढ- सौ साल बाद जैसे ही काले अंग्रेज फील्ड में आये गोरे अंग्रेजों ने जहाज पकड लिया था कि नहीं. तब ? जैसे ही ईराक़ वाले अब्बा को डैड और अम्मी को मॉम कहने लगेंगे, अंकल सैम किसी और देश को आज़ाद और सभ्य बनाने को निकल पड़ेंगे. यू नो, बेचारे गोरों पर सचमुच ही बहुत बोझ है. डोंट यू थिंक सो ?






Monday, November 21, 2011

व्यंग्य: भैंस तेरी यही कहानी

रंग भेद की नीति पहले अफ्रीका में जोर शोर से थी. आज यह नीति अफ्रीका में मृत प्राय: है. हमारे देश में भी सदियों से रंगभेद जारी है. हम मानते नहीं हैं मगर प्रैक्टिस करते हैं क्यों कि हम विश्व में हिपोक्रेट नम्बर वन हैं. अन्यथा आप ही बताईये जहाँ चूहों का मंदिर हो, सांप की पूजा होती हो, बिल्ली मौसी हो, बंदर मामा हो, गाय माता हो और मोर से छेड़छाड़ राष्ट्रीय अपराध हो वहां भैंस को ना कोई पदवी-उपाधि ना कोई मंदिर चौबारा. क्या सिर्फ इसलिये कि वह काली है. वह कब से आपकी इस रंगभेद नीति का शिकार है मगर फिर भी चुपचाप आपको दूध दिये चली आ रही है. आप उसे इंजेक्शन लगा लगा कर उसके दूध की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेते हैं. उसे गंदगी में रखते हैं. रूखा-सूखा खाने को देते हैं और नहीं तो वह पॉलीथिन बैग ही खाती फिरती है.
किसी समाज की भाषा व साहित्य उस समाज का दर्पण होता है. हिंदी भाषा तथा लोक साहित्य में जो मुहावरे व लोकोक्तियां हैं वह भी भैंस के साथ पक्षपात करती हैं. न्याय नहीं करतीं.

जिसकी लाठी उसकी भैंस : अरे भई अब लठियों का ज़माना नही रहा. किस सदी में जी रहे हैं आप. अब तो टाइम है मानव बम का, ए.के. 47 का. लाठी तो अब केवल कुत्ते-बिल्ली को डराने-धमकाने के काम आती है. यह कहावत भैंस के साथ अन्याय है और उसे ‘पूअर लाइट’ में रखता है. नवीन मुहावरा होना चाहिये ‘जिसकी ए.के.47 उसका इंडिया 1947’ आप अपने दिल पे हाथ रख कर बताइये क्या यह अधिक प्रासंगिक नहीं .

भैंस के आगे बीन बजाना : दूसरा मुहावरा है, यह भैंस का सरासर अपमान है. षड्यंत्र यह है कि कैसे भैंस को अन्य तथाकथित अभिजात्य पशु-पक्षियों से नीचे दिखाया जाये. आप साबित क्या करना चाहते हैं कि भैंस संगीत प्रेमी नही है. ललित कलाओं का उसे कोई ज्ञान नहीं है. वह फूहड़ है. बच्चू याद कीजिये उसी का दूध पी-पी कर आप इतने बढे हुए हैं.

यह रीति पुरानी है जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो. आज भी नव माताएं भैंस का ही सहारा लेती हैं ताकि उनकी ‘फिगर’ बनी रहे. भैंस का क्या ? वह तो ‘डिस फिगर है ही और यदि भैंस के आगे बीन बजा बजा कर आपको वाह-वाही नहीं मिली तो जाईये किसी और के आगे बजाईये और लिख दीजिये उसका नाम आखिर भैंस ने आपसे कहा नही कि “ हे बीनवादक ! अपनी बीन सुनाओ” वैसे भी आज आपकी बीन सुनता ही कौन है. रेडियो, टी.वी वाले भी रात को साढे‌ ग्यारह बजे से पहले का टाइम नहीं देते ताकि तब तक सब सो जायें.

