रंग भेद की नीति पहले अफ्रीका में जोर शोर से थी. आज यह नीति अफ्रीका में मृत प्राय: है. हमारे देश में भी सदियों से रंगभेद जारी है. हम मानते नहीं हैं मगर प्रैक्टिस करते हैं क्यों कि हम विश्व में हिपोक्रेट नम्बर वन हैं. अन्यथा आप ही बताईये जहाँ चूहों का मंदिर हो, सांप की पूजा होती हो, बिल्ली मौसी हो, बंदर मामा हो, गाय माता हो और मोर से छेड़छाड़ राष्ट्रीय अपराध हो वहां भैंस को ना कोई पदवी-उपाधि ना कोई मंदिर चौबारा. क्या सिर्फ इसलिये कि वह काली है. वह कब से आपकी इस रंगभेद नीति का शिकार है मगर फिर भी चुपचाप आपको दूध दिये चली आ रही है. आप उसे इंजेक्शन लगा लगा कर उसके दूध की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेते हैं. उसे गंदगी में रखते हैं. रूखा-सूखा खाने को देते हैं और नहीं तो वह पॉलीथिन बैग ही खाती फिरती है.
किसी समाज की भाषा व साहित्य उस समाज का दर्पण होता है. हिंदी भाषा तथा लोक साहित्य में जो मुहावरे व लोकोक्तियां हैं वह भी भैंस के साथ पक्षपात करती हैं. न्याय नहीं करतीं.
जिसकी लाठी उसकी भैंस : अरे भई अब लठियों का ज़माना नही रहा. किस सदी में जी रहे हैं आप. अब तो टाइम है मानव बम का, ए.के. 47 का. लाठी तो अब केवल कुत्ते-बिल्ली को डराने-धमकाने के काम आती है. यह कहावत भैंस के साथ अन्याय है और उसे ‘पूअर लाइट’ में रखता है. नवीन मुहावरा होना चाहिये ‘जिसकी ए.के.47 उसका इंडिया 1947’ आप अपने दिल पे हाथ रख कर बताइये क्या यह अधिक प्रासंगिक नहीं .
भैंस के आगे बीन बजाना : दूसरा मुहावरा है, यह भैंस का सरासर अपमान है. षड्यंत्र यह है कि कैसे भैंस को अन्य तथाकथित अभिजात्य पशु-पक्षियों से नीचे दिखाया जाये. आप साबित क्या करना चाहते हैं कि भैंस संगीत प्रेमी नही है. ललित कलाओं का उसे कोई ज्ञान नहीं है. वह फूहड़ है. बच्चू याद कीजिये उसी का दूध पी-पी कर आप इतने बढे हुए हैं.
यह रीति पुरानी है जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो. आज भी नव माताएं भैंस का ही सहारा लेती हैं ताकि उनकी ‘फिगर’ बनी रहे. भैंस का क्या ? वह तो ‘डिस फिगर है ही और यदि भैंस के आगे बीन बजा बजा कर आपको वाह-वाही नहीं मिली तो जाईये किसी और के आगे बजाईये और लिख दीजिये उसका नाम आखिर भैंस ने आपसे कहा नही कि “ हे बीनवादक ! अपनी बीन सुनाओ” वैसे भी आज आपकी बीन सुनता ही कौन है. रेडियो, टी.वी वाले भी रात को साढे ग्यारह बजे से पहले का टाइम नहीं देते ताकि तब तक सब सो जायें.
काला अक्षर भैंस बराबर : भई ये तो हद ही हो गयी यानी कि भैंस अनपढ है. पहले तो आप उसे पढ़ने लिखने ना भेजें , उसे बाहर किसी से मेल-जोड बढाने ना दें जो कि उसका ज्ञान-ध्यान बढे. फिर आप उसे जाहिल गंवार कहें. वैसे भी आप बताईये और किस जानवर ने कितने डिग्री डिप्लोमा पास कर लिये जो बेचारी भैंस के पीछे पड़े हैं. आप भूल रहे हैं कि भैंस तो भैंस भारत में मनुष्यों का कितना प्रतिशत साक्षर है. फिर भैंस के साथ ही यह बे-इंसाफी क्यों ? है कोई जवाब आपके पास. एक तो आपको दूध दे, ऊपर से आपके टौंट भी सुने. भैंस दूध देना बंद कर दे तो बच्चू सब सिट्टीपिट्टी गुम हो जायेगी. बताईये फिर आप किस बी.ए. पास जानवर का दूध पीना चाहेंगे ? शेरनी का ? जो आपको बाल्टी समेत खा जायेगी.
