Ravi ki duniya

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Sunday, January 22, 2012

व्यंग्य: त्योहार प्रधान हिंदुस्तान

 आपने बहुत बार सुना होगा कि भारत एक कृषि प्रधान ( पढ़ें कुर्सी प्रधान) देश है या गांव प्रधान (पढ़ें फार्म हाऊस प्रधान) देश है. भारत में तीन प्रमुख फसलें होती है. रबी और खरीफ. तीसरी सबसे महत्वपूर्ण फसल है रिलीफ. बाढ़ हो, सूखा हो या फिर भूकम्प हो, सभी में रिलीफ की फसल लहलहाती है. अब भारत इतना विशाल और विविधताओं वाला देश है कि रबी, खरीफ वाले भले बेरोज़गार बैठे रहें या आत्महत्याओं में व्यस्त रहें, ‘रिलीफ’ वाले बरस भर फसल काटते है.


आप गौर करें तो पायेंगे कि भारत वास्तव में एक त्योहार प्रधान देश है. भारत 33 करोड़ देवी देवताओं की पावन भूमि है. अब 33 करोड़ देवी देवताओं की पूजा अर्चना को जनसंख्या भी बहुत चाहिये. हम बहुत धार्मिक किस्म के लोग हैं. जैसे ही हमें पता चला कि इतने सारे देवी देवता हैं और पूजने वाले कम पड़ रहे हैं बस फिर क्या था हम पिल पड़े और एकदम गदर मचा दिया. यहां तक कि चैम्पियन टीम चीन को भी अपनी इज़्ज़त बचाने के ‘वांदे’ हो गये. लोग कह रहे है कि एथेंस ओलम्पिक में चीन ने बहुत सारे पदक जीते जबकि भारत बड़ी मुश्किल से अपना खाता खोल पाया. भई इस वक़्त हमारी प्राथमिकता चीन को जनसंख्या के अखाड़े में पटखनी देना है. एकदम चारों खाने चित्त करना है. उसके बाद ओलम्पिक खेलों पर ध्यान देंगे. फर्स्ट थिंग फर्स्ट. खेल जरूरी है या कि इज़्ज़त बचाना ? और इज़्ज़त बचाना कोई खेल नहीं है. ये इश्क़ नहीं आसां.


भारत की पावन उर्वरा भूमि पर त्योहारों की खूब भरमार है. हर दिन कोई न कोई त्योहार है. जैसे पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये और बहानों की कोई कमी नहीं. आज मूड बहुत खराब है. आज मैं बहुत खुश हूं. आज बॉस से खट्पट हो गयी है. आज तो बहुत थक गये. आज जरा ज़ुकाम सा लग रहा है. आज गला खराब है. आज बदन टूट सा रहा है आदि आदि. उसी तरह श्राद्धालुओं को त्योहारों की कोई कमी नहीं.


अब आप होली को ही ले लें. यह बड़ा अच्छा त्योहार है. भांग खाइये, ठंडाई पीजिये. गरज़ कि दिन में ही पीने-पिलाने के त्योहार का नाम होली है. आप ग्रीज-पेंट लगायें. मिलावटी गुलाल लगायें और अपनी सोसायटी की सारी भाभीजीस को बे-रोक-टोक जेम्स बॉन्ड बन कर गुब्बारे और पिचकारी मारें. इसे कहते हैं ‘लाइसेंस टू किल’ होली के बाद डॉक्टरों खासकर स्किन और नेत्र विशेषज्ञों की मौज रहती है. होली के बाद इनकी होली मनती है. लोग होली पर गले मिलते हैं. जिससे जितना बड़ा काम अटका है उस से उतना प्रगाढ‌ और देर तक गले मिलना होता है. सब चिल्लाते हैं. बच्चे खुश होते हैं अपनी शरारतों से. बड़े खुश होते हैं और बच्चों की तरह किलकारियां मार कर भीगते-भिगोते हैं. दोपहर से ही रेडियो-टी.वी वाले हर साल की तरह खबर देते हैं. ‘देश भर में होली का त्योहार पूरे उल्लास और शांतिपूर्वक तरीके से मनाया गया. फलां फलां ने देशवासियों को इस अवसर पर अपनी शुभकामनायें दीं’ ये शुभकामनायें सूखी-सूखी होती हैं. सिक्योरिटी कारणों से वे या तो होली खेलते नहीं या फिर केवल अपने सिक्योरिटी गार्ड्स के साथ ही खेलते हैं. शाम को बॉस लोगों के घर जाने का रिवाज होता है ताकि दिन की भीड़ में अगर ‘नोटिस’ नही भी हुआ तो बॉस की चौपड़ी में हाज़िरी अर्थात ‘पी’ तो लग जाये. ‘पी’ फॉर पॉलिश.