काला अक्षर भैंस बराबर : भई ये तो हद ही हो गयी यानी कि भैंस अनपढ‌ है. पहले तो आप उसे पढ़ने लिखने ना भेजें , उसे बाहर किसी से मेल-जोड‌ बढाने ना दें जो कि उसका ज्ञान-ध्यान बढे. फिर आप उसे जाहिल गंवार कहें. वैसे भी आप बताईये और किस जानवर ने कितने डिग्री डिप्लोमा पास कर लिये जो बेचारी भैंस के पीछे पड़े हैं. आप भूल रहे हैं कि भैंस तो भैंस भारत में मनुष्यों का कितना प्रतिशत साक्षर है. फिर भैंस के साथ ही यह बे-इंसाफी क्यों ? है कोई जवाब आपके पास. एक तो आपको दूध दे, ऊपर से आपके टौंट भी सुने. भैंस दूध देना बंद कर दे तो बच्चू सब सिट्टीपिट्टी गुम हो जायेगी. बताईये फिर आप किस बी.ए. पास जानवर का दूध पीना चाहेंगे ? शेरनी का ? जो आपको बाल्टी समेत खा जायेगी.

हो ना हो ये कोई ‘हाई लेवल’ का ‘प्लाट’ है अन्यथा आप ही सोचिये कि भैंसा जो कि यमराज की सवारी है वह चाहता तो किस की मजाल है जो भैंस को टेढी आंख से भी देखे. किसी दिन जब यमराज मूड में होते धीरे से कह देता कि “सर वाइफ को थोडा प्राब्लम है” मगर नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ. पता नहीं यह क्या चक्कर है. जिसका हसबैंड इतनी ‘एप्रोच’ वाला हो उसकी मिसेज को ये दिन देखने पडें. कभी मुझे लगता है यह कहीं डाइवोर्स या सैपरेशन का मामला ना हो. भैंस भी स्वाभिमानी है उसने ‘मेंटीनेंस’ लेने से इंकार कर दिया हो “ जा हरज़ाई मैंने तुझे हमेशा हमेशा के लिये भुला दिया”

भैंस को इतना ‘नेगलेक्ट’ कर रखा है कि कोई चुनाव चिन्ह के तौर पर भी भैंस चुनाव चिन्ह नहीं रखता. क्यों ? गाय, बैल, बछडा, हाथी, घोडा यहां तक कि गधा भी चुनाव चिन्ह है. तो महाराज आप ‘कनविंस’ हुए कि नहीं कि भैंस के साथ सदियों से दुर्व्यवहार हो रहा है. समाज में उसे उचित स्थान दिलाने के लिये उठ खड़े होइये.



"हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में


इन्साफ हमारा नारा है"



अब वक़्त आ गया है कि भैंस को उसका ड्यू दिलाया जाये. सर्वप्रथम तो उसे भाभी, चाची, ताई, दीदी या जो भी अन्य आदर सूचक रिश्ता उससे नवाजा जाये. मेरी गुहार है ‘एनीमल सोसायटी’ वालों से कि इस ज्वलंत विषय पर तुरंत ध्यान दिया जाये. यह काम इलैक्शन से पहले ही निपटा लिया जाये नहीं तो इलैक्शन कोड के चलते आप बंध जायेंगे. मैं नहीं चाहता कि इस सेंसिटिव विषय को और विवादास्पद बनाया जाये. पहले ही क्या विवादों की कमी है. क्यों कि बात नहीं बनी तो फिर आप लोग ही कहेंगे कि गई भैंस पानी में.














