Ravi ki duniya

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Saturday, November 11, 2023

व्यंग्य: सत्य से असत्य की ओर

 


         हे भगवान मुझे सत्य से असत्य की ओर ले चलो। जितनी जल्दी हो ले चलो। लोग मुझ से आगे, बहुत आगे निकाल गए हैं। मैं इस सत्य के कारण बहुत पिछड़ गया हूँ। कभी-कभी ऐसा लगता है भगवान मुझे मार्गदर्शक मंडल में डाल कर भूल गए हैं। तभी से मैं तरक्की का 'मार्ग' ढूंढ रहा हूँ। ये सत्य मुझे स्कूल से ही विचलित किये हुए है। मास्साब ने मुझे बहुत पीटा है। जो हुआ सच-सच बता देता और खूब मार खाता, शरारत किस किस ने की  बताता तो डबल पिटाई होती। मास्साब तो संटी मारते ही, वे सहपाठी भी कभी आधी छुट्टी में कभी पूरी छुट्टी के बाद खूब पीटते। सत्य के चलते डबल पिटाई होती।  इसी को संतन ने कहा था:

अब 'रहीम' मुसकिल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम

सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलै न राम


          पर ये रहीम का टाइम नहीं है। अब साँचे से न तो जग मिलता है ना ही राम। आगे आप खुद देख लीजिये समझदार हैं। यही सब न चल रहा है। असत्य से जग, पूरा का पूरा जग आपका है। राम भी अपने समय से सोने के हिरण के पीछे ही हैं। यदि आप हैं तो बुरा क्या? दरअसल असत्य के मार्ग पर चलते हुए सोने के कितने ही छोटे-बड़े हिरण अपने फार्म हाउस के गार्डन में और ड्राइंग रूम में रख सकते हो। 


                नौकरी में भी बॉस को सच-सच बता देना महंगा, बहुत ही महंगा पड़ा है। जहां अन्य स्टाफ कहते "वाह वाह बॉस ! क्या स्कीम है। भूतो न भविष्यति। गजब का दिमाग है सर। ब्रिलियंट आइडिया" कहते।  मेरे बारी आती मुझसे पूछा जाता, मैं सत्य कह देता  “स्कीम भी बेकार है और आप बेवकूफ हैं।“ बस रिपोर्ट खराब।


तुम प्रमोशन की पूछे हो ग़ालिब ?

बंदे को सालों से इंक्रीमेंट नहीं मिले


           ऐसे ही सच बोल-बोल कर मैंने न केवल बॉस लोगों को बल्कि अपने लगभग लगभग सभी सहकर्मियों को भी अपने खिलाफ कर लिया। कोई मेरे साथ कभी कहीं ख़ड़ा नहीं होता। लोग बाग मुझे शक की नज़र से देखते। मुझे बिलकुल भी भरोसे लायक नहीं समझते। कोई मुझे ऑफिस गॉसिप का कुछ नहीं बताता। इस आदमी का क्या भरोसा कहाँ क्या बक दे।


ऐसे ही जीवन के अन्य क्षेत्रों में लोग मुझसे विमुख होते  गए। धीरे धीरे सब नाते रिश्तेदारों ने मुझसे मेल जोल कम कर दिया। इस आदमी का क्या ठिकाना इसे कुछ बताओ कल उसी को बता देता है।  हम में झगड़ा लगवाना ही इसका मेन काम है।


                 रहीम जी ने पहले यह भी कहा था “रहिमन पानी राखिए...पानी बिन न ऊबरे...” तब पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था अत: लोग 'राख' सकते थे। अब नहीं। अब हम टैंकर, जार और मिनरल वाटर से काम चला रहे हैं वह भी नक़ली है। अब मुझे 'उबरने' की कोई आरज़ू नहीं है। अब तो सर जी ! आकंठ डूब जाना चाहता हूँ असत्य के लहलहाते सागर में मुझे तो चुल्लू भर ही दरकार है।


           रहीम जी ने सच ही कहा “...साँचे से जग नहीं...”  इसलिए हे भगवान मुझे तो आप सत्य से असत्य की ओर वंदे-भारत से भी तेज गति से ले चलो।


         मैं बहुत पीछे रह गया हूँ इस ज़िंदगी की रेस में।

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