हो ना हो ये कोई ‘हाई लेवल’ का ‘प्लाट’ है अन्यथा आप ही सोचिये कि भैंसा जो कि यमराज की सवारी है वह चाहता तो किस की मजाल है जो भैंस को टेढी आंख से भी देखे. किसी दिन जब यमराज मूड में होते धीरे से कह देता कि “सर वाइफ को थोडा प्राब्लम है” मगर नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ. पता नहीं यह क्या चक्कर है. जिसका हसबैंड इतनी ‘एप्रोच’ वाला हो उसकी मिसेज को ये दिन देखने पडें. कभी मुझे लगता है यह कहीं डाइवोर्स या सैपरेशन का मामला ना हो. भैंस भी स्वाभिमानी है उसने ‘मेंटीनेंस’ लेने से इंकार कर दिया हो “ जा हरज़ाई मैंने तुझे हमेशा हमेशा के लिये भुला दिया”
भैंस को इतना ‘नेगलेक्ट’ कर रखा है कि कोई चुनाव चिन्ह के तौर पर भी भैंस चुनाव चिन्ह नहीं रखता. क्यों ? गाय, बैल, बछडा, हाथी, घोडा यहां तक कि गधा भी चुनाव चिन्ह है. तो महाराज आप ‘कनविंस’ हुए कि नहीं कि भैंस के साथ सदियों से दुर्व्यवहार हो रहा है. समाज में उसे उचित स्थान दिलाने के लिये उठ खड़े होइये.
"हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में
इन्साफ हमारा नारा है"
अब वक़्त आ गया है कि भैंस को उसका ड्यू दिलाया जाये. सर्वप्रथम तो उसे भाभी, चाची, ताई, दीदी या जो भी अन्य आदर सूचक रिश्ता उससे नवाजा जाये. मेरी गुहार है ‘एनीमल सोसायटी’ वालों से कि इस ज्वलंत विषय पर तुरंत ध्यान दिया जाये. यह काम इलैक्शन से पहले ही निपटा लिया जाये नहीं तो इलैक्शन कोड के चलते आप बंध जायेंगे. मैं नहीं चाहता कि इस सेंसिटिव विषय को और विवादास्पद बनाया जाये. पहले ही क्या विवादों की कमी है. क्यों कि बात नहीं बनी तो फिर आप लोग ही कहेंगे कि गई भैंस पानी में.
किसी समाज की भाषा व साहित्य उस समाज का दर्पण होता है. हिंदी भाषा तथा लोक साहित्य में जो मुहावरे व लोकोक्तियां हैं वह भी भैंस के साथ पक्षपात करती हैं. न्याय नहीं करतीं.
जिसकी लाठी उसकी भैंस : अरे भई अब लठियों का ज़माना नही रहा. किस सदी में जी रहे हैं आप. अब तो टाइम है मानव बम का, ए.के. 47 का. लाठी तो अब केवल कुत्ते-बिल्ली को डराने-धमकाने के काम आती है. यह कहावत भैंस के साथ अन्याय है और उसे ‘पूअर लाइट’ में रखता है. नवीन मुहावरा होना चाहिये ‘जिसकी ए.के.47 उसका इंडिया 1947’ आप अपने दिल पे हाथ रख कर बताइये क्या यह अधिक प्रासंगिक नहीं .
भैंस के आगे बीन बजाना : दूसरा मुहावरा है, यह भैंस का सरासर अपमान है. षड्यंत्र यह है कि कैसे भैंस को अन्य तथाकथित अभिजात्य पशु-पक्षियों से नीचे दिखाया जाये. आप साबित क्या करना चाहते हैं कि भैंस संगीत प्रेमी नही है. ललित कलाओं का उसे कोई ज्ञान नहीं है. वह फूहड़ है. बच्चू याद कीजिये उसी का दूध पी-पी कर आप इतने बढे हुए हैं.