Sunday, November 20, 2011

व्यंग्य: कस्बे के नेता की बरसी

हमारे कस्बे के नेता पिछले बरस किसी रहस्यमय बीमारी से चल बसे थे. कुछ लोग बताते हैं कि वे मुम्बई गये थे वहां बलबीर पाशा के विज्ञापन से वे बहुत प्रभावित हुए. खोजी तबियत के थे अत: विज्ञापन की तह में चले गये और पूरी जानकारी फर्स्ट हेंड ले कर ही लौटे थे. आते ही खाट पकड़ ली. खाट ऐसी पकडी‌ कि छोडी तो दुनियां ही छोड़ दी. कस्बे का और नेता का नाम बदनाम ना हो अत: बात दबा गयी. आज इन्हीं का जलसा है. पहले इनके प्रतिद्वंदी रहे एक नेता बोलने उठे. वे सूखाग्रस्त क्षेत्र की गाय से मरियल थे मगर वाणी में ओज़ था. वो चीखे “ बहुत ही काबिल इंसान थे राम खिलावन मेरे तो उनसे सन सैंतालीस से मधुर सम्बंध थे” किसी ने पीछे से कहा आप तो यूथ कांग्रेस के जलसे में पिछले माह अपनी आयु उनतीस बरस बता रहे थे, फिर सन सैंतालीस से मधुर सम्बंध कैसे हो गये. उन्होने तुरंत बात सम्भाली ये दिल की बातें हैं हमें वो बहुत मानते थे. आप सन सैंतालीस की बात कर रहे हैं ... भैया राम खिलावन तो हमसे अक्सर कहते थे “ किसन सरूप हमारा-तुम्हारा पिछले जनम का रिश्ता है. हम तो दो प्रान एक तन.. नहीं नहीं दो तन एक प्रान थे.” पिछले चुनाव में जब उनकी जमानत जब्त हुई रही तो रोते हुए बोले थे किसना मैं हार गया इस सामंती व्यवस्था से. इस भूमंडलीकरण से. जमानत के पैसे तुमसे ही लिये थे बोलो कब दें. हम कहे “ दद्दा ! हमारे और आपके पैसे में कोनी फरक है क्या. आज कही सो कही. अब कभी हम दोनो के बीच पैसे की बात नहीं आनी चाहिये. वो बात के धनी निकले. मरते दम तक ना उन्होने जमानत के पैसे दिये ना दुबारा बात ही छेड़ी.
पिछले साल मेले में नासिक गये रहे. हमें देवलाली छोड़ वे मुम्बई घूमने गये. सुने रहे कि मुम्बई में किसी लाली-डाली के पास पार्टी और अपने हाथ मजबूत करने वास्ते डिस्कस को गयले रहे. लौटे तो खून की कै करते. मैं तो कहता हूं ये लाली-डाली कोई विपक्ष की एजेंट रही होगी. हम चाहते हैं कि रामखिलावन जी की असामयिक मौत की सी.बी.आई. से जांच कराई जाये. सरकार हमारी सुन ही नहीं रही है. बैंक घोटाले, शेयर घोटाले के चलते टाले जा रही है . यदि आप चाहते हो कि बाबू राम खिलावन की मौत की निष्पक्ष जांच हो उर दोसियों को सज़ा मिले तो भाईयो और बहनों अगले चुनाव में हमें दिल्ली भेजिये.हम दिल्ली की ईंट से ईंट बजा देंगे. सरकार सीतापुर की जनता के अबला ना समझे. सीता मैया ज़मीन में समा गयी होंगी. हम तो सरकार हो या विपक्ष ससुर की टांग पर टांग रख कर चीर देंगे. ( अभी टिकट तय नहीं है कि कौन सी पार्टी देगी ) ये जो आतंकवादी ससुरे संसद में घुसे रहे हम वहां रहे होते तो कोनी घुस पाते ? बताईये ? आप ही बताईये ? सभी बोले “ नहीं ...कतई नहीं “ ऐसे नहीं आप सब लोग अपने अपने हाथ उठा कर कहिये राम खिलावन जी की मौत की सच्चाई उजागर करने हमें.... आपके अपने किसन सरूप को मिट्टी पकड़ को जरूर ही जितायेंगे. आप जान लीजिये कि आज देस पर कितना बडा संकट मंडरा रहा है. आप क्या सोचते हो ? ये लोग हमारे हिरन-चीतल मार रहे हैं. हम चुप रहे . पेड़ काटे रहे, हम खामोश रहे. नदियों का पानी बोतलों मे बेचे रहे हम कुछ नहीं बोले पर अब पानी सर के ऊपर हो गया है. आप समझते हो कि अमरीका ईराक के बाद चुप बैठेगा. नहीं. इतिहास गवाह है देस पर सभी हमलावर क्या मुहम्मद गौरी, क्या सिकन्दर, क्या ये आतंकवादी सभी एक ही रास्ते से अंदर आये रहे. हमें ये रास्ता बंद करना है. अगर आप चाहते हो हमार धरती मैय्या पर ये अमरीका वाले नहीं आयें तो हमें वोट दें. आप भूल गये क्या ? अभी 40 बरस पहले अमरीका सातवां बेडा भेजा रहा तो हम ही ना सिस्ट्मंडल ले के दिल्ली गये थे. बाद में ये मंडल बहुत लोकप्रिय हुए रहे और देस के यूथ को नयी दिसा दिये रहे

तो भाईयो ! अगर आप चाहते हो कि आपके भाई-भतीजा, साला-साली, छोरा-छोरी पढे-लिखें, सरकारी नौकरी पायें...बड़ा बड़ा कुर्सी पर बैठें... ऊंच-ऊंचा ओहदा पायें तो हमें आपके अपने मिट्टी पकड़ को अपना कीमती वोट दें. हमें राम खिलावन जी की मौत का बदला लेना है.