दीवाली के बारे में लिखना बिजली की रंग-बिरंगी लड़ी को दिया दिखाने के समान है. यह हमारा अखिल भारतीय पॉलुशन डे है. आप बावेला ना मचायें इसलिये मशहूर ये कर दिया गया है कि इस से मक्खी- मच्छर मर जाते हैं. घर-बाहर की सफाई हो जाती है. दीवाली लाइट्स और बमों का त्योहार है. बम जो शिवकाशी में बंधुआ बाल मज़दूर बनाते हैं और हर बरस आग लगने से बड़ी संख्या में ज़िंदा जल जाते हैं. आतंकवादियों की स्पॉन्सरशिप में आजकल बरस भर बड़े बड़े बमों की मारामारी रहती है. उसके आगे दीवाली के बम ऐसे ही ‘फुस्स’ मालूम देते है जैसे कि चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार.


दीवाली दरअसल हमारे देश की जी.बी.एम है. जनरल बॉडी मीटिंग ? नहीं नहीं ! गैम्बलिंग, ब्राइब और मदिरा. यह रिश्वत लेने देने का ऑफिशियल त्योहार है. लोग जुआ और शराब पूरी श्रद्धा के साथ ‘बापरते’ हैं. मना करो तो मानते तो वैसे भी नहीं. उल्टा लड़ने को आते हैं. “ क्या मतलब है ? और दिन चंगा त्योहार के दिन नंगा” जिन लोगों ने बरस भर एक केला भी नहीं खाया-खिलाया होता वो भी ड्राई फ्रूट्स के डिब्बे उठाये उठाये फिरते हैं. वो अलग बात है कि डिब्बे दिखने में ही बड़े होते है और उनमें चतुराई से सज़ाये छंटाक छंटाक भर ड्राई फ्रूट से ज्यादा नहीं होते. बाज़ार सज़ जाते है. दीवाली ‘सेल’ के बोर्ड लग जाते हैं. लोग टूट कर पड़ते हैं और ऐसे खुश होते हैं जैसे उल्टे ये ही दुकानदार को ठग आये हों. फायर ब्रिगेड वालों की इन दिनों वैसे ही मांग होती है जैसे फायर फिल्म के बाद बोल्ड बट पूअर हीरोईनों की हो चली है. पूअर इसलिये कि फिल्म का बजट चाहे कितने ही करोड़ का क्यों न हो, उसको तन ढांपने को कपड़े नही देने हैं बैरी प्रोडयूसर ने. बेचारी को या तो चीथड़े पहनने पड़ते हैं या फिर हीरो की टाई में से ही अपने लिये कपड़े निकालने पड़ते हैं.