यह रीति पुरानी है जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो. आज भी नव माताएं भैंस का ही सहारा लेती हैं ताकि उनकी ‘फिगर’ बनी रहे. भैंस का क्या ? वह तो ‘डिस फिगर है ही और यदि भैंस के आगे बीन बजा बजा कर आपको वाह-वाही नहीं मिली तो जाईये किसी और के आगे बजाईये और लिख दीजिये उसका नाम आखिर भैंस ने आपसे कहा नही कि “ हे बीनवादक ! अपनी बीन सुनाओ” वैसे भी आज आपकी बीन सुनता ही कौन है. रेडियो, टी.वी वाले भी रात को साढे ग्यारह बजे से पहले का टाइम नहीं देते ताकि तब तक सब सो जायें.
काला अक्षर भैंस बराबर : भई ये तो हद ही हो गयी यानी कि भैंस अनपढ है. पहले तो आप उसे पढ़ने लिखने ना भेजें , उसे बाहर किसी से मेल-जोड बढाने ना दें जो कि उसका ज्ञान-ध्यान बढे. फिर आप उसे जाहिल गंवार कहें. वैसे भी आप बताईये और किस जानवर ने कितने डिग्री डिप्लोमा पास कर लिये जो बेचारी भैंस के पीछे पड़े हैं. आप भूल रहे हैं कि भैंस तो भैंस भारत में मनुष्यों का कितना प्रतिशत साक्षर है. फिर भैंस के साथ ही यह बे-इंसाफी क्यों ? है कोई जवाब आपके पास. एक तो आपको दूध दे, ऊपर से आपके टौंट भी सुने. भैंस दूध देना बंद कर दे तो बच्चू सब सिट्टीपिट्टी गुम हो जायेगी. बताईये फिर आप किस बी.ए. पास जानवर का दूध पीना चाहेंगे ? शेरनी का ? जो आपको बाल्टी समेत खा जायेगी.
हो ना हो ये कोई ‘हाई लेवल’ का ‘प्लाट’ है अन्यथा आप ही सोचिये कि भैंसा जो कि यमराज की सवारी है वह चाहता तो किस की मजाल है जो भैंस को टेढी आंख से भी देखे. किसी दिन जब यमराज मूड में होते धीरे से कह देता कि “सर वाइफ को थोडा प्राब्लम है” मगर नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ. पता नहीं यह क्या चक्कर है. जिसका हसबैंड इतनी ‘एप्रोच’ वाला हो उसकी मिसेज को ये दिन देखने पडें. कभी मुझे लगता है यह कहीं डाइवोर्स या सैपरेशन का मामला ना हो. भैंस भी स्वाभिमानी है उसने ‘मेंटीनेंस’ लेने से इंकार कर दिया हो “ जा हरज़ाई मैंने तुझे हमेशा हमेशा के लिये भुला दिया”
भैंस को इतना ‘नेगलेक्ट’ कर रखा है कि कोई चुनाव चिन्ह के तौर पर भी भैंस चुनाव चिन्ह नहीं रखता. क्यों ? गाय, बैल, बछडा, हाथी, घोडा यहां तक कि गधा भी चुनाव चिन्ह है. तो महाराज आप ‘कनविंस’ हुए कि नहीं कि भैंस के साथ सदियों से दुर्व्यवहार हो रहा है. समाज में उसे उचित स्थान दिलाने के लिये उठ खड़े होइये.
"हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में
इन्साफ हमारा नारा है"
अब वक़्त आ गया है कि भैंस को उसका ड्यू दिलाया जाये. सर्वप्रथम तो उसे भाभी, चाची, ताई, दीदी या जो भी अन्य आदर सूचक रिश्ता उससे नवाजा जाये. मेरी गुहार है ‘एनीमल सोसायटी’ वालों से कि इस ज्वलंत विषय पर तुरंत ध्यान दिया जाये. यह काम इलैक्शन से पहले ही निपटा लिया जाये नहीं तो इलैक्शन कोड के चलते आप बंध जायेंगे. मैं नहीं चाहता कि इस सेंसिटिव विषय को और विवादास्पद बनाया जाये. पहले ही क्या विवादों की कमी है. क्यों कि बात नहीं बनी तो फिर आप लोग ही कहेंगे कि गई भैंस पानी में.
nice
ReplyDeleteआपको पसंद आया. आभारी हूं.
ReplyDeletenice
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