पहले गोली केवल डॉक्टर लोग देते थे। लाल, हरी, नीली, पीली गोलियां। सर दर्द, पेट दर्द की गोली, ताकत की गोली। दूसरे टॉफी-चॉकलेट कहने से पहले हम बच्चे उनको गोली ही बोलते थे और गोली ही खाते थे। संतरे की गोली, खट्टी मीठी गोलियां। एक और गोली होती थी जो युद्ध में चलती थीं और ग़रीब सैनिक लोग अपनी देशभक्ति का सबूत देते हुए अपने-अपने देश के लिए सीने पर खाते थे।
सबसे आखिरी थी वो गोली जो फिल्मों
में दिखाई देती थी। उसे बॉस मारता था और अक्सर निशाने पर राइवल गेंग के आदमी होते
थे दुश्मन होते
थे। कितनी ही बार अपने ही गेंग के मेम्बर को गोली मारता था जो अपने बॉस से बेवफाई
करता था। मज़े की बात है यह है कि जिस मेम्बर को गोली मारनी होती थी उसे लास्ट तक, यानि गोली चलने तक, शक भी नहीं होता था
कि गोली अब आई कि तब आई।
फिर परिदृश्य बदला और पटल पर आए नेता
लोग, तरह तरह के नेता,
किसिम किसिम के नेता, छोटे नेता, बड़े
नेता, गाँव के नेता, कस्बे के नेता, गोया कि ग्राम पंचायत से लेकर दुनियाँ के कोने कोने में एड्स की तरह फैल
गए ये नेता। बिलकुल माफिया के माफिक। माफिया जैसे हर क्षेत्र में हैं वाटर टेंकर
माफिया, किडनी माफिया, ब्लड बेंक
माफिया, पार्किंग माफिया, टेंडर माफिया, एक्जाम माफिया, नकल माफिया,
पेपर आउट कराने वाला माफिया, विदेश भिजवाने वाला माफिया आदि
आदि। मुंबई में मैंने भिखारी माफिया और पब्लिक टॉइलेट माफिया भी देखे है। इसी तरह
कोई अपने आप को गाँव का नेता बताता है, कोई ब्लॉक का तो कोई
अपने आप को दुनियाँ का नेता बताता है या बनना चाहता है। नेताओं की एक हॉबी होती है
गोली देने की। वो हर समय हर मीटिंग में हर चुनाव में आवाम को गोली देते हैं। बस
गोली के रंग और तासीर बदलती रहती है। बदलती क्या रहती है वो यकीन दिलाते हैं ये
गोली आपकी ग़रीबी हटा देगी, दूसरा आता है बताता है कि उसकी
गोली इंडिया को चमका देगी और मूरख ! जब इंडिया चमकेगा, शाइनिंग
करेगा तो तुम तुम्हारा गाँव, तुम्हारा शहर, तुम्हारी बिरादरी अपने आप ही शाइनिंग करने लगेगी। कोई कहता जो हुआ सो हुआ
बस अब तुम्हें ऐसे अंधेरे में पेड़ पर नहीं रहने देंगे न ये पेड़ की छाल पहनने देंगे
आओ बेधड़क पेड़ से नीचे उतरो, मेरा रथ तुम्हें मतदान बूथ तक ले
जाएगा जब तक लौटोगे तुम्हारे दिन फिर चुके होंगे।
इस तरह चुनाव दर चुनाव गोली बदलती
रहती है। आवाम है कि हर बार नई गोली का यकीन कर लेता है। पिछले 75 साल से तो कर ही
रहा है
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