ईद मुख्यत: दो तरह की होती है. एक में सेमरी (सेवेय्यां) खाने को मिलती है दूसरे में बकरी या बकरा. हर साल ईद के मौके पर दो फोटो अखबार में जरूर छपते हैं. एक में दो बच्चे गले मिलते हुए दिखाये जाते हैं. दूसरे में हिन्दू-मुस्लिम गले मिलते दिखाये जाते हैं. ‘जाने कहाँ गये वो लोग ?’ (फोटो खिंचा कर) नेताओं के बयान बदस्तूर वैसे ही आते है. तमाम हिंदुस्तानियों को मुबारकबाद और रेडियो टी.वी. की घिसी-पिटी खबर कि ये त्योहार बड़ी धूमधाम से पूरे देश में मनाया गया. ईद पर नये कपड़े पहनने का रिवाज़ है. टी. वी. पर बहू-बेगम, ताज महल या ऐसी ही कोई फिल्म दिखाई जाती है. कोई विदेशी अगर भारतीय फिल्में देखे तो सोचेगा कि भारत एक हैपी- गो- लकी देश है. जहां हर वक़्त प्यार-इश्क़-मुहब्बत की बहार रहती है. घर घर में प्रेम का रिवाज़ सा है. प्यार-मुहब्बत के तराने हमेशा लोगों के होठों पर रहते हैं और वो जब तब यानि कि बात बात में गाने लगते है. दरअसल उन्हें नहीं मालूम यहां ‘भगवान’ भी गरीबी और गुमनामी में मरता है.


क्रिसमस का जैसा जोर-शोर हमारे यहां होता है सम्भवत: इंग्लेंड और यूरोप में भी न होता होगा. दरअसल हम हर वो त्योहार मनाना चाहते हैं जिसमें पीन-खाना हो. थोड़ी मस्ती हो. क्रिसमस और नये साल से जो बधाई पत्रों का सिलसिला चला है वो अब जीवन के हर इलाके में पहुंच गया है. हर बात या कहना चाहिए बात बात के लिये ग्रीटिंग कार्ड ‘बाज़ारवाद’ ने आप तक पहुंचा दिये हैं. बाज़ारवाद ने हमारे घर-त्योहार, सम्बंधों सभी में घुसपैठ कर ली है. हम न्यू ईयर ऐसे मनाते हैं कि अमेरिका वाले भी शरमा जायें. वास्तव में क्रिसमस से पीने-पिलाने, मौज़-बहार का जो सिलसिला शुरु होता है तो वह नव वर्ष तक चलता है. हमारे यहां साल के पूर्वार्ध में आपने जो कमाया-बचाया होता है, त्योहारों, उकसावों और बाज़ार के चलते साल के सेकंड हाफ में उसे फूंकना होता है. उसके बाद फिर वही प्रॉविडेंट फंड में से उधारी, क्रेडिट कार्ड और लोन मेला. कबीर जानते थे ये होगा:-


‘कबीरा खड़ा बाज़ार में लिये मुराडा हाथ
जो घर जारै आपना, चले हमारे साथ'


हम लोग सदियों से ये त्योहार मना रहे है. हर बरस हज़ारों लाखों रावण जलाये जाते हैं. मगर रावण हैं कि जितने जलते नहीं उस से अधिक पैदा हो रहे है और उनकी तादाद बढ़ती ही जा रही है. दीवाली हो ईद, क्रिसमस या होली हो, सबका पैगाम अगर प्यार-मुहब्बत है तो एक बात बताइये इतनी नफरत क्यों है चारों ओर ?.






9 comments:

  1. वाह ! कमाल का व्यंग लिखा है , कुछ भी नहीं छोड़ा है . बहुत ही अच्छा लिखते हैं आप . बहुत अच्छी लगी ..मानो ह्रदय की बात कह दी हो ..बधाई..

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  2. शानदार व्यंग्य, खुदा जाने ये तीसरी फसल का अकाल कब पडेगा इस देश में !!
    वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाये !

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  3. आपको पसंद आया, आभारी हूँ

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  4. बहुत अच्छी व्यंग्य रचना। सोचने पर विवश करती हुई।

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  5. आपका बहुत बहुत धन्यवाद

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  6. सही कहते है त्यौहारों ने रौनक खो दी। पहले पड़ोसी का ख्याल रखा जाता था। अब अपने घर को ही देखा जाता है दूसरे के घर को लूट कर। लेकिन सत्य ये भी है कि लुटा पड़ोसी फिर भी कही सन्तुष्ट है कि मैं सत्य के रास्ते पर चला और रुखा सूखा खा कर खुश हूँ। लूट खसोट मचाने वाला तब भी असन्तुष्ट ।

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  7. आपके समय का बहुत बहुत धन्यवाद.मुझे खुशी है रचना आपको पसंद आई.

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