जब तक सूरज चांद रहेगा....राम खिलावन तेरा नाम रहेगा......राम खिलावन अमर रहें...देस के नेता किसन सुरुप.... किसन सुरुप तुम संघर्ष करो... हम तुम्हारे साथ हैं...किसन सुरुप ज़िंदाबाद.










Saturday, November 19, 2011

व्यंग्य: खुला पत्र वीरप्पन के नाम



( यह पत्र  तब लिखा था जब वीरू भैया ने सबकी खाट खड़ी कर रखी थी )







आदरणीय वीरु भैया

सादर प्रणाम

जब से आपके चर्चे हर अखबार और हर न्यूज चैनल पर आने लगे हैं, हमें सच मानिये, बहुत ‘खुशी’ हो गयी है, हमारा दिल गार्डन—गार्डन ... नहीं ..जंगल ..जंगल हो गया है और चंदन की तरह महक रहा है. हमारे वीरु भैया ने आखिर ‘सम्भव’को ‘असम्भव’ कर दिखाया है. ‘ कर्नाटक’ वाले नाटक कर रहे हैं आपको पकड़ने का. मगर आप उनके हत्थे नहीं चढ़ रहे हैं बिल्कुल राबिन हूड की तरह. आपकी लीला नगरी कुंज वन है. कन्हैया की लीला नगरी भी कुंज वन ही थी. ना कन्हैया की लीला जनसाधारण की समझ में घुसी ना आपकी घुस पा रही है. बडे‌ लोगों की बातें, बडे लोग ही जानें. आज तक कृष्ण कथा सुना सुना कर लोगों को समझाने का प्रयास जारी है. वैसे ही आने वाली पीढि‌यां आपका गुण बखान करेंगी. बस एक ही अंतर है कन्हैया ने कुंज वनों में बंसी बजाई थी आप बांस ( चंदन ) काट रहे हैं और कर्नाटक की खाट खडी- किये हैं.

इधर तमिलनाडु में भी आपको पकडने के प्रयासों का जोर शोर से प्रचार किया जा रहा है. आप तनिक भी विचलित ना होना. ये आप तक हरगिज़ नहीं पहुंच पायेंगे. आपकी मूंछ का एक बाल भी बांका ना होगा. ऐसी मूंछें मुझे तो याद नहीं पड़ता. भारत क्या विश्व इतिहास में किसी दूसरे महापुरुष की रही हों. आप तो मूंछों के बल पर ही गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में आ जायेंगे. जितना पुलिस, अमला और गोला बारूद इन्होने आपको पकड़ने में वेस्ट किया है उतने से तो कर्नाटक के गांव-गांव, वन-वन में बिजली पहुंचाई जा सकती थी.

मुझे लगता है कि आपने बिल्ली-चूहे की रोटी वाली कहानी जो बचपन में हम सब सुनते हैं और मर्म जाने बिना भूल जाते हैं को अच्छी तरह आत्मसात कर लिया है. तभी तो तमिलनाडु और कर्नाटक की आपस की लडाई में आप खूब रोटियां तोड़ रहे हैं. कई बार मुझे लगता है कि आजकल के भूमंडलीकरण के टाइम पर आपको अपना एक वीरप्पन ब्रांड पेटेंट करा लेना चाहिये जैसे वीरप्पन ब्रांड दूरबीन, वीरप्पन ब्रांड मूंछें, वीरू राइफल, वीरु केसेट, वीरु घड़ी, वीरू टेप रिकार्डर, वीरू विस्की,मुझे पता नहीं आप शौक करते हैं या नहीं मगर इस से क्या ? हमारे स्टार लोग कितने ऐसे तेल, साबुन की माडलिंग करते फिरते हैं.


अब वक़्त आ गया है कि आप खुलकर सामने आ जायें. पहले तो एक खादी का धोती-कुरता बनवा लें. धोती-कुरता ना सही तो कुरता पाजामा तो कम्पल्सरी है. ये नंगे बदन माडलिंग तो चल सकती है, नेतागिरी नहीं चलेगी. वैसे भी अब ये गांधी का भारत तो रहा नहीं. इससे याद आया आप कोई मच्छर भगाने वाली क्रीम का एड भी कर सकते हैं. इन अभागों ने आपका कोई ‘फुल लेंथ’ फोटो नहीं लिया है. जिससे पता चलता कि आप किस कम्पनी के ब्रीफ, पतलून, मोजे, जूते पहनते हैं. आपका मनपसंद मोबाइल कौन सा है. किस ‘मेक’ की बाइक आप इस्तेमाल करते हैं. आप कौन सा मिनरल वाटर पीते हैं. आपकी पसंद कौन फूड है—इटैलियन, थाई, या चाइनीज और कौन सा रेस्टोरेंट आपका ‘फेवरिट’ है. आप झटपट अपना एक पोर्टफोलियो बनवा लें और एक अच्छा सा मैंनेजर-कम-सेक्रेटरी-कम- मार्किटिंग एक्ज्युकिटिव नियुक्त कर लें. जो आपकी नेट वर्थ बतायेगा. और आपको इंटरनेशनल बनवा देगा.


आपने फिर क्या सोचा है. राजनीति में कदम रखेंगे या फिल्मों में ? दोनो जगहों की ज़रूरतें एक सी हैं. दोनों में अंतर बहुत कम है. देखो जी जब तो फिल्मों में आना हो वीरू नाम बहुत माकूल है . एक्टर, डाइरेक्टर, प्रोडुसर, राइटर, विलैन.... आल इन वन ...वीरू पेश करते हैं वीरप्पन इंटरनेशनल का ‘ चंदन का तस्कर’, ‘जंगल में चंदन’ ‘चंदन मेरी बाहों में’ ‘ हाथी का हत्यारा कौन ?’ ‘ दो आंखें बारह दांत’ मुझे यक़ीन है कि ये फिल्में बाक्स ऑफिस पर बाकी सब फिल्मों को पीछे छोड- देंगी.

और जब पॉलिटिक्स में आना हो तो आप आकर तो देखो... छा जाओगे..छा. आप देखोगे यहाँ तो पेड़ काटने की ज़रूरत ही नहीं बल्कि पेड़ लगाने के प्रोजेक्टों में ही आप चांदी काटने लगोगे.

मैं तो कल्पना कर रहा हूँ माननीय वीरप्पन जी वन मंत्री . फिर देखना जो वनों की ओर कोई टेढी- आंख से भी देख सके. जो वनों की देखभाल ठीक से ना करे या उन्हें नुकसान पहुंचाये उसी आदमी के दांत निकलवा लिये जायें. आपको तो तज़ुर्बा भी है. फिर देखना वन-वन आपका ही नाम गूंजेगा. ऐसा वन मंत्री... ना भूतो... ना भविष्यति. आपके आगे कोई जंगल में छिपने की हिमाकत नहीं कर सकता. आप फौरन उसे ऐसे पकड‌ लेंगे जैसे बच्चे आपस में आइस-पाइस के खेल में एक-दूसरे को पकड़ लेते हैं. बढा मज़ा आयेगा. आपका कैबिनेट रेंक तो पक्का है. वन मंत्री ...अतिरिक्त भार पशु कल्याण. थोडे‌ लिखे को बहुत समझना और इस सेवक को डेपुटेशन पर लेना ना भूलना.



आपका शुभचिंतक



पुनश्च: रिवाज़ के मुताबिक मैं इस पत्र की एक प्रति प्रेस को भी लीक कर रहा हूँ. प्लीज माइंड मत करना.









Friday, November 11, 2011

Adieu Blackie





My parents in Delhi found a puppy wagging her tail at our doorstep early in the morning. My mother gave shelter and food to her and Blackie (so named, after her jet black shining beautiful coat) rest as they say is a history. Blackie was to become our family member..(That was about 15 years back). Few years back, she developed severe arthritis, my mother got worried, as worried as a mother could get, we all brothers were frantically looking for cure. I was surfing net and zeroed on to a vet in Delhi itself specializing in her ailment. My mother refused to go out of Delhi as her love for Blackie was turning in obsession, no sooner she would board a train she would start worrying about her. Her visits to us in Mumbai were always cut short, courtesy Blackie. Her condition deteriorated. Vet would discourage and break my mother’s heart “Aunty she is now hundred years old”…. During her serious illness days my mother, herself in her seventies, would lift Blackie in her lap and take her to nearby Park so that she could relieve herself. By and by, Blackie gave up food and would lie still for days together. Vet’s visits were proving futile. She would stare blankly at my mother and visitors. During her last days night long she will cry in pain. Fearing her plight during Delhi’s Diwali, senseless crackers / bomb spree, also responding to neighbors growing complaints and lastly on our persuasion, she reluctantly agreed to take Blackie to her final journey (euthanasia). Later, my mother sobbing inconsolably, gave heart rending account… when Vet made Blackie lie on the table for giving that lethal injection…Blackie turned her neck for the last time, and gave my mother such looks that my mother could not bear to look into her eyes and rushed out of clinic…crying all the way back home…..She did not eat for several days and this year (2011) no Diwali